भवनवासी देव प्रश्न उत्तर
भवनवासी देव प्रश्न उत्तर
भवनवासी देवों का स्थान अधोलोक मे कहाँ है?
पहली रत्नप्रभा भुमी के ३ भागो मे से पहले २ भाग (खरभाग और पंकभाग) मे उत्कृष्ठ रत्नों से शोभायमान भवनवासी और व्यंतरवासी देवों के भवन है।
भवनवासी देवों के कितने और कौनसे भेद है? भवनवासी देवों के १० भेद है :
१)असुरकुमार २) नागकुमार, ३) सुपर्णकुमार ४) द्वीपकुमार ५) उदधिकुमार ६) स्तनितकुमार ७) विद्युत्कुमार ८) दिक्कुमार ९) अग्निकुमार १०) वायुकुमार
भवनवासी देवों के मुकुटों मे कौनसे चिन्ह होते है? भवनवासी देवों के मुकुटों मे १० प्रकार के चिन्ह होते है :
# असुरकुमार – चूडामणि # नागकुमार – सर्प # सुपर्णकुमार – गरुड # द्विपकुमार – हाथी # उदधिकुमार – मगर # स्तनितकुमार – वर्धमान # विद्युत्कुमार – वज्र # दिक्कुमार – सिंह # अग्निकुमार – कलश # वायुकुमार – घोडा
भवनवासी देवों के भवनों का कुल प्रमाण कितना है? भवनवासी देवों के कुल ७ करोड, ७२ लाख भवन है। इन भवनों मे एक एक अकृत्रिम जिनालय है।
यही अधोलोक संबंधी ७ करोड, ७२ लाख अकृत्रिम चैत्यालय है जिसमे अकृत्रिम जिनबिंब है। इन्हे हम मन वचन काय से नमस्कार करते है।
भवनवासी देवों के इन्द्रों का और उनके भवनों का पृथक पृथक (अलग अलग) प्रमाण कितना है?
भवनवासी देवों के १० प्रकारोँ मे पृथक पृथक दो दो इन्द्र होते है। इसप्रकार कुल २० इन्द्र होते है।
इनमे से प्रत्येकोंके प्रथम १० इन्द्रोंको दक्षिण इन्द्र और आगे के १० इन्द्रोंको उत्तर इन्द्र कहते है।
ये सब अणिमा-महिमा आदि ऋद्धियों से और मणिमय भुषणों से युक्त होते है। देव दक्षिण इन्द्र दक्षिणेंद्र के भवन उत्तर इन्द्र उत्तरणेंद्र के भवन कुल भवन – असुरकुमार चमर ३४ लाख वैरोचन ३० लाख ६४ लाख – नागकुमार भूतानंद ३४ लाख धरणानंद ४० लाख ७४ लाख – सुपर्णकुमार वेणू ३८ लाख वेणूधारी ३४ लाख ७२ लाख – द्विपकुमार पूर्ण ४० लाख वशिष्ठ ३६ लाख ७६ लाख – उदधिकुमार जलप्रभ ४० लाख जलकांत ३६ लाख ७६ लाख – स्तनितकुमार घोष ४० लाख महाघोष ३६ लाख ७६ लाख – विद्युत्कुमार हरिषेण ४० लाख हरिकांत ३६ लाख ७६ लाख – दिक्कुमार अमितगती ४० लाख अमितवाहन ३६ लाख ७६ लाख – अग्निकुमार अग्निशिखी ४० लाख अग्निवाहन ३६ लाख ७६ लाख – वायुकुमार वेलंब ५० लाख प्रभंजन ४६ लाख ९६ लाख “} इसप्रकार दक्षिणेंद्र के ४ करोड ६ लाख भवन और उत्तरेंद्र के ३ करोड ६६ लाख भवन मिलाकर कुल ७ करोड ७२ लाख भवन होते है।
भवनवासी देवों के निवास के कौनसे भेद है? इनके ३ भेद है :
* भवन : रत्नप्रभा पृथ्वी मे स्थित निवास * भवनपुर : द्विप समुद्र के उपर स्थित निवास * आवास : रमणीय तालाब, पर्वत तथा वृक्षादिक के उपर स्थित निवास * नागकुमार आदि देवो मे से किन्ही के तीनों प्रकार के निवास होते है, मगर असुरकुमार देवो के सिर्फ भवनरुप ही निवास स्थान होते है। * इनमे से अल्पऋद्धि, महाऋद्धि और मध्यमऋद्धि के धारक भवनवासियों के भवन क्रमशः चित्रा पृथ्वी के निचे दो हजार, ४२ हजार और १ लाख योजन पर्यन्त जाक्र है।
भवनवासी देवों के भवनों का प्रमाण क्या है?
* ये सब भवन समचतुष्कोण तथा वज्रमय द्वारों से शोभायमान है। * इनकी ऊंचाइ ३०० योजन और विस्तार संख्यात और असंख्यात होता है। * संख्यात विस्तार वाले भवनों मे संख्यात देव और असंख्यात विस्तार वाले भवनों मे असंख्यात देव रहते है।
भवनवासी देवों के भवनों का स्वरुप कैसा है? *
भवनवासी देवो के भवनो के मध्य मे १०० योजन ऊंचे एक एक कूट स्थित है। * इन कूटों के चारो तरफ नाना प्रकार के रचनाओं से युक्त, उत्तम सुवर्ण और रत्नों से निर्मित भवनावासी देवो के महल है. * ये महल सात, आठ, नौ, दस इत्यादि अनेक तलों वाले है. * यह भवन रत्नामालाओं से भूषीत, चमकते हुए मणिमय दीपकों से सुशोभित, जन्मशाला, अभिषेकशाला, भूषणशाला, मैथुनशाला, परिचर्यागृह और मंत्रशाला आदि से रमणीय है. * इनमे मणिमय तोरणों से सुंदर द्वारों वाले सामान्यगृह, कदलिगृह, गर्भगृह, चित्रगृह, आसनगृह, नादगृह, और लतागृह इत्यादि गृह विशेष भी है. * यह भवन सुवर्णमय प्राकार से संयुक्त, विशाल छज्जों से शोभित, फहराती हुइ ध्वजाओं, पुष्करिणी, वापी, कूप, क्रीडन युक्त मत्तावारणो, मनोहर गवाक्ष और कपाटों सहित अनादिनिधन है. * इन भवनों के चारो पार्श्वभागों में चित्र विचित्र आसन एवं उत्तम रत्नों से निर्मित दिव्या शय्याये स्थित है.
भवनवासी देवों के भवनों मे किस प्रकार के जिन मंदिर है?
* भवनवासी देवो के भवनो के मध्य मे १०० योजन ऊंचे एक एक कूट स्थित है। * इन कूटों के उपर पद्मराग मणिमय कलशों से सुशोभित जिनमंदिर है। * यह मंदिर ४ गोपुर, ३ मणिमय प्राकार, वन ध्वजाये, एवं मालाओं से संयुक्त है।
भवनवासी देवों के चैत्यवृक्षों का प्रमाण क्या है? *
भवनवासी देवो के जिनमंदिरों के चारो ओर नाना चैत्यवृक्षो सहित पवित्र अशोक वन, सप्तच्छद वन, चंपक वन, आम्र वन स्थित है। * प्रत्येक चैत्यवृक्ष का अवगाढ-जड़ १ कोस, स्कंध की ऊँचाइ १ योजन, और शाखाओं की लंबाइ ४ योजन प्रमाण है।
भवनवासी देवों के चैत्यवृक्षों का स्वरूप कैसा है? *
असुरकुमार आदि १० प्रकार के भवनवासी देवों के भवनों में ओलग शालाओं के आगे विविध प्रकार के रत्नों से निर्मित चैत्यावृक्ष होते है। * पीपल, सप्तपर्ण, शाल्मली, जामुन, वेतस, कदंब, प्रियंगु, शिरीष, पलाश, और राजदृम ये १० चैत्यवृक्ष क्रम से उन असुरादिक कुलो के चिन्ह रूप है। * ये दिव्य वृक्ष विविध प्रकार के उत्तम रत्नो की शाखाओं से युक्त, विचित्र पुष्पों से अलंकृत, और उत्कृष्ठ मरकत मणिमय उत्तम पत्रों से व्याप्त है। * यह अतिशय शोभा को प्राप्त, विविध प्रकार के अंकुरों से मंडित, अनेक प्रकार के फलों से युक्त, है। * ये वृक्ष नाना प्रकार के रत्नों से निर्मित, छत्र के उपर से संयुक्त, घंटा ध्वजा से रमणीय, आदि अंत से रहित पृथ्वीकायिक स्वरुप है।
भवनवासी देवों के चैत्यवृक्षों के मूल मे विराजमान जिन प्रतिमाओं का स्वरूप कैसा है?
* भवनवासी देवों के चैत्यवृक्षों के मूल मे चारो दिशाओं मे से प्रत्येक दिशा मे पद्मासन से स्थित पाँच-पाँच जिन प्रतिमाये विराजमान होती है। * उन सभी प्रतिमाओं के आगे रत्नमय २० मानस्तंभ है। * एक एक मानस्तंभ के ऊपर चारो दिशाओ में सिंहासन की शोभा से युक्त जिन प्रतिमाये है। * ये प्रतिमाये देवो से पूजनीय, चार तोरणो से रमणीय, आठ महामंगल द्रव्यों से सुशोभित और उत्तमोत्तम रत्नो से निर्मित होती है।
भवनवासी देवों के जिन मंदिरों का स्वरूप कैसा है? *
इन जिनालयों मे चार-चार गोपुरों से संयुक्त तीन कोट है। * प्रत्येक वीथी मे एक एक मानस्थंभ व वन है। * स्तूप तथा कोटो के अंतराल मे क्रम से वनभूमि, ध्वजभुमि,और चैत्यभुमि ऐसे तीन भुमियाँ है। * इन जिनालयो मे चारों वनों के मध्य मे स्थित तीन मेखलाओ से युक्त नंदादिक वापिकायें, तीन पीठों से युक्त धर्म विभव तथा चैत्यवृक्ष शोभायमान होते है।
भवनवासी देवों के जिन मंदिरों के ध्वजभुमियों का स्वरूप कैसा है? *
इन ध्वजभुमियों मे सिंह, गज, वृषभ, गरुड, मयुर, चंद्र, सूर्य, हंस, पद्म, चक्र इन चिन्होंसे अंकित ध्वजायें होती है। * उपरोक्त प्रत्येक चिन्हों वाली १०८ महाध्वजायें होती है और इन एक-एक महाध्वजा के आश्रित १०८ लघु (क्षुद्र) ध्वजायें भी होती है।
भवनवासी देवों के जिन मंदिरों के मंडपों का स्वरूप कैसा है?
* इस जिन मंदिरों मे वंदन मंडप, अभिषेक मंडप, नर्तन मंडप, संगीत मंडप और प्रेक्षणमंडप होते है। * इसके अलावा क्रीड़गृह, गुणनगृह (स्वाध्याय शाला) एवं विशाल चित्रशालायें भी होती है।
भवनवासी देवों के जिन मंदिरों के भीतर की रचना कैसी होती है?
इन मंदिरोँ मे देवच्छंद के भीतर श्रीदेवी, श्रुतदेवी, तथा सर्वाण्ह और सानत्कुमार यक्षों की मूर्तियाँ एवं आठ मंगल द्रव्य होते है। * झारी, कलश, दर्पण, ध्वजा, चामर, छत्र, व्यजन और सुप्रतिष्ठ इन आठ मंगल द्रव्यों मे से वहाँ प्रत्येक १०८ – १०८ होते है। * इनमे चमकते हुए रत्नदीपक और ५ वर्ण के रत्नों से निर्मित चौक होते है। * यहाँ गोशीर्ष, मलयचंदन, कालागरू और धूप कि गंध तथा भंभा, मृदंग, मर्दल, जयघंटा, कांस्यताल, तिवली, दुंदुभि एवं पतह के शब्द नित्य गुंजायमान होते है।
भवनवासी देवों के जिन मंदिरों की प्रतिमायें कैसी होती है?
* हांथ मे चंवर लिए हुए नागकुमार देवों से युक्त, उत्तम उत्तम रत्नों से निर्मित, देवों द्वारा वंद्य, ऐसी उत्तम प्रतिमायें सिंहासन पर विराजमान है। * प्रत्येक जिनभवन मे १०८ – १०८ प्रतिमायें विराजमान है। * ऐसे अनादिनिधन जिनभवन ७ करोड ७२ लाख है, जो की भवनवासी देवों के भवनों की संख्या प्रमाण है।
भवनवासी देवों के जिन मंदिरों मे कौन कौन से देव पूजा करते है?
जो देव सम्यगदर्शन से युक्त है, वे कर्म क्षय के निमित्त नित्य ही जिनेंद्र भगवान कि पूजा करते है। इसके अतिरिक्त सम्यगदृष्टि देवों से सम्बोधित किये गये मिथ्यादृष्टि देव भी कुल देवता मानकर जिनेंद्र प्रतिमाओं की बहुत प्रकार से पूजा करते रहते है।
भवनवासी देवों के परिवारों मे कौन कौन होते है?
* भवनवासी देव १० प्रकार (जाती) के होते है और प्रत्येक प्रकार में दो – दो इंद्र होते है. * प्रत्येक इंद्र के दस-दस प्रकार के परिवार देव होते है. जैसे चमरेंद्र के १० परिवार देव, वैरोचणेंद्र के १० परिवार देव इत्यादि. * ये परिवार देव इस प्रकार होते है : प्रतिन्द्र, त्रायस्त्रिंश, सामानिक, लोकपाल, तनुरक्षक (आत्मरक्षक), पारिषद, अनीक, प्रकीर्णक, आभियोग्य और किल्विषक. * इस परिवार में इंद्र – राजा के समान, प्रतिन्द्र – युवराज के समान, त्रायस्त्रिंश – पुत्र के समान, और सामानिक देव – पत्नी के समान होते हे. * प्रत्येक इंद्र के सोम, यम, वरुण और कुबेर नामक, चार – चार रक्षक लोकपाल होते है जो क्रम से पूर्व, पश्चिम आदि दिशाओं में होते है. ये परिवार में तंत्रपालो के समान होते है. * तनुरक्षक देव अंगरक्षक के समान होते है. * राजा की बाह्य, मध्य और आभ्यंतर समिती के समान देवो में भी ३ प्रकार की परिषद होती है. इन तीन परिषदों में बैठनेवाले देव, क्रमशः बाह्य पारिषद, मध्य * पारिषद, और आभ्यंतर पारिषद कहलाते है. * अनीक देव सेना के तुल्य, प्रकीर्णक – प्रजा के तुल्य, आभियोग्य – दास के समान और किल्विषक – चांडालके समान होते है.
