श्री भक्तामर दीपार्चना
भक्तामर प्रणत मौलि-मणि-प्रभाणा ,
मुद्योतकं दलित-पाप-तमो वितानम् ।
सम्यक् प्रणम्य जिन-पाद-युगं युगादा ,
वालम्बनं भव-जले पततां जनानाम् ॥
भक्त अमर तत्वज्ञ नम्र हो, प्रभु पद नमन करें।
समकित आदि गुणमणि की द्युति तेज महंत धरे ।
गहन पाप तमपुंज विनाशक जिनके चरण महान् ।
युगादि में अवतरित तीर्थंकर आदि जिनेश प्रणाम ।।
भवसागर में पतित जनों को प्रभु पद ही आधार ।
हृदय वेदी पर सदा बसे प्रभु चरण-कमल सुखकार ।।
मानतुंग मुनिवर में प्रभु की भक्ति समाई है।
भक्तामर में ऋषभदेव की महिमा गाई है ॥1॥
ॐ ह्रीं अर्हम् अवधिज्ञान बुद्धि ऋद्धये अवधिज्ञान बुद्धि ऋद्धि प्राप्तेभ्यो नमो दीप प्रज्वलनम् करोमि ।1।
यः संस्तुत: सकल-वाङ् मय तत्त्व बोधा ,
दुभूत-बुद्धि-पटुभिः सुर-लोक-नाथैः ।
स्तोत्रेर्जगत्- त्रितय – चित्त- हरैरुदारैः,
स्तोष्ये किलाहमपि तं प्रथमं जिनेन्द्रम् ॥2॥
द्वादशांग मर्मज्ञ बुद्धि से चतुर इन्द्र द्वारा।
संस्तुत थे उत्कृष्ट स्तोत्र से जो जग मन हारा ।।
उन प्रथमेश तीर्थंकर की मैं भक्ति स्तुति करूँ।
अपने सर्व कर्म बंधन और भव का आर्त हरूँ।।
स्तुति करने की करें प्रतिज्ञा रत्नत्रय धारी।
स्वानुभूति के रस में डूबे मुनिवर अविकारी ।।
मानतुंग मुनिवर में प्रभु की भक्ति समाई है।
भक्तामर में ऋषभदेव की महिमा गाई है। (2)
ॐ ह्रीं अर्हम् मनःपर्यय ज्ञान बुद्धि ऋद्धये मनःपर्यय ज्ञान बुद्धि ऋद्धि प्राप्तेभ्यो नमो दीप प्रज्वलनम् करोमि। (2)
बुद्ध्या विनापि विबुधार्चित-पाद-पीठ !
स्तोतुं समुद्यत- मतिर्विगत लपोऽहम् ।
बाल विहाय जल-संस्थित मिन्दु-बिम्ब ,
मन्यः क इच्छति जनः सहसा ग्रहीतुम् ॥
जिनका चरणासन भी पूजित देवों के द्वारा।
उनकी स्तुति करूँ मैं कैसे शब्दों के द्वारा।।
बिन बुद्धि के नाथ स्तवन को मैं तैयार हुआ।
लाज रहित समझो प्रभु मुझको मैं लाचार रहा।
ज्यों जल में शशि बिम्ब पकड़ना चाहे बाल अधीर।
नहीं चाहता उसे पकड़ना धीर वीर गम्भीर ।।
मानतुंग मुनिवर में प्रभु की भक्ति समाई है।
भक्तामर में ऋषभदेव की महिमा गाई है।। (3)
ॐ हीं अर्हम् केवलज्ञान बुद्धि ऋद्धये केवलज्ञान बुद्धि ऋद्धि प्राप्तेभ्यो नमो दीप प्रज्वलनम् करोमि।
वक्तुं गुणान्गुण समुद्र ! शशाङ्क कान्तान्,
कस्ते क्षमः सुर गुरु-प्रतिमोऽपि बुद्ध्या ।
कल्पान्त -काल-पवनोद्धत नक्र- चक्रं
को वा तरीतुमलमम्बुनिधिं भुजाभ्याम् ॥
शशि समान उज्जवल गुण वाले गुणसागर भगवान।
बृहस्पति सम बुद्धिमान भी कर न सके गुणगान ।।
प्रलयकाल से क्षुब्ध समन्दर भरे मच्छ जिसमें।
तेज वायु से लहराते हैं हिंस्त्र जन्तु उसमें ।।
गहरे सागर में भुजबल से तिर सकता है कौन ?
वैसे ही गुण वर्णन में असमर्थ प्रभु मैं मौन।।
मानतुंग मुनिवर में प्रभु की भक्ति समाई है।
भक्तामर में ऋषभदेव की महिमा गाई है।। (4)
ॐ ह्रीं अर्हम् बीज बुद्धि ऋद्धये बीज बुद्धि ऋद्धि प्राप्तेभ्यो नमो दीप प्रज्वलनम् करोमि। (4)
सोऽहं तथापि तव भक्ति-वशान्मुनीश !
कत्तुं स्तवं विगत-शक्ति-रपि प्रवृत्तः ।
प्रीत्यात्म वीर्य मविचार्य मृगी मृगेन्द्रम्
नाभ्येति किं निज-शिशो: परिपालनार्थम् ॥
पहले ही कह चुका प्रभु मैं, शक्ति बिन लाचार ।
फिर भी भक्ति भरे मन से गुण गाने को तैयार ।।
हिरणी जाने सिंह के आगे मैं हूँ अति बलहीन ।
करे सामाना फिर भी उससे शिशु से मोहाधीन।।
नाथ! आपका गुणानुरागी मैं गुणगान करूँ।
कर्म सिंह का करूँ सामना मोह विभाव हरूँ।
मानतुंग मुनिवर में प्रभु की भक्ति समाई है।
भक्तामर में ऋषभदेव की महिमा गाई है। (5)
ॐ ह्रीं अर्हम् कोष्ठज्ञान बुद्धि ऋद्धये कोष्ठज्ञान बुद्धि ऋद्धि प्राप्तेभ्यो नमो दीप प्रज्वलनम् करोमि। (5)
अल्प- श्रुतं श्रुतवतां परिहास- धाम,
त्वद्-भक्तिरेव मुखरी-कुरुते बलान्माम् ।
यत्कोकिलः किल मधी मधुरं विरौति,
तच्चाम्र चारु कलिका निकरैक हेतुः ॥
प्रसन्नता का पात्र बना हूँ, यद्यपि अल्प शास्त्रज्ञ ।
हूँ आनन्दपात्र उनका क्यों हास्य करें आत्मज्ञ ?
