1. शव दाह विधि
भोगभूमि में उत्पन्न होने वाले जीवों के शरीर, आयु पूर्ण होने पर कपूर की तरह समाप्त हो जाते हैं। कर्मभूमि के मनुष्य और तिर्यंचो के शरीर औदारिक होते हैं। इन जीवों के प्राणान्त हो जाने पर देहान्त का प्रसंग उपस्थित होता है। उनके मृत शरीर के संस्कार को हम तीन भागों में बाँट सकते है—
१. मोक्षगामी, तीर्थंकर, गणधर और समान्य केवली के शरीर का अन्तिम संस्कार।
२. मुनि, आर्यिका, ऐलक, क्षुल्लक के शरीर का अन्तिम संस्कार।
३. सामान्य मनुष्यों/ श्रावकों के मृत शरीर का अन्तिम संस्कार।
१. तीर्थंकर आदि मोक्षगामी जीवों के शरीर, आयु पूर्ण हो जाने पर क्षण भर में बिजली की तरह आकाश को दैदीप्यमान करते हुए विलीन हो जाते हैं क्योंकि यह स्वभाव है कि तीर्थंकर आदि मोक्षगामी जीवों के शरीर के परमाणु अन्तिम समय बिजली के समान क्षण भर में स्कध पर्याय छोड़ देते हैं। इसके बाद अग्निकुमार देवों के इन्द्र तीर्थंकर आदि के पवित्र शरीर की रचना कर उसे पालकी में बैठा कर अपने मुकुटों से उत्पन्न की गई अग्नि को अगुरु—कपूर आदि सुगंधित द्रव्यों से जलाकर उसमें उस वर्तमान शरीर को जलाकर समाप्त कर देते हैं। गणधर देवों के निर्वाण के समय इनके शरीर के अन्तिम संस्कार के लिए इन्द्र द्वारा त्रिकोण कुण्ड में आहनीय की स्थापना की जाती है। तीर्थंकरों के अंतिम संस्कार के लिए चौकोर कुण्ड में गार्हपत्य अग्नि की स्थापना की जाती है। सामान्य केवलियों के निर्वाण के समय गोल कुण्ड में दक्षिणाग्नि की स्थापना की जाती है। ये महा—अग्नियाँ कही गई है, ये पवित्र होती हैं। इस प्रकार मोक्षगामी तीर्थंकर आदि के शरीरावेशेषां का अंतिम संस्कार तीन प्रकार के कुण्डों में तीन प्रकार की पवित्र अग्नियों की स्थापना कर किया जाता है। (कहीं कहीं नख और केश शेष बचने का भी उल्लेख मिलता है।)
२. मुनि आर्यिका आदि सकल व्रती एवं ऐलक, क्षुल्लक आदि देशव्रतियों के शरीर के अंतिम संस्कार को तीन भागों में बाँटा जा सकता है। यथा—
१. प्रायोपगमन मरण करने वाले—
प्रयोगपगमन मरण करने वाले साधु अपने शरीर की सेवा, वैय्यावृत्ति न स्वयं करते है और न दूसरों से कराते हैं। वे अपना अन्त समय जानकर जंगल, पर्वत, नदी के तट या वृक्ष की कोटर आदि में चले जाते हैं एवं स्थिर चित्त होकर भावों की विशुद्धि पूर्वक अपने प्राण त्याग देते हैं। अन्य किसी साधु या श्रावक को उनकी समाधि की जानकारी नहीं हो पाती । अत: शव वहाँ ही पवन आदि से सूख जाता है या पशु पक्षी भक्षण कर जाते हैं।
२. इंगनिमरण करने वाले—
इंगनिमरण करने वाले साधु किसी से सेवा वैय्यावृत्ति नहीं कराते अपितु स्वयं ही शरीर की वैय्यावृत्ति आदि करते हैं। ऐसे क्षपक का जब प्राणान्त हो जाता है। जब अन्य साधु जन उनके शव को ले जाकर किसी पर्वत के समीप अथवा नदी के तट पर प्रासुक स्थान में छोड़ देते हैं।
शव क्षेपण से शुभाशुभ—
क्षपक के मृत शरीर की स्थापना करने के बाद तीसरे दिन वहाँ जाकर देखना चाहिए कि संघ का विहार सुख से होगा कि नहीं और क्षपक को किस गति की प्राप्ति हुई। जितने दिनों तक पशु—पक्षी शरीर का स्पर्श नहीं करते उतने वर्षों तक राज्य में क्षेम रहता है। जिस दिशा में पशु—पक्षी शरीर को ले जावें उस दिशा में विहार करने से संघ में क्षेमकुशल रहती है। शरीर का मस्तक या दन्त पंक्ति शिखर पर दिखे तो सर्वार्थसिद्धि यदि उच्च स्थल पर दिखे तो वैमानिक देव, सम भूमि में दिखे तो ज्योतिष्क या व्यन्तर देव, गड्डे में दिखे तो क्षपक को भवनवासी देवों में उत्पन्न हुआ जानना चाहिए।
३. भक्तप्रत्याख्यान मरण करने वाले—