भवनवासी देवों के परिवारों मे कौन कौन होते है? *
भवनवासी देव १० प्रकार (जाती) के होते है और प्रत्येक प्रकार में दो – दो इंद्र होते है. * प्रत्येक इंद्र के दस-दस प्रकार के परिवार देव होते है. जैसे चमरेंद्र के १० परिवार देव, वैरोचणेंद्र के १० परिवार देव इत्यादि. * ये परिवार देव इस प्रकार होते है : प्रतिंद्र, त्रायस्त्रिंश, सामानिक, लोकपाल, तनुरक्षक (आत्मरक्षक), पारिषद, अनीक, प्रकीर्णक, आभियोग्य और किल्विषक. * इस परिवार में इंद्र – राजा के समान, प्रतिन्द्र – युवराज के समान, त्रायस्त्रिंश – पुत्र के समान, और सामानिक देव – पत्नी के समान होते हे. * प्रत्येक इंद्र के सोम, यम, वरुण और कुबेर नामक, चार – चार रक्षक लोकपाल होते है जो क्रम से पूर्व, पश्चिम आदि दिशाओं में होते है. ये परिवार में तंत्रपालो के समान होते है. * तनुरक्षक देव अंगरक्षक के समान होते है. * राजा की बाह्य, मध्य और आभ्यंतर समिती के समान देवो में भी ३ प्रकार की परिषद होती है. इन तीन परिषदों में बैठनेवाले देव, क्रमशः बाह्य पारिषद, मध्य * पारिषद, और आभ्यंतर पारिषद कहलाते है. * अनीक देव सेना के तुल्य, प्रकीर्णक – प्रजा के तुल्य, आभियोग्य – दास के समान और किल्विषक – चांडालके समान होते है.
भवनवासी देवों के कितने प्रतिंद्र होते है?
भवनवासी प्रतिंद्रो की संख्या उनके इंद्रो के समान – बीस होती है. (हर जाती के २ इंद्र और २ प्रतिंद्र होते है)
भवनवासी देवों के कितने त्रायस्त्रिंश होते है?
प्रत्येक भवनवासी इंद्रो के ३३ ही त्रायस्त्रिंश होते है.
भवनवासी सामानिक देवों का प्रमाण क्या है? *
चमरेन्द्र के ६४,०००, वैरोचन के ६०,००० और भूतानंद के ५६,००० सामानिक देव है. * शेष १७ इंद्रो के पचास – पचास हजार सामानिक देव है. * इसप्रकार भवनवासी सामानिक देवों का कुल प्रमाण १० लाख ३० हजार है. * ६४००० + ६०००० + ५६००० + (१७ × ५०,०००) = १०,३०,०००
भवनवासी आत्मरक्षक देवों का प्रमाण क्या है?
* चमरेन्द्र के २ लाख ५६ हजार , वैरोचन के २ लाख ४० हजार और भूतानंद के २ लाख २४ हजार आत्मरक्षक देव है. * शेष १७ इंद्रो के दो – दो लाख आत्मरक्षक देव है. * इसप्रकार भवनवासी आत्मरक्षक देवों का कुल प्रमाण ४१ लाख २० हजार है. * २,५६,००० + २,४०,००० + २,२४,००० + (१७ × २,००,०००) = ४१,२०,०००
भवनवासी पारिषद देवों का प्रमाण क्या है? *
चमरेन्द्र के २८ हजार , वैरोचन के २६ हजार और भूतानंद के ६ हजार आभ्यंतर पारिषद देव है. * शेष १७ इंद्रो के चार – चार हजार आभ्यंतर पारिषद देव है. * इसप्रकार भवनवासी आभ्यंतर पारिषद देवों का कुल प्रमाण १ लाख २८ हजार है. * २८,००० + २६,००० + ६,००० + (१७ × ४,०००) = १,२८,०००
भवनवासी मध्यम पारिषद देवों का प्रमाण क्या है? *
चमरेन्द्र के ३० हजार , वैरोचन के २८ हजार और भूतानंद के ८ हजार मध्यम पारिषद देव है. * शेष १७ इंद्रो के छ – छ हजार मध्यम पारिषद देव है. * इसप्रकार भवनवासी मध्यम परिषद, जिसका नाम “चंद्रा“ है, उसके देवों का कुल प्रमाण १ लाख ६८ हजार है. * ३०,००० + २८,००० + ८,००० + (१७ × ६,०००) = १,६८,००० भवनवासी बाह्य पारिषद देवों का प्रमाण क्या है? *
चमरेन्द्र के ३२ हजार , वैरोचन के ३० हजार और भूतानंद के १० हजार बाह्य पारिषद देव है. * शेष १७ इंद्रो के आठ – आठ हजार बाह्य पारिषद देव है. * इसप्रकार भवनवासी बाह्य परिषद, जिसका नाम “समिता“ है, उसके देवों का कुल प्रमाण २ लाख ८ हजार है. * ३२,००० + ३०,००० + १०,००० + (१७ × ८,०००) = २,०८,००० भवनवासी अनीक देवों का प्रमाण क्या है?
* प्रत्येक भवनवासी इंद्रो के सात – सात अनीक होती है. * इन सातो में से प्रत्येक अनीक सात सात कक्षाओं से युक्त होती है * उनमे से प्रथम कक्षा का प्रमाण अपने अपने सामानिक देवो के बराबर होता है, इसके आगे उत्तरोत्तर प्रथम कक्षा से दूना दूना होता जाता है * असुरकुमार जाती में महिष, घोडा, हाथी, रथ, पादचारी, गंधर्व और नर्तकी ये सात अनीक होती है, इनमे से प्रथम ६ अनीको में देव प्रधान होते है तथा आखिरी अनीक में देवी प्रधान होती है * शेष नागकुमार आदि जातियों में सिर्फ प्रथम अनीक अलग है और आगे की ६ अनीक असुरकुमारो जैसी ही है * नागाकुमारो में प्रथम अनीक – नाग, सुपर्णकुमारो में गरुड़, द्वीपकुमारो में गजेन्द्र, उदधिकुमारो में मगर, स्तनितकुमारो में ऊँट, विद्युतकुमारो में गेंडा, दिक्कुमारो में सिंह, अग्निकुमारो में शिविका और वायुकुमारो में अश्व ये प्रथम अनीक है. * चमरेन्द्र के ८१ लाख, २८ हजार इतनी प्रथम अनीक की महिषसेना है. तथा उतनी ही सेना बाकी अनीको की होती है. (७ × ८१,२८,०००) = ५,६८,९६,००० * वैरोचन के ७६ लाख, २० हजार इतनी महिषसेना है तथा शेष इतनी ही है. (७ × ७६,२०,०००) = ५,३३,४०,००० * भूतानंद के ७१ लाख, १२ हजार इतनी प्रथम नागसेना है तथा शेष घोडा आदि भी इतनी ही है. (७ × ७१,१२,०००) = ४,९७,८४,००० * शेष १७ भवनवासी इंद्रो की प्रथम अनीक का प्रमाण ६३ लाख, ५० हजार और कुल ७ अनीको का प्रमाण ४,४४,५०,००० है
भवनवासी प्रकीर्णक आदि शेष देवों का प्रमाण क्या है?
भवनवासियों के सभी २० इन्द्रोके, प्रकीर्णक, अभियोग्य और किल्विषक इन शेष देवों का प्रमाण का उपदेश काल के वश से उपलब्ध नहीं है.
भवनवासी इंद्रों की देवियों की संख्या कितनी होती है? *
चमरेंद्र के कृष्णा, रत्ना, सुमेघा, सुका और सुकांता ये पाँच अग्रमहिषी महादेवीयाँ है. इन महादेवीयों में प्रत्येक के ८००० परिवार देवीयाँ है. इस प्रकार “परिवार देवियाँ” ४०,००० प्रमाण है. ये महादेवीयाँ विक्रिया से अपने आठ – आठ हजार रूप बना सकती है. चमरेंद्र के १६,००० वल्लभा देवियाँ भी है. इन्हें मिलाने से चमरेंद्र की कुल ५६ हजार देवियाँ होती है * द्वितीय – वैरोचन इंद्र के पदमा, पद्मश्री, कनकश्री, कनकमाला, और महापद्मा ये पाँच अग्रमहिषी महादेवीयाँ है. इनकी विक्रिया, परिवार देवी, वल्लभा देवी आदि का प्रमाण चमरेन्द्र के समान होने से इस इंद्र की भी कुल ५६ हजार देवियाँ होती है. * इसीप्रकार भूतानंद और धरणानंद के पचास – पचास हजार देवियाँ है. * वेणुदेव, वेणुधारी इंद्रों के ४४ हजार देवियाँ है और शेष इंद्रों के ३२ – ३२ हजार प्रमाण है. * इन इंद्रों की पारिषद आदि देवों की देवांगनाओ का प्रमाण तिलोयपन्नत्ति से जान लेना चाहिए. * सबसे निकृष्ठ देवों की भी ३२ देवियाँ अवश्य होती है
भवनवासी देवों का आहार कैसा और कब होता है?
* भवनवासी देव तथा देवियों का अति स्निग्ध, अनुपम और अमृतमय आहार होता है. * चमर, और वैरोचन इन दो इंद्रो का १००० वर्ष के बाद आहार होता है. * इसके आगे भूतानंद आदि ६ इंद्रो का साढ़े बारा दिनों में, जलप्रभ आदि ६ इंद्रो का १२ दिनो में, और अमितगती आदि ६ इंद्रो का साढ़े सात दिनों में आहार ग्रहण होता है. * दस हजार वर्ष वाली जघन्य आयु वाले देवो का आहार दो दिन में तो पल्योपम की आयु वालो का पाँच दिन में भोजन का अवसर आता है. * इन देवो के मन में भोजन की इच्छा होते ही उनके कंठ से अमृत झरता है और तृप्ति हो जाती है. इसे ही मानसिक आहार कहते है.
भवनवासी देव उच्छवास कब लेते है? *
चमर, और वैरोचन इंद्र १५ दिन में, भूतानंद आदि ६ इंद्र साढ़े बार मुहुर्त में, जलप्रभ आदि ६ इंद्र साढ़े छ मुहुर्त में, उच्छवास लेते है. * दस हजार वर्ष वाली आयु वाले देव ७ श्वासोच्छ्वास प्रमाण काल के बाद, और पल्योपम की आयु वाले पाँच मुहुर्त के बाद उच्छवास लेते है
भवनवासी देवो के शरीर का वर्ण कैसा होता है? *
असुरकुमार, सुपर्णकुमार, द्वीपकुमार और दिक्कुमार का वर्ण काला होता है * नागकुमार, उधदिकुमार, स्तानितकुमार का वर्ण अधिक काला होता है * विद्युतकुमार का वर्ण बिजली के सदृश्य, अग्निकुमार का अग्नि की कांती के समान, एवं वायुकुमार का नीलकमल के सदृश्य होता है
भवनवासी देवो का गमन (विहार) कहाँ तक होता है? *
भवनवासी इंद्र भक्ति से पंचकल्याणको के निमित्त ढाई द्वीप में, जिनेन्द्र भगवान के पूजन के निमित्त से नन्दीश्वर द्वीप आदि पवित्र स्थानो में, शील आदी से संयुक्त किन्ही मुनिवर की पूजन या परीक्षा के निमित्तसे तथा क्रीडा के लिए यथेच्छ स्थान पर आते जाते रहते है. * ये देव स्वयं अन्य किसी की सहायता से रहित ईशान स्वर्ग तक जा सकते है तथा अन्य देवो की सहायता से अच्युत स्वर्ग तक भी जाते है.
भवनवासी देव – देवियों का शरीर कैसा होता है? *
इनके शरीर निर्मल कांतीयुक्त, सुगंधीत उच्छवास से सहित, अनुपम रूप वाले, तथा समचतुरस्त्र सस्न्थान से युक्त होते है. * इन देव-देवियों को रोग, वृद्धत्व नहीं होते बल्कि इनका अनुपम बल और वीर्य होता है. * इनके शरीर में मल, मूत्र, हड्डी, माँस, मेदा, खून, मज्जा, वसा, शुक्र आदि धातु नहीं है.
भवनवासी देव – देवियाँ काम सुख का अनुभव कैसे करते है?
* ये देवगण काय प्रवीचार से युक्त है. अर्थात् वेद की उदीरणा होने पर मनुष्यों के समान काम सुख का अनुभव करते है. * ये इंद्र और प्रतिन्द्र विविध प्रकार के छत्र आदि विभूतियों को धारण करते है. * चमर इंद्र सौधर्म इंद्र से ईर्ष्या करता है. वैरोचन ईशान से, वेणु भूतानंद से, वेणुधारी धरणानंद से, ईर्ष्या करते है. * नाना प्रकार की विभूतियों को देखकर मात्सर्य से या स्वभाव से ही जलाते रहते है
भवनवासी प्रतिन्द्र, इंद्र आदि के विभूतियों में क्या अंतर होता है ?
प्रतिन्द्र आदि देवो के सिंहासन, छत्र, चमर अपने अपने इंद्रो की अपेक्षा छोटे रहते है. * सामानिक और त्रायस्त्रिंश देवो में विक्रिया, परिवार, ऋद्धि और आयु अपने अपने इंद्रो की समान है. * इंद्र उन सामानिक देवो की अपेक्षा केवल आज्ञा, छत्र, सिंहासन और चामरो से अधिक वैभव युक्त होते है.
भवनवासी देवो की आयु का प्रमाण कितना है ?
* चमर, वैरोचन : १ सागरोपम * भूतानंद, धरणानंद : ३ पल्योपम * वेणु, वेणुधारी : २ १/२ पल्योपम * पूर्ण, वसिष्ठ : २ पल्योपम * जलप्रभ आदि शेष १२ इंद्र : १ पल्योपम भवनवासी देवियों की आयु का प्रमाण कितना है ?
* चमरेंद्र की देवियाँ : २ १/२ पल्योपम * वैरोचन की देवियाँ : ३ पल्योपम * भूतानंद की देवियाँ : १/८ पल्योपम * धरणानंद की देवियाँ:कूछ आधिक १/८ पल्योपम * वेणु की देवियाँ:३ पूर्व कोटि * वेणुधारी की देवियाँ:कूछ आधिक ३ पूर्व कोटि * अवशिष्ठ दक्षिण इंद्रो में से प्रत्येक इंद्र की देवियों की आयु ३ करोड़ वर्ष और उत्तर इंद्रो में से प्रत्येक इंद्र की देवियों की आयु कुछ आधिक ३ करोड़ वर्ष है. * असुर आदि १० प्रकार के देवो में निकृष्ट देवो की जघन्य आयु का प्रमाण १० हजार वर्ष मात्र है. भवनवासी देवो के शरीर की अवगाहना का प्रमाण कितना है ?
* असुरकुमारों के शरीर की ऊंचाई : २५ धनुष्य * शेष देवों के शरीर की ऊंचाई : १० धनुष्य * यह ऊंचाई का प्रमाण मूल शरीर का है. * विक्रिया से निर्मित शरीरो की ऊंचाई अनेक प्रकार की है.
भवनवासी देवो के अवधिज्ञान एवं विक्रिया का प्रमाण कितना है ?