तव अनन्त गुण गण की भक्ति मुझको बुलवाती ।
आम्र मंजरी के कारण ही कोयल ज्यों गाती ।।
जिन भक्ति से निज भक्ति की बसन्त ऋतु आई ।
आत्म कोकिला कुहुक रही दर्शन दो जिनराई ।।
मानतुंग मुनिवर में प्रभु की भक्ति समाई है।
भक्तामर में ऋषभदेव की महिमा गाई है। (6)
ॐ ह्रीं अर्हम् पादानुसारि बुद्धि ऋद्धये पादानुसारि बुद्धि ऋद्धि प्राप्तेभ्यो नमो दीप प्रज्वलनम करोमि। (6)
त्वत्संस्तवेन भव- सन्तति- सन्निबद्धं,
पापं क्षणात्क्षयमुपैति शरीरभाजाम् ।
आक्रान्त लोक-मलि -नील-मशेष- माशु,
सूर्यांशु भिन्न-मिव शार्वर-मन्धकारम् ॥
प्रभु संस्तवन की महिमा का जो अनुभव करते हैं।
अनेक भव से संचित अध भी पल में हरते हैं ।।
ज्यों रात्रि का अलि सम काला घना तमस भी हो।
किन्तु सूर्य की किरण मात्र से छिन्न-भिन्न ही हो ।
मोह अँधेरा शाश्वत लय हो यही भाव स्वामी ।
चेतन में हो नित्य सवेरा है अन्तर्यामी ।
मानतुंग मुनिवर में प्रभु की भक्ति समाई है।
भक्तामर में ऋषभदेव की महिमा गाई है। (7)
ॐ ह्रीं अर्हम् संभिन्न संश्रोतृत्व बुद्धि ऋद्धये संभिन्न संश्रोतृत्व बुद्धि ऋद्धि प्राप्तेभ्यो नमो दीप प्रज्वलनम् करोमि । (7)
मत्त्वेति नाथ! तव संस्तवनं मयेद,
तनु धियापि तव प्रभावात् ।
चेतो हरिष्यति सतां नलिनी-दलेषु,
मुक्ता-फल-द्युति-मुपैति ननूद-बिन्दुः ॥
बिन बुद्धि से स्वल्प बुद्धि को मैंने प्राप्त किया।
तव प्रभाव से सज्जन मनहर स्तव प्रारम्भ किया।
कमलिनी के पत्तों पर जब जल की बूँद पड़े।
मोती सम आभा के जैसी अद्भुत चमक दिखे ।।
नीर बूँद सम मेरी भक्ति प्रभु कमलिनी पात।
अनन्त गुण मुक्ता पाने को चरण नवाऊँ माथ ।।
मानतुंग मुनिवर में प्रभु की भक्ति समाई है।
भक्तामर में ऋषभदेव की महिमा गाई है ।। (8)
ॐ ह्रीं अर्हम् दूरास्वादित्व बुद्धि ऋद्धये दूरास्वादित्व बुद्धि ऋद्धि प्राप्तेभ्यो नमो दीप प्रज्वलनम् करोमि । (8)
आस्तां तव स्तवन- मस्त- समस्त दोष,
त्वत्सङ्कथाऽपि जगतां दुरितानि हन्ति ।
दूरे सहस्रकिरण: कुरुते प्रभैव,
पद्माकरेषु जलजानि विकासभाञ्जि ॥
नाथ आपके संस्तवन की बात रहे अति दूर ।
नाम मात्र में पाप नाश की शक्ति है भरपूर ।।
अठशत योजन दूर धरा से सूरज रहता है।
केवल रवि किरणों को छूकर सु- मनस खिलता है।
सिद्धालय में बसे प्रभु का नाम मात्र ध्याऊँ ।
स्वात्म सरोवर में रत्नत्रय कमल खिले पाऊँ ।
मानतुंग मुनिवर में प्रभु की भक्ति समाई है।
भक्तामर में ऋषभदेव की महिमा गाई है ।। (9)
ॐ ह्रीं अर्हम् दूरस्पर्शित्व बुद्धि ऋद्धये दूरस्पर्शित्व बुद्धि ऋद्धि प्राप्तेभ्यो नमो दीप प्रज्वलनम् करोमि । (9)
नात्यद्-भुतं भुवन-भूषण ! भूत-नाथ!
भूतैर्गुणैर्भुवि भवन्त- मभिष्टुवन्तः ।
भवन्ति भवतो तेन किं वा
भूत्याश्रितं य इह नात्मसमं करोति ॥
हे त्रिभुवन के भूषण ! स्वामी सब जीवों के नाथ।
तव सद्गुण का कीर्तन कर जो चरण नमावे
माथा प्रभु समान पद वह पा लेता इसमें क्या आश्चर्य।
जैसे निज आश्रय सेवक को निज सम करता आर्य।।
भक्त आपसे गुण सम्पद पा स्वयं नाथ बनता।
ऐसे वीतराग जिनवर को श्रद्धा से नमता।।
मानतुंग मुनिवर में प्रभु की भक्ति समाई है।
भक्तामर में ऋषभदेव की महिमा गाई है।। (10)
ॐ ह्रीं अर्हम् दूरघ्राणत्व बुद्धि ऋद्धये दूरघ्राणत्व बुद्धि ऋद्धि प्राप्तेभ्यो नमो दीप प्रज्वलनम् करोमि। (10)
दृष्ट्वा भवन्त मनिमेष- विलोकनीयं,
नान्यत्र-तोष- मुपयाति जनस्य चक्षुः ।
पीत्वा पय: शशिकर-द्युति- दुग्ध-सिन्धो ,
क्षारं जलं जलनिधेरसितुं क इच्छेत् ॥
अपलक दर्शन योग्य आपका वीतराग है रूप ।
एक बार तुमको लखता वह कहीं न हो सन्तुष्ट।
क्षीर सिन्धु के मीठे जल को जो पी ले इक बार ।
क्या वह फिर पीना चाहेगा लवणोदधि जल क्षार ?
क्षीर समन्दर के समान प्रभु दर्शन जो पाए ।
रागी लवण सिन्धु सम उनकी शरण कौन जाए ?
मानतुंग मुनिवर में प्रभु की भक्ति समाई है।
भक्तामर में ऋषभदेव की महिमा गाई है।। (11)
ॐ ह्रीं अर्हम् दूर श्रवणत्व बुद्धि ऋद्धये दूर श्रवणत्व बुद्धि ऋद्धि प्राप्तेभ्यो नमो दीप प्रज्वलनम् करोमि । ( 11 )
यै: शान्त-राग-रुचिभि: परमाणुभिस्-त्वं,
निर्मापितस्- त्रि-भुवनैक-ललाम-भूतः !
तावन्त एव खलु तेऽप्यणव: पृथिव्यां,
यत्ते समान- मपरं न हि रूप-मस्ति ॥
तीन भुवन के अलंकार हे आदिनाथ भगवन् !