भक्तप्रत्याख्यान मरण करने वाले मुनिराज की समाधि सर्वविदित होती है, ऐसे मुनि, आर्यिका, ऐलक, क्षुल्लक, उत्तम श्रावक, मठपति (भट्टारक) के शव को गृहस्थों द्वारा बनाई गई शिविका या पालकी में स्थापित कर ग्राम के बाहर ले जाते हैं। यदि शव व्यन्तर देव के निमित्त से उठ खड़ा हो और उसका मुखग्राम की तरफ हो तो वह ग्राम में प्रवेश करेगा इससे ग्राम के भीरु लोग भयभीत होंगे। अति भीरुप्राण त्याग देंगे। इसलिए शव का मस्तक ग्राम की तरफ करने से अनेकों उपद्रवों का निराकरण होता है।(संयम प्रकाश, पूर्वाद्र्ध, भाग २, पृ.९७२)
समाधि के बाद संघ का कर्तव्य
अपने गण के मुनि के समाधिस्थ होने पर उस दिन सर्व संघ को उपवास करना चाहिए एवं स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। दूसरे गण वे मुनि के समाधिस्थ होने पर स्वाघ्याय नहीं करना चाहिए, उपवास भजनीय है। शव छेदन विधि — यदि रात्रि में मरण हो तो बाल ,वृद्ध, शिक्षक, बहु तपस्वी, कायर स्वभावी, रोगी, वेदना आदि से दुखी मुनि अथवा आचार्य को छोड़कर धीर, वीर एवं निद्रा विजयी साधु क्षपक के हाथ या पैर के अंगुष्ठ का छेदन करें या बाँध देवें। यदि छेदन क्रिया न की जावेगी तो धर्मद्रोही अथवा कौतुक स्वभावी व्यन्तरादि देव मृतक के शरीर में प्रवेश करके उठेगा, भागेगा तथा और भी अन्य प्रकार की क्रीड़ाये करेगा, संघ में बाधा उत्पन्न करेगा अत: जागरण, बन्धन और छेदन की क्रियायें अवश्य करनी चाहिए। शव यात्रा : भक्तप्रत्याख्यान मरण करने वाले साधु के शव को गृहस्थ श्रावक द्वारा शिविका में स्थापित कर दृढ़ बंधनों से बाँधा जाता है ताकि वह उछल न सके। शव का मस्तक ग्राम की ओर हो अथवा पीठ ग्राम की ओर हो, शव को निश्चित मार्ग से शीघ्रतापूर्वक ले जाना चाहिए। मार्ग में न खड़ा होना चाहिए और न पीछे मुड़कर देखना चाहिए। शव के आगे एक गृहस्थ मुट्ठी में कुश दर्भ लेकर चले। एक गृहस्थ कमण्डलु को जल से पूर्ण करके तथा उसकी नलिका आगे करके जल की पतली—पतली धार छोड़ते हुए आगे—आगे चले पीछे मुड़ करके न देखें। पूर्व में देखे हुए स्थान पर डाभ की मुट्ठी खोलकर मुनि की देह को स्थापन करने की भूमि को सम करेें। यदि डाभ/तृण न मिले तो र्इंट के चूर्ण अथवा वृक्षों की शुष्क केशर से संस्तर को सर्वत्र सम करे।
शवदाह का स्थान
शव को क्षेपण करने का स्थान नगरादि से न अति दूर, न अति समीप हो, एकान्त हो, प्रकाश युक्त हो, मर्दन किया हुआ हो अत्यन्त कठोर तथा अत्यन्त अपवित्र न हो बिलादि से रहित हो, बहुत उचा, नीचा न हो, अति सचिक्कण न हो, रज रहित और बाधा रहित हो। क्षपक की वसतिका से शव क्षेपण करने का स्थान नैऋत्य, दक्षिण और पश्चिम दिशा में होना चाहिए। अन्य दिशा में शव क्षेपण करने से संघ में कई दोष उत्पन्न होते हैं जैसे आग्नेय दिशा में शव क्षेपण करने से ईष्र्या, वायव्य में कलह, पूर्व में संघ में फूट, उत्तर में व्याधि, ईशान में पक्षपात आदि दोष होते हैं। जिस दिशा में ग्राम हो उसकी दिशा में क्षपक का मस्तक करके देह स्थापित करना चाहिए। मृतक के निकट मयूर पिच्छीकादि उपकरण भी स्थापित करें क्योंकि यदि कोई क्षपक अन्त में संक्लेश परिणामों द्वारा सम्यक्त्व की विराधना करके व्यन्तरादिक देवों में उत्पन्न हुआ हो तो पिच्छी सहित अपने शरीर को देखकर मैं पूर्व भव में मुनि था यह जान सकेगा और पुन: धर्म में दृढ श्रद्धा करके सम्यग्दृष्टि हो जायेगा।
क्षपक के मरण से संघ पर प्रभाव :