* अपने अपने भवन में स्थित देवो का अवधिज्ञान उर्ध्व दिशा में उत्र्कुष्ठ रूप से मेरु पर्वत को स्पर्श करता है, तथा अपने भवनों के निचे, थोड़े थोड़े क्षेत्र में प्रवृत्ति करता है. * वही अवधिज्ञान तिरछे क्षेत्र की अपेक्षा अधिक क्षेत्र को जानता है. * असुरादी देव अनेक रूपों की विक्रिया करते हुए अपने अपने अवधिज्ञान के क्षेत्र को पूरित करते है भवनवासी देव योनी में किन कारणों से जन्म होता है ?
निम्नलिखित आचरण से भवनवासी योनी में जन्म होता है.
* शंकादी दोषों से युक्त होना * क्लेशभाव और मिथ्यात्व भाव से युक्त चारित्र धारण करना * कलहप्रिय, अविनयी, जिनसुत्र से बहिर्भुत होना. * तीर्थंकर और संघ की आसादना (निंदा) करना कुमार्ग एवं कुतप करने वाले तापसी भवनवासी योनी में जन्म लेते है.
भवनवासी देव योनी में किन कारणों से सम्यक्त्व होता है ?
* सम्यक्त्व सहित मरण कर के कोई जीव भवनवासी देवो में उत्पन्न नहीं होता. * कदाचित् जातिस्मरण, देव ऋद्धि दर्शन, जिनबिम्ब दर्शन और धर्म श्रवण के निमित्तो से ये देव सम्यक्त्व को प्राप्त करा लेते है.
भवनवासी देव योनी से निकलकर जीव कहाँ उत्पन्न होता है ?
* ये जीव कर्म भूमि में मनुष्य गती अथवा तिर्यंच गति को प्राप्त कर सकते है, किन्तु शलाका पुरुष नहीं हो सकते है. * यदि मिथ्यात्व से सहित संक्लेश परिणाम से मरण किया तो एकेंद्रिय पर्याय में जन्म लेते है
भवनवासी देव किस प्रकार और कौनसी शय्या पर जन्म लेते है और क्या विचार करते है ?
* भवनवासी भवनों में उत्तम, कोमल उपपाद शाला में उपपाद शय्या पर देवगति नाम कर्म के कारण जीव जन्म लेता है * उत्पन्न होते ही अंतर्मुहूर्त में छहों पर्याप्तियो को पूर्ण कर १६ वर्ष के युवक के समान शरीर को प्राप्त कर लेते है * इन देवो के वैक्रियिक शरीर होने से इनको कोई रोग आदि नहीं होते है * देव भवनों में जन्म लेते ही, बंद किवाड़ खुल जाते है और आनंद भेरी का शब्द (नाद) होने लगता है * इस भेरी को सुनकर, परिवार के देव देवियाँ हर्ष से जय जयकार करते हुए आते है * जय, घंटा, पटह, आदि वाद्य, संगीत नाट्य आदि से चतुर मागध देव मंगल गीत गाते है * इस दृश्य को देखकर नवजात देव आश्चर्यचकित हो कर सोचता है की तत्क्षण उसे अवधिज्ञान नेत्र प्रकट होता है * यहाँ अवधि विभंगावधि होती है और सम्यक्त्व प्रकट होने पर सुअवधि कहलाती है * ये देवगण पूर्व पुण्य का चिंतवन करते हुए यह सोचते है की मैंने सम्यक्त्व शुन्य धर्म धारण करके यह निम्न देव योनी पायी है. * इसके पश्चात अभिषेक योग्य द्रव्य लेकर जिन भवनों में स्थित जिन प्रतिमाओं की पूजा करते है (सम्यग्दृष्टि देव कर्म क्षय का कारण मानकर देव पूजा करते है तो मिथ्यादृष्टि देव अन्य देवो की प्रेरणा से कुल देवता मानकर पूजा करते है.) * पूजा के पश्चात अपने अपने भवनों में आकर सिंहासन पर विराजमान हो जाते है.
भवनवासी देव किस प्रकार क्रीडा करते है ?
* ये देवगण दिव्य रूप लावण्य से युक्त अनेक प्रकार की विक्रिया से सहित, स्वभाव से प्रसन्न मुख वाली देवियों के साथ क्रीडा करते है * ये देव स्पर्श, रस, रूप और शब्द से प्राप्त हुए सुखों का अनुभव करते हुए क्षणमात्र भी तृप्ति को प्राप्त नहीं करते है * द्वीप, कुलाचल, भोग भूमि नंदनवन आदि उतम स्थानों में ये देव क्रीडा करते है
सात नरक प्रश्न उत्तर
अधोलोक कहाँ है और उसमे किस किसकी रचना है ?
१४ राजु की ऊँचाई वाले लोकाकाश के निचले भाग मे सात राजु प्रमाण अधोलोक है और उसमे निगोद और ७ नरको की रचना है।
सात राजू ऊंचे अधोलोक मे निगोद और नरकों की अलग अलग ऊंचाइया कितनी है ?
* सबसे नीचे के १ राजू मे निगोद है । * उसके उपर के १ राजू मे, महातमःप्रभा नाम का सातवां नरक है । * उसके उपर के १ राजू मे, तमःप्रभा नाम का छटवां नरक है । * उसके उपर के १ राजू मे, धूमप्रभा नाम का पांचवां नरक है । * उसके उपर के १ राजू मे, पंकप्रभा नाम का चौथा नरक है । * उसके उपर के १ राजू मे, बालुकाप्रभा नाम का तिसरा नरक है । * उसके उपर के १ राजू मे, शर्कराप्रभा नाम का दुसरा और रत्नप्रभा नाम का प्रथम नरक है । इसप्रकार से ७ राजू ऊंचे अधोलोक मे, १ राजू मे २ नरक, ५ राजू मे ५ नरक और १ राजू मे निगोद है ।
अधोलोक से मध्यलोक तक कि चौडाई घटने का क्रम कैसा है ?
* अधोलोक के तल भाग मे : ७ राजू * सातवी पृथ्वी-नरक के निकट : ६ १/७ राजू * छटवी पृथ्वी-नरक के निकट : ५ २/७ राजू * पांचवी पृथ्वी-नरक के निकट : ४ ३/७ राजू * चौथी पृथ्वी-नरक के निकट : ३ ४/७ राजू * तिसरी पृथ्वी-नरक के निकट : २ ५/७ राजू * दूसरी पृथ्वी-नरक के निकट : १ ६/७ राजू * प्रथम पृथ्वी-नरक के निकट : १ राजू संपूर्ण मध्य लोक की चौडाई १ राजू मात्र ही है।
अधोलोक का घनफल कितना है? *
अधोलोक मे निचे की पूर्व-पश्चिम् चौडाई ७ राजू है। तथा मध्यलोक के यहाँ १ राजू है। (कुल ८ राजू) * यह कुल चौडाई २ विभागो मे मिलकर है इसलिये अॅवरेज चौडाई निकालने के लिये, इस मे २ का भाग देने से चार राजू हुए।(८/२ = ४) * अधोलोक की ऊंचाई ७ राजू और मोटाई ७ राजू है * इस प्रकार अधोलोक का घनफल = ऊँचाई × चौडाई × मोटाई = ७ राजू × ४ राजू × ७ राजू = १९६ घनराजू है।
अधोलोक मे कितनी पृथ्वीयाँ है? और उनके नाम क्या है? *
अधोलोक मे ७ पृथ्वीयाँ है। इन्हे नरक भी कहते है। इन के नाम इस प्रकार है॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰ * अधोलोक में सबसे पहली, मध्यलोक से लगी हुई, ‘रत्नप्रभा’ पृथ्वी है। * इसके कुछ कम एक राजु नीचे ‘शर्कराप्रभा’ है। * इसी प्रकार से एक-एक के नीचे बालुका प्रभा, पंकप्रभा, धूमप्रभा, तम:प्रभा और महातम:प्रभा भूमियाँ हैं। * घम्मा, वंशा, मेघा, अंजना, अरिष्टा, मघवी और माघवी ये भी इन पृथ्वियों के अनादिनिधन नाम हैं।
अधोलोक कि पृथ्वीयों की अलग अलग मोटई कितनी है?
धम्मा (रत्नप्रभा) : १ लाख ८०,००० योजन # वंशा (शर्कराप्रभा) : ३२,००० योजन # मेघा (बालुकाप्रभा) : २८,००० योजन # अंजना (पंकप्रभा) : २४,००० योजन # अरिष्टा (धूमप्रभा) : २०,००० योजन # मघवी (तमःप्रभा) : १६,००० योजन # माघवी (महातमःप्रभा) : ८,००० योजन नोट : ये सातो पृथ्वीयाँ, उर्ध्व दिशा को छोड शेष ९ दिशाओ मे घनोदधि वातवलय से लगी हुई है।
रत्नप्रभा पृथ्वी के कितने भाग है? और उनकी मोटाईया कितनी है?
रत्नप्रभा पृथ्वी के ३ भाग हैं- # खरभाग (१६००० योजन) # पंकभाग (८४००० योजन) # अब्बहुलभाग (८०००० योजन)
रत्नप्रभा पृथ्वी मे किस किस के निवास है? *
खरभाग और पंकभाग में भवनवासी तथा व्यंतरवासी देवों के निवास हैं। * अब्बहुलभाग में प्रथम नरक के बिल हैं, जिनमें नारकियों के आवास हैं।
खरभाग के कितने भेद है और उनकी मोटाईया कितनी है?
* खरभाग के १६ भेद है। * चित्रा, वज्रा, वैडूर्या, लोहिता, कामसारकल्पा, गोमेदा, प्रवाला, ज्योतिरसा, अंजना, अंजनमुलिका, अंका, स्फटिका, चंदना, सर्वाथका, वकुला और शैला * खरभाग की कुल मोटाई १६,००० योजन है। उपर्युक्त हर एक पृथ्वी १००० योजन मोटी है।
खरभाग की प्रथम पृथ्वी का नाम “चित्रा” कैसे सार्थक है?
खरभाग की प्रथम पृथ्वी मे अनेक वर्णो से युक्त महितल, शीलातल, उपपाद, बालु, शक्कर, शीसा, चाँदी, सुवर्ण, आदि की उत्पत्तिस्थान वज्र, लोहा, तांबा, रांगा, मणिशीला, सिंगरफ, हरिताल, अंजन, प्रवाल, गोमेद, रुचक, कदंब, स्फटिक मणि, जलकांत मणि, सुर्यकांत मणि, चंद्रकांत मणि, वैडूर्य, गेरू, चन्द्राश्म आदि विवीध वर्ण वाली अनेक धातुए है। इसीलिये इस पृथ्वी का “चित्रा” नाम सार्थक है ==नारकी जीव कहाँ रहते है?== नारकी जीव अधोलोक के नरको मे जो बिल है, उनमे रहते है।
नरको मे बिल कहाँ होते है?
रत्नप्रभा पृथ्वी के अब्बहुल भाग से लेकर छठे नरक तक की पृथ्वीयों मे, उनके उपर व निचे के एक एक हजार योजन प्रमाण मोटी पृथ्वी को छोडकर पटलों के क्रम से और सातवी पृथ्वी के ठिक मध्य भाग मे नारकियों के बिल है।
प्रत्येक नरक मे कितने बिल है?
* सातों नरको मे मिलकर कुल ८४ लाख बिल इस्प्रकार् है। * प्रथम पृथ्वी : ३० लाख बिल * द्वितीय पृथ्वी : २५ लाख बिल * तृतीय पृथ्वी : १५ लाख बिल * चौथी पृथ्वी : १० लाख बिल * पाँचवी पृथ्वी : ३ लाख बिल * छठी पृथ्वी : ९९,९९५ बिल * साँतवी पृथ्वी : ५ बिल
कौनसे नारकी बिल उष्ण और कौनसे शीत है?
* पहली, दुसरी, तीसरी और चौथी नरको के सभी बिल और पाँचवी पृथ्वी के ३/४ बिल अत्यंन्त उष्ण है। * इनकी उष्णता इतनी तीव्र होती है कि अगर उनमे मेरु पर्वत इतना लोहे का शीतल पिंड डाला जाय तो वह तल प्रदेश तक पहुँचने से पहले ही मोम के समान पिघल जायेगा। * पाँचवी पृथ्वी के बाकी १/४ बिल तथा छठी और साँतवी पृथ्वी के सभी बिल अत्यन्त शीतल है। * इनकी शीतलता इतनी तीव्र होती है कि अगर उनमे मेरु पर्वत इतना लोहे का उष्ण पिंड डाला जाय तो वह तल प्रदेश तक पहुँचने से पहले ही बर्फ जैसा जम जायेगा। * इसप्रकार नारकियोंके कुल ८४ लाख बिलों मे से ८२,२५,००० अति उष्ण होते है और १,७५,००० अति शीत होते है।
नारकीयों के बिल की दुर्गन्धता और भयानकता कितनी है?
* बकरी, हाथी, घोडा, भैंस, गधा, उंट, बिल्ली, सर्प, मनुष्यादिक के सडे हुए माँस कि गंध की अपेक्षा, नारकीयों के बिल की दुर्गन्धता अनन्तगुणी होती है। * स्वभावतः गाढ अंधकार से परिपूर्ण नारकीयों के बिल क्रकच, कृपाण, छुरिका, खैर की आग, अति तीक्ष्ण सुई और हाथीयों की चिंघाड से भी भयानक है।
नारकीयों के बिल के कितने और कौन कौनसे प्रकार है?
नारकीयों के बिल के निम्नलिखित ३ प्रकार है : # इन्द्रक : जो अपने पटल के सब बिलो के बीच मे हो, उसे इन्द्रक कहते है। इन्हे प्रस्तर या पटल भी कहते है। # श्रेणीबद्ध : जो बिल ४ दिशाओं और ४ विदिशाओं मे पंक्ति से स्थित रहते हे, उन्हे श्रेणीबद्ध कहते है। # प्रकीर्णक : श्रेणीबद्ध बिलों के बीच मे इधर उधर रहने वाले बिलों को प्रकीर्णक कहते है।
नरक इन्द्रक बिल श्रेणीबद्ध बिल प्रकीर्णक बिल प्रथम १३ ४४२० २९,९५,५६७ दुसरा ११ २६८४ २४,९७,३०५ तीसरा ९ १४७६ १४,९८,५१५ चौथा ७ ७०० ९,९९,२९३ पाँचवा ५ २६० २,९९,७३५ छठा ३ ६० ९९,९३२ साँतवा १ ४ ० कुल संख्या ४९ ९६०४ ८३,९०,३४७ “}
प्रथम नरक मे इन्द्रक बिलो की रचना किस प्रकार है, और उनके नाम क्या है?