परम शान्त सुन्दर अणुओं से रचित आपका तन।
वे परमाणु इस धरती पर बस उतने ही थे।
क्योंकि आपसे तन के धारी और न कोई थे।।
ज्ञान शरीरी होने को जिनवर को ही ध्याऊँ।
तन कारा के बंधन से हे नाथ मुक्ति पाऊँ ।।
मानतुंग मुनिवर में प्रभु की भक्ति समाई है।
भक्तामर में ऋषभदेव की महिमा गाई है।। (12)
ॐ ह्रीं अर्हम् दूर दर्शनत्व बुद्धि ऋद्धये दूर दर्शनत्व बुद्धि ऋद्धि प्राप्तेभ्यो नमो दीप प्रज्वलनम् करोमि । (12)
वक्त्रं क्व ते सुर-नरोरग-नेत्र-हारि,
नि:शेष- निर्जित-जगत्त्रितयोपमानम्।
बिम्बं कलङ्क-मलिनं क्व निशाकरस्य,
यद्वासरे भवति पाण्डुपलाश-कल्पम् ॥
नर सुर और नागेन्द्र नयन को जिन ने हरण किया।
तीन जगत की उपमाओं को जिनने वरण किया।
ऐसा सुन्दर अनुपम मुख है, आदीश्वर जिन का ।
कैसे मैं कह दूँ जिनमुख को मलिन निशाकर सा ।।
जो पलाश पत्ते सा दिन में फीका पड़ जाता ।
सदा प्रकाशी निर्मल मुख श्री जिनवर का रहता ।।
मानतुंग मुनिवर में प्रभु की भक्ति समाई है।
भक्तामर में ऋषभदेव की महिमा गाई है ।। (13)
ॐ ह्रीं अर्हम् दश पूर्वित्व बुद्धि ऋद्धये दश पूर्वित्व बुद्धि ऋद्धि प्राप्तेभ्यो नमो दीप प्रज्वलनम् करोमि। (13)
सम्पूर्ण मण्डल-शंशाङ्क-कला-कलाप
शुभ्रा गुणास्-त्रि-भुवनं तव लङ्घयन्ति।
ये संश्रितास्-त्रि-जगदीश्वरनाथ-मेकं,
कस्तान् निवारयति सञ्चरतो यथेष्टम् ॥
पूर्ण चन्द्र की कला युक्त हे उज्जवल गुण वाले।
नाथ आपके के आश्रय गुण सारे ।।
त्रिभुवन पति के आश्रित हैं जो उन्हें कौन रोके ?
यथेष्ट विचरण करे गुणों को कहो कौन टोके ?
भक्त आपके ही आश्रित है, सिद्धालय चाहे।
कर्म और नौकर्म इसे ना कोई रोक पावे।।
मानतुंग मुनिवर में प्रभु की भक्ति समाई है।
भक्तामर में ऋषभदेव की महिमा गाई है।। (14)
ॐ ह्रीं अर्हम् चतुर्दश पूर्वित्व बुद्धि ऋद्धये चतुर्दश पूर्वित्व बुद्धि ऋद्धि प्राप्तेभ्यो नमो दीप प्रज्वलनम् करोमि । (14)
चित्रं किमत्र यदि ते त्रिदशाङ्ग-नाभिर्
नीतं मनागपि मनो न विकार मार्गम् ।
कल्पान्त- काल- मरुता चलिताचलेन,
किं मन्दराद्रिशिखरं चलितं कदाचित् ॥
प्रलयकाल की तीव्र वायु से पर्वत हिल जाते ।
किन्तु पवन ये मेरू शिखर को हिला नहीं पाते ।।
विकार पैदा करने वाली सुरागड़ना आई।
इसमें क्या आश्चर्य प्रभु का मन न डिगा पाई।।
अचल मेरू सी थिरताधारी आदिनाथ जिनराज ।
ब्रह्मचर्य व्रत अखण्ड धरकर पाया शिव साम्राज्य ।।
मानतुंग मुनिवर में प्रभु की भक्ति समाई है।
भक्तामर में ऋषभदेव की महिमा गाई है।। (15)
ॐ ह्रीं अर्हम् अष्टांग महा निमित्त बुद्धि ऋद्धये अष्टांग महा निमित्त बुद्धि ऋद्धि प्राप्तेभ्यो नमो दीप प्रज्वलनम् करोमि। ( 15
निर्धूम- वर्ति- रपवर्जित- तैल- पूर:
कृत्स्नं जगत्त्रय-मिदं प्रकटीकरोपि।
गम्यो न जातु मरुतां चलिताचलानां,
दीपोऽपरस्त्वमसि नाथ ! जगत्प्रकाश: ॥
राग बाती और तेल शून्य प्रभु द्वेप धुएँ से दूर।
त्रिभुवन को इस साथ प्रकाशित करते हो भरपूर ।।
गिरि को चला सके जो ऐसी चलती तेज बयार।
बुझा न सकती प्रभु दीपक को माने अपनी हार।।
जगत प्रकाशक अपूर्व दीपक शाश्वत हो जिननाथ ।
मेरे मन को सदा प्रकाशित करते रहना आप ।।
मानतुंग मुनिवर में प्रभु की भक्ति समाई है।
में भक्तामर में ऋषभदेव की महिमा गाई है ।। (16)
ॐ ह्रीं अर्हम् प्रज्ञा श्रमणत्व बुद्धि ऋद्धये प्रज्ञा श्रमणत्व बुद्धि ऋद्धि प्राप्तेभ्यो नमो दीप प्रज्वलनम् करोमि । (16)
नास्तं कदाचिदुपयासि न राहुगम्यः,
स्पष्टीकरोषि सहसा युगपज्- जगन्ति ।
नाम्भोधरोदर निरुद्ध महा- प्रभाव:,
सूर्यातिशायि-महिमासि मुनीन्द्र ! लोके ॥
अस्त कभी ना होता जिनरवि ग्रसे न राहु प्रबल ।
छिपा न पाते तेज आपका कोई बादल दल ।।
युगपत् तीनों लोक प्रकाशी पूर्णज्ञान रवि आप |
गगन सूर्य से भी अतिशायी महिमाशाली नाथ ।।
कर्म से ग्रसित ज्ञान मम शक्ति दो भगवान।
राहु विभाव धन से छिपे आत्म को प्रकट करूँ धर ध्यान ।।
मानतुंग मुनिवर में प्रभु की भक्ति समाई है।
भक्तामर में ऋषभदेव की महिमा गाई है ।। (17)
ॐ ह्रीं अर्हम् प्रत्येक बुद्धि ऋद्धये प्रत्येक बुद्धि ऋद्धि प्राप्तेभ्यो नमो दीप प्रज्वलनम् करोमि । ( 17 )
नित्योदयं दलित- मोह- महान्धकारं,
गम्यं न राहु-वदनस्य न वारिदानाम् ।
विभ्राजते तव मुखाब्ज-मनल्पकान्ति,
विद्योतयज्-जगदपूर्व-शशाङ्कं-बिम्बम् ॥
अद्भुत है मुख चन्द्र आपका नित्य उदित रहता।
मोह महान्ध मिटाने वाला राहु न ग्रस सकता।।
मेघ आवरण रहित नित्य प्रभु जगत प्रकाशक आप।
अनन्त कान्ति युक्त जिनेश्वर शान्ति विधायक नाथ ।।
मेरे सम्यक् श्रद्धा नभ के चाँद निराले हो ।
पूर्णज्ञान की कला युक्त भविजन को प्यारे हो ।।
मानतुंग मुनिवर में प्रभु की भक्ति समाई है।
भक्तामर में ऋषभदेव की महिमा गाई है।। (18)
ॐ ह्रीं अर्हम् वादित्व बुद्धि ऋद्धये वादित्व बुद्धि ऋद्धि प्राप्तेभ्यो नमो दीप प्रज्वलनम् करोमि । (18)
किं शर्वरीषु शशिनाह्नि विवस्वता वा,
युष्मन्मुखेन्दु- दलितेषु तमःसु नाथ!
निष्पन्न – शालि-वन-शालिनी जीव-लोके,
कार्यं कियज्जल – धरै-र्जल-भार-नम्रै :: ॥
नाथ आपका मुख मण्डल जब तम का नाशक है।
तब दिन में रवि रात्रि में शशि क्यों आवश्यक है ?