क्षपक के मरण से संघ पर क्या प्रभाव पड़ेगा यह जानने के लिए किस नक्षत्र में मरण हुआ यह जानना चाहिए। जधन्य नक्षत्र — शतभिषा, भरणी, आद्र्रा, स्वाति, अश्लेषा और जेष्ठा इनमें से किसी एक नक्षत्र में मरण हो तो संघ में क्षेम कुशल होता है। मध्यम नक्षत्र — अश् वनी, कृतिका, मृगशिरा, पुष्य, मघा तीनों पूर्वा, हस्त, चित्रा, अनुराधा, मूल, श्रवण, धनिष्ठा और रेवती इन नक्षत्रों में मरण हो तो एक और मुनि का मरण होगा। उत्कृष्ट नक्षत्र — तीनों उत्तरा, पुनर्वसु, रोहणी और विशाखा इन नक्षत्रों में क्षपक का मरण हो तो निकट भविष्य में दो मुनियों का मरण होता है। गण रक्षा हेतु मध्यम नक्षत्रों में मरण होने पर तृण का एक प्रतिबिम्ब और उत्कृष्ट नक्षत्र मेें मरण होने पर तृण के दो प्रतिबिम्बों का मृतक के निकट ‘द्वितोयोऽयोर्पित :’ कहकर स्थापन कर देना चाहिए, यदि पिच्छी कमण्डलु वहाँ उपलब्ध हो तो सम्यक् प्रकार से प्रतिलेखन करके उस सहित ही प्रतिबिम्बों का स्थापना करना चाहिए। प्रतिबिम्ब बनाने के लिए वहाँ तृण न मिले तो तन्दुलों का चूर्ण, पुष्प की केशर, भस्म अथवा र्इंट के चूर्ण से जो भी प्राप्त हो सके उससे ऊपर ककार और नीचे यकार अर्थात् काय लिख देना चाहिए और यदि पिच्छी कमण्डलु हो तो वे भी स्थापित कर देने चाहिए। संघ की शान्ति के लिए यह कार्य अवश्य करना चाहिए। इसमें संकल्पी हिंसा का दोष नहीं लगता यह तो एक साथ दो या तीन शवों का दाह संस्कार किया जा रहा है ऐसा जानना चाहिए।
महन्मध्यमक्षत्रमृते शान्तिर्विधीयते। यत्न तो गण रक्षार्थं जिनार्चकरणादिभि:।।
उत्कृष्ट और मध्यम नक्षत्र में क्षपक का मरण होने पर गण की रक्षा के अर्थ यत्नपूर्वक जिन पूजा आदि क्रियाओं से शांति की जाती है। साधुजन तपश्चरण, ध्यान आदि द्वारा एवं श्रावक जिनपूजा, दानादि के द्वारा शांति कर्म करके शांति का उपाय करते हैं। (संयम प्रकाश, पूर्वाद्र्ध, द्वितीय भाग, पृ. ९७४) शव दाह के समय भक्तियाँ : सामान्य मुनि की समाधि होने पर शरीर के दाह संस्कार के समय सिद्ध भक्ति, योग भक्ति, शान्ति भक्ति और समाधि भक् ित करना चाहिए। आचार्य की समाधि होने पर शरीर के दाह संस्कार के समय सिद्ध भक्ति श्रुत भक्ति, चरित्र भक्ति, योग भक्ति, शान्ति भक्ति और समाधि भक्ति करना चाहिए।
शवदाह विधि
छह फुट लम्बा, छह फुट चौड़ा, तीन फुट गहरा गड्डा खोदें, चारों तरफ सुरक्षा घेरा बनायें। संस्तर को सम बनाकर चारों ओर खूंटी गाड़ें और उनको मौली से तीन बार बेष्ठित करें। पद्मासन से शव को सिर से पैर तक माप लें, माप के बराबर संस्तर पर तीन रेखाओं का एक त्रिकोण घनावें। सर्वप्रथम भूमि पर चन्दन का चूरा डालें, फिर रोली से त्रिकोण रूप तीन रेखायें डालें, टूटी एवं विषम न हों। इसके बाद त्रिकोण बनायें। सर्वप्रथम भूमि पर चन्दन का चूरा डालें, फिर रोली से त्रिकोण के ऊपर सर्वत्र मसूर का आटा ड़ालें। त्रिकोण के तीनों कोनों पर तीन उल्टे स्वस्तिक बनावें (चित्र परिशिष्ट २ में देंखे) तीनों रेखाओं के ऊपर तीनों ओर सब मिलकर नौ, सात या पाँच र्रं लिखें त्रिकोण के मध्य में ॐ अर्हं ह्रीं लिखेें फिर ॐ ह्रीं ह्र: काष्ट संचयंकरोमि स्वाहा इस मंत्र को पढ़कर त्रिकोणाकार ही लकड़ी जमावें पश्चात् ॐ ह्रीं ह्रौं झौं अ सि आ उ सा काष्ठे शवं स्थापयामि स्वाहा। मंत्र उच्चारण करते हुए शव को काष्ठ पर स्थापित करें और ॐ ॐ ॐ ॐ रं रं रं रं अग्नि संधुक्षणं करोमि स्वाहा। यह मंत्र बोलकर अग्नि लगावें (सोमसेन भट्टारक) शव को दाह संस्कार करने पर भी तीसरे दिन वहाँ जाकर उनकी अस्थियों आदि की यथायोग्य क्रिया करना चाहिए।
निषिद्या से लौटने के पश्चात् कर्तव्य
१. निषद्या स्थान से लौटने के पश्चात् उस स्थान पर जहाँ सल्लेखना हुई है वहाँ जाकर एक कायोत्सर्ग कर कहें कि हे देव! यहाँ हमारा संघ ठहरना चाहता है उसकी क्षेम कुशल के लिये स्थान दें।
२. पश्चात् यदि शव को स्पर्श नहीं किया है तो शुद्धि मात्र करें स्पर्श होने पर सिर से तक तीन धारा देकर दण्ड स्नान करें।