* प्रथम नरक मे १३ इन्द्रक पटल है। * ये एक पर एक ऐसे खन पर खन बने हुए है। * ये तलघर के समान भुमी मे है एवं चूहे आदि के बिल के समान है। * ये पटल औंधे मुँख और बिना खिडकी आदि के बने हुए है। * इसप्रकार इनका बिल नाम सार्थ है। * इन १३ इन्द्रक बिलों के नाम क्रम से सीमन्तक, निरय, रौरव, भ्रांत, उद्भ्रांत, संभ्रांत, असंभ्रांत, विभ्रांत, त्रस्त, त्रसित, वक्रान्त, अवक्रान्त, और विक्रान्त है।
श्रेणीबद्ध बिलों का प्रमाण कैसे निकालते है? *
प्रथम नरक के सीमन्तक नामक इन्द्रक बिल की चारो दिशाओँमे ४९ – ४९ और चारो विदिशाओ मे ४८ – ४८ श्रेणीबद्ध बिल है। * चार दिशा सम्बन्धी ४ × ४९ = कुल १९६ और चार विदिशा सम्बन्धी ४ × ४८ = कुल १९२ हुए। * इसप्रकार सीमन्तक नामक एक इन्द्रक बिल सम्बन्धी कुल ३८८ श्रेणीबद्ध बिल हुए। * इससे आगे, दुसरे निरय आदि इन्द्रक बिलो के आश्रित रहने वाले श्रेणीबद्ध बिलो मे से एक एक बिल कम हो जाता है और प्रथम नरक के कुल ४४२० श्रेणीबद्ध बिल होते है।
प्रकीर्णक बिलों का प्रमाण कैसे निकालते है ?
हर एक नरक के संपूर्ण बिलो की संख्या से उनके इन्द्रक और श्रेणीबद्ध बिलो की संख्या घटाने से उस उस नरक की प्रकीर्णक बिलों की संख्या मिलती है। जैसे प्रथम नरक के कुल ३० लाख बिलो मे से १३ इन्द्रक और ४४२० श्रेणीबद्ध बिलो कि संख्या घटाने से प्रकीर्णक बिलो कि संख्या (२९,९५,५६७) मिलती है।
नारकी बिलों का विस्तार कितना होता है?
* इन्द्रक बिलों का विस्तार संख्यात योजन प्रमाण है। * श्रेणीबद्ध बिलों का विस्तार असंख्यात योजन प्रमाण है। * कुछ प्रकीर्णक बिलों का विस्तार संख्यात योजन तो कुछ का असंख्यात योजन प्रमाण है। * कुल ८४ लाख बिलों मे से १/५ बिल का विस्तार संख्यात योजन तो ४/५ बिलों का असंख्यात योजन प्रमाण है। पृथक पृथक नरको मे संख्यात और असंख्यात बिलों का विस्तार कितना होता है?
नरक संख्यात योजन वाले बिल असंख्यात योजन वाले बिल् प्रथम ६ लाख २४ लाख दुसरा ५ लाख २० लाख तिसरा ३ लाख १२ लाख चौथा २ लाख ८ लाख पाँचवा ६० हजार २४ लाख छठा १९ हजार ९९९ ७९ हजार ९९६ साँतवा १ ४ कुल् १६ लाख ८० हजार ६७ लाख २० हजार “}
नारकी बिलों मे तिरछा अंतराल कितना होता है?
* संख्यात योजन विस्तार वाले बिलों मे तिरछे रुप मे जघन्य अंतराल ६ कोस और उत्कृष्ठ अंतराल १२ कोस प्रमाण है। * असंख्यात योजन विस्तार वाले बिलों मे तिरछे रुप मे जघन्य अंतराल ७००० योजन और उत्कृष्ठ अंतराल असंख्यात योजन प्रमाण है।
नारकी बिलों मे कितने नारकी जीव रहते है?
संख्यात योजन विस्तार वाले बिलों मे नियम से संख्यात तथा असंख्यात योजन विस्तार वाले बिलों मे असंख्यात नारकी जीव रहते है।
इन्द्रक बिलों का विस्तार कितना होता है? * प्रथम इन्द्रक का विस्तार ३५ लाख योजन और अन्तिम इन्द्रक का १ लाख योजन प्रमाण है। * दुसरे से ४८ वे इन्द्रक का प्रमाण तिलोयपण्णत्ती से समझ लेना चहिये।
इन्द्रक बिलों के मोटाई का प्रमाण कितना होता है?
नरक इन्द्रक की मोटाई प्रथम १ कोस दुसरा १ १/२ कोस तिसरा २ कोस चौथा २ १/२ कोस पाँचवा ३ कोस छठा ३ १/२ कोस साँतवा ४ कोस “}
इन्द्रक बिलों के अंतराल का प्रमाण कितना है और उसे कैसे प्राप्त करे(कॅलक्युलेट करे)?
इन्द्रक बिलों के अंतराल का प्रमाण : नरक आपस मे अंतर प्रथम ६४९९-३५/४८ योजन दुसरा २९९९-४७/८० योजन तिसरा ३२४९-७/१६ योजन चौथा ३६६५-४५/४८ योजन पाँचवा ४४९९-१/१६ योजन छठा ६९९८-११/१६ योजन साँतवा एक ही बिल होने से, अंतर नही होता “} अंतराल निकालने की विधी (उदाहरण) :* रत्नप्रभा पृथ्वी के अब्बहुल भाग मे जहाँ प्रथम नरक है – उसकी मोटाई ८०,००० योजन है। * इसके उपरी १ हजार और निचे की १ हजार योजन मे कोइ पटल नही होने से उसे घटा दे तो ७८,००० योजन शेष रहते है। * फिर एक एक पटल की मोटाई १ कोस होने से १३ पटलों की कुल मोटाई १३ कोस (३-१/४ योजन)भी उपरोक्त ७८००० योजन से घटा दे। * अब एक कम १३ पटलों से उपरोक्त शेष को भाग देने से पटलों के मध्य का अंतर मिल जायेगा। * (८०००० – २०००) – (१/४ × १३) ÷ (१३ – १)
६४९९-३५/४८ योजन एक नरक के अंतिम इन्द्रक से अगले नरक के प्रथम इन्द्रक का अंतर कितना होता है? आपस मे अंतर – प्रथम नरक के अंतिम इन्द्रक से दुसरे नरके के प्रथम इन्द्रक तक् २,०९,००० योजन कम १ राजू – दुसरे नरक के अंतिम इन्द्रक से तिसरे नरके के प्रथम इन्द्रक तक् २६,००० योजन कम १ राजू – तिसरे नरक के अंतिम इन्द्रक से चौथे नरके के प्रथम इन्द्रक तक् २२,००० योजन कम १ राजू – चौथे नरक के अंतिम इन्द्रक से पाँचवे नरके के प्रथम इन्द्रक तक् १८,००० योजन कम १ राजू – पाँचवे नरक के अंतिम इन्द्रक से छठे नरके के प्रथम इन्द्रक तक् “” १४,००० योजन कम १ राजू “- ” छठे नरक के अंतिम इन्द्रक से साँतवे नरके के प्रथम इन्द्रक तक् ३,००० योजन कम १ राजू “}
नारकी जीव नरको मे उत्पन्न होते ही, उसे कैसा दुःख भोगना पडता है?
* पाप कर्म से नरको मे जीव पैदा होकर, एक मुहुर्त काल मे छहों पर्याप्तियों को पूर्ण कर अकस्मिक दुःख को प्राप्त करता है। * पश्चात, वह भय से काँपता हुआ बडे कष्ट से चलने को प्रस्तुत होता है और छत्तीस आयुधो के मध्य गिरकर गेंद के समान उछलता है। * प्रथम नरक मे जीव ७ योजन ६५०० धनुष प्रमाण उपर उछलता है। आगे शेष नरको मे उछलने का प्रमाण क्रम से उत्तरोत्तर दूना दूना है। == नारकी जीव के जन्म लेने के उपपाद स्थान कैसे होते है?== * सभी प्रकार के बिलों मे उपर के भाग मे (छत मे)अनेक प्रकार के तलवारो से युक्त अर्धवृत्त और अधोमुख वाले जन्मस्थान है। * ये जन्म स्थान पहले से तिसरे पृथ्वी तक उष्ट्रिका, कोथली, कुंभी, मुदगलिका, मुदगर और नाली के समान है। * चौथे और पाँचवी पृथ्वी मे जन्मभुमियो के आकार गाय, हाथी, घोडा, भस्त्रा, अब्जपुट, अम्बरीष, और द्रोणी (नाव) जैसे है। * छठी और साँतवी पृथ्वी मे जन्मभुमियो के आकार झालर, द्वीपी, चक्रवाक, श्रृगाल, गधा, बकरा, ऊंट, और रींछ जैसे है। * ये सभी जन्मभुमिया अंत मे करोंत के सदृश चारो तरफ से गोल और भयंकर है।
परस्त्री सेवन का पाप करने वाले जीव को नरको मे कैसा दुःख उठाना पडता है?
एैसे जीव के शरिर मे बाकी नारकी तप्त लोहे का पुतला चिपका देते है, जिससे उसे घोर वेदना होती है।
माँस भक्षण का पाप करने वाले जीव को नरको मे कैसा दुःख उठाना पडता है?
एैसे जीव के शरिर के बाकी नारकी छोटे छोटे तुकडे करके उसी के मुँह मे डालते है।
मधु और मद्य सेवन का पाप करने वाले जीव को नरको मे कैसा दुःख उठाना पडता है?
एैसे जीव को बाकी नारकी अत्यन्त तपे हुए द्रवित लोहे को जबरदस्ती पीला देते है, जिससे उसके सारे अवयव पिघल जाते है।
नरक की भुमी कितनी दुःखदायी है?
नारकी भुमी दुःखद स्पर्शवाली, सुई के समान तीखी दुब से व्याप्त है। उससे इतना दुःख होता हे कि जैसे एक साथ हजारों बिच्छुओ ने डंक मारा हो।
नारकियों के साथ कितने रोगो का उदय रहता है?
नारकियों के साथ ५ करोड ६८ लाख, ९९ हजार, ५८४ रोगो का उदय रहता है
नारकियों का आहार कैसा होता है?
कुत्ते, गधे आदि जानवरों के अत्यन्त सडे हुए माँस और विष्ठा की दुर्गन्ध की अपेक्षा, अनन्तगुनी दुर्गन्धित मिट्टी नारकियों का आहार होती है। * प्रथम नरक के प्रथम पटल (इन्द्रक बिल) की ऐसी दुर्गन्धित मिट्टी को यदि हमारे यहाँ मध्यलोक मे डाला जाये तो उसकी दुर्गध से १ कोस पर्यन्त के जीव मर जायेंगे। * इससे आगे दुसरे, तिसरे आदि पटलों मे यह मारण शक्ती आधे आधे कोस प्रमाण बढते हुए साँतवे नरक के अन्तिम बिल तक २५ कोस प्रमाण हो जाती है।
क्या तीर्थंकर प्रकृती का बंध करने वाला जीव नरक मे जा सकता है?
* जी हाँ। अगर उस जीव ने तीर्थंकर प्रकृती का बंध करने से पहले नरकायु का बंध कर लिया है तो वह पहले से तिसरे नरक तक उत्पन्न हो सकता है। * एैसे जीव को भी असाधारण दुःख का अनुभव करना पडता है। पर सम्यक्त्व के प्रभाव से वो वहाँ पूर्वकृत कर्मों क चिंतवन करता है। * जब उसकी आयु ६ महिने शेष रह जाती है, तब स्वर्ग से देव आकर उस नारकी के चारो तरफ परकोटा बनाकर उसका उपसर्ग दुर करते है। * इसी समय मध्यलोक मे रत्नवर्षा आदि गर्भ कल्याणक सम्बन्धी उत्सव होने लगते है।
नारकियों के दुःख के कितने भेद है?
नरकों मे नारकियों को ४ प्रकार के दुःख होते है। # क्षेत्र जनित : नरक मे उत्पन्न हुए शीत, उष्ण, वैतरणी नदी, शाल्मलि वृक्ष आदि के निमीत्त से होने वाले दुःख को क्षेत्र जनित दुःख कहते है। # शारीरिक : शरीर मे उत्पन्न हुए रोगों के दुःख और मार-काट, कुंभीपाक आदि के दुःख शारीरिक कहलाते है। # मानसिक : संक्लेश, शोक, आकुलता, पश्चाताप आदि के निमीत्त से होने वाले दुःख को मानसिक दुःख कहते है। # असुरकृत : तिसरे नरक तक संक्लेश परिणाम वाले असुरकुमार जाति के भवनवासी देवों द्वरा उत्पन्न कराये गये दुःख को असुरकृत दुःख कहते है।
नारकियों को परस्पर दुःख उत्पन्न करानेवाले असुरकुमार देव कौन होते है?
* पुर्व मे देवायु का बन्ध करने वाले मनुष्य या तिर्यंच अनन्तानुबन्धी मे से किसी एक का उदय आने से रत्नत्रय को नष्ट करके असुरकुमार जाती के देव होते है। * सिकनानन, असिपत्र, महाबल, रुद्र, अम्बरीष, आदि असुर जाती के देव तीसरी बालुकाप्रभा पृथ्वी (नरक) तक जाकर नारकियों को परस्पर क्रोध उत्पन्न करा-करा कर उनमे युद्ध कराते है और प्रसन्न होते है। == क्या नरको मे अवधिज्ञान होता है ?== * हाँ । नरको मे भी अवधिज्ञान होता है। * नरके मे उत्पन्न होते ही छहों पर्याप्तियाँ पुर्ण हो जाती है और भवप्रत्यय अवधिज्ञान प्रकट हो जाता है। * मिथ्यादृष्टि नारकियों का अवधिज्ञान विभंगावधि – कुअवधि कहलाता है। एवं सम्यगदृष्टि नारकियोंका ज्ञान अवधिज्ञान कहलाता है। == अलग अलग नरको मे अवधिज्ञान का क्षेत्र कितना होता है ?== * प्रथम नरक मे अवधिज्ञान का क्षेत्र १ योजन (४ कोस) है। दुसरे नरक से आगे इसमे आधे आधे कोस की कमी होती जाती है। * जैसे दुसरे नरके मे ३ १/२ कोस, तिसरे मे ३ कोस आदि। * साँतवे नरक मे यह प्रमाण १ कोस रह जाता है।
नरको मे अवधिज्ञान प्रकट होने पर मिथ्यादृष्टि और सम्यगदृष्टि जीव की सोच मे क्या अंतर होता है ?
* अवधिज्ञान प्रकट होते ही नारकी जीव पूर्व भव के पापोंको, बैर विरोध को, एवं शत्रुओं को जान लेते है। * जो सम्यगदृष्टि है, वे अपने पापों का पश्चाताप करते रहते है और मिथ्यादृष्टि पुर्व उपकारों को भी अपकार मानते हुए झगडा-मार काट करते है। * कोइ भद्र मिथ्यादृष्टि जीव पाप के फल को भोगते हुए, अत्यन्त दुःख से घबडाकर ‘वेदना अनुभव’ नामक निमित्त से सम्यगदर्शन को प्राप्त करते है।
नरको मे सम्यक्त्व मिलने के क्या कारण है ?