सल धान्य की पकी हुई जब खेतों में चहुँ ओर ।
तब जलपूरित मेघ व्यर्थ जो शोर मचाते घोर ।।
मुझे प्रयोजन मात्र आपसे जग से कुछ ना काम ।
आत्म प्रकाशी आदीश्वर को बारम्बार प्रणाम ।
मानतुंग मुनिवर में प्रभु की भक्ति समाई है।
भक्तामर में ऋषभदेव की महिमा गाई है।। (19)
ॐ ह्रीं अर्हम् सर्व विक्रिया बुद्धि ऋद्धये सर्व विक्रिया बुद्धि ऋद्धि प्राप्तेभ्यो नमो दीप प्रज्वलनम् करोमि । ( 19 )
ज्ञानं यथा त्वयि विभाति कृतावकाश,
नैवं तथा हरि -हरादिषु नायकेषु।
तेजःस्फुरन्मणिषु याति यथा महत्त्वं,
नैवं तु काच -शकले किरणाकुलेऽपि
स्वाभाविक ज्योतिर्मय मणि में जो कान्ति होती।
चमकदार वह काँच खण्ड में कभी नहीं होती।।
जो कैवल्यज्ञान प्रभुवर में स्व-पर प्रकाशी है।
वैसा ज्ञान नहीं हरिहर में ये जग-वासी हैं ।।
प्रभु ज्ञान का अनन्तवाँ भी भाग नहीं इनमें।
कैसे तुलना करें अल्पमति जन में और जिन में ।।
मानतुंग मुनिवर में प्रभु की भक्ति समाई है।
भक्तामर में ऋषभदेव की महिमा गाई है।। (20)
ॐ ह्रीं अर्हम् नभ स्थल गामि चारण क्रिया ऋद्धये नभ स्थल गामि चारण क्रिया ऋद्धि प्राप्तेभ्यो नमो दीप प्रज्वलनम् करोमि । (20)
मन्ये वरं हरि- हरादय एव दृष्टा,
दृष्टेषु येषु हृदयं त्वयि तोषमेति ।
किं वीक्षितेन भवता भुवि येन नान्यः,
कश्चिन्मनो हरति नाथ ! भवान्तरेऽपि ॥
हरिहरादि अच्छे हैं ऐसा मानूँ मैं जिनराज ।
क्योंकि उन्हें देखकर मन सन्तुष्ट आपमें नाथ ।।
प्रभु आपके दर्शन से क्या लाभ मुझे होगा ?
अन्य देव भव-भव में अब ना मन हर पायेगा।।
ब्याजोक्ति इस अलंकार में कहना यह चाहूँ।
सर्वश्रेष्ठ प्रभु मात्र आपको त्रियोग से ध्याऊँ ।।
मानतुंग मुनिवर में प्रभु की भक्ति समाई है।
भक्तामर में ऋषभदेव की महिमा गाई है।। ( 21 )
ॐ ह्रीं अर्हम् जल चारण क्रिया ऋद्धये जल चारण बुद्धि क्रिया ऋद्धि प्राप्तेभ्यो नमो दीप प्रज्वलनम् करोमि । ( 21 )
स्त्रीणां शतानि शतशो जनयन्ति पुत्रान्,
नान्या सुतं त्वदुपमं जननी प्रसूता।
सर्वा दिशो दधति भानि सहस्र-रश्मि,
प्राच्येव दिग्जनयति स्फुरदंशु-जालम् ॥
जग में कई सैंकड़ो नारी पुत्र जन्म देती।
किन्तु आपसे सुत की माँ सामान्य नहीं होती।।
एकमात्र ही मरूदेवी माँ महान् कहलायी।
प्रथम तीर्थकर जिनशासन की शान पुत्र पायी ।।
पूर्व दिशा ही एक अनोखी दिनकर उदित करे।
सभी दिशा-विदिशाएँ ग्रह तारों को प्रकट करें ।।
मानतुंग मुनिवर में प्रभु की भक्ति समाई है।
भक्तामर में ऋषभदेव की महिमा गाई है।। (22)
ॐ ह्रीं अर्हम् जंघा चारण क्रिया ऋद्धये जंघा चारण बुद्धि क्रिया ऋद्धि प्राप्तेभ्यो नमो दीप प्रज्वलनम् करोमि । ( 22 )
त्वामामनन्ति मुनयः परमं पुमांस
मादित्य- वर्ण- ममलं तमसः पुरस्तात् ।
त्वामेव सम्य- गुपलभ्य जयन्ति मृत्युं,
नान्य: शिव: शिवपदस्य मुनीन्द्र! पन्थाः ॥
नाथ आपको मुनिजन माने परम पुरूष महान् ।
मोह तमस निर्मुक्त विमल रवि से भी तेजोमान।।
सम्यक् उपासना करके वे मृत्युंजयी होते ।
नाथ आपको तज कर सुखकर शिव पथ ना पाते ।।
वीतराग जिनवर की भक्ति मुक्ति का पथ है।
मोक्ष महल तक जाने का यह ही सम्यक् रथ है ।।
मानतुंग मुनिवर में प्रभु की भक्ति समाई है।
भक्तामर में ऋषभदेव की महिमा गाई है ।। ( 23 )
ॐ ह्रीं अर्हम् फल पुष्प पत्र चारण क्रिया ऋद्धये फल पुष्प पत्र चारण क्रिया ऋद्धि प्राप्तेभ्यो नमो दीप प्रज्वलनम् करोमि । (23)
त्वा-मव्ययं विभु-मचिन्त्य-मसंख्य-माद्यं,
ब्रह्माणमीश्वर- मनन्त- मनङ्ग- केतुम् ।
योगीश्वरं विदित- योग- मनेक- मेकं,
ज्ञान स्वरूप – ममलं प्रवदन्ति सन्तः ॥
सज्जन कहें आपको अव्यय विभो अचिन्तय अनन्त ।
ब्रह्मा ईश्वर आद्य अमल औ असंख्य हो भगवन्त ।
मदन विजेता योगीश्वर प्रभु एकानेक जिनेश ।
ज्ञान स्वरूपी विदित योग हो आदिनाथ परमेश।।
समवसरण में सहस्त्र नाम से भक्ति इन्द्र करें।
अल्प शक्तिधर अल्प नाम से हम गुणगान करें ।।
मानतुंग मुनिवर में प्रभु की भक्ति समाई है।
भक्तामर में ऋषभदेव की महिमा गाई है। (24)
ॐ ही अर्हम् अग्नि धूम चारण क्रिया ऋद्धये अग्नि धूम चारण किया ऋद्धि प्राप्तेभ्यो नमो दीप प्रज्वलनम् करोमि। (24)
बुद्धस्त्वमेव विबुधार्चित- बुद्धि- बोधात्,
त्वं शङ्करोऽसि भुवन-त्रय- शङ्करत्वात् ।
धातासि धीर! शिव-मार्ग विधेर्विधानाद्,
व्यक्तं त्वमेव भगवन् पुरुषोत्तमोऽसि॥
केवलज्ञानी सुर पूजित होने से बुद्ध तुम्हीं।
त्रिभुवन में सुख करने वाले शंकर नाथ तुम्हीं ।।
मोक्षमार्ग की विधि बतलाते ब्रह्मा कहलाते।
सारे जग में श्रेष्ठ विष्णु पुरुषोत्तम पद पाते ।।
दोष अठारह रहित बुद्ध शिव शंकर ब्रह्मा आप।
वीतराग सम देव न दूजा नमूँ-नमूँ जिननाथ !
