7 नवग्रह अरिष्टनिवारक विधान
प्रणम्याद्यन्ततीर्थेशं, धर्मतीर्थप्रवर्तकं,
भव्यविघ्नोप-शांत्यर्थं, ग्रहार्चा वर्ण्यते मया।
मार्तण्डेन्दु-कुजसोम्य सूरसूर्यकृतांतकाः,
राहुश्च केतुसंयुक्तो, ग्रहाः शांतिकरा नव।।
दोहा
आदि अन्त जिनवर नमों, धर्म प्रकाशनहार।
भव्य विघ्न उपशांति को, ग्रहपूजा चित धार।।
काल दोष परभाव सों, विकल्प छूटे नाहिं।
जिन-पूजा में ग्रहन की पूजा मिथ्या नाहिं।।
इस ही जम्बू द्वीप में, रवि-शशि मिथुन प्रमान।
ग्रह नक्षत्र तारा सहित, ज्योतिष चक्र प्रमान।।
तिनही के अनुसार सों, कर्म-चक्र की चाल।
सुख दुख जानै जीव को, जिन-वच नेत्रा विशाल।।
ज्ञान प्रश्न-व्याकरण में, प्रश्न-अंग है आठ।
भद्रबाहु मुख जनित जो, सुनत कियो मुख पाठ।।
अवधि धार मुनिराज जी कहे पूर्वकृत कर्म।
उनके वचन अनुसार सौं, हरे हृदय का भर्म।।
समुच्चय पूजा
दोहा
अर्क चन्द्र कुज सोम्य गुरु, शुक्र शनिश्चर राहु।
केतु ग्रहारिष्ट नाशने, श्री जिन-पूज रचाहु।।
ओं ह्रीं सर्वग्रहारिष्टनिवारकाः श्री चतुर्विशतिजिनाः अत्र अवतरत।
अवतरत संवौषट् आह्नाननम्। अत्रा तिष्ठत तिष्ठत ठः ठः स्थापनम्।
अत्र मम सन्निहितो भवत भवत वषट् सन्निधिकरणं।
गीता छन्द
क्षीरसिंधु समान उज्ज्वल, नीर निर्मल लीजिये।
चौबीस श्रीजिनराज आगे, धार त्रय शुभ दीजिये।।
रवि सोम भूमिज सौम्य गुरु कवि, शनितमो पूतकेतवे।
पूजिये चौबीस जिन, ग्रहारिष्ट-नाशन हेतवे।।
ओं ह्रीं सर्वग्रहारिष्ट-निवारक-श्रीचतुर्विंशति-तीर्थंकरेभ्य
पंचकल्याणकप्राप्तेभ्यो जलं निर्वपामीति स्वाहा।
श्रीखण्ड कुमकुम हिम सुमिश्रित, घिसौं मनकरि चावसौं।
चौबीस श्री जिनराज अघहर, चरण चरचों भावसौं।। रवि.।।
ओं ह्रीं सर्वग्रहारिष्ट-निवारक-श्रीचतुर्विंशति-तीर्थकरेभ्यः
पंचकल्याणकप्राप्तेभ्यः चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा।।2।।
अक्षत अखण्डित सालि तंदुल, पुंज मुक्ता फल समं।
चौबीस श्रीजिनचरण पूजत, नाश है नवग्रह भ्रमं।। रवि.।ै।
ओं ह्रीं सर्वग्रहारिष्ट-निवारक-श्रीचतुर्विंशति तीर्थकरेभ्य
पंचकल्याणकप्राप्तेभ्यो अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।3।।
कुंद कमल गुलाब केतकि, मालती जाही जुही।
कामबाण विनाश कारण, पूजि जिनमाला गुही।।रवि.।।
ओं ह्रीं सर्वग्रहारिष्ट-निवारक-श्रीचतुर्विंशतितीर्थकरेभ्यः
पंचकल्याणकप्राप्तेभ्यः पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।4।
फैनी सुआली पुवा पापर, लेय मोदक घेवरं।
शतबिछद्र आदिक विविध व्यंजन, क्षुधाहर बहु संखकरं।।रवि.।।