* धम्मा आदि तीन पृथ्वीयों मे मिथ्यात्वभाव से युक्त नारकियोँ मे से कोइ जातिस्मरण से, कोई दुर्वार वेदना से व्यथित होकर, कोई देवों का संबोधन पाकर सम्यक्त्व को प्राप्त करता है। * पंकप्रभा आदि शेष चार पृथ्वीयों मे देवकृत संबोधन नही होता, इसलिये जातिस्मरण और वेदना अनुभव मात्र से सम्यक्त्व को प्राप्त करता है। * इस तरह सभी नरकों मे सम्यप्त्व के लिये, कारणभूत सामग्री मिल जाने से नारकी जीव सम्यक्त्व को प्राप्त करता है।
जीव नरको मे किन किन कारणों से जाता है ?
* मुलतः पाँच पापों का और सप्त व्यसनों का सेवन करने से जीव नरक मे जाता है। * हिंसा, झुठ, चोरी, अब्रम्ह, और परिग्रह ये पाँच पाप है। * चोरी करना, जुँआ खेलना, शराब पीना, माँस खाना, परस्त्री सेवन, वेश्यागमन, शिकार खेलना ये सप्त व्यसन है। प्रत्येक नरक के प्रथम पटल (बिल) और अन्तिम पटल मे नारकीयों के शरिर की अवगाहना कितनी होती है ?
प्रथम पटल मे !! अन्तिम पटल मे – प्रथम नरके मे ३ हाथ ७ धनुष ३ हाथ ६ अंगुल – द्वितीय नरके मे ८ धनुष २ हाथ २४/११ अंगुल १५ धनुष २ हाथ १२ अंगुल – तृतीय नरके मे १७ धनुष ३४ २/३ अंगुल ३१ धनुष १ हाथ – चतुर्थ नरके मे ३५ धनुष २ हाथ २० ४/७ अंगुल ६२ धनुष २ हाथ – पंचम नरके मे ७५ धनुष १२५ धनुष – षष्ठम नरके मे १६६ धनुष २ हाथ १६ अंगुल २५० धनुष * साँतवे नरक के अवधिस्थान इन्द्रक बिल मे : ५०० धनुष * प्रत्येक नरक के अन्तिम पटल के शरिर की अवगाहना उस नरक की उत्कृष्ठ अवगाहना होती है।
लेश्या किसे कहते है ?
* कषायों के उदय से अनुरंजित, मन वचन और काय की प्रवृत्ती को लेश्या कहते है। * उसके कृष्ण, नील, कापोत, पीत, पद्म, और शुक्ल ऐसे ६ भेद होते है। * प्रारंभ की तीन लेश्यायें अशुभ है और संसार की कारण है एवं शेष तीन लेश्यायें शुभ है और मोक्ष की कारण है।
नरक मे कौनसी लेश्यायें होती है ?
* प्रथम और द्वितीय नरक मे : कापोत लेश्या * तृतीय नरक मे : ऊपर कापोत और निचे नील लेश्या * चतुर्थ नरक मे : नील लेश्या * पंचम नरक मे :ऊपरी भाग मे नील और निचले भाग मे कृष्ण लेश्या * षष्ठम नरक मे :कृष्ण लेश्या * सप्तम नरक मे :परमकृष्ण लेश्या
क्या नारकीयोंकी अपमृत्यु होती है ?
* नहीं। नारकीयोंकी अपमृत्यु नहीं होती है। * दुःखो से घबडाकर नारकी जीव मरना चाहते है, किन्तु आयु पूरी हुए बिना मर नही सकते है। * दुःख भोगते हुए उनके शरिर के तिल के समान खन्ड खन्ड होकर भी पारे के समान पुनः मिल जाते है।
नारकीयोंकी जघन्य, मध्यम, और उत्कृष्ठ आयु कितनी होती है ?
नारकीयोंकी जघन्य आयु १०,००० वर्ष और उत्कृष्ठ ३३ सागर की होती है। १०,००० वर्ष से एक समय अधिक और ३३ सागर से एक समय कम के मध्य की सभी आयु मध्यम कहलाती है। ==प्रत्येक नरक के पटलों की अपेक्षा जघन्य, और उत्कृष्ठ आयु का क्या प्रमाण है?== प्रत्येक नरक के पहले पटल की उत्कृष्ठ आयु, दुसरे पटल की जघन्य आयु होती है। उदा॰ प्रथम नरक मे १३ पटल है। इसमे प्रथम पटल मे उत्कृष्ठ आयु, ९०,००० वर्ष है। यही आयु दुसरे पटल की जघन्य आयु हो जाती है। इसीप्रकार प्रथम नरक की उत्कृष्ठ आयु, दुसरे नरक की जघन्य आयु होती है।
नरक !! जघन्य आयु !! उत्कृष्ठ आयु – पहला १० हजार वर्ष १ सागर- दुसरा १ सागर ३ सागर – तिसरा ३ सागर ७ सागर – चौथा ७ सागर १० सागर – पाँचवा १० सागर १७ सागर – छठा १७ सागर २२ सागर – साँतवा २२ सागर ३३ सागर आयु के अन्त मे नारकियों के शरिर वायु से ताडित मेघों के समान निःशेष विलिन हो जाते है। प्रत्येक नरक मे नारकियों के जन्म लेने के अन्तर का क्या प्रमाण है?
नरक मे उत्पन्न होने वाले दो जीव के जन्म के बीच के अधिक से अधिक समय (अन्तर) का प्रमाण निम्नप्रकार है। * प्रथम नरक मे : २४ मुहूर्त * द्वितीय नरक मे : ७ दिन * तृतीय नरक मे : १५ दिन * चतुर्थ नरक मे : १ माह * पंचम नरक मे : २ माह * षष्ठम नरक मे : ४ माह * सप्तम नरक मे : ६ माह
कौन कौन से जीव किन-किन नरकों में जाने की योग्यता रखते हैं ?
* कर्म भूमि के मनुष्य और संज्ञी पंचेंद्रिय तिर्यंच जीव ही मरण करके अगले भव में नरकों में जा सकते हैं । * असंज्ञी पंचेंद्रिय तिर्यंच जीव प्रथम नरक तक, सरीसृप द्वितीय नरक तक जा सकता है। * पक्षी तिसरे नरक तक, भुजंग आदि चौथे तक, सिंह पाँचवे तक, स्त्रियाँ छठे तक जा सकते हैं । * मत्स्य और मनुष्य साँतवे नरक जाने की योग्यता रखते हैं । * नारकी, देव, भोग भूमियाँ , विकलत्रय और स्थावर जीव मरण के बाद अगले भव में नरकों में नहीं जाते।
नरक से निकलकर नारकी किन-किन पर्याय को प्राप्त कर सकते हैं ?
* नरक से निकलकर कोई भी जीव अगले भव मे चक्रवर्ती, बलभद्र, नारायण और प्रतिनारायण नही हो सकता है। * प्रथम तीन नरकों से निकले जीव तीर्थंकर हो सकते हैं । * चौथे नरक तक के जीव वहाँ से निकलकर, मनुष्य पर्याय में चरमशरीरी होकर मोक्ष भी जा सकते हैं । * पाँचवें नरक तक के जीव संयमी मुनि हो सकते हैं । * छठे नरक तक के जीव देशव्रती हो सकते हैं । * साँतवें नरक से निकले जीव कदाचित् सम्यक्त्व को ग्रहण कर सकते हैं । मगर ये नियम से पंचेंद्रिय, पर्याप्तक, संज्ञी तिर्यंच ही होते हैं । मनुष्य नही हो सकते हैं ।
लोकाकाश कहाँ स्थित है ?
केवली भगवान कथित अनन्तानन्त आलोकाकाश के बहुमध्य भाग में ३४३ घन राजु प्रमाण लोकाकाश स्थित है ।
लोकाकाश किससे व्याप्त है ?
लोकाकाश जीव, पुदगल, धर्म, अधर्म और काल इन ५ द्रव्यों से व्याप्त है और स्वभाव से उत्पन्न है । इसकी सब दिशाओं मे आलोकाकाश स्थित है । लोकाकाश का आकार कैसा है ?
कोई पुरुष अपने दोनो पैरो मे थोडासा अन्तर रखकर, और अपने दोनो हाथ अपने कमर पर रखकर खडा होने पर उसके शरीर का जो बाह्य आकार बनता है, उस प्रकार लोकाकाश का आकार है ।
लोकाकाश किसके आधार से स्थित है ?
लोकाकाश निम्नलिखित ३ स्तरों के आधार से स्थित है। # घनोदधिवातवलय # घनवातवलय # तनुवातवलय
वातवलय किसे कहते है? और वे कैसे स्थित है?
* वातवलय वायुकयिक जीवों के शरीर स्वरूप है। * वायु अस्थिर स्वभावी होते हुए भी, ये वातवलय स्थिर स्वभाव वाले वायुमंडल है। * ये वातवलय लोकाकाश को चारो ओर से वेष्टीत है। * प्रथम वलय को घनोदधिवातवलय कहते है। * घनोदधिवातवलय के बाहर घनवातवलय है। * घनवातवलय के बाहर तनुवातवलय है। * तनुवातवलय के बाहर चारो तरफ अनंत अलोकाकाश है।
वातवलयों के वर्ण कौनसे है?
* घनोदधिवातवलय गोमुत्र के वर्ण वाला है। * घनवातवलय मूंग के वर्ण वाला है। * तनुवातवलय अनेक वर्ण वाला है।
लोकाकाश मे तीनो वातवलयों की मोटाई कितनी है?
* लोक के तल भाग मे १ राजू कि ऊंचाई तक प्रत्येक वातवलय बीस हजार योजन मोटा है। (कुल ६०,००० योजन) * सातवी नरक पृथ्वी के पार्श्व भाग मे क्रम से इन तीनो कि मोटाई सात, पाँच और चार योजन है। (कुल १६ योजन) * इसके उपर मध्यलोक के पार्श्व भाग मे क्रम से पाँच, चार और तीन योजन है। (कुल १२ योजन) * इसके आगे ब्रह्म स्वर्ग के पार्श्व भाग मे क्रम से सात, पाँच और चार योजन है। (कुल १६ योजन) * आगे ऊर्ध्व लोक के अंत मे – पार्श्व भाग मे क्रम से पाँच, चार और तीन योजन है। (कुल १२ योजन) * लोक शिखर के उपर क्रमश्ः २ कोस, १ कोस और ४२५ धनुष्य कम १ कोस प्रमाण है। (कुल ३ कोस १५७५ धनुष्य)
लोकाकाश में कितने लोक हैं ?
लोकाकाश में ३ लोक हैं । # अधोलोक # मध्यलोक # ऊर्ध्वलोक
इन तीनों लोकों के आकार कैसे हैं ?
अधोलोक का आकार वेत्रासन के समान, मध्यलोक का खड़े किये हुए मृदंग के ऊपरी भाग के समान्, और ऊर्ध्वलोक का खड़े किये हुए मृदंग के समान है ।
सारे लोक की ऊँचाई और मोटाई कितनी है ?
ऊँचाई १४ राजु प्रमाण और मोटाइ ७ राजु है ।
इस १४ राजु की ऊँचाई का लोकाकाश के निचले भाग से उपर तक का विवरण दिजिये ।
* सबसे निचे के ७ राजू मे अधोलोक है, जिसमे ७ नरक है । * बचे हुए ७ राजू मे १ लाख ४० योजन का मध्यलोक है, जिसमे असन्ख्यात द्वीप-समुद्र और् मध्य मे सबसे ऊँचा सुमेरू पर्वत है । * सुमेरू पर्वत के उपर १ लाख ४० योजन कम ७ राजू का उर्ध्वलोक है, जिसमे १६ स्वर्ग, ९ ग्रैवेयक, ९ अनुदिश, ५ अनुत्तर और सिद्धशिला है । इसतरह १४ राजू कि ऊँचाई मे मध्यलोक कि ऊँचाई नगन्य होने से ७ राजू मे अधोलोक और ७ राजू मे उर्ध्वलोक कहा गया है ।
लोकाकाश कि चौडाइ का विवरण दिजिये ।
* अधोलोक के तलभाग मे जहा निगोद है, वहा चौडाई ७ राजू है । * यह चौडाइ घटते घटते मध्यलोक मे १ राजू रह जाती है । * पुनः बढते बढते उर्ध्वलोक के पांचवे स्वर्ग (ब्रम्ह स्वर्ग) तक ५ राजू हो जाती है । * पुनः ब्रम्ह स्वर्ग से घटते घटते सिद्धशिला तक १ राजू होती है ।
लोकाकाश का घनफल कितना है?
* लोक की कुल चौडाई १४ राजू है। (तलभाग मे ७ राजू + मध्यलोक मे १ राजू + ब्रह्म स्वर्ग मे ५ राजू + सिद्धशिला मे १ राजू) * यह कुल चौडाई ४ विभागो मे मिलकर है इसलिये अॅवरेज चौडाई निकालने के लिये, इस मे ४ का भाग देने से साढे तीन राजू हुए।(१४/४ = ३ १/२) * लोक की ऊंचाई १४ राजू और मोटाई ७ राजू है * इस प्रकार लोक का घनफल लोक की ऊँचाई × चौडाई × मोटाई = १४ राजू × ३ १/२ राजू × ७ राजू = ३४३ घनराजू है।
अधोलोक से मध्यलोक तक कि चौडाई घटने का क्रम कैसा है ?
* अधोलोक के तल भाग मे : ७ राजू * सातवी पृथ्वी-नरक के निकट : ६ १/७ राजू * छटवी पृथ्वी-नरक के निकट : ५ २/७ राजू * पांचवी पृथ्वी-नरक के निकट : ४ ३/७ राजू * चौथी पृथ्वी-नरक के निकट : ३ ४/७ राजू * तिसरी पृथ्वी-नरक के निकट : २ ५/७ राजू * दूसरी पृथ्वी-नरक के निकट : १ ६/७ राजू * प्रथम पृथ्वी-नरक के निकट : १ राजू संपूर्ण मध्य लोक की चौडाई १ राजू मात्र ही है।
मध्यलोक से सिद्धशिला तक लोक की चौडाई बढने – घटने का क्रम कैसा है ?
* मध्यलोक् मे : १ राजू * पहले और दूसरे स्वर्ग(सौधर्म और ईशान)के अंत मे : २ ५/७ राजू * तिसरे और चौथे स्वर्ग (सानत्कुमार् और माहेन्द्र)के अंत मे : ४ ३/७ राजू * पाँचवे और छठे स्वर्ग (ब्रह्म और ब्रह्मोत्तर)के अंत मे : ५ राजू * साँतवे और आँठवे स्वर्ग (लांतव और कापिष्ठ)के अंत मे : ४ ३/७ राजू * नौवे और दसवे स्वर्ग (शुक्र और महाशुक्र)के अंत मे : ३ ६/७ राजू * ग्यारहवे और बारहवे स्वर्ग (सतार और सहस्त्रार्)के अंत मे : ३ २/७ राजू * तेरहवे और चौदहवे स्वर्ग (आनत और प्राणत)के अंत मे : २ ५/७ राजू * पन्द्रहवे और सोलहवे स्वर्ग (आरण और अच्युत)के अंत मे : २ १/७ राजू * ९ ग्रैवेयक, ९ अनुदिश, ५ अनुत्तर और सिद्धशिला पृथ्वी तक : १ राजू नोट : अपने अपने अंतिम इन्द्रक विमान संबंधी ध्वजदंड के अग्रभाग तक उन उन स्वर्गो का अंत समझना चहिए।
त्रसनाली क्या है और कहाँ होती है?