मानतुंग मुनिवर में प्रभु की भक्ति समाई है।
भक्तामर में ऋषभदेव की महिमा गाई है।। ( 25 )
ॐ ह्रीं अर्हम् मेघ धारा चारण क्रिया ऋद्धये मेघ धारा चारण क्रिया ऋद्धि प्राप्तेभ्यो नमो दीप प्रज्वलनम् करोमि । ( 25 )
तुभ्यं नमस्-त्रिभुवनार्ति-हराय नाथ!
तुभ्यं नमः क्षिति-तलामल – भूषणाय ।
तुभ्यं नमस्-त्रिजगतः परमेश्वराय,
तुभ्यं नमो जिन! भवोदधि-शोषणाय ॥
तीन जगत के दुःख हर्ता, हे प्रभुवर तुम्हें प्रणाम।
पृथ्वीतल के निर्मल भूषण जिनवर तुम्हें प्रणाम ।।
त्रिभुवन के परमेश्वर तुमको बारम्बार प्रणाम ।
अपार भवदधि शोषण हारे आदि जिनेश प्रणाम ।।
मध्यम मंगल करूँ भाव से सारे बंध नशे ।
मेरी ज्ञान वेदी पर आदि जिनेश्वर नित्य बसें ।।
मानतुंग मुनिवर में प्रभु की भक्ति समाई है।
भक्तामर में ऋषभदेव की महिमा गाई है।1 (26)
ॐ ह्रीं अर्हम् तंतु चारण क्रिया ऋद्धये तंतु चारण क्रिया ऋद्धि प्राप्तेभ्यो नमो दीप प्रज्वलनम् करोमि । (26)
को विस्मयोऽत्र यदि नाम गुणै-रशेषै
स्त्वं संश्रितो निरवकाशतया मुनीश !
दोषै-रुपात्त- विविधाश्रय-जात-गर्वैः,
स्वप्नान्तरेऽपि न कदाचिदपीक्षितोऽसि ॥
सर्व गुणों को मिल नहीं पाया और कहीं आवास ।
अतः सभी गुण शरणागत हो बने आपके दास ।
अन्य विविध जन का आश्रय पा दोष करें अभिमान ।
स्वप्न मात्र में भी ना देखें दोष तुम्हें भगवान् ।
इसमें कुछ आश्चर्य नहीं निर्दोष स्वभावी आप ।
दोष रहित गुण कोष रहूँ मैं मात्र यही अभिलाष ।।
मानतुंग मुनिवर में प्रभु की भक्ति समाई है।
भक्तामर में ऋषभदेव की महिमा गाई है ।। (27)
ॐ ह्रीं अर्हम् ज्योतिष चारण क्रिया ऋद्धये ज्योतिष चारण बुद्धि क्रिया ऋद्धि प्राप्तेभ्यो नमो दीप प्रज्वलनम् करोमि । (27)
उच्चै- रशोक तरु- संश्रितमुन्मयूख
माभाति रूपममलं भवतो नितान्तम्।
स्पष्टोल्लसत्-किरण-मस्त-तमो वितानं, –
बिम्बं रवेरिव पयोधर- पाश्र्ववर्ति ॥
बारह गुणा प्रभु से ऊँचा वृक्ष अशोक विशाल ।
उसके नीचे प्रभु विराजे तरूवर हुआ निहाल ।।
ऊर्ध्व किरण से मण्डित उज्जवल रूप आपका है।
ज्यों बादल के निकट तेजमय सूर्य शोभता है।।
समवसरण में भवि जीवों का मोह तमस नाशी ।
प्रातिहार्यधारी प्रभु का मैं दर्शन अभिलाषी ।।
मानतुंग मुनिवर में प्रभु की भक्ति समाई है।
भक्तामर में ऋषभदेव की महिमा गाई है।। (28)
ॐ ह्रीं अर्हम् मरूच्चारण क्रिया ऋद्धये मरुच्चारण क्रिया ऋद्धि प्राप्तेभ्यो नमो दीप प्रज्वलनम् करोमि । (28)
सिंहासने मणि-मयूख-शिखा-विचित्रे,
विभ्राजते तव वपुः कनकावदातम्।
बिम्बं वियद्-विलस-दंशुलता-वितानं
तुङ्गोदयाद्रि-शिरसीव सहस्र-रश्मे ॥
रत्न किरण के अग्र भाग से जड़ित सिंहासन है।
चउ अंगुल उस पर स्वर्णिम तन धारी भगवन् है।।
उदयाचल के उच्च शिखर पर ज्यों रवि शोभ रहा।
सुन्दर सिंहासन पर जिन रवि भवि मन मोह रहा।
मेरे स्वच्छ हृदय आसन पर आदीश्वर आओ।
भक्ति के उदयाचल पर प्रभु आकर बस जाओ।।
मानतुंग मुनिवर में प्रभु की भक्ति समाई है।
भक्तामर में ऋषभदेव की महिमा गाई है।। (29)
ॐ ह्रीं अर्हम् सर्व तपः ऋद्धये सर्व तपः ऋद्धि प्राप्तेभ्यो नमो दीप प्रज्वलनम् करोमि। (29)
कुन्द्रावदात- चल- चामर-चारु- शोभ,
विभ्राजते तव वपुः कलधौत -कान्तम्॥
उद्यच्छशांङ्क- शुचिनिर्झर-वारि -बार
मुच्चैस्तटं सुरगिरेरिव शातकौम्भम् ॥
प्रभु के दोनों ओर चॅवर चौसठ पावन्न दुरुते॥
कुन्द पुष्प सम स्वच्छ वॅवर ये सब जान-मान हरते॥
श्वेत चँवर से स्वर्णिम तन, प्रभु का ऐसा लगता।
स्वर्ण मेक्त के दोनों तट पर झरना च बहता।
उदित चन्द्रमा से भी सुन्दर तनधारी भगवान्॥
चॅवर सिखाते विनम्र होकर करो कर्म का होना।
मानतुंग मुनिवर में प्रभु की भक्ति समाई है।
भक्तामर में ऋषभदेव की महिमा गाई है।। (30)
ॐ ह्रीं अर्हन् अचोर ब्रह्मचारित्वऋद्धह्मचारिय ऋद्धि प्राप्तेभ्यो नमो दीप प्रज्वलनम् करोमि। (30)
छत्र-त्रयं तव विभाति शशांङ्क – कान्त
मुच्चै: स्थितं स्थगित भानु-कर-प्रतापम् ।
मुक्ता- फल- प्रकर- जाल – विवृद्ध-शोभं,
प्रख्यापयत्-त्रिजगत: परमेश्वरत्वम्॥
मुक्ता की लड़ियों से शोभित तीन छत्र मनहर।
गुरू, लघु, लघुत्तम क्रम से हैं ये सूर्य किरण तपहर ।।
