सूचना: इस संक्षिप्त मंत्र के स्थान पर कम से कम पर्युषण पर्वों में नीचे लिखा वृहद् मंत्र पढ़ैं व अष्टक के बाद दिये गये प्रत्येक धर्म के अघ्र्य अवश्य चढ़ावें। पर्युषण पर्व वर्ष में तीन बार आता है, जो कि भाद्रपद, माघ व चैत्र मास में पंचमी से चतुर्दशी तक मनाया जाता है।
दशलक्षण धर्म पूजा
उत्तम छिमा मार्दव आर्जव भाव हैं।
सत्य शौच संयम तप त्याग उपाव हैं।
आकिंचन ब्रह्मचर्य धरम दश सार हैं।
चहुँगति दुख तैं काढ़ि मुकति करतार हैं।।
ओं ह्रीं उत्तमक्षमादिदशलक्षणधर्म! अन्न अवतर अवतर संवौषट् इति आह्वाननम्।
ओं ह्रीं उत्तमक्षभादिदशलक्षणधर्म! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् इति सन्निधिकरणम्। परि पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
हेमाचल की धार,
मुनिचित सम शीतल सुरभि।
भव आताप निवार,
दशलक्षण पूजों सदा।।
ओं ह्रीं उत्तम क्षमादि दश-लक्षण-धर्माय जन्म-जरा-मृत्यु विनाश-नाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
ओं ह्रीं उत्तम क्षमा मार्दवार्जव शौच सत्य संयम तप त्यागाकिंचन्य-ब्रह्मचर्य दश लक्षण धर्माय जन्म जरा मृत्यु विनाशनाय जलं नि. स्वाहा।
चन्दन केशर गार,
होय सुवास दशों दिशा।
भव आताप निवार,
दशलक्षण पूजों सदा।।
ओं ह्रीं उत्तमक्षमादि दशलक्षणधर्माय भवताप विनाशनाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा।
अमल अखण्डित सार,
तन्दुल चन्द्रसमान शुभ।
भव आताप निवार,
दशलक्षण पूजों सदा।।
ओं ह्रीं उत्तमक्षमादि दशलक्षणधर्माय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा।
फूल अनेक प्रकार,
महकै ऊरध लोक लों।
भव आताप निवार,
दशलक्षण पूजों सदा।।
ओं ह्रीं उत्तमक्षमादि दशलक्षणधर्माय कामबाण विध्वंशनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
नेवज विविध निहार,
उत्तम षटरस संजुगत।
भव आताप निवार,
दशलक्षण पूजों सदा।।
ओं ह्रीं उत्तमक्षमादि दशलक्षणधर्माय क्षुधारोग विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
वाति कपूर सुधार,
दीपक ज्योति सुहावनी।
भव आताप निवार,
दशलक्षण पूजों सदा।।
ओं ह्रीं उत्तमक्षमादि दशलक्षणधर्माय मोहान्धकार विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
अगर धूप विस्तार,
फैले सर्व सुगन्धता।
भव आताप निवार,
दशलक्षण पूजों सदा।।
ओं ह्रीं उत्तमक्षमादिदशलक्षणधर्माय अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
फल की जाति अपार,
घ्राण नयन मन मोहनो।
भव आताप निवार,
दशलक्षण पूजों सदा।।
ओं ह्रीं उत्तमक्षमादि दशलक्षणधर्माय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
आठों दरब संवार,
‘द्यानत’ अधिक उछाहसों।
भव आताप निवार,
दशलक्षण पूजों सदा।।
ओं ह्रीं उत्तमक्षमादि दशलक्षणधर्माय अनघ्र्यपदप्राप्तयेऽघ्र्यं नि. स्वाहा।
प्रत्येक धर्म के अध्र्य
पीड़ैं दुष्ट अनेक, बांध मार बहुविधि करैं।
धरिये छिमा विवेक, कोप न कीजै पीतमा।।
उत्तम छिमा गहो रे भाई, इह भव जस परभव सुखदाई।
गाली सुनि मन खेद न आनो, गुन को औगुन कहे अयानो।।
कहि है अयानो वस्तु छीने, बांध मार बहु विधि करंे।
घर तैं निकारै तन विदारै, वैर जो न तहां धरै।।
जे करम पूरब किये खोटे, सहै क्यों नहिं जीयरा।
अति क्रोध अगनि बुझाय प्रानी, साम्य जल ले सीयरा।।
ओं ह्रीं उत्तम क्षमाधर्मागाय अघ्र्य निर्वपामीति स्वाहा।
मान महाविष रुप, करहिं नीचगति जगत में।
कोमल सुधा अनूप, सुख पावैं प्राणी सदाा।।
उत्तम मार्दव गुन मन माना, मान करन को कौन ठिकाना।
बस्यो निगोद माहिं ते आया, दमरी रुकन भाग बिकाया।।
रुकन बिकाया भाग वश तैं, देव इकइन्द्री भया।
उत्तम मुआ चाण्डाल हुआ, भूप कीड़ों में गाय।।
जीतव्य-यौवन-धन-गुमान, कहा करे जल बुदबुदा।
करि विनय बहुगुन बड़े जनकी, ज्ञान का पावै उदा।।
ओं ह्रीं उत्तम मार्दव धर्मागाय अघ्र्य निर्वपामीति स्वाहा।
कपट न कीजै कोय, चोरन के पुर ना बसे।
सरल सुभावी होय, ताके घर बहु संपदा।।
उत्तम आर्जव रीति बखानी, रंचक दगा बहु दुखदानी।
मन में हो सो वचन उचरिये, वचन होय सो तनसों करिये।।
करिये सरल तिहुँ जोग अपने, देख निरमल आरसी।
मुख करै जैसा लखे तैसा, कपट प्रीति अंगारसी।।
नहिं लहै लछमी अधिक छल कर, करम बंध विशेषता।
भय त्याग दूध पिलाव पीवै आपदा नहिं देखता।
ओं ह्रीं उत्तम आर्जव धर्मांगाय अघ्र्य निर्वपामीति स्वाहा।
कठिन वचन मत बोल, परनिन्दा अरु झूठ तज।
सांच जवाहर खोल, सतवादी जग में सुखी।।
उत्तम सत्य वरत पालीजै, पर विश्वासघात नहिं कीजै।
सांचे झूठे मानुष देखो, आपन पूत स्वपास न पेखो।।
पेखो तिहायत पुरुष सांचे, को दरब सब दीजिये।
मुनिराज श्रावक की प्रतिष्ठा, सांच गुन लख लीजिये।।
ऊँचे सिंहासन बैठि वसुनृप, धरम का भूपति भया।
वच झूठ सेती नरक पहुँचा, सुरग में नारद गया।।
ओं ह्रीं उत्तम सत्यधर्मांगाय अघ्र्य निर्वपामीति स्वाहा।।
धरि हिरदै संतोष, करहु तपस्या देह सौं।
शौच सदा निरदोष, धरम बड़ो संसार में।।
उत्तम शौच सर्व जग जानो, लोभ पाप को बाप बखानो।
आसा-पास महा दुखदानी, सुख पावै संतोषी प्रानी।।
प्रानी सदा शुचि शील जप तप, ज्ञान ध्यान प्रभाव तैं।
नित गंग जमुन समुद्र न्हाये, अशुचि दोष सुभावतैं।।
ऊपर अमल मल भर्यो भीतर, कौन विधि घट शुचि कहैं।
बहु देह मैली सुगुण थैली, शौच-गुन साधु लहैं।।
ओं ह्रीं उत्तम शौचधर्मागाय अघ्र्य निर्वपामीति स्वाहा।।
काय छहों प्रतिपाल, पंचेन्द्री मन वश करो।
संजम रतन संभाल, विषय चोर बहु फिरत है।।
उत्तम संजम गहु मन मेरे, भव-भव के भाजै अघ तेरे।
सुरग-नरक पशु गति में नाहीं, आलस हरन करन सुख ठांही।।
ठांही पृथ्वी जल अग्नि मारुत, रूख त्रस करुना धरो।
सपरसन रसना घ्राण नैना, कान मन सब वश करो।।
जिस बिना नहिं जिनाज-सीझे, तू रुल्यो जग कीच में।
इक घरी मत विसरो करो नित, आव जम-मुख बीच में।
ओं ह्रीं उत्तम संयम धर्मांगाय अघ्र्य निर्वपामीति स्वाहा।
तप चाहैं सुर राय, करम शिखर को वज्र है।
द्वादश विधि सुखदाय, क्यों न करे निज शक्तिसम।।
उत्तम तप सब मांहि बखाना, करमशिखर को वज्र समाना।
बस्यों अनादि निगोद मंझारा, भूविकलत्रय पशुतन धारा।।
धारा मनुष तन महा दुर्लभ, सुकुल आयु निरोगता।
श्री जैनवानी तत्वज्ञानी, भई विषय-पयोगता।।
अति महादुरलभ त्याग विषय, कषाय जो तप आदरैं।
नरभव अनूपम कनक घर पर, मणिमयी कलसा धरैं।।
ओं ह्रीं उत्तम तप धर्मांगाय अघ्र्य निर्वपामीति स्वाहा।
दान चार परकार, चार संघ को दीजिये।
धन बिजली उनहार, नरभव लाहो लीजिये।।
उत्तम त्याग कह्यो जग सारा, औषधि शास्त्र अभय आहारा।।
निहचै रागद्वेष निरवारे, दाता दोनों दान संभारै।।
दोनों संभारै कूप जलसम, दरब घर में परनिया।
निज हाथ दीजे साथ लीजे, खाय खोया बह गया।।
धनि साधु शास्त्र अभय-दिवैया, त्याग राग विरोध को।
बिन दान श्रावक साधु दोनों, लहै नाहीं बोध को।।
ओं ह्रीं उत्तम त्याग धर्मांगाय अघ्र्य निर्वपामीति स्वाहा।
परिग्रह चैबीस भेद, त्याग करैं मुनिराजजी।
तिसना भाव उछेद, घटती जान घटाइये।।
उत्तम आकिंचन गुण जानो, परिग्रह चिन्ता दुखही मानो।
फांस तनक सी तन में साले, चाह लंगोटी की दुख भालै।।
भालै न समता सुख कभी नर, बिन मुनि-मुद्रा धरैं।
धनि नगन परवत नगन ठाड़े, सुर असुर पायनि परैं।।
घरमांहि तृष्णा जो घटावे, रुचि नहिं संसार सौं।
बहु धन बुरा हूँ भला कहिये, लीन पर उपगार सौं।।
ओं ह्रीं उत्तम आकिंचन्य धर्मांगाय अघ्र्य निर्वपामीति स्वाहा।
शील-बाढ़ नौ राख, ब्रह्मभाव अन्तर लखो।
करि दोनों अभिलाख, करहु सफल नर भव सदा।।
उत्तम ब्रह्मचर्य मन आनो, माता बहिन सुता पहिचानो।
सहैं वान वर्षा बहु सूरे, टिकैं न नयन बान लखि कूरे।।
कूरेतिया के अशुचि तन में, काम रोगी रति करै।
बहु मृतक सड़हि मसान मांही, काग ज्यों चोचें भरैं।।
संसार में विषबेल नारी, तजि गये जोगीश्वरा।
‘द्यानत’ धरम दश पैडि चढ़िके, शिवमहल में पग धरा।।
ओं ह्रीं उत्तम ब्रह्मचर्यधर्मागाय अघ्र्य निर्वपामीति स्वाहा।
जयमाला
दश लच्छन बन्दों सदा,
मनवांछित फलदाय।
कहौं आरती भारती,
हम पर होहु सहाय।।
उत्तम छिमा जहां मन होई,
अन्तर बाहर शत्रु न कोई।
उत्तम मार्दव विनय प्रकाशै,
नाना भेद ज्ञान सब भासै।।
उत्तम आर्जव कपट मिटावै,
दुरगति त्यागि सुगति उपजावै।
उत्तम सत्य वचन मुख बोलै,
सो प्रानी संसार न डोलै।
उत्तम शौच लोभ परिहारी,
संतोषी गुण रतन भंडारी।।
उत्तम संयम पालै ज्ञाता,
नरभव सफल करें ले साता।
उत्तम तप निरवांछित पाले,
सो नर करम शत्रु को टाले।
उत्तम त्याग करै जो कोई,
भेाग भूमि सुर शिवसुख होई।
उत्तम आंकिचन व्रत धारै,
परम समाधि दशा विस्तारै।
उत्तम ब्रह्मचर्य मन लावै,
नरसुर सहित मुकति फल पावै।
ओं ह्रीं उत्तम क्षमा मार्दव आर्जव सत्य शौच संयम तप त्याग आंकिचन्य ब्रह्मचर्य दशलक्षणधर्माय पूर्णाघ्र्य निर्वपामीति स्वाहा।
करे करम की निरजरा, भव पिंजरा विनाश।
अजर अमरपद को लहे, ‘द्यानत’ सुख की राशि।।
इति आशीर्वादः- शांतये त्रय शांतिधारा - परिपुष्पांजलि क्षिपेत्
।। इति दश लक्षण धर्म पूजा समाप्तम्।।