* तीनो लोको के बीचो बीच मे १ राजू चौडे एवं १ राजू मोटे तथा कुछ कम १३ राजू ऊंचे, त्रस जीवों के निवास क्षेत्र को त्रसनाली कहते है। * ऊंचाई मे कुछ कम का प्रमाण ३२१६२२४१ २/३ धनुष है। * इसके बाहर त्रस जीव नही होते। मगर उपपाद, मारणांतिकसमुदघात और केवलिसमुदघात की अपेक्षा से त्रस नाली के बाहर त्रस जीव पाये जाते है।
उपपाद की अपेक्षा त्रस जीव; त्रसनाली के बाहर कैसे पाए जाते है?
* किसी भी विवक्षित भव के प्रथम पर्याय को उपपाद कहते है। * लोक के अंतिम वातवलय मे स्थित कोइ स्थावर जीव जब विग्रहगती द्वारा त्रस पर्याय मे उत्पन्न होने वाला है और वह जब मरण करके प्रथम मोडा लेता है,उस समय त्रस नाम कर्म का उदय आ जाने से त्रस पर्याय को धारण करके भी त्रसनाली के बाहर होता है।
मारणांतिक समुदघात की अपेक्षा त्रस जीव; त्रसनाली के बाहर कैसे पाए जाते है?
त्रसनाली का कोइ जीव, जिसे मरण करके त्रसनाली के बाहर स्थावर मे जन्म लेना है, वह जब मरण के अंतर्मुहूर्त पहले, मारणांतिक समुदघात के द्वारा त्रसनाली के बाहर के प्रदेशों को स्पर्श करता है, तब उस त्रस जीव का अस्तित्व त्रसनाली के बाहर पाया जाता है।
केवलिसमुदघात की अपेक्षा त्रस जीव; त्रसनाली के बाहर कैसे पाए जाते है?
जब किसी सयोग केवली भगवान के आयु कर्म की स्थिति अंतर्मुहूर्त मात्र ही हो परन्तु नाम, गोत्र, और वेदनीय कर्म की स्थिती आधिक हो, तब उनके दंड, कपाट, प्रतर और लोकपूरण समुदघात होता है। ऐसा होने से सब कर्मो की स्थिती एक बराबर हो जाती है। इन समुदघात अवस्था मे त्रस जीव त्रसनाली के बाहर भी पाये जाते है।
जैन भूगोल मे दूरी नापने के सबसे छोटे से लेकर सबसे बड़े परिमाण कौनसे हैं ?
* जैन भूगोल में सबसे छोटे अणु को परमाणु कहते हैं । * ऐसे अनन्तानन्त परमाणु १ अवसन्नासन्न * ८ अवसन्नासन्न = १ सन्नासन्न * ८ सन्नासन्न १ त्रुटिरेणु * ८ त्रुटिरेणु का = त्रसरेणु * ८ त्रसरेणु का = रथरेणु * ८ रथरेणु उत्तम भोग भूमिज के बाल का १ अग्रभाग * उत्तम भोग भूमिज के बाल के ८ अग्रभाग मध्यम भोग भूमिज के बाल का १ अग्रभाग * मध्यम भोग भूमिज के बाल के ८ अग्रभाग जघन्य भोग भूमिज के बाल का १ अग्रभाग * जघन्य भोग भूमिज के बाल के ८ अग्रभाग कर्म भूमिज के बाल का १ अग्रभाग * कर्म भूमिज के बाल के ८ अग्रभाग १ लिक्शा * ८ लिक्शा १ जू * ८ जू १ जौ * ८ जौ १ अंगुल या उत्सेधांगुल (५०० उत्सेधांगुल १ प्रमाणांगुल) * ६ उत्सेधांगुल १ पाद * २ पाद १ बालिस्त * २ बालिस्त १ हाथ * २ हाथ १ रिक्कु * २ रिक्कु १ धनुष्य * २००० धनुष्य = १ कोस * ४ कोस १ लघुयोजन * ५०० लघुयोजन १ महायोजन * असंख्यात योजन १ राजु
जैन भूगोल के परिमाणों के साथ, आज के भूगोल के परिमाणों का सम्बन्ध कैसे लगाये ?
* १ गज २ हाथ * १७६० गज या ३५२० हाथ = १ मील * २ मील १ कोस * ४००० मील या २००० कोस १ महायोजन
अंगुल परिमाण के भेद कौनसे है और उनसे किन किन का माप होता है?
अंगुल परिमाण के ३ भेद होते है। # उत्सेधांगुल : यह बालग्र, लिक्षा, जूँ और जौ से निर्मित होता है। देव, मनुष्य, तिर्यंच, और नारकियों के शरीर की ऊंचाई का प्रमाण, चारों प्रकार के देवों के निवास स्थान व नगर आदि का माप उत्सेधांगुल से होता है। # प्रमाणांगुल : ५०० उत्सेधांगुल का १ प्रमाणांगुल होता है। भरत चक्रवर्ती का एक अंगुल प्रमाणांगुल के प्रमाण वाला है। इससे द्वीप, समुद्र, कुलाचल, वेदी, नदी, कुंड, सरोवर, जगती, भरत आदि क्षेत्रों का माप होता है। # आत्मांगुल : जिस जिस काल मे भरत और ऐरावत क्षेत्र मे जो मनुष्य होते है, उस उस काल मे उन्ही उन्ही मनुष्यों के अंगुल का नाम आत्मांगुल है। इससे झारी, कलश, दर्पण, भेरी, युग, शय्या, शकट, हल, मूसल, शक्ति, तोमर, बाण, नालि, अक्ष, चामर, दुंदुभि, पीठ, छत्र, मनुष्यो के निवास स्थान, नगर, उद्यान आदि का माप होत है।
व्यवहार पल्य किसे कहते है?
* १ योजन (१२ से १३ कि॰मी॰)विस्तार के गोल गढ्ढे का घनफल १९/२४ योजन प्रमाण होता है। * ऐसे गढ्ढे मे मेंढो के रोम के छोटे छोटे टुकडे करके (जिसके पुनः दो टुकडे न हो सके)खचाखच भर दे। * इन रोमों का प्रमाण ४१३४५२६३०३०८२०३१७७७४९५१२१९२०००००००००००००००००० होता है। * अब इन रोमो मे से, सौ सौ वर्ष मे एक एक रोम खंड के निकालने पर जितने समय मे वह गड्डा खाली हो जाये, उतने काल को १ व्यवहार पल्य कहते है।
उद्धार पल्य किसे कहते है और उससे किसका माप होता है?
* १ उद्धार पल्य की रोम राशि मे से प्रत्येक रोम खंड के असन्ख्यात वर्ष के जितने समय है, उतने खंड करके, तिसरे गढ्ढे को भरकर पुनः एक एक समय मे एक एक रोम खंड के निकालने पर जितने समय मे वह दुसरा पल्य खाली हो जाये, उतने काल को १ उद्धार पल्य कहते है। * इस उद्धार पल्य से द्वीप और समुद्र का प्रमाण / माप होता है।
अद्धा पल्य किसे कहते है और उससे किसका माप होता है?
* १ व्यवहार पल्य की रोम राशि को, असन्ख्यात करोड वर्ष के जितने समय है, उतने खंड करके, उनसे दुसरे पल्य को भरकर पुनः एक एक समय मे एक एक रोम खंड के निकालने पर जितने समय मे वह गड्डा खाली हो जाये, उतने काल को १ अद्धा पल्य कहते है। * इस अद्धा पल्य से नारकि, मनुष्य, देव और तिर्यंचो कि आयु का तथा कर्मो की स्थिती का प्रमाण / माप होता है।
१ कोडाकोडी संख्या कितनी होती है?
१ करोड × १ करोड १ कोडाकोडी
सागर का प्रमाण क्या है?
* १० कोडाकोडी पल्य १ सागर * १० कोडाकोडी व्यवहार पल्य = १ व्यवहार सागर * १० कोडाकोडी उद्धार पल्य १ उद्धार सागर * १० कोडाकोडी अद्धा पल्य १ अद्धा सागर लोकाकाश कहाँ स्थित है ?
केवली भगवान कथित अनन्तानन्त आलोकाकाश के बहुमध्य भाग में ३४३ घन राजु प्रमाण लोकाकाश स्थित है ।
लोकाकाश किससे व्याप्त है ?
लोकाकाश जीव, पुदगल, धर्म, अधर्म और काल इन ५ द्रव्यों से व्याप्त है और स्वभाव से उत्पन्न है । इसकी सब दिशाओं मे आलोकाकाश स्थित है ।
लोकाकाश का आकार कैसा है ?
कोई पुरुष अपने दोनो पैरो मे थोडासा अन्तर रखकर, और अपने दोनो हाथ अपने कमर पर रखकर खडा होने पर उसके शरीर का जो बाह्य आकार बनता है, उस प्रकार लोकाकाश का आकार है ।
लोकाकाश किसके आधार से स्थित है ?
लोकाकाश निम्नलिखित ३ स्तरों के आधार से स्थित है। # घनोदधिवातवलय # घनवातवलय # तनुवातवलय
वातवलय किसे कहते है? और वे कैसे स्थित है?
* वातवलय वायुकयिक जीवों के शरीर स्वरूप है। * वायु अस्थिर स्वभावी होते हुए भी, ये वातवलय स्थिर स्वभाव वाले वायुमंडल है। * ये वातवलय लोकाकाश को चारो ओर से वेष्टीत है। * प्रथम वलय को घनोदधिवातवलय कहते है। * घनोदधिवातवलय के बाहर घनवातवलय है। * घनवातवलय के बाहर तनुवातवलय है। * तनुवातवलय के बाहर चारो तरफ अनंत अलोकाकाश है।
वातवलयों के वर्ण कौनसे है? *
घनोदधिवातवलय गोमुत्र के वर्ण वाला है। * घनवातवलय मूंग के वर्ण वाला है। * तनुवातवलय अनेक वर्ण वाला है।
लोकाकाश मे तीनो वातवलयों की मोटाई कितनी है?
* लोक के तल भाग मे १ राजू कि ऊंचाई तक प्रत्येक वातवलय बीस हजार योजन मोटा है। (कुल ६०,००० योजन) * सातवी नरक पृथ्वी के पार्श्व भाग मे क्रम से इन तीनो कि मोटाई सात, पाँच और चार योजन है। (कुल १६ योजन) * इसके उपर मध्यलोक के पार्श्व भाग मे क्रम से पाँच, चार और तीन योजन है। (कुल १२ योजन) * इसके आगे ब्रह्म स्वर्ग के पार्श्व भाग मे क्रम से सात, पाँच और चार योजन है। (कुल १६ योजन) * आगे ऊर्ध्व लोक के अंत मे – पार्श्व भाग मे क्रम से पाँच, चार और तीन योजन है। (कुल १२ योजन) * लोक शिखर के उपर क्रमश्ः २ कोस, १ कोस और ४२५ धनुष्य कम १ कोस प्रमाण है। (कुल ३ कोस १५७५ धनुष्य)
लोकाकाश में कितने लोक हैं ?
लोकाकाश में ३ लोक हैं । # अधोलोक # मध्यलोक # ऊर्ध्वलोक
इन तीनों लोकों के आकार कैसे हैं ?
अधोलोक का आकार वेत्रासन के समान, मध्यलोक का खड़े किये हुए मृदंग के ऊपरी भाग के समान्, और ऊर्ध्वलोक का खड़े किये हुए मृदंग के समान है ।
सारे लोक की ऊँचाई और मोटाई कितनी है ?
ऊँचाई १४ राजु प्रमाण और मोटाइ ७ राजु है ।
इस १४ राजु की ऊँचाई का लोकाकाश के निचले भाग से उपर तक का विवरण दिजिये ।
* सबसे निचे के ७ राजू मे अधोलोक है, जिसमे ७ नरक है । * बचे हुए ७ राजू मे १ लाख ४० योजन का मध्यलोक है, जिसमे असन्ख्यात द्वीप-समुद्र और् मध्य मे सबसे ऊँचा सुमेरू पर्वत है । * सुमेरू पर्वत के उपर १ लाख ४० योजन कम ७ राजू का उर्ध्वलोक है, जिसमे १६ स्वर्ग, ९ ग्रैवेयक, ९ अनुदिश, ५ अनुत्तर और सिद्धशिला है । इसतरह १४ राजू कि ऊँचाई मे मध्यलोक कि ऊँचाई नगन्य होने से ७ राजू मे अधोलोक और ७ राजू मे उर्ध्वलोक कहा गया है ।
लोकाकाश कि चौडाइ का विवरण दिजिये । * अधोलोक के तलभाग मे जहा निगोद है, वहा चौडाई ७ राजू है । * यह चौडाइ घटते घटते मध्यलोक मे १ राजू रह जाती है । * पुनः बढते बढते उर्ध्वलोक के पांचवे स्वर्ग (ब्रम्ह स्वर्ग) तक ५ राजू हो जाती है । * पुनः ब्रम्ह स्वर्ग से घटते घटते सिद्धशिला तक १ राजू होती है ।
लोकाकाश का घनफल कितना है? * लोक की कुल चौडाई १४ राजू है। (तलभाग मे ७ राजू + मध्यलोक मे १ राजू + ब्रह्म स्वर्ग मे ५ राजू + सिद्धशिला मे १ राजू) * यह कुल चौडाई ४ विभागो मे मिलकर है इसलिये अॅवरेज चौडाई निकालने के लिये, इस मे ४ का भाग देने से साढे तीन राजू हुए।(१४/४ = ३ १/२) * लोक की ऊंचाई १४ राजू और मोटाई ७ राजू है * इस प्रकार लोक का घनफल = लोक की ऊँचाई × चौडाई × मोटाई = १४ राजू × ३ १/२ राजू × ७ राजू = ३४३ घनराजू है।
७ राजू ऊंचे अधोलोक मे निगोद और नरकों की अलग अलग ऊंचाइया कितनी है ?
* सबसे नीचे के १ राजू मे निगोद है । * उसके उपर के १ राजू मे, महातमःप्रभा नाम का सातवां नरक है । * उसके उपर के १ राजू मे, तमःप्रभा नाम का छटवां नरक है । * उसके उपर के १ राजू मे, धूमप्रभा नाम का पांचवां नरक है । * उसके उपर के १ राजू मे, पंकप्रभा नाम का चौथा नरक है । * उसके उपर के १ राजू मे, बालुकाप्रभा नाम का तिसरा नरक है । * उसके उपर के १ राजू मे, शर्कराप्रभा नाम का दुसरा और रत्नप्रभा नाम का प्रथम नरक है । इसप्रकार से ७ राजू ऊंचे अधोलोक मे, १ राजू मे २ नरक, ५ राजू मे ५ नरक और १ राजू मे निगोद है ।
अधोलोक से मध्यलोक तक कि चौडाई घटने का क्रम कैसा है ?