तीन जगत के नाथ शीश पर तीन छत्र रहते ।
तीनों जग के स्वामी हैं ये यही प्रगट करते ।।
वीतराग प्रभुवर की मुझ पर रहे छत्र छाया।
कर्म तापहारी जिनवर सी मिले ज्ञान काया ।।
मानतुंग मुनिवर में प्रभु की भक्ति समाई है।
भक्तामर में ऋषभदेव की महिमा गाई है।। (31)
ॐ ह्रींअर्हम् मनोबल ऋद्धये मनोबल ऋद्धि प्राप्तेभ्यो नमो दीप प्रज्वलनम् करोमि । (31)
गम्भीर- तार- रव- पूरित- दिग्विभागस्-
त्रैलोक्य – लोक – शुभ-सङ्गम -भूति – दक्षः ।
सद्धर्म -राज-जय-घोषण: – घोषक: सन्,
खे दुन्दुभि-र्ध्वनति ते यशसः प्रवादी ॥
दशों दिशा में उच्च और गम्भीर शब्द करता ।
प्रभु सत्संग की महिमा दुन्दुभि सबको बतलाता ।।
जयवन्तो ! तीर्थकर स्वामी ! यूँ जयघोष करें।
दुन्दुभि वाद्य सु-यश जिनवर का नभ में प्रकट करें ।।
स्वानुभूति का वाद्य बजाकर प्रगटाऊँ परमात्म।
श्वांस-श्वांस में प्रभु भक्ति का गूँजे अनहद नाद ।।
मानतुंग मुनिवर में प्रभु की भक्ति समाई है।
भक्तामर में ऋषभदेव की महिमा गाई है ।। ( 32 )
ॐ ह्रीं अर्हम् वचनबल ऋद्धये वचनबल ऋद्धि प्राप्तेभ्यो नमो दीप प्रज्वलनम् करोमि । (32)
मन्दार- सुन्दर नमेरु- सुपारिजात
सन्तानकादि- कुसुमोत्कर-वृष्टि-रुद्वा ।
गन्धोद-बिन्दु- शुभ-मन्द-मरुत्प्रपाता,
दिव्या दिवः पतति ते वचसां ततिर्वा ॥
संतानक सुन्दर नमेरू और पारिजात मन्दार ।
तरह-तरह के सुमन बरसते नभ से दिव्य अपार ।।
सुगन्ध जल औ मन्द पवन संग पुष्प लगे ऐसे ।
तव वचनों की कतार नभ से बरसी हो जैसे ।।
ऊर्ध्व मुखी सुमनों की वर्षा मानों यह कहती।
प्रभु चरणों में वन्दन से बंधन बाधा मिटती ।।
मानतुंग मुनिवर में प्रभु की भक्ति समाई है।
भक्तामर में ऋषभदेव की महिमा गाई है ।। (33)
ॐ ह्रीं अर्हम् कायबल ऋद्धये कायबल ऋद्धि प्राप्तेभ्यो नमो दीप प्रज्वलनम् करोमि । (33)
शुम्भत्-प्रभा- वलय-भूरि-विभा-विभोस्ते,
लोक-त्रये -द्युतिमतां द्युति-माक्षिपन्ती।
प्रोद्यद्- दिवाकर – निरन्तर-भूरि – संख्या,
दीप्त्या जयत्यपि निशामपि सोमसौम्याम्॥
प्रभु का आभा मण्डल चारों ओर चमकता है।
त्रिभुवन के द्युतिमय पदार्थ को लज्जित करता है ।।
कोटि सूर्य युगपत् उगने पर जो दीप्ति होती।
प्रभु के भामण्डल में उससे अधिक कान्ति होती ।।
ज्योतिर्मय होकर भी इसमें ताप नहीं होता।
शरद पूर्णिमा के चन्दा जैसी शीतलता देता ।।
मानतुंग मुनिवर में प्रभु की भक्ति समाई है।
भक्तामर में ऋषभदेव की महिमा गाई है ।। (34)
ॐ ह्रीं अर्हम् आमर्षौषधि ऋद्धये आमर्षोषधि ऋद्धि प्राप्तेभ्यो नमो दीप प्रज्वलनम् करोमि। (34)
स्वर्गापवर्ग- गम- मार्ग- विमार्गणेष्ट:
सद्धर्म- तत्त्व-कथनैक-पटुस् त्रिलोक्या: ।
दिव्य-ध्वनि-र्भवति ते विशदार्थ-सर्व
भाषास्वभाव परिणाम-गुणैः प्रयोज्य: ॥
स्वर्ग मोक्ष का पथ बतलाती जिनवर की वाणी ।
सम्यक् धर्म कथन में पटु है वाणी कल्याणी ।।
स्पष्ट अर्थ युत सब भाषा में परिणत गुणवाली ।
तीन लोक के सब जीवों का दुःख हरने वाली ।।
दिव्य ध्वनि को नमन करूँ प्रभु वचनों को ध्याऊँ ।
प्रभु वचनामृत पीकर अजर-अमर पद पा जाऊँ ।।
मानतुंग मुनिवर में प्रभु की भक्ति समाई है।
भक्तामर में ऋषभदेव की महिमा गाई है।। ( 35 )
ॐ ह्रीं अर्हम् क्ष्वैलौषधि ऋद्धये क्ष्वैलौषधि ऋद्धि प्राप्तेभ्यो नमो दीप प्रज्वलनम् करोमि । (35)
उन्निद्र- हेम- नव- पङ्कंज- पुंज- कान्ती,
पर्युल्-लसन्-नख-मयूख व-शिखाभिरामौ ।
पादौ पदानि तव यत्र जिनेन्द्र ! धत्तः,
पद्मानि तत्र विबुधाः परिकल्पयन्ति ॥
विकसित नूतन स्वर्णकमल सम प्रभु के युगल चरण ।
झिलमिल झिलमिल नख कान्ति ज्यों नभ में चन्द्र किरण ।
विहार में प्रभुवर के ऐसे चरण जहां पड़ते ।
स्वर्णमयी कमलों की रचना देव वहां करते ।।
श्रद्धा कमल रचाकर भविजन जोड़े हाथ खड़े ।
हृदय धरा पर कब प्रभुवर के पावन चरण पड़े।।
मानतुंग मुनिवर में प्रभु की भक्ति समाई है।
भक्तामर में ऋषभदेव की महिमा गाई है ।। ( 36 )
ॐ ह्रीं अर्हम् जल्लौषधि ऋद्धये जल्लौषधि ऋद्धि प्राप्तेभ्यो नमो दीप प्रज्वलनम् करोमि । (36)
इत्थं यथा तव विभूति- रभूज़ जिनेन्द्रर !