३. निषद्या से लौटने के पश्चात् गृहस्थों से वैय्यावृत्ति के लिये मँगाये हुए वस्त्र तथा काष्ठादि उपकरण जो लौटाने योग्य हो उन्हें यथा स्थान लौटाना चाहिए। गृहस्थ श्रावक के शहदाह की विधि: गृहस्थ श्रावकों के मृत शरीर के संस्कार के लिये दो घड़ी के भीतर ही परिवार के सब लोगों को एकत्रित होकर मृतक को श्मशान में ले जाना चाहिए, क्योंकि दो घड़ी के बाद उस मृतक शरीर में अनेक त्रस जीव उत्पन्न हो जाते हैं। श्मशान में जो भूमि जीव रहित हो वहाँ सूखा प्रासुक ईंधन एकत्रित कर दाह—क्रिया करने के पश्चात् अपने घर आकर प्रासुक पानी से स्नान करना चाहिए। तीन दिन बाद श्मशान जाकर भस्म एवं अस्थि विसर्जन आदि करने का उल्लेख है क्योंकि अग्नि की उत्कृष्ट आयु ३ दिन की है। तीन दिन में जब अग्नि पूर्णत: शान्त हो जाती है तब अन्य क्रिया करना चाहिए।
शव गाड़ने की विधि :
संस्कार: स्यान्निखननं नाम्नं प्राक् बालकस्य तु। तद्ध्र्वमशनादर्वाग्भवेत्तद्दहनं च वा।।५३।।
नामकरण से पहले मरे हुए बालक का शरीर—संस्कार खनन अर्थात् जमीन में गाड़ना है। नामकरण के बाद और अशन क्रिया से पहले मरे हुए का खनन अथवा दहन है। भावार्थ— नामकरण के पहले मरे तो जमीन में गाढ़ें। तथा नामकरण के बाद और अशनक्रिया से पहले मरे उसे जमीन से गाड़े या जलावें
दन्तादुपरि बालस्य दहनं संस्कृतिर्भवेत्। तयोरन्यतरं वाऽऽहुर्नामोपनयनान्तरे।।५५।।
दांत उग आने बाद बालक मरण को प्राप्त हो तो उसका दहन संस्कार करें। अथवा नामकरण और उपनयन से पहले मरे हुए बालक का संस्कार खनन और दहन इन दोनों में से एक करें। यद्यपि विकल्प में यह बात कही गई है तो भी इसका निर्वाह इस तरह करना चाहिए कि तीसरे वर्ष जो चूलाकर्म होता है उस चूलाकर्म से पहले और नामकरण के बाद अर्थात् कुछ कम दो वर्ष तक तो जमीन में ही गाड़े पश्चात् तीन वर्ष पूर्ण न हो ं तब तक जमीन में गाड़े या जलावें—दोनोें में से एक करें। तीन वर्ष के बाद जमीन में गाड़े किन्तु जलावें। ==
देशान्तर में मरण :
अपने कुटुम्ब का कोई व्यक्ति देशान्तर को चला जाय और उसका कोई समाचार न आवे तो ऐसी दशा में वह पूर्व वय (तरूण अवस्था की पूर्व अवस्था) का हो तो अट्ठाईस वर्ष तक, मध्यम वय का हो तो पंद्रह वर्ष तक और अपूर्व वय (मध्यम वय के बाद की अवस्था) का हो तो बारह वर्ष तक उसके आने की राह देखी जाय। अनन्तर विधि—पूर्वक उसकी प्रेत (शव) क्रिया करनी चाहिए। उसका छह वर्ष तक अपनी शक्ति के अनुसार प्रायश्चित ग्रहण करना चाहिए और यदि प्रेत कार्य करने पर वह आ जाय तो उसका सर्वोेषधि रस से और घृत से अभिषेक करें, उसके सब जातकर्म संस्कार करें, नवीन यज्ञोपवीत संस्कार करें और यदि उसका पहले विवाह हुआ हो और वह पूर्व पत्नी जीती है तो उसी के साथ पुन: विवाह किया जाये।
रजस्वला—मरण :
== रजस्वला स्त्री मर जाय तो उसे स्नान कराकर और दूसरे वस्त्र पहनाकर विधिपूर्वक उसका दहन करे। गर्भिणी—मरण : गर्भवती स्त्री गर्भ के छह महीनों के पहले मर जाय तो उसका गर्भ सहित ही दहन करें, गर्भच्छेद न करेें। यदि गर्भ छह महीनों से ऊपर का हो तो उस मृत गर्भिणी को श्मशान में ले जायें, वहाँ उसका पति, पुत्र पिता या बड़ा भाई इसमें से कोई उसके नाभि से नीचे के बायें भाग की तरफ से उदर को चीरकर बच्चे की बाहर निकालें। बालक का जल से अभिषेचन करें। यदि बालक जीता हो तो उसे पाल्ना—पोषण के लिए दे देवें। उदर के छेद में घृत भरकर दाह क्रिया करें।
दुर्मरण : विद्युत्तोयाग्निचाण्डालसर्पपाशूद्रिजादपि। वृक्षव्याघ्रपशुभ्यश्च मरणं पापकर्मणाम्।।१०२।।
बिजली, जल अग्नि, चांडाल, सर्प, पक्षी, वृक्ष, व्याघ्र तथा अन्य पशु इत्यादि के द्वारा पापियों का मरण होता है।
आत्मानं घातयेद्यस्तु विषशस्त्राग्निना यदि। स्वेच्छया मृत्युपाप्तोति स याति नरकं ध्रुवम्।।१०३।।
देशकालभयाद्वापि संस्कर्तु नैव शक्यते। नृपाद्याज्ञां समादाय कर्तव्या प्रेतसत्क्रिया।।१०४।।