* अधोलोक के तल भाग मे : ७ राजू * सातवी पृथ्वी-नरक के निकट : ६ १/७ राजू * छटवी पृथ्वी-नरक के निकट : ५ २/७ राजू * पांचवी पृथ्वी-नरक के निकट : ४ ३/७ राजू * चौथी पृथ्वी-नरक के निकट : ३ ४/७ राजू * तिसरी पृथ्वी-नरक के निकट : २ ५/७ राजू * दूसरी पृथ्वी-नरक के निकट : १ ६/७ राजू * प्रथम पृथ्वी-नरक के निकट : १ राजू संपूर्ण मध्य लोक की चौडाई १ राजू मात्र ही है।
अधोलोक का घनफल कितना है?
* अधोलोक मे निचे की पूर्व-पश्चिम् चौडाई ७ राजू है। तथा मध्यलोक के यहाँ १ राजू है। (कुल ८ राजू) * यह कुल चौडाई २ विभागो मे मिलकर है इसलिये अॅवरेज चौडाई निकालने के लिये, इस मे २ का भाग देने से चार राजू हुए।(८/२ = ४) * अधोलोक की ऊंचाई ७ राजू और मोटाई ७ राजू है * इस प्रकार अधोलोक का घनफल = ऊँचाई × चौडाई × मोटाई = ७ राजू × ४ राजू × ७ राजू = १९६ घनराजू है।
ऊर्ध्वलोक मे स्वर्गो की अलग अलग ऊंचाइया कितनी है ?
* मध्यलोक के उपरी भाग मे सौधर्म विमान के ध्वजदंड तक १ लाख ४० योजन कम १ १/२ राजू * उसके उपर के १ १/२ राजू मे, पहला और दूसरा स्वर्ग(सौधर्म और ईशान)है। * उसके उपर के १/२ राजू मे, तिसरा और चौथा स्वर्ग (सानत्कुमार् और माहेन्द्र) है। * उसके उपर के १/२ राजू मे, पाँचवा और छठा स्वर्ग (ब्रह्म और ब्रह्मोत्तर)है। * उसके उपर के १/२ राजू मे, साँतवा और आँठवा स्वर्ग (लांतव और कापिष्ठ)है। * उसके उपर के १/२ राजू मे, नौवा और दसवाँ स्वर्ग (शुक्र और महाशुक्र)है। * उसके उपर के १/२ राजू मे, ग्यारहवा और बारहवा स्वर्ग (सतार और सहस्त्रार्)है। * उसके उपर के १/२ राजू मे, तेरहवा और चौदहवा स्वर्ग (आनत और प्राणत)है। * उसके उपर के १/२ राजू मे, पन्द्रहवा और सोलहवा स्वर्ग (आरण और अच्युत) है। * उसके उपर के १ राजू मे, ९ ग्रैवेयक, ९ अनुदिश, ५ अनुत्तर और सिद्धशिला पृथ्वी है।
मध्यलोक से सिद्धशिला तक लोक की चौडाई बढने – घटने का क्रम कैसा है ?
* मध्यलोक् मे : १ राजू * पहले और दूसरे स्वर्ग(सौधर्म और ईशान)के अंत मे : २ ५/७ राजू * तिसरे और चौथे स्वर्ग (सानत्कुमार् और माहेन्द्र)के अंत मे : ४ ३/७ राजू * पाँचवे और छठे स्वर्ग (ब्रह्म और ब्रह्मोत्तर)के अंत मे : ५ राजू * साँतवे और आँठवे स्वर्ग (लांतव और कापिष्ठ)के अंत मे : ४ ३/७ राजू * नौवे और दसवे स्वर्ग (शुक्र और महाशुक्र)के अंत मे : ३ ६/७ राजू * ग्यारहवे और बारहवे स्वर्ग (सतार और सहस्त्रार्)के अंत मे : ३ २/७ राजू * तेरहवे और चौदहवे स्वर्ग (आनत और प्राणत)के अंत मे : २ ५/७ राजू * पन्द्रहवे और सोलहवे स्वर्ग (आरण और अच्युत)के अंत मे : २ १/७ राजू * ९ ग्रैवेयक, ९ अनुदिश, ५ अनुत्तर और सिद्धशिला पृथ्वी तक : १ राजू नोट : अपने अपने अंतिम इन्द्रक विमान संबंधी ध्वजदंड के अग्रभाग तक उन उन स्वर्गो का अंत समझना चहिए।
ऊर्ध्वलोक का घनफल कितना है?
* ऊर्ध्वलोक मे मध्यलोक के उपर की पूर्व-पश्चिम् चौडाई १ राजू है। तथा आगे ब्रह्म स्वर्ग के यहाँ ५ राजू है। (कुल ६ राजू) * यह कुल चौडाई २ विभागो मे मिलकर है इसलिये ब्रह्म स्वर्ग तक की अॅवरेज चौडाई निकालने के लिये, इस मे २ का भाग देने से ३ राजू हुए।(६/२ = ३) * ब्रह्म स्वर्ग तक की ऊंचाई ३ १/२ राजू और मोटाई ७ राजू है * इस प्रकार ब्रह्म स्वर्ग तक का घनफल = ऊँचाई × चौडाई × मोटाई = ३ १/२ राजू × ३ राजू × ७ राजू = ७३ १/२ घनराजू है। इतना ही घनफल ब्रह्म स्वर्ग से आगे लोक के अंत तक है, इसलिए उर्ध्वलोक का कुल घनफल ७३ १/२ × २ = १७४ घनराजू है।
त्रसनाली क्या है और कहाँ होती है?
* तीनो लोको के बीचो बीच मे १ राजू चौडे एवं १ राजू मोटे तथा कुछ कम १३ राजू ऊंचे, त्रस जीवों के निवास क्षेत्र को त्रसनाली कहते है। * ऊंचाई मे कुछ कम का प्रमाण ३२१६२२४१ २/३ धनुष है। * इसके बाहर त्रस जीव नही होते। मगर उपपाद, मारणांतिकसमुदघात और केवलिसमुदघात की अपेक्षा से त्रस नाली के बाहर त्रस जीव पाये जाते है।
उपपाद की अपेक्षा त्रस जीव; त्रसनाली के बाहर कैसे पाए जाते है?
* किसी भी विवक्षित भव के प्रथम पर्याय को उपपाद कहते है। * लोक के अंतिम वातवलय मे स्थित कोइ स्थावर जीव जब विग्रहगती द्वारा त्रस पर्याय मे उत्पन्न होने वाला है और वह जब मरण करके प्रथम मोडा लेता है,उस समय त्रस नाम कर्म का उदय आ जाने से त्रस पर्याय को धारण करके भी त्रसनाली के बाहर होता है।
मारणांतिक समुदघात की अपेक्षा त्रस जीव; त्रसनाली के बाहर कैसे पाए जाते है?
त्रसनाली का कोइ जीव, जिसे मरण करके त्रसनाली के बाहर स्थावर मे जन्म लेना है, वह जब मरण के अंतर्मुहूर्त पहले, मारणांतिक समुदघात के द्वारा त्रसनाली के बाहर के प्रदेशों को स्पर्श करता है, तब उस त्रस जीव का अस्तित्व त्रसनाली के बाहर पाया जाता है।
केवलिसमुदघात की अपेक्षा त्रस जीव; त्रसनाली के बाहर कैसे पाए जाते है?
जब किसी सयोग केवली भगवान के आयु कर्म की स्थिति अंतर्मुहूर्त मात्र ही हो परन्तु नाम, गोत्र, और वेदनीय कर्म की स्थिती आधिक हो, तब उनके दंड, कपाट, प्रतर और लोकपूरण समुदघात होता है। ऐसा होने से सब कर्मो की स्थिती एक बराबर हो जाती है। इन समुदघात अवस्था मे त्रस जीव त्रसनाली के बाहर भी पाये जाते है।
अधोलोक मे कितनी पृथ्वीयाँ है? और उनके नाम क्या है?
* अधोलोक मे ७ पृथ्वीयाँ है। इन्हे नरक भी कहते है। इन के नाम इस प्रकार है॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰ * अधोलोक में सबसे पहली, मध्यलोक से लगी हुई, ‘रत्नप्रभा’ पृथ्वी है। * इसके कुछ कम एक राजु नीचे ‘शर्कराप्रभा’ है। * इसी प्रकार से एक-एक के नीचे बालुका प्रभा, पंकप्रभा, धूमप्रभा, तम:प्रभा और महातम:प्रभा भूमियाँ हैं। * घम्मा, वंशा, मेघा, अंजना, अरिष्टा, मघवी और माघवी ये भी इन पृथ्वियों के अनादिनिधन नाम हैं।
अधोलोक कि पृथ्वीयों की अलग अलग मोटई कितनी है?
# धम्मा (रत्नप्रभा) : १ लाख ८०,००० योजन # वंशा (शर्कराप्रभा) : ३२,००० योजन # मेघा (बालुकाप्रभा) : २८,००० योजन # अंजना (पंकप्रभा) : २४,००० योजन # अरिष्टा (धूमप्रभा) : २०,००० योजन # मघवी (तमःप्रभा) : १६,००० योजन # माघवी (महातमःप्रभा) : ८,००० योजन नोट : ये सातो पृथ्वीयाँ, उर्ध्व दिशा को छोड शेष ९ दिशाओ मे घनोदधि वातवलय से लगी हुई है।
रत्नप्रभा पृथ्वी के कितने भाग है? और उनकी मोटाईया कितनी है? रत्नप्रभा पृथ्वी के ३ भाग हैं- # खरभाग (१६००० योजन) # पंकभाग (८४००० योजन) # अब्बहुलभाग (८०००० योजन) रत्नप्रभा पृथ्वी मे किस किस के निवास है? * खरभाग और पंकभाग में भवनवासी तथा व्यंतरवासी देवों के निवास हैं। * अब्बहुलभाग में प्रथम नरक के बिल हैं, जिनमें नारकियों के आवास हैं।
खरभाग के कितने भेद है और उनकी मोटाईया कितनी है?
* खरभाग के १६ भेद है। * चित्रा, वज्रा, वैडूर्या, लोहिता, कामसारकल्पा, गोमेदा, प्रवाला, ज्योतिरसा, अंजना, अंजनमुलिका, अंका, स्फटिका, चंदना, सर्वाथका, वकुला और शैला * खरभाग की कुल मोटाई १६,००० योजन है। उपर्युक्त हर एक पृथ्वी १००० योजन मोटी है।
खरभाग की प्रथम पृथ्वी का नाम “चित्रा” कैसे सार्थक है?
खरभाग की प्रथम पृथ्वी मे अनेक वर्णो से युक्त महितल, शीलातल, उपपाद, बालु, शक्कर, शीसा, चाँदी, सुवर्ण, आदि की उत्पत्तिस्थान वज्र, लोहा, तांबा, रांगा, मणिशीला, सिंगरफ, हरिताल, अंजन, प्रवाल, गोमेद, रुचक, कदंब, स्फटिक मणि, जलकांत मणि, सुर्यकांत मणि, चंद्रकांत मणि, वैडूर्य, गेरू, चन्द्राश्म आदि विवीध वर्ण वाली अनेक धातुए है। इसीलिये इस पृथ्वी का “चित्रा” नाम सार्थक है
नारकी जीव कहाँ रहते है? नारकी जीव अधोलोक के नरको मे जो बिल है, उनमे रहते है।
नरको मे बिल कहाँ होते है?
रत्नप्रभा पृथ्वी के अब्बहुल भाग से लेकर छठे नरक तक की पृथ्वीयों मे, उनके उपर व निचे के एक एक हजार योजन प्रमाण मोटी पृथ्वी को छोडकर पटलों के क्रम से और सातवी पृथ्वी के ठिक मध्य भाग मे नारकियों के बिल है।
प्रत्येक नरक मे कितने बिल है?
* सातों नरको मे मिलकर कुल ८४ लाख बिल इस्प्रकार् है। * प्रथम पृथ्वी : ३० लाख बिल * द्वितीय पृथ्वी : २५ लाख बिल * तृतीय पृथ्वी : १५ लाख बिल * चौथी पृथ्वी : १० लाख बिल * पाँचवी पृथ्वी : ३ लाख बिल * छठी पृथ्वी : ९९,९९५ बिल * साँतवी पृथ्वी : ५ बिल
कौनसे नारकी बिल उष्ण और कौनसे शीत है?
* पहली, दुसरी, तीसरी और चौथी नरको के सभी बिल और पाँचवी पृथ्वी के ३/४ बिल अत्यंन्त उष्ण है। * इनकी उष्णता इतनी तीव्र होती है कि अगर उनमे मेरु पर्वत इतना लोहे का शीतल पिंड डाला जाय तो वह तल प्रदेश तक पहुँचने से पहले ही मोम के समान पिघल जायेगा। * पाँचवी पृथ्वी के बाकी १/४ बिल तथा छठी और साँतवी पृथ्वी के सभी बिल अत्यन्त शीतल है। * इनकी शीतलता इतनी तीव्र होती है कि अगर उनमे मेरु पर्वत इतना लोहे का उष्ण पिंड डाला जाय तो वह तल प्रदेश तक पहुँचने से पहले ही बर्फ जैसा जम जायेगा। * इसप्रकार नारकियोंके कुल ८४ लाख बिलों मे से ८२,२५,००० अति उष्ण होते है और १,७५,००० अति शीत होते है।
नारकीयों के बिल की दुर्गन्धता और भयानकता कितनी है?
* बकरी, हाथी, घोडा, भैंस, गधा, उंट, बिल्ली, सर्प, मनुष्यादिक के सडे हुए माँस कि गंध की अपेक्षा, नारकीयों के बिल की दुर्गन्धता अनन्तगुणी होती है। * स्वभावतः गाढ अंधकार से परिपूर्ण नारकीयों के बिल क्रकच, कृपाण, छुरिका, खैर की आग, अति तीक्ष्ण सुई और हाथीयों की चिंघाड से भी भयानक है।
नारकीयों के बिल के कितने और कौन कौनसे प्रकार है?
नारकीयों के बिल के निम्नलिखित ३ प्रकार है : # इन्द्रक : जो अपने पटल के सब बिलो के बीच मे हो, उसे इन्द्रक कहते है। इन्हे प्रस्तर या पटल भी कहते है। # श्रेणीबद्ध : जो बिल ४ दिशाओं और ४ विदिशाओं मे पंक्ति से स्थित रहते हे, उन्हे श्रेणीबद्ध कहते है। # प्रकीर्णक : श्रेणीबद्ध बिलों के बीच मे इधर उधर रहने वाले बिलों को प्रकीर्णक कहते है। “- ! नरक !! इन्द्रक बिल !! श्रेणीबद्ध बिल !! प्रकीर्णक बिल – प्रथम १३ ४४२० २९,९५,५६७ – दुसरा ११ २६८४ २४,९७,३०५ – तीसरा ९ १४७६ १४,९८,५१५ – चौथा ७ ७०० ९,९९,२९३ – पाँचवा ५ २६० २,९९,७३५ – छठा ३ ६० ९९,९३२ – साँतवा १ ४ ० – कुल संख्या ४९ ९६०४ ८३,९०,३४७ “}
प्रथम नरक मे इन्द्रक बिलो की रचना किस प्रकार है, और उनके नाम क्या है?