धर्मोपदेशन- विधी न तथा परस्य ।
यादृक्प्रभा- दिनकृतः प्रहतान्धकारा,
तादृक्-कुतो ग्रहगणस्य विकासिनोऽपि ॥
प्रभुवर के धर्मोपदेश में जो वैभव होता।
समवसरण सा विभव अन्य देवों में ना होता।।
जैसी प्रखर प्रभा सूरज में तम को हरती है।
झिलमिल करते अन्य ग्रहों में कभी न होती है ।।
बाह्याभ्यंतर अनुपम वैभव प्रभु ने प्राप्त किया।
भव भय हारक प्रभु चरणों में मैंने वास किया।।
मानतुंग मुनिवर में प्रभु की भक्ति समाई है।
भक्तामर में ऋषभदेव की महिमा गाई है।। (37)
ॐ ह्रीं अर्हम् मल्लौषधि ऋद्धये मल्लौषधि ऋद्धि प्राप्तेभ्यो नमो दीप प्रज्वलनम् करोमि । (37)
श्च्यो- तन्- मदाविल-विलोल-कपोल-मूल,
मत्त- भ्रमद्- भ्रमर-नाद-विवृद्ध-कोपम् ।
ऐरावताभमिभ- मुद्धत दृष्ट्वा भयं
भवति नो भवदाश्रितानाम् ॥
गज के गण्डस्थल से झरती अविरल मद जलधार।
उस पर मत्त भँवर मँडराते करते हैं गुंजार ।।
क्रोधित गज वह ऐरावत सा सम्मुख आ जाता।
तव आश्रित वह भक्त कभी भयभीत नहीं होता।।
मान रूप गज से निर्भय हो हनन किया मद का।
आदिप्रभु ने पद पाया है शिवरमणी वर का।।
मानतुंग मुनिवर में प्रभु की भक्ति समाई है।
भक्तामर में ऋषभदेव की महिमा गाई है।। (38)
ॐ ह्रीं अर्हम् विप्रुषौषधि ऋद्धये विप्रुषौषधि ऋद्धि प्राप्तेभ्यो नमो दीप प्रज्वलनम् करोमि । (38)
भिन्नेभ-कुम्भ- गल-दुज्ज्वल-शोणिताक्त,
मुक्ता-फल- प्रकरभूषित-भूमि-भागः ।
बद्ध-क्रमः क्रम-गतं हरिणाधिपोऽपि,
नाक्रामति क्रम- युगाचल- संश्रितं ते ॥
जिसने गज के मस्तक फाड़े गजमुक्ता बिखरी ।
गिरी धरा पर धवल मोतियाँ लहु से भीग गयी।।
ऐसा सिंह भयानक क्रोधी अति खूँखार रहा।
दहाड़कर छल्लांग मारने को तैयार रहा ।।
तव पद युगल गिरि आश्रित पर हमला ना करता।
काल सिंह भी तब भक्तों का कुछ ना कर सकता ।।
मानतुंग मुनिवर में प्रभु की भक्ति समाई है।
भक्तामर में ऋषभदेव की महिमा गाई है।। (39)
ॐ ह्रीं अर्हम् सर्वौषधि ऋद्धये सर्वौषधि ऋद्धि प्राप्तेभ्यो नमो दीप प्रज्वलनम् करोमि । (39)
कल्पान्त-काल-पवनोद्धत-वह्नि -कल्पं,
दावानलं ज्वलित-मुज्ज्वल-मुत्स्फुलिङ्गम् ।
विश्वं जिघत्सुमिव सम्मुख- मापतन्तं,
त्वन्नाम- कीर्तन- जलं शमयत्यशेषम् ॥
प्रलयंकारी तेज पवन से अग्नि धधक रही।
ऊपर उठती लपटें मानो जग को निगल रही ।।
सम्मुख आती हुई वनाग्नि पल में बुझती है।
जब भक्तों की जिह्वा प्रभु के नाम को रटती है ।।
प्रभु का यशोगान जल ही भव अग्नि शान्त करें।
अग्नि शामक नाम आपका मम मन वास करें ।।
मानतुंग मुनिवर में प्रभु की भक्ति समाई है।
भक्तामर में ऋषभदेव की महिमा गाई है।। (40)
ॐ ह्रीं अर्हम् मुख निर्विष ऋद्धये मुख निर्विष ऋद्धि प्राप्तेभ्यो नमो दीप प्रज्वलनम् करोमि । (40)
रक्तेक्षणं समद-कोकिल-कण्ठ-नीलम्,
क्रोधोद्धतं फणिन-मुत्फण-मापतन्तम् ।
आक्रामति क्रम-युगेण निरस्त शङ्कस्
त्वन्नाम- नागदमनी हृदि यस्य पुंसः ॥
मद युत कोयल कण्ठ सरीखा लाल नेत्र वाला।
ऊपर फणा उठाकर क्रोधित कुटिल चाल वाला ।।
डसने को तैयार भयंकर सर्प महा विकराल ।
आगे बढ़ते अहि को लांघे निर्भय वह तत्काल ।।
जिसके मन में ऋषभ नाम की औषध रहती है।
नाग दमन यह औषध विषयों का विष हरती है ।।
मानतुंग मुनिवर में प्रभु की भक्ति समाई है।
भक्तामर में ऋषभदेव की महिमा गाई है।(41)
ॐ ह्रीं अर्हम् दृष्टि निर्विष ऋद्धये दृष्टि निर्विष ऋद्धि प्राप्तेभ्यो नमो दीप प्रज्वलनम् करोमि । ( 41 )
वल्गत्- तुरङ्ग- गज-गर्जित- भीमनाद
माजी बलं बलवता-मपि भूपतीनाम् ।
उद्यद्- दिवाकर- मयूख- शिखापविद्धं
त्वत्कीर्तनात्तम इवाशु भिदामुपैति ॥
उछल रहे हैं घोड़े जिसमें गज गर्जन करते।
शूरवीर नृप शत्रु भयंकर आवाजें करते ।।
सर्व सैन्य को एक आपका भक्त भगा देता ।
ज्यों सूरज किरणों से तम को शीघ्र नशा देता ।।
आदि प्रभु का अतिशयकारी नाम कहाता है।
कर्म शत्रु सेना के भय से मुक्ति दिलाता है।
मानतुंग मुनिवर में प्रभु की भक्ति समाई है।
भक्तामर में ऋषभदेव की महिमा गाई है।। (42)
ॐ ह्रीं अर्हम् दृष्टि विष ऋद्धये दृष्टि विष ऋद्धि प्राप्तेभ्यो नमो दीप प्रज्वलनम् करोमि । (42)
कुन्ताग्र-भिन्न-गज-शोणित- वारिवाह,
वेगावतार – तरणातुर – योध- भीमे ।
युद्धे जयं विजित-दुर्जय-जेय-पक्षास्
त्वत्पाद-पङ्कज-वनाश्रयिणो लभन्ते ॥
तीखे भालों से भेदित गज लहु से सने हुए।
रक्तधार में भी लड़ने योद्धा तैयार हुए।
ऐसी सेना वाले रिपु को कौन जीत सकता।
विजय पताका भक्त आपका ही फहरा सकता।
प्रभु पद कमल रूप वन का जो आश्रय लेता है।
कर्म शत्रु को जीत जगत में विजयी होता है ।।
मानतुंग मुनिवर में प्रभु की भक्ति समाई है।
भक्तामर में ऋषभदेव की महिमा गाई है।। ( 43 )
ॐ ह्रीं अर्हम् क्षीर स्त्रावी रस ऋद्धये क्षीर स्त्रावी रस ऋद्धि प्राप्तेभ्यो नमो दीप प्रज्वलनम् करोमि । ( 43 )
अम्भोनिधौ क्षुभित- भीषण- नक्र- चक्र
पाठीन- पीठ- भय- दोल्वण- वाडवाग्नौ ।
रङ्गत्तरङ्गं -शिखर- स्थित- यान-पात्रा
स्त्रासं विहाय भवतः स्मरणाद्-व्रजन्ति ॥
