1. देवदर्शन विधि
सर्वप्रथम मंदिर जी में प्रवेश के पूर्व हाथ-पैर धोना चाहिये, मुंह में कोई खाने की वस्तु डाली हो तो कुल्ला करना चाहिये।
यदि मानस्तंभ है तो उसकी तीन परिक्रमा कर प्रणाम करना चाहिये।
मंदिर जी के मुख्य दरवाजे के पास दाहिने हाथ से देहली को प्रणाम करना चाहिये,
तत्पश्चात् सीधे पांव से मंदिर में प्रवेश करना चाहिये।
मंदिर जी में प्रवेश करते समय ‘‘ओं जय-जय-जय निःसही-निःसही-निःसही बोलना चाहिये।
इसके पश्चात् 3 बार घंटा बजाना चाहिये।
तदुपरांत दर्शन के लिए पुरुष को भगवान की दाहिने व महिलाओं को बांये तरफ खड़े रहना चाहिये।
इसके पश्चात् जिनेन्द्र भगवान को पंचाग नमस्कार करना चाहिये।
पंचांग नमस्कार की विधि
मनुष्य के शरीर में मुख्यतः 8 अंश होते है। -मस्तक 2 हाथ-छाती-पेट-पीठ 2 पांव आदि।
इनमें से 2 हाथ-2 पांव और सिर इन पांच अंगों को जमीन से स्पर्श करते हुए नम! तथा सिरोनती करके दोनों हाथों की कोहनी, दोनों पांवों के घुटने, सिर तथा नाक को जमीन से टेककर प्रणाम करने की विधि को पंचांग नमस्कार करना कहते है।
इसके पश्चात् खड़े होकर हाथ जोड़कर कोई हिन्दी, संस्कृत या अन्य किसी भी भाषा में स्तुति बोलते हुए तीन प्रदक्षिणा (परिक्रमा) लगाना चाहिये, परिक्रमा करते समय दोनों हाथ जुड़े हुए व जमीन पर जीवों को बचाते हुए नीचे देखते हुए चलना चाहिये।
परिक्रमा पूर्ण होने के बाद पुनः अपने स्थान पर आकर स्तुति पूर्ण करके पुनः गवासन में बैठकर दूसरा पंचांग नमस्कार करना चाहिये।
इसके बाद खड़े होकर विधिपूर्वक जो शुद्ध द्रव्य हम घर से लाये है। उसे विधिपूर्वक चढ़ाना चाहिये।
द्रव्य में चावल, बादाम, लौंग, चिटके, इलायची एवं कम से कर एक रसीला और ताजा फल अवश्य चढ़ाना चाहिये।
चावल के पुंज इस प्रकार से चढ़ाना चाहिये -
चावल के पुंज नीचे से क्रमबद्ध निम्नानुसार बोलते हुए चढ़ावे।
सर्वप्रथम 5 परमेष्ठी के 5 पुंज चावल के रखना चाहिये, अरिहंत जी सिद्धजी, आचार्यजी, उपाध्यायजी, सर्वसाधुजी नमः अथवा अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, सर्व साधुभ्यो नमः बोलना चाहिये।
उसके ऊपर 4 पुंज जिनवाणी के रखते हुए प्रथमं करणं, चरणं, द्रव्य नमः बोलना चाहिये।
इन 4 पुंजों के ऊपर रत्नत्राय के 3 पुंज चढ़ाते हुए सम्यक दर्शन, ज्ञान, चारिचेभ्यो नमः बोलना चाहिये।
इसके ऊपर सिद्धशिला का आधा चन्द्रमा का आकार निकाल कर उसके बीच एक पुंज रखना चाहिये ‘‘ओं ह्रीं श्रीं अनंतानंत परम सिद्धेभ्यो नमः’’ बोलना चाहिये।
इसके पश्चात् एक अध्र्य चढ़ाना चाहिये -
उदय-चंदन-तदुल, पुष्पकैश्चरु, सदीप, सुधुप-फलाध्र्यकै।
धवल-मंगल-गान खाकुलै, जिनगृहे जिननाथ महं यजे।।
ओं ह्रीं श्रीं पद्मप्रभु देवाय। पाश्र्वनाथ देवाय अनध्र्य पद प्राप्ताये अध्र्य, निवृपामीति स्वाहा।
भावार्थः-अध्र्य-मोल (किंत), अनध्र्य-अनमोल (बेस किमती)
प्रश्न-अध्र्य किसे कहते हैं?
उत्तर-‘‘अध्र्य’’ शब्द का अर्थ है, मूल्यवान वस्तु। ऐसी वस्तु जिसका मूल्यंाकन नहीं हो सके, उसे अध्र्य कहते हैं। सामान्य रूप से जल, चंदन, अक्षत (चावल), पुष्प (फूल या पीले चावल), नैवेद्य (चटक या मिठाई) दीप, धूप, फल, इन आठों वस्तुओं के समूह को अध्र्य कहते हैं।
प्रश्न-अनध्र्य पद किसे कहते हैं?
उत्तर-ऐसा पद जो मूल्य देकर भी प्राप्त नहीं हो सकता है वह अनमोल पद है। उसे अनध्र्य पद कहते हैं, जिसका कोई मूल्यांकन ही नहीं हो सकता इतना यह श्रेष्ठपद है।
प्रश्न-अनध्र्य पद कौनसे हैं?
उत्तर-अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, आर्यिकाजी, ऐलकजी, क्षुल्लकजी क्षल्लिकाजी, ये सभी अनध्र्य पद है।
प्रश्न-कायोत्सर्ग किसे कहते हैं?
उत्तर-‘‘काय’’ शब्द का शरीर है एवं ‘‘उत्सर्ग’’ शब्द का अर्थ छोड़ देना। शरीर के ममत्व को छोड़ देना ‘‘कायोत्सर्ग’’ कहलाता है।
अर्थात् शरीर से लेकर परिवार, मकान, सम्पत्ति आदि को भूलकर पंचनमस्कार मंत्र का स्मरण करना कायोत्सर्ग कहलाता है,
इसमें नौ बार महामंत्रा का जाप किया जाता है, दाहिने/सीधे हाथ की बीच (मध्यमा) की अंगुली से गिनना शुरू करना चाहिये।
कायोत्सर्ग खड़े होकर भगवान बाहुबली के समान खड्गासन मुद्रा या ग्वासन मुद्रा में बैठकर करना चाहिये।
इसके पश्चात् जिनेन्द्र भगवान का तीसरा पंचांग नमस्कार करना चाहिये,
इसे पंचांग नमस्कार में भगवान से प्रार्थना में बोलना चाहिये कि-
णिच्चकालं अच्चेमि, पूजेमि, वंदामि, णमस्सामि, दुक्खक्खओ, कम्मक्खओ, बोहिलाहो, सुगइगमणं समाहि नरणं, जिण गुण सम्पत्ति होउ मज्झं।
अर्थ-हे भगवन् मैं सर्वथा आपकी अर्चना करता/करती हूँ। पूजा करता हूँ, वंदना करता हूँ, आपके चरणों में नमस्कार करता हूं हे भगवन् मेरे दुःखों का क्षय (नाश) हो, कर्मों का क्षय हो, मुझे सद्बुद्धि प्राप्त हो, मुझे रत्नत्रय की प्राप्ति हो, मेरी सुगति में गमन हो, समाधिमरण हो और मुझे आपके अनंत चतुष्टय (दर्शन, ज्ञान, सुख वीर्य) रूपी गुणों की प्राप्ति हो।
(इस प्रकार देव दर्शन विधि करना चाहिये)
इस प्रकार बार-बार भक्ति भाव से जिनेन्द्र भगवान के दर्शन करने के पश्चात् अगर मंदिर जी में कोई साधु-साध्वी विराजमान हो तो उनके दर्शन कर उनके द्वारा दिये जाने वाले प्रवचनों को सुनना चाहिये, समयानुकूल शास्त्रों (जिनवाणी) का वांचन करना, माला फेरना इत्यादि अवश्य करना चाहिये। इस प्रकार करने के पश्चात् जिनेन्द्र भगवान के दर्शन करते हुए वापिस लौटना चाहिये, लौटते समय भगवान के सामने पीठ नहीं करना चाहिये। मुख्य दरवाजे पर आकर फिर से भगवन को और देखना चाहिये फिर सीध पांव पहले मंदिर के बाहर निकालना चाहिये। बाहर आते समय ‘‘अस्सहि-अस्सहि’’ का उच्चारण करना चाहिये।
मंदिर में जहां गन्धोदक रखा हो उसे विधिपूर्वक ग्रहण करना चाहिये। पहले गन्धोदक को ्रपणाम करना चाहिये। फिर निर्मल निर्मलीकरणं पवित्र पापनाशनम्, जिनगंधोदक बन्दे अष्टकर्म, विनाशंन इस प्रकार बोलते हुए उन्मांगों पर लगाना चाहिये जैसे आंख, सिर, हाथ, पैर, पेट-पीठ, छाती इत्यादि, जिस अंग में पीड़ा या तकलीफ हो वहां भी गंधोदक लगाया जा सकता है।
इसके पश्चात् जिनेन्द्र भगवान को तीसरा पंचांग नमस्कार करना चाहिये, इस पंचांग नमस्कार में भगवान से प्रार्थना में बोलना चाहिये कि-णिच्चकालं अच्चेमि, पूजेमि, वंदामि, णमस्समय, दुक्खक्खओ, कम्मक्खओ, बोहिलाहो, सुगइगमणं समहि मरणं, जिण गुण सम्पत्ति होउ मज्झं।
अर्थ-हे भगवन् मैं सर्वदा आपकी अर्चना करता/करती हूं। पूजा करता हूं, वंदना करता हूं, आपके चरणों में नमस्कार करता हूं, हे भगवन् मेरे दुःखों का क्षय (नास) हो, मेरा सुगति में गमन हो, समाधिमरण हो और मुझे आपके अनंत चतुष्टय (दर्शन, ज्ञान, सुख, वीर्य) रूपी गुणों की प्राप्ति हो।
इस प्रकार देव दर्शन विधि करना चाहिये।