* प्रथम नरक मे १३ इन्द्रक पटल है। * ये एक पर एक ऐसे खन पर खन बने हुए है। * ये तलघर के समान भुमी मे है एवं चूहे आदि के बिल के समान है। * ये पटल औंधे मुँख और बिना खिडकी आदि के बने हुए है। * इसप्रकार इनका बिल नाम सार्थ है। * इन १३ इन्द्रक बिलों के नाम क्रम से सीमन्तक, निरय, रौरव, भ्रांत, उद्भ्रांत, संभ्रांत, असंभ्रांत, विभ्रांत, त्रस्त, त्रसित, वक्रान्त, अवक्रान्त, और विक्रान्त है।
श्रेणीबद्ध बिलों का प्रमाण कैसे निकालते है?
* प्रथम नरक के सीमन्तक नामक इन्द्रक बिल की चारो दिशाओँमे ४९ – ४९ और चारो विदिशाओ मे ४८ – ४८ श्रेणीबद्ध बिल है। * चार दिशा सम्बन्धी ४ × ४९ = कुल १९६ और चार विदिशा सम्बन्धी ४ × ४८ = कुल १९२ हुए। * इसप्रकार सीमन्तक नामक एक इन्द्रक बिल सम्बन्धी कुल ३८८ श्रेणीबद्ध बिल हुए। * इससे आगे, दुसरे निरय आदि इन्द्रक बिलो के आश्रित रहने वाले श्रेणीबद्ध बिलो मे से एक एक बिल कम हो जाता है और प्रथम नरक के कुल ४४२० श्रेणीबद्ध बिल होते है।
प्रकीर्णक बिलों का प्रमाण कैसे निकालते है?
हर एक नरक के संपूर्ण बिलो की संख्या से उनके इन्द्रक और श्रेणीबद्ध बिलो की संख्या घटाने से उस उस नरक की प्रकीर्णक बिलों की संख्या मिलती है। जैसे प्रथम नरक के कुल ३० लाख बिलो मे से १३ इन्द्रक और ४४२० श्रेणीबद्ध बिलो कि संख्या घटाने से प्रकीर्णक बिलो कि संख्या (२९,९५,५६७) मिलती है।
नारकी बिलों का विस्तार कितना होता है?
* इन्द्रक बिलों का विस्तार संख्यात योजन प्रमाण है। * श्रेणीबद्ध बिलों का विस्तार असंख्यात योजन प्रमाण है। * कुछ प्रकीर्णक बिलों का विस्तार संख्यात योजन तो कुछ का असंख्यात योजन प्रमाण है। * कुल ८४ लाख बिलों मे से १/५ बिल का विस्तार संख्यात योजन तो ४/५ बिलों का असंख्यात योजन प्रमाण है। पृथक पृथक नरको मे संख्यात और असंख्यात बिलों का विस्तार कितना होता है?
{” class=”wikitable” “- ! नरक !! संख्यात योजन वाले बिल !! असंख्यात योजन वाले बिल् प्रथम ६ लाख २४ लाख दुसरा ५ लाख २० लाख तिसरा ३ लाख १२ लाख चौथा २ लाख ८ लाख पाँचवा ६० हजार २४ लाख छठा १९ हजार ९९९ ७९ हजार ९९६ साँतवा १ ४ कुल् १६ लाख ८० हजार ६७ लाख २० हजार “} ==नारकी बिलों मे तिरछा अंतराल कितना होता है?== * संख्यात योजन विस्तार वाले बिलों मे तिरछे रुप मे जघन्य अंतराल ६ कोस और उत्कृष्ठ अंतराल १२ कोस प्रमाण है। * असंख्यात योजन विस्तार वाले बिलों मे तिरछे रुप मे जघन्य अंतराल ७००० योजन और उत्कृष्ठ अंतराल असंख्यात योजन प्रमाण है।
नारकी बिलों मे कितने नारकी जीव रहते है?
संख्यात योजन विस्तार वाले बिलों मे नियम से संख्यात तथा असंख्यात योजन विस्तार वाले बिलों मे असंख्यात नारकी जीव रहते है।
इन्द्रक बिलों का विस्तार कितना होता है?
* प्रथम इन्द्रक का विस्तार ३५ लाख योजन और अन्तिम इन्द्रक का १ लाख योजन प्रमाण है। * दुसरे से ४८ वे इन्द्रक का प्रमाण तिलोयपण्णत्ती से समझ लेना चहिये।
इन्द्रक बिलों के मोटाई का प्रमाण कितना होता है?
{” class=”wikitable” “- ! नरक !! इन्द्रक की मोटाई प्रथम १ कोस दुसरा १ १/२ कोस तिसरा २ कोस चौथा २ १/२ कोस पाँचवा ३ कोस छठा ३ १/२ कोस साँतवा ४ कोस “} इन्द्रक बिलों के अंतराल का प्रमाण कितना है और उसे कैसे प्राप्त करे(कॅलक्युलेट करे)? इन्द्रक बिलों के अंतराल का प्रमाण : {” class=”wikitable” “- ! नरक !! आपस मे अंतर प्रथम ६४९९-३५/४८ योजन दुसरा २९९९-४७/८० योजन तिसरा ३२४९-७/१६ योजन चौथा ३६६५-४५/४८ योजन पाँचवा ४४९९-१/१६ योजन छठा ६९९८-११/१६ योजन साँतवा एक ही बिल होने से, अंतर नही होता “} अंतराल निकालने की विधी (उदाहरण) :
* रत्नप्रभा पृथ्वी के अब्बहुल भाग मे जहाँ प्रथम नरक है – उसकी मोटाई ८०,००० योजन है। * इसके उपरी १ हजार और निचे की १ हजार योजन मे कोइ पटल नही होने से उसे घटा दे तो ७८,००० योजन शेष रहते है। * फिर एक एक पटल की मोटाई १ कोस होने से १३ पटलों की कुल मोटाई १३ कोस (३-१/४ योजन)भी उपरोक्त ७८००० योजन से घटा दे। * अब एक कम १३ पटलों से उपरोक्त शेष को भाग देने से पटलों के मध्य का अंतर मिल जायेगा। * (८०००० – २०००) – (१/४ × १३) ÷ (१३ – १) = ६४९९-३५/४८ योजन
एक नरक के अंतिम इन्द्रक से अगले नरक के प्रथम इन्द्रक का अंतर कितना होता है?!
आपस मे अंतर “- ” प्रथम नरक के अंतिम इन्द्रक से दुसरे नरके के प्रथम इन्द्रक तक् “” २,०९,००० योजन कम १ राजू – दुसरे नरक के अंतिम इन्द्रक से तिसरे नरके के प्रथम इन्द्रक तक् २६,००० योजन कम १ राजू – तिसरे नरक के अंतिम इन्द्रक से चौथे नरके के प्रथम इन्द्रक तक् २२,००० योजन कम १ राजू- चौथे नरक के अंतिम इन्द्रक से पाँचवे नरके के प्रथम इन्द्रक तक् “” १८,००० योजन कम १ राजू – पाँचवे नरक के अंतिम इन्द्रक से छठे नरके के प्रथम इन्द्रक तक् १४,००० योजन कम १ राजू “- ” छठे नरक के अंतिम इन्द्रक से साँतवे नरके के प्रथम इन्द्रक तक् ३,००० योजन कम १ राजू “}
नारकी जीव नरको मे उत्पन्न होते ही, उसे कैसा दुःख भोगना पडता है?
* पाप कर्म से नरको मे जीव पैदा होकर, एक मुहुर्त काल मे छहों पर्याप्तियों को पूर्ण कर अकस्मिक दुःख को प्राप्त करता है। * पश्चात, वह भय से काँपता हुआ बडे कष्ट से चलने को प्रस्तुत होता है और छत्तीस आयुधो के मध्य गिरकर गेंद के समान उछलता है। * प्रथम नरक मे जीव ७ योजन ६५०० धनुष प्रमाण उपर उछलता है। आगे शेष नरको मे उछलने का प्रमाण क्रम से उत्तरोत्तर दूना दूना है।
नारकी जीव के जन्म लेने के उपपाद स्थान कैसे होते है?
* सभी प्रकार के बिलों मे उपर के भाग मे (छत मे)अनेक प्रकार के तलवारो से युक्त अर्धवृत्त और अधोमुख वाले जन्मस्थान है। * ये जन्म स्थान पहले से तिसरे पृथ्वी तक उष्ट्रिका, कोथली, कुंभी, मुदगलिका, मुदगर और नाली के समान है। * चौथे और पाँचवी पृथ्वी मे जन्मभुमियो के आकार गाय, हाथी, घोडा, भस्त्रा, अब्जपुट, अम्बरीष, और द्रोणी (नाव) जैसे है। * छठी और साँतवी पृथ्वी मे जन्मभुमियो के आकार झालर, द्वीपी, चक्रवाक, श्रृगाल, गधा, बकरा, ऊंट, और रींछ जैसे है। * ये सभी जन्मभुमिया अंत मे करोंत के सदृश चारो तरफ से गोल और भयंकर है।
परस्त्री सेवन का पाप करने वाले जीव को नरको मे कैसा दुःख उठाना पडता है?
एैसे जीव के शरिर मे बाकी नारकी तप्त लोहे का पुतला चिपका देते है, जिससे उसे घोर वेदना होती है। माँस भक्षण का पाप करने वाले जीव को नरको मे कैसा दुःख उठाना पडता है?
एैसे जीव के शरिर के बाकी नारकी छोटे छोटे तुकडे करके उसी के मुँह मे डालते है।
मधु और मद्य सेवन का पाप करने वाले जीव को नरको मे कैसा दुःख उठाना पडता है?
एैसे जीव को बाकी नारकी अत्यन्त तपे हुए द्रवित लोहे को जबरदस्ती पीला देते है, जिससे उसके सारे अवयव पिघल जाते है। नरक की भुमी कितनी दुःखदायी है?
नारकी भुमी दुःखद स्पर्शवाली, सुई के समान तीखी दुब से व्याप्त है। उससे इतना दुःख होता हे कि जैसे एक साथ हजारों बिच्छुओ ने डंक मारा हो।
नारकियों के साथ कितने रोगो का उदय रहता है?
नारकियों के साथ ५ करोड ६८ लाख, ९९ हजार, ५८४ रोगो का उदय रहता है नारकियों का आहार कैसा होता है? * कुत्ते, गधे आदि जानवरों के अत्यन्त सडे हुए माँस और विष्ठा की दुर्गन्ध की अपेक्षा, अनन्तगुनी दुर्गन्धित मिट्टी नारकियों का आहार होती है। * प्रथम नरक के प्रथम पटल (इन्द्रक बिल) की ऐसी दुर्गन्धित मिट्टी को यदि हमारे यहाँ मध्यलोक मे डाला जाये तो उसकी दुर्गध से १ कोस पर्यन्त के जीव मर जायेंगे। * इससे आगे दुसरे, तिसरे आदि पटलों मे यह मारण शक्ती आधे आधे कोस प्रमाण बढते हुए साँतवे नरक के अन्तिम बिल तक २५ कोस प्रमाण हो जाती है।
क्या तीर्थंकर प्रकृती का बंध करने वाला जीव नरक मे जा सकता है?
* जी हाँ। अगर उस जीव ने तीर्थंकर प्रकृती का बंध करने से पहले नरकायु का बंध कर लिया है तो वह पहले से तिसरे नरक तक उत्पन्न हो सकता है। * एैसे जीव को भी असाधारण दुःख का अनुभव करना पडता है। पर सम्यक्त्व के प्रभाव से वो वहाँ पूर्वकृत कर्मों क चिंतवन करता है। * जब उसकी आयु ६ महिने शेष रह जाती है, तब स्वर्ग से देव आकर उस नारकी के चारो तरफ परकोटा बनाकर उसका उपसर्ग दुर करते है। * इसी समय मध्यलोक मे रत्नवर्षा आदि गर्भ कल्याणक सम्बन्धी उत्सव होने लगते है।
नारकियों के दुःख के कितने भेद है?
नरकों मे नारकियों को ४ प्रकार के दुःख होते है। # क्षेत्र जनित : नरक मे उत्पन्न हुए शीत, उष्ण, वैतरणी नदी, शाल्मलि वृक्ष आदि के निमीत्त से होने वाले दुःख को क्षेत्र जनित दुःख कहते है। # शारीरिक : शरीर मे उत्पन्न हुए रोगों के दुःख और मार-काट, कुंभीपाक आदि के दुःख शारीरिक कहलाते है। # मानसिक : संक्लेश, शोक, आकुलता, पश्चाताप आदि के निमीत्त से होने वाले दुःख को मानसिक दुःख कहते है। # असुरकृत : तिसरे नरक तक संक्लेश परिणाम वाले असुरकुमार जाति के भवनवासी देवों द्वरा उत्पन्न कराये गये दुःख को असुरकृत दुःख कहते है। ==
नारकियों को परस्पर दुःख उत्पन्न करानेवाले असुरकुमार देव कौन होते है? * पुर्व मे देवायु का बन्ध करने वाले मनुष्य या तिर्यंच अनन्तानुबन्धी मे से किसी एक का उदय आने से रत्नत्रय को नष्ट करके असुरकुमार जाती के देव होते है। * सिकनानन, असिपत्र, महाबल, रुद्र, अम्बरीष, आदि असुर जाती के देव तीसरी बालुकाप्रभा पृथ्वी (नरक) तक जाकर नारकियों को परस्पर क्रोध उत्पन्न करा-करा कर उनमे युद्ध कराते है और प्रसन्न होते है।
क्या नरको मे अवधिज्ञान होता है ?==
* हाँ । नरको मे भी अवधिज्ञान होता है। * नरके मे उत्पन्न होते ही छहों पर्याप्तियाँ पुर्ण हो जाती है और भवप्रत्यय अवधिज्ञान प्रकट हो जाता है। * मिथ्यादृष्टि नारकियों का अवधिज्ञान विभंगावधि – कुअवधि कहलाता है। एवं सम्यगदृष्टि नारकियोंका ज्ञान अवधिज्ञान कहलाता है।
अलग अलग नरको मे अवधिज्ञान का क्षेत्र कितना होता है ?
* प्रथम नरक मे अवधिज्ञान का क्षेत्र १ योजन (४ कोस) है। दुसरे नरक से आगे इसमे आधे आधे कोस की कमी होती जाती है। * जैसे दुसरे नरके मे ३ १/२ कोस, तिसरे मे ३ कोस आदि। * साँतवे नरक मे यह प्रमाण १ कोस रह जाता है।
नरको मे अवधिