पूजन व्रत चारित्र शुध्दि ख्१२३४,
दोहा
शुद्ध सुगुण छयालीसयुत, समवसरण के ईश।
निज आतम उद्धार हित, नमत चरण में शीश।।1।।
आत्म-शुद्धि के अर्थ हम, जिनवर-पूज रचाय।
रत्नत्रयं के प्राप्ति हित, श्रीजिनेन्द्र गुण गाय।।2।।
करूं त्रिविधि शुधियोग से, आह्वानन विधि सार।
आवहु तिष्ठहु हृदय में, नाथ त्रिलोक अधार।।3।।
व्रहत् चारित्र शुद्धि व्रत विधान
सोरठा
व्रत चारित्र महान, इस विन मुक्ति न पावहीं।
चारित शुद्धि विधान, इसीी लिये अर्चन करूं।।4।।
ऊँ ह्रीं अष्टादशदोषरहित षट्चत्वारिंशद्गुणसहित अर्हत् परमेष्ठिन् अत्र अवतर अवतर संवौषअ्।।1।।
ऊँ ह्रीं अष्टादशदोषरहित षट्चत्वारिंशद्गुणसहित अर्हत् पर-मेष्ठिन् अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः ।।2।।
ऊँ ह्रीं अष्टादशदोषरहित षट्चत्वारिंशद्गुणसहित अर्हत् पर-मेष्ठिन् अत्र मम सन्निहितों भव भव वषट् सन्निधिकरणं।।3।
परिपुष्पांचलि क्षिपेत
(अष्टक)
(चाल नन्दीश्वर द्वीप पूजन की)
गंगादिक निर्मल नीर, कंचन कलश भरूं,
प्रभु वेग हहरो भव पीर, चरणन धार करू।
बारह सौ चौतिस सार, प्रोषध सुखकारी।
मैं पूजों विविध प्रकार, आतम हितकारी।।1।।
ऊँ ह्रीं अष्टादशदोषरहित षट्चत्वारिंशद्गुणसहिता बारह सौ चौतीस शुद्ध चारित्र व्रत-मंडिताय अर्हत् परमेष्ठिने जलं
निर्वपामीति स्वाहा।।1।।
मलयागिर चन्दन सार, केसर रंग भरी,
प्रभु भव आताप निवार, यह विनती हमरी।
बारह सों चोंतिस सार, प्रोषध सुख-कारी,
मैं पूजों विविध प्रकार, आतम हितकारी।।2।।
ऊँ ह्रीं अष्टादशदोषरहित षट्चत्वारिंशद्गुणसहिता बारह सौ चौतीस शुद्ध चारित्र व्रत-मंडिताय अर्हत् परमेष्ठिने भावाताप-
निवारणाय चन्दन निर्वपामीति स्वाहा।
ले चन्द्र किरण समशुद्ध, अक्ष्ज्ञत शुचि सारे,
बसु पुंजधरूं अवरुद्ध, तुम पग तल धारे।
बारह सौ चोंतिस सार, प्रोष्ज्ञध सुखकारी,
मैं पूजों विविधप्रकार, आतम हितकारी।।6।।
ऊँ ह्रीं अष्टादशदोषरहित षट्चत्वारिंशद्गुणसहिता बारह सौ चौतीस शुद्ध चारित्र व्रत-मंडिताय अर्हत् परमेष्ठिने अक्षयपद-
प्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।।3।।
सुरतरु के सुमन समेत, अलि गंजार करेैं,
मैं जजूं चरण निज हेतु, मद-गद व्याल हरैं।
सारह सौ चोंतिस सार, प्रोषध सुखकारी,
मैं पूजों विविध प्रकार, आतम हितजकारी।।4।।
ऊँ ह्रीं अष्टादशदोषरहित षट्चत्वारिंशद्गुणसहिता बारह सौ चौतीस शुद्ध चारित्र व्रत-मंडिताय अर्हत् परमेष्ठिने काम-बाण-
विनाशनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।।4।
नाना विधि के पकवान, कंचन थाल भरूं,
मैं जजूं चरण ढिंग आन, भूख व्यथा जु हरूं।
बारह सौ चौतिस सार, प्रोषध सुखकारी,
मैं पूजूं विविध प्रकार, आतम हितकारी।।5।।
ऊँ ह्रीं अष्टादशदोषरहित षट्चत्वारिंशद्गुणसहिता बारह सौ चौतीस शुद्ध चारित्र व्रत-मंडिताय अर्हत् परमेष्ठिने क्षुधारोग-
विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।।5।।
तम खण्डन दीप अनूप, तुम पद निकट धरूं,
मम मोह हरो शिवभूप, याते पूज करूं।
बारह सौ चौंतिस सार, प्रोषध सुखकारी,
मैं पूजों विविध प्रकार, आतम हितकारी।।6।।
ऊँ ह्रीं अष्टादशदोषरहित षट्चत्वारिंशद्गुणसहिता बारह सौ चौतीस शुद्ध चारित्र व्रत-मंडिताय अर्हत् परमेष्ठिने मोहान्धकार-
विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।।6।।
दस विधि की धूप बनाय, वावक में खेऊ।
मम दुष्ट करम जरजाय, तुम पद नित सेऊं।
बारह सौ चांतिस सार, प्रोषा सुखकारी,
मैं पूजों विविध प्रकार, आतम हितकारी।।7।।
ऊँ ह्रीं अष्टादशदोषरहित षट्चत्वारिंशद्गुणसहिता बारह सौ चौतीस शुद्ध चारित्र व्रत-मंडिताय अर्हत् परमेष्ठिने अष्टकर्म-
विघ्वंसनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।।7।।
बादाम सुपारी लाय, केला फल प्यारे,
तुम शिव फल देहु दयाल, तुम पद फल धारे।
बारहसौ चोंतिस सार, प्रोषध सुखकारी।
मैं पूजों विविध प्रकार, आतम हितकारी।।8।।
ऊँ ह्रीं अष्टादशदोषरहित षट्चत्वारिंशद्गुणसहिता बारह सौ चौतीस शुद्ध चारित्र व्रत-मंडिताय अर्हत् परमेष्ठिने मोक्ष फल-
प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।।8।।
जल फल वसु कंचन थाल, आठों द्रव्य भरूं,
‘छोटे‘ नित नावत भाल, तुमपद अर्घ्ज्ञ धरूूं।
बारह सौ चौतिस सार, प्रोषध सुखकारी,
मैं पूजों विविध प्रकार, आतम हितकारी।।9।।
ऊँ ह्रीं अष्टादशदोषरहित षट्चत्वारिंशद्गुणसहिता बारह सौ चौतीस शुद्ध चारित्र व्रत-मंडिताय अर्हत् परमेष्ठिने अनर्घ्यंपद-
प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।9।।
चाल-योगीरासा
मंगल अर्घं बनाय गाय गुण कंचन थाली भरिये,
अर्घ देत जिनराज चरण में महाहर्ष उर धरिये।
चारित शुद्धि व्रत के हित में जिन पद पूज रचाऊँ,
आतम हित के हेतु जिनेश्वर पद में शीश नवाऊं।।10।।
ऊँ ह्रीं अष्टादशदोषरहित षट्चत्वारिंशद्गुणसहिता बारह सौ चौतीस शुद्ध चारित्र व्रत-मंडिताय अर्हत् परमेष्ठिने महार्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।।10।।
ऊँ ह्रीं असिआउसा चारित्रशुद्धिव्रतेभ्यो नमः ( 108 बार )
जयमाला
दोहा
जिसकी शुद्धी के बिना, जिनवर सीझे नाहिं।
उसकी शुद्धी के लिये, जिनवर पूज रचाहिं।।1।।
व्रत चारित को शुद्ध कर, पहुँचे अविचल थान।
उनही के पद कमल का, धरूं हृदय में ध्यान।।2।।
पद्धडी छन्द
जय जय जय जिनवर देव भूप जय जय जय शिव वल्लभ अनूप
जय जगतपती जय जगन्नाथ, जय मंगल-मय हम नमत माथा।।
जय शिवशंकर जय विष्णुदेव, जय ब्रह्मा जय मंगल विशेष।
जय कमलासन कृतकर्म ईश, इन्द्रादि चरण नित नमत शीश।
अष्टादश दोष विमुक्त धीर, जय मंगलमय भव हरत पीर।
जय अन्तरीक्ष राजत जिनेश, जय चतुर्गती काटत कलेश।।5।।
जय इन्द्रियजय जय धर्मवीर, जय कर्मदलन भट अति गंभीर।
जय जगतशिरोमणि गुणनिधान, जय शत्रुमित्र जानत समान।
जय व्रतचारितधारी करण्ड, जय शुद्ध बिहारी आत्मपिण्ड।
जय सत् चिद् धन आनन्दरूप, जय शुद्ध चिदानन्द सत्स्वरूप।
जय पंच महाव्रत धरन धीर, जय पंच समिति पालक सुधीर।
जय तीन गुप्ति के रथ सवार, यह तेरह विधि चारित्र धार8
जय चरित शुद्धधर व्रत दयाल, इकक्षण में तोड़ा कर्म जाल।
ऐसा विशुद्ध वर व्रतप्रधान, उस व्रतको हम पूजत सुआन।9
यह व्रत है सबजग में प्रसिद्ध, है नित्य अनादी स्वयंसिद्ध।
इसके बिन मुक्ती नहीं होय, यह व्रत है तारण सिन्ध्ुा तोय।10
हे व्रताधीश हे व्रतनिदेश, हे शिव वल्लभ काटो कलेश।
अब तेरा शरण गहा सु आन, ‘छोटे‘ चाहत निज आत्मज्ञान।
सोरठा
व्रत चारित्र महान, जो पालै मन लायके।
ते पावें निर्वाण, आठों कर्म नशाय के।।12।।
ऊँ ह्रीं अष्टादशदोष्ज्ञरहिताय षट्चत्वारिशद्गुणसंहिताय बारहसौ चौंतीस चारित्र गुण-मंडिताय श्री अर्हत् परमेष्ठिने पूर्णार्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा। 11।।
जो विशुद्ध मन से सदा, चारित पालें वीर।
ते वसु कर्म नशाय के, पहुँचे भव के तीर।।
इत्याशीर्वादः