ओं ह्रीं सर्वग्रहारिष्ट-निवारक-श्रीचतुर्विंशतितीर्थकरेभ्यः
पंचकल्याणकप्राप्तेभ्यो नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाह।5।
मणिदीप जगमग ज्योति तमहर प्रभू आगे लाइये।
अज्ञान नाशक जिन प्रकाशक, मोहतिमिर नशाइये।।रवि.।।
ओं ह्रीं सर्वग्रहारिष्ट-निवारक-श्रीचतुर्विशतितीर्थकरेभ्य
पंचकल्याणकप्राप्तेभ्यो दीपं निर्वपामीति स्वाहा।।9।।
कृष्णा अगर घनसार मिश्रित, लोंग चन्दन लेइये।
ग्रहारिष्ट नाशन हेतु भविजन, धूप जिनपद खेइये।।रवि.।।
ओं ह्रीं सर्वग्रहारिष्ट-निवारक-श्रीचतुर्विशांतितीर्थकरेभ्यः।
पंचकल्याणकप्राप्तेभ्यो धूपं निर्वपामीति स्वाहा।7।
बादाम पिस्ता सेव श्रीफल, मोच नींबू सदफलै।
चौबीस श्रीजिनराज पूजत, मनोवांछित शुभ फलं।।रवि.।।
ओं ह्रीं सर्वग्रहारिष्ट-निवारक-श्रीचतुर्विशांतितीर्थकरेभ्यः।
पंचकल्याणकप्राप्तेभ्यो फलं निर्वपामीति स्वाहा।7।
जल गंध सुमन अखण्ड तन्दुल, चरुु सुदीप सुधूपकं।
पफल द्रव्य दूध दही सुमिश्रित, अर्घ देय अनूपकं।।रवि.।।
ओं ह्रीं सर्वग्रहारिष्ट-निवारक-श्रीचतुर्विशांतितीर्थकरेभ्यः।
पंचकल्याणकप्राप्तेभ्यो अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।7।
प्रत्येक अर्घ
अडिल्ल
सलिल गंधले फूल सुगन्धित लीजिए।
तन्दुल ले चरु दीपक धूप खेवीजिये।।
फल ले अर्घ बनाय प्रभू पद पूजिये।।
रवि अरिष्ट को दोष तुरन्त तहे धूजिये।।
ओं ह्रीं रवि अरिष्ट निवारक श्री पद्मप्रभु जिनेन्द्राय अर्घं निर्व.।।1।।
जल चन्दन बहु फूल सु तन्दुल लीजिये।
दुग्ध शर्करा राशि हित सु व्यंजन कीजिये।।
दीप धूप फल अर्घ बनाये धरीजिये।
शीश जिनेन्द्र को नवाय अरिष्ट हरीजिये।।
ओं ह्रीं चन्द्रारिष्ट निवारक श्री चन्द्रप्रभु जिनेन्द्राय अर्घ नि.।।2।।
सुरभित जल श्रीखण्ड कुसुम तन्दुल भले।
व्यंजन दीपक धूप सदा फल सो रले।।
वासुपूज्य जिनराय अर्घ शुभ दीजिये।
मंगल ग्रह को रिष्ट नाश कर लीजिये।।
ओं ह्रीं भौमारिष्ट निवारक वासुपूज्य-जिनेन्द्राय अर्घ निर्व.।।3।।
शुभ सलिल चन्दन सुमत अक्षत क्षुधाहर चरु लीजिये।
मणिदीप धूप सुफल सहित वसु दरब अर्घ जु दीजिये।
विमलनाथ अनन्तनाथ सु धर्मनाथ जु शांतये।
कुन्थु अरह जु नमि जिन महावीर आठ जिनं यजे।।
ओं ह्रीं सौम ग्रहारिष्ट निवारक अष्ट जिनेन्द्रभ्यो अर्घ नि.।।4।।
जल चन्दन फूल तन्दुल मूलं चरु दीपक ले धूप फलं।
बसु विधि से अर्चे वसुविधि चर्चे कीजे अविचल मुक्ति धरं।।
ऋषभ अजित सम्भव अभिनन्दन सुमति सुपारसनाथ वरं।
शीतलनाथ श्रेयांस जिनेश्वर पूजत सुर गुरु दोष हरं।।
ओं ह्रीं सुर गुरु दोष निवारक वसु जिनवरेभ्यो अर्घ निर्व.।।5।।
जल चन्दन ले पुष्प और अक्षत घने।
चरु दीपक बहु धूप सु फल अति सोहने।।
गीत नृत्य गुण गाय अर्घ पूरन करैं।
पुष्पदन्त जिन पूज शुक्र दूषण हरैं।।
ओं ह्रीं शुक्रारिष्ट निवारक पुष्पदन्त जिनाय अर्घ निर्व.।।6।।
प्राणी नीरादिक बसु द्रव्य ले, मन वच काय लगाय।।
अष्ट कर्म को नाश है अष्ट महा गुण पाय हो।
प्राणी मुनिसुव्रत जिन पूजिये।।
ए जी रवि सुत सहज दुख जाय, प्राणी मुनिसुव्रत जिन पूजिये।।
ओं ह्रीं शनि अरिष्ट नाशक मुनिसुव्रत जिनेन्द्राय अर्घ निर्व.।।7।।
जल गन्ध पुष्प अखण्ड अक्षय चरु मनोहर लीजिए।
दीप धूप फलोघ सुन्दर अर्घ जिन पद दीजिए।।
जब राहु गोचर रासि में दुख देइ दुष्ट सुभावसों।।
तब नेमि जिनके भाव सेति चरण पूजै चावसों।
ओं ह्रीं राहु अरिष्ट नाशक नेमिनाथ जिनेन्द्राय अर्घ निर्व.।।8।।
जल चन्दन सुमन सु लाय तन्दुल अघ हारी।
चरु दीप धूप फल लाय अर्घ करों भारी।।
मैं पूजों मल्लि जिनेश पारस सुखकारी।
ग्रह केतु अरिष्ट निवार मन सुख हितकारी।।
ओं ह्रीं हेतु अरिष्ट निवारक मल्लि पार्श्व जिनाभ्याम् अघ निर्व.।।9।।
रवि शशि मंगल सौम गुरु भृगु शनि राहु सुकेतु।
इनको रिष्ट निवार करे अर्चे जिन सुख हेतु।।
ओं ह्रीं ग्रहारिष्ट निवारक चतुर्विशति जिनेभ्यो अर्घ निर्व.।।10।।
जयमाला
दोहा
श्रीजिनवर पूजा किये, ग्रह अरिष्ट मिट जांय।
पंच ज्योतिषी देव सब, मिल सेवें प्रभु पांय।।
पद्धरी छन्द
जय 2 जिन आदि महन्त देव, जयअजित जिनेश्वर करहुं सेव।
जय 2 संभव भव भय निवार, जय 2 अभिनन्दन जगत तार।।
जय सुमति सुमति दायक विशेष, जय पद्मप्रभ लख पदम लेष।
जय 2 सुपार्स हर कर्म पास, जय जय चंद्रप्रभ सुख निवास।।
जय पुष्पदन्त कर कर्म अंत, जय शीतल जिन शीतल करन्त।।
जय श्रेय करन श्रेयान्स देव, जय वासुपूज्य पूजत सुमेव।।
जय विमल विमल कर जगत जीव, जय 2 अनंत सुख अतिसदीव।
जय धर्मधुरन्धर धर्मनाथ, जय शान्ति जिनेश्वर मुक्ति साथ।।
जय कुंथुनाथ शिव-सुख निधान, जय अरह जिनेश्वर मुक्ति खान।
जय मल्लिनाथ पद पद्म भास, जय मुनिसुव्रत प्रकाश।।
जय जय नमिदेव दयाल सन्त, जय नेमिनाथ प्रभु गुण अनन्त।
जय पारसप्रभु संकट निवार, जय वर्द्धमान आनन्दकार।।
नवग्रह अरिष्ट जब होय आय, तब पूजै श्रीजिनदेव पाय।
मन वच तन सब सुखसिंधु होय, ग्रहशांत रीति यह कही जोय।।
ओं ह्रीं सर्वग्रहारिष्टनिवारक-श्रीचतुर्विंशतितीर्थंकरजिनेन्द्रभ्यः
पंचकल्याणकप्राप्तेभ्यो महार्घ निर्वपामीति स्वाहा।
चौबीसों जिनदेव प्रभु, ग्रह सम्बन्ध विचार।
जो पूजे प्रत्येक को, वे पावें सुख सार।।
इत्याशीर्वाद