वर्षादूध्र्व भवेत्तस्य प्रायश्चित्तं विधानत:। शान्तिकादिविंध कृत्वा प्रोषधादिकसत्तप:।।१०५।।
मृतस्यानिच्छया सद्य: कत्र्तव्या प्रेतसत्क्रिया। प्रायश्चित्तविधं कृत्वा नैव कुर्यान्मृतस्य तु।।१०६।।
शस्त्रादिना हते सप्तदिनादर्वाक् मृतो यदि। भवेददुर्मरणं प्राहुरित्येवं पूर्वसूरय:।।१०७।।
जो विष, शस्त्र अग्नि के द्वारा आत्मघात कर स्वेच्छा मरण को प्राप्त होता है वह सीधा नरक जाता है। ऐसे मनुष्य का देश और काल के भय से दाह संस्कार नहीं कर सकते हों तो राजा आदि की लेकर उसकी दाह क्रिया करना चाहिए। छह माह बाद शांतिविधान करके उसका विधीपूर्वक उपवास आदि प्रायश्चित ग्रहण करे। यदि वह अपनी अनिच्छा से विषादि द्वारा मरण को प्राप्त हो तो उसका दाह—संस्कार तत्काल करे। उसके इस अनिच्छा मरण का प्रायश्चित नहीं भी लें। शस्त्र आदि का प्रहार होने पर सात दिन के पहले यदि उसका मरण हो जाय तो वह दुर्मरण है, ऐसा पूर्वाचार्य कहते हैं। मरण के बाद शवदाह की प्रक्रिया को क्रियाकोश में श्री किशनसिंह जी ने निम्नानुसार वर्णन किया है—
पूरी आयु करिवि जिय मरै, ता पीछे जैनी इम करै।
घड़ी दोय में भूमि मसान, ले पहुंचे परिजन सब जान।।१३००।।
पीछे तास कलेवर मांहि, त्रस अनेक उपजै सक नांहि।
मही जीव बिन लखि जिह थान, सूकौ प्रासुक ईधण आन।।१३०१।।
दगध करिचि आवे निज गेह, उसनोदकतें स्नान करेह।
वासन तीन बीति है जबै, कछु इक शोक मिटणको तबै।।१३०२।।
स्नान करिचि आवै जिन गेह, दर्शन कर निज घर पहुंचेह।
निज कुलके मानुष जे थाय, ताके घरते असन लहाय।।१३०३।।
दिन द्वादश बीते हैं जवे, जिनमंदिर इम करिहै तबे।
अष्ट द्रव्यतै पूज रचाय, गीत नृत्य वाजित्र बजाय।।१३०४।।
शक्ति जोग उपकरण कराय, चंदोवादिक तासु चढाय।
करिवि महोछव इह विधि सार, पात्रदान दे हरष अपार।।१३०५।।
जब यह जीव आयु पूर्ण कर मरता है तब उसके मरने के बाद जैन धर्म के धारक इस प्रकार की विधि करते हैं—दो घड़ी के भीतर परिवार के सब लोग एकत्रित होकर मृतक को श्मशान में ले जाते हैं क्योंकि दो घड़ी के बाद उस कलेवर में अनेक त्रस जीव उत्पन्न हो जाते हैं। श्मशान में जो भूमि जीव रहित हो, वहाँ सूखा—प्रासुक र्इंधन एकत्रित कर दाह क्रिया करते हैं और पश्चात् अपने घर आकर प्रासुक पानी से स्नान करते हैं। जब तीन दिन बीत जाते हैं और शोक कुछ कम हो जाता है तब स्नान कर जिनमन्दिर जाते हैं और दर्शन कर अपने घर आते हैं। कुटुम्ब के जो लोग हैं वे उसके घर भोजन करते हैं। जब बारह दिन बीत जाते है तब जिनमंदिर में अष्ट द्रव्य से पूजा रचाते हैं, बाजे बजाकर गीत नृत्य आदि करते हैं, शक्ति के अनुसार उपकरण तथा चंदोबा आदि चढ़ाते हैं। इस तरह महोत्सव पूर्वक पात्र दान देकर अत्यन्त हर्षित होते हैं।
श्रोत्रियाचार्यशिष्यर्षिशास्त्राध्यायाश्च वै गुरु:। मित्रं धर्मी सहाध्यायी मरणे स्नानमादिशेत्।।१२३।।
श्रोत्रिय, आचार्य शिष्य, ऋषि, शास्त्र—पाठक, गुरु, मित्र साधर्मी और सहाधयायी (साथ पढ़ने वाला) इनकी मृत्यु होने पर स्नान करना चाहिए।
शव यात्रा
मरण के बाद शीघ्रतापूर्वक शव का दाह संंस्कार करना चाहिए। यदि मरण शाम को या रात्रि में होता है तो गो धूलि बेला के बाद शवदाह न करें। रात्रि में शव की छेदन क्रिया करें, जगह—जगह कपूर रखें। इससे जीवों से शव की सुरक्षा होती है। शव को ढक दे एवं रात्रि में दृढ़ एवं स्थिर चित्त वाले साहसी व्यक्ति जागरण करेें। परिजनों को सांत्वना दें, संसार, शरीर और भोगों की नश्वरता का स्वरूप समझकर शोक कम करें। रोने से अशुभ कर्मास्रव होता है। प्रात:काल शवदाह क्रिया करें।
शोभमाने विमाने च शाययित्वा शवं दृढ़म्। मुखाद्यङ्गंसमाच्छाद्य वस्त्रै स्त्रग्भिस्तदूध्वर्त:।।१३६।।
तद्विमानं समाधृत्य शनैग्र्रामाभिमस्तक:। वोढारस्ते नयेयुस्तं नयेदेक उखानलम्।।१३७।।
विमानस्य पुरोदेशे गच्छेयुज्र्ञातयस्तत:। शवानुगमनं कुर्यु:शेषा सर्वेसित्रयोऽपि च।।१३८।।
एक अच्छा विमान (ठठरी) बनाकर उसमें शव को मजबूती के साथ सुलावें। उसके मुख आदि सब अंग को वस्त्र से ढावेंâ। ऊपर पुष्पमालाएँ लपेटें। चार जने उस विमान को धीरे से उठाकर कंधे पर रखकर ले जावें, शव का मस्तक ग्राम की तरफ रखें। एक मनुष्य उखानल लेकर (हांडी में अग्नि रखकर) चले। कुटुम्बीजन विमान के आगे चलें। अन्य सब लोग विमान के पीछे—पीछे गमन करें। दाह विधि: शवदाह के लिए चार प्रकार की अग्नियों का उल्लेख है— १. लौकिक अग्नि २. औपासन अग्नि ३. संतापाग्नि ४. अन्वग्नि ==
लौकिक अग्नि
घर मेें भोजन बनाने के लिए जो चूल्हे की अग्नि होती है, उसे लौकिक अग्नि कहते हैं। इससे सर्व साधारण के शव को दाह किया जाता है। औपासन—अग्नि कुण्ड में अथवा मिट्टी चौकोन चबूतरे पर लौकिक अग्नि को स्थापन करें, उसमें शास्त्रों में बताये हुए द्रव्योें (धूप आदि) का ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: सर्वशान्तिं कुरु कुरु स्वाहा मंत्र से हवन करें। ऐसा करने से लौकिक अग्नि औपासन अग्नि हो जाती है। विशेष बुद्धिमान पुरुषों के शव संस्कार के लिए औपासन अग्नि काम में लाना चाहिए। संतापाग्नि: लौकिक अग्नि को पाँच बार दर्भ डाल—डालकर संतापित करें, अनन्तर उसे लकड़ियों में लगाकर प्रज्वलित करे, इसे संतापाग्नि कहते हैं। इसमें कन्या और विधवा के शव का दाह किया जाता है। अन्वग्नि : चूल्हे की अग्नि को मिट्टी की हांडी या अन्य किसी बर्तन में रखकर उसके ऊपर र्इंधन (नारियल, गोला आदि) जलाना सो अन्वग्नि हैं। इसमें सभी स्त्रियों के शव का दाह किया जाता है। मंत्र ॐ ह्रीं ह्र: काष्ठसच्चयं करोमि स्वाहा। (इस मंत्र को पढ़कर िंचता बनावें) मंत्र —ॐ ह्रीं ह्रौं झों अ सि आ उ सा काष्ठे शवं स्थापयामि स्वाहा। इस मंत्र को पढ़कर शव को चिता पर स्थापित करें।
उखावह्विं समुद्दीत्त्य सकृदाज्यं प्रयोज्य च। पर्युक्ष्य निक्षिपेत्पश्चाच्छनैस्तत्र परिस्तरे।।११४७।।
तत: समन्तात्तस्योध्र्व निदध्यात्काष्ठासञ्चयम्। सर्वतोऽग्नि समुज्वाल्य संप्लुष्यात्तत्कलेवरम्।।११४८।।
अनन्तर उखाग्नि को प्रज्ज्वलित करे, उसमें एक बार घृत की आहूति दें और चारों तरफ जल सिंचन करें। पश्चात् उस अग्नि को उठाकर परिस्तर पर क्षेपण करे, उसके ऊपर लकड़ियाँ रखे, अनन्तर चिता के चारों ओर अग्नि प्रज्वलित कर उस शव को दग्ध करे। मंत्र— ॐ ॐ ॐ रं रं रं रं अग्निसन्धुक्षणं करोमि स्वाहा। (अनेनाग्निं सन्धुक्ष्य सर्पिरादिना प्रसिञ्चय प्रज्वालय जलाशयं गत्वा स्नानं कुर्यात्।) इस मंत्र का उच्चारण कर अग्नि जलावें, घृत आदि की आहुति दें, चिता में अग्नि लगावें। अनन्तर जलाशय पर जाकर स्नान करें।
अथोदकान्तमायान्तु सर्वे ते ज्ञातिभि: सह। वोढारस्तत्र कर्ता च यान्तुं कृत्वा प्रदक्षिणम्।।१४९।।
सब जातीय बांधवों के साथ—साथ जलाशय के समीप जावें। परन्तु उनमें से विमान उठाने वाले और संस्कार कर्ता उस चिता की प्रदक्षिणा देकर जावें।
दुष्ट तिथि मरण प्रायश्चित: तिथिवारक्र्षयोगेषु दुष्टेषु मरणं यदि।
मृतस्योत्थापनं चैव दीर्धकालादभूद्यदि।।१५१।।
यथ शक्ति जिनेज्या च महायन्त्रस्य पूजनम्।
शान्तिहोमयुतो जाप्यो महामन्त्रस्य तस्य वै।।१५२।।
आहारस्य प्रदानं च धार्मिकाणां शतस्य वा।
तद्र्धस्याथवा पंचविंशते: प्रविधीयते।।१५३।।
तीर्थस्थानानि वन्द्यानि नव वा सप्त पंच वा।
दुष्टतिथ्यादिमरणे प्रायाश्चित्तमिदं भवेत् ।।१५४।।