कुपित भयंकर मगर और घड़ियाल रहें जिसमें ।
मत्स्य पीठ की टककर से हो बड़वानल जिसमें ।
ऐसे तूफानी सागर में उठे भँवर उत्ताल ।
मानो अभी पलटने वाला हो ऐसा जलयान ।।
मात्र आपके नाम स्मरण से सिन्धु पार करता।
निडर भक्त भवदधि तिरकर अन्तर्यात्रा करता ।।
मानतुंग मुनिवर में प्रभु की भक्ति समाई है।
भक्तामर में ऋषभदेव की महिमा गाई है (44)
ॐ ह्रीं अर्हम् मधुर स्त्रावी रस ऋद्धये मधुर स्त्रावी |रस ऋद्धि प्राप्तेभ्यो नमो दीप प्रज्वलनम् करोमि । ( 44 )
उद्भूत- भीषण जलोदर भार-भुग्नाः,
शोच्यां दशा-मुपगताश्-च्युत-जीविताशाः ।
त्वत्पाद- पंकज- रजो- मृत- दिग्ध- देहा: ,
मर्त्या भवन्ति मकर-ध्वज-तुल्यरूपाः ॥
महा जलोदर रोग भार से झुकी कमर जिनकी ।
शोचनीय है दशा छोड़ दी आशा जीने की।
ऐसे नर तव चरण कमल की रज को छू लेते ।।
निरोग हो वे कामदेव से सुन्दर हो जाते ।
श्रद्धा से मैं नाथ चरण रज शीश चढ़ाऊँगा ।।
देह मुक्त होकर विदेह पद को पा जाऊँगा ।।
मानतुंग मुनिवर में प्रभु की भक्ति समाई है।
भक्तामर में ऋषभदेव की महिमा गाई है।। (45)
ॐ ह्रीं अर्हम् अमृत स्त्रावी रस ऋद्धये अमृत स्त्रावी रस ऋद्धि प्राप्तेभ्यो नमो दीप प्रज्वलनम् करोमि । ( 45 )
आपाद – कण्ठमुरु- शृङ्खल- वेष्टिताङ्गा,
गाढं-बृहन्-निगड-कोटि निघृष्ट जङ्घाः ।
त्वन्-नाम-मन्त्र- मनिशं मनुजा: स्मरन्त:,
सद्य: स्वयं विगत-बन्ध-भया भवन्ति ॥
बड़ी-बड़ी बेड़ी से जिनका तन है कसा बँधा।
दृढ साँकल की नोक से जिनकी छिल गयी जंघा ।।
ऐसे बन्दीजन अविरल तव नाम मंत्र जपते ।
उनके बंधन स्वयं तड़ातड़ पलभर में नशते ।।
आदि प्रभु के नाम मंत्र में है ऐसी शक्ति ।
कर्म बंध से विमुक्त हो भविजन पाते मुक्ति ।।
मानतुंग मुनिवर में प्रभु की भक्ति समाई है।
भक्तामर में ऋषभदेव की महिमा गाई है।। (46)
ॐ ह्रीं अर्हम् सर्पि स्त्रावी रस ऋद्धये सर्पि स्त्रावी रस ऋद्धि प्राप्तेभ्यो नमो दीप प्रज्वलनम् करोमि । (46)
मत्त-द्विपेन्द्र- मृग- राज-दवानलाहि
संग्राम-वारिधि-महोदर बन्ध -नोत्थम् ।
तस्याशु नाश-मुपयाति भयं भियेव,
यस्तावकं स्तव-मिमं मतिमानधीते ॥ (47)
बुद्धिमान जो प्रभु स्तोत्र को भावों से पढ़ता ।
उसका भय तत्काल स्वयं ही डरकर भग जाता।।
चाहे वह भय मत्त हाथी या सिंह अग्नि का हो ।
सर्प युद्ध सागर या भारी रोग जलोदर हो ।
बंधन से भी प्रकट हुआ भय शीघ्र विनशता है।
निर्भय होकर भक्त शीघ्र शिवधाम पहुँचाता है ।।
नतुंग मुनिवर में प्रभु की भक्ति समाई है।
भक्तामर में ऋषभदेव की महिमा गाई है। (47)
ॐ ह्रीं अर्हम् अक्षीण महानस रस ऋद्धये अक्षीण महानस रस ऋद्धि प्राप्तेभ्यो नमो दीप प्रज्वलनम् करोमि। (47)
स्तोत्र-स्रजं तव जिनेन्द्र गुणैर्निबद्धाम,
भक्त्या मया रुचिर-वर्ण-विचित्र पुष्पाम् ।
धत्ते जनो य इह कण्ठ-गता-मजस्रं,
तं मानतुङ्ग मवशा समुपैति लक्ष्मीः ॥
प्रभु गुण की डोरी में अक्षर पुष्प पिरोये हैं।
भक्तिमाल में आदि प्रभु के गुण ही गाये हैं ।।
जो श्रद्धालु स्वयं कण्ठ में स्तुति माला धारें।
मानतुंग सम उन्नत हो वह मुक्ति रमा पावें।
नाथ आपके ज्ञान बाग की सुरभि मैं पाऊँ ।
बंध रहित निर्भय होकर मैं शिव रणमी पाऊँ ।।
मानतुंग मुनिवर में प्रभु की भक्ति समाई है।
भक्तामर में ऋषभदेव की महिमा गाई है।। (48)
ॐ ह्रीं अर्हम् अक्षीण महालय ऋद्धये अक्षीण महालय ऋद्धि प्राप्तेभ्यो नमो दीप प्रज्वलनम् करोमि। (48)
भक्तामर महिमा
श्री भक्तामर का पाठ करो, नित प्रात भक्ति मन लाई
सब संकट जाये नसाई।।
जो ज्ञान-मान मतवारे थे, मुनि मान तुंग से हारे थे।
उन चतुराई से नृपति लिया बहकाई ।
सब संकट जाये नसाई।।1।।
मुनिजी को नृपति बुलाया था, सैनिक जा हुक्म सुनाया था ।
मुनि वीतराग को आज्ञा नहीं सुहाई।
सब संकट जाये नसाई।।2।।
उपसर्ग घोर तब आया था, बल पूर्वक पकड़ मंगाया था।
हथकड़ी बेड़ियों से तन दिया बंधाई।
सब संकट जाये नसाई।।3।।
मुनि कारागृह भिजवाये थे, अड़तालिस ताले लगाये थे ।
क्रोधित नृप बाहर पहरा दिया बिठाई।
सब संकट जाये नसाई।।4।।
मुनि शान्त भाव अपनाया था, श्री आदिनाथ को ध्याया था।
हो ध्यान मग्न भक्तामर दिया बनाई।।
सब संकट जाये नसाई।।5।।
सब बन्धन टुट गये मुनि के ,ताले सब स्वयं खुले उनके
कारागृह से आ बाहर दिये दिखाई।
सब संकट जाये नसाई।।6।।
राजा नत होकर आया था, अपराध क्षमा करवाया था।
मुनि के चरणों में अनुपम भक्ति दिखाई।।
सब संकट जाये नसाई।। 7 ।।
जो पाठ भक्ति से करता है, नित ऋषभ चरण चित धरता है।
जो ऋद्धि मंत्र का विधिवत् जाप कराई।।
सब संकट जाये नसाई।।8 ।।
भय विघ्न उपद्रव टलते हैं, विपदा के दिवस बदलते हैं।
सब मन वांछित हो पूर्ण शान्ति छा जाई।।
सब संकट जाये नसाई।।9 ।।
जो वीतराग आराधन है, आतम उन्नति का साधन है।
उससे प्राणी का भव बन्धन कट जाई।।
सब संकट जाये नसाई।।10।।
“कौशल” सुभक्ति को पहचानों, संसार दृष्टि बन्धन जानो।
लो भक्तामर से आत्म ज्योति प्रकटाई।
सब संकट जाये नसाई।।11।।