दुष्ट तिथि, वार नक्षत्र और योग में यदि किसी का मरण हो जाय और मृतक पुरुष को मरण के बाद बहुत देर जलाने के लिए ले जाय, तो उस दोष के परिहार के लिए कर्ता हाथ जोड़ प्रदक्षिणा देकर विद्वानों से प्रार्थना करे और प्रायश्चित लें। यथाशक्ति जिन भगवान की पूजा करें, महायंत्र की पूजा करें, शान्तिविधान और होम करें, महामंत्र का जाप्य दें। सौ, पचास अथवा पच्चीस धर्मात्माओं को आहार दें। नौ, सात या पाँच तीर्थों की वंदना करेें। यह दुष्ट तिथि आदि में मरने का प्रायश्चित है।
कर्तु: प्रेतादिपर्यन्त न देवादिगृहाश्रम:। नाधीत्यध्यापनादीनि न ताम्बूलं न चन्दनम्।।१७९।।
न खट्वाशयनं चापि न सदस्युपवेशनम्। न क्षौरं न द्विभुक्तिश्च न क्षीरघृतसेवनम्।।१८०।।
न देशान्तरयानं च नोत्सावागारभोजनम्। न योषासेवनं चापि नाभ्यङ्गस्नानमेव च।।१८१।।
न मृष्टभक्ष्यसेवा च नाक्षादिक्रीडनं तथा। नोष्णीषधारणं चैषा प्रेतदीक्षा भवेदिह।।१८२।।
मृत क्रिया करने वाला मरण दिन से लेकर शुद्धि दिन से लेकर पर्यंत देवपूजा आदि गृहस्थ के षट्कर्म न करे धार्मिक ग्रन्थों का अध्ययन—अध्यापन न करें, तांबूल (पान) न खायें, तिलक न करें पलंग पर न सोयें, सभा—गोष्ठी में न बैठें, क्षौर कर्म न करावें, एक बार भोजन करें, दूध—घी न खायें, अन्य देश—ग्राम को न जायें, सामूहिक भोजन न करें, स्त्री सेवन न करें, तैल की मालिश कर स्नान न करें, मिष्ठान भक्षण न करें, पांसे आदि से न खेलें, चौपड़ शतरंज आदि न खेलें, और सिर पर पगड़ी साफा व टोपी वगैरह न लगायें। यह सब प्रेत (शव) दीक्षा है।
यावन्न क्रियते शेषक्रिया तावदिदं व्रतम्। आचार्य कर्तुरेकस्य ज्ञातीनां त्वादशाहत:।।
जब तक बारहवें दिन की शेष क्रिया न कर लें, तब तक दाहकर्ता उक्त व्रतों का पालन करे तथा अन्य कुटुम्बीजन दशवें दिन तक इन व्रतों को पालें। ==
मृतकक्रिया कर्ता
कर्ता पुत्रश्च पौत्रश्च प्रपौत्र: सहजोथवा। तत्सन्तान: सपिण्डानांसन्तानो बा भवेदिह।।१८४।।
सर्वेषामष्यभावे तु भर्ता परस्परम्। तत्राप्यन्यतराभावे भवेदेक: सजातिक:।।१८५।।
उपनीतिविहीनोंऽपि भवेत्कर्ता कथच्चन। स चाचार्योक्तमन्त्रान्तेस्वाहाकारंप्रयोजयेत् ।।१८६।।
मृतकक्रिया का कर्ता सबसे पहले पुत्र है। पुत्र के अभाव में पोता, पोते के अभाव में भाई, भाई के अभाव में उसके लड़के, उनके भी अभाव में सपिंडों (जिनको दश दिन तक का सूतक लगता है ऐसे चौथी पीड़ी तक के सगोत्री बांधवों) की संतान है। इन सभी का अभाव हो तो पति—पत्नी परस्पर एक दूसरे के संस्कार कर्ता हो सकते हैं। इनका भी अभाव हो अर्थात् पुरुष के पत्नी न हो और स्त्री के पति न हो तो उनकी जाति का कोई एक पुरुष हो सकता है। जिसका उपनयन संस्कार नहीं हुआ हो वह भी कथचित् कर्ता हो सकता है, परंतु सजाति होना चाहिए। आचार्य मंत्रोच्चारण अंत में सिर्पक ‘स्वाहा’ शब्द का प्रयोग करें— मंत्रोच्चारण न करें।
अस्थिसंचय तदाऽस्थिञ्चयश्चापि कुजवारे निषिध्यते। तथैव मन्दवारे च भार्गवादित्ययोरपि।।१७९।।
अस्थीनि तानि स्थाप्यानि पर्वतादिशिलाविले। प्रकृत्यवधिखातोव्र्यामथवा पौरूषावटै।।१९०।।
मंगलवार, शनिवार, शुक्रवार और रविवार को अस्थिसंचय न करें, किन्तु सोमवार, बुधवार और वृहस्पतिवार को करें।उन अस्थियों को लाकर पर्वत आदि की शिला के नीचे या जमीन में पुरुष प्रमाण पाँच हाथ या साढ़े तीन हाथ गहरा गढ़ा खोदकर उसमें रखे।
श्मशान क्रिया के बाद
श्मशान से लौटने के बाद गृहस्थ सम्पूर्ण स्नान करें वस्त्र धोएँ। यदि जनेऊ (यज्ञोपवीत) पहनकर गये हों तो उसे उतार दें एवं स्नान कर नया धारण करें। पश्चात् मंदिर दर्शन करने जायें, किन्तु वहाँ किसी वस्तु का स्पर्श न करें। मृतक के परिवार जनों को शोक सभा आदि का आयोजन कर सान्त्वना दें। बारह दिन का सूतक समाप्त होने के बाद मृतक के परिजन शवदाह आदि दोष के प्रायश्चित रूप में शान्ति विधान करें। मिथ्यात्व पोषक क्रियायें न करें। शान्ति विधान मृत आत्मा की शान्ति हेतु नहीं अपितु शव श्दाह आदि क्रियाओं से जो हिंसादि दोष लगे उनके प्राश्चित स्वरूप किया जाता है।
चरण चिह्न: सुप्रसिद्धै मृते पुंसि सन्यासध्याननयोगत: तद्धिम्बं स्थापयेत् पुण्यप्रदेशे मण्डपादिके।।१९५।।
संन्यास विधि एवं ध्यान समाधि से कोई प्रसिद्ध पुरुष मरे तो पुण्य—स्थान में मंडल वगैरह बनवाकर उसमें उसके प्रतिबिम्ब (चरण चिह्न आदि) की स्थापना करें।
वैधव्य दीक्षा
मृते भर्तरि तज्जाया द्वादशह्वि जलाशये। स्त्रात्वा वधूम्य: पच्चभ्यस्तत्र दद्यादुपायनम् ।।१९६।।
भक्ष्य — भोज्यफलैर्गन्ध — वस्त्रपणैस्तथा। ताम्बूललैरवतंसैश्च तदा कल्व्यमुषायनम्।।१९७।।
विधवायास्ततो नार्या जिनदीक्षासमाश्रय:। श्रेयानुतस्विद्वैधव्यदीक्षा वा गृह्याते तदा।।१९८।।
पति का परलोकवास हो जाने पर उसकी स्त्री बाहरवें दिन जलाशय पर स्नानकर पाँच स्त्रियों को उपायन—भेंट दें। उत्म भोजन, फल, गंध, वस्त्र, पुष्प, नगद रुपया—पैसा, वगैरह देना उपायन हैं।इसके अनन्तर यदि वह विधवा स्त्री जिन—दीक्षा—र्आियका या क्षुल्लिका के व्रत ग्रहण करे तो सबसे उत्तम है, अथवा वैधव्व—दीक्षा ग्रहण करे।
वैधव्व अवस्था के कत्र्तव्य : तत्र वैधव्यदीक्षायां देशव्रतपरिग्रह:।
कण्ठसूत्रपरित्याग: कर्णभूषणवर्जनम् ।।१९९।।
शेषभूषनिवृत्र्तिश्च वस्त्रखण्डान्तरीयकम् । उत्तरीयेण वस्त्रेण मस्तकाच्छादनं तथा।।२००।।
खटवाश्याज्जनालेमहारिद्रप्लववर्जनम्। शोकाक्रन्दननिवृत्तिश्च विकाथानां विवर्जनम।।२०१।।
त्रिसन्ध्यं देवतास्तोत्रं जप: शास्त्रश्रुति: स्मृति:। भावना चानुप्रेक्षाणां तथात्मप्रतिभावना।।२०३।।
पात्रंदानं यथाशक्ति चैकभक्तमगृद्धित:। ताम्बूलवर्जनं चैव सर्वमेतद्धिधीयते।।२०४।।
वैधव्यदीक्षा में वह स्त्री देशव्रत ग्रहण करे, गले में पहनने के मंगल—सूत्र का त्याग करें, कानों में कोई आभूषण न पहनें, बाकी के और गहने भी न पहने शरीर पर पहनने और ओढ़ने के दो वस्त्र रखें, पलंग पर न सोयें, आँखों में काजल न लगावें, हल्दी वगैरह का उबटनकर स्नानकर स्नान न करें, शोकपूर्ण रुदन न करें, विकथाओं का त्याग करें, सुबह, दोपहर और शाम को स्तोत्रों का पाठ करें, जाप दें, शास्त्र सुने उनका चिंतन करें, बारह भावना भायें, आत्मभावना भायें, यथाशक्ति पात्रदान दें, लोलुपता रहित एक बार भोजन करें, तांबूल—पान न खायें। पति के देहावसान के तीसरे दिन स्नान कर परिवार की स्त्रियों के साथ जिनमंदिर में दर्शनकर बारह भावनाओं का चिन्तन करके मन को शोक रहित कर स्थिर भाव से जिनभक्ति करें। बारहवें दिन बाद नियम से जिनपूजन स्वाध्याय आदि कर संसार, शरीर और भोगों से उदासीन रह कर संयमी जीवन व्यतीत करें एवं संतुलित और सात्त्विक भोजन करें।
सावधानियाँ
१. शवदाह हमें शीघ्र करना चाहिए, क्योंकि विलम्ब करने से शव में असंख्यात जीवों की उत्पत्ति होती है।
२. लकड़ी सूखी हो, घुनी न हो।
३. विमान मजबूत बनाया गया हो।
४. नारियल, गोला फोड़ कर उपयोग करें।
५. साधु के शव को स्थिर रखने के लिए मजबूती से बाँधे।
६. रस्सी के बंधन सामने से देखने में नहीं आवे, इसका ध्यान अवश्य रखें।
७. रात्रि के समय शव पर कपूर अवश्य रखें।
८. शवदाह स्थल की पूर्ण सुरक्षा करें, जिससे अव्यवस्था न हो सके।
९. रुदन, शोक न करें इससे असाता वेदनीय कर्म का आस्रव होता है।
१०.वैराग्य वर्धक गीतों के माध्यम से वातावरण प्रशस्त बनायें।
११.तीसरे दिन, शुद्धि के पश्चात् शोक संतप्त परिवार के यहाँ उनके साथ सामूहिक रूप से वैराग्य वर्धक भावना आदि का पाठ करेें।
१२. शोक संवेदना देने वालों के साथ बैठकर रागादिक के पूर्व से स्मरणों का कथन न करें।
१३. सद्य्य विधवा तीसरे दिन पश्चात् देव दर्शन एवं तेरहवें दिन पूजन, स्वाध्याय एवं आहार—दान आदि कार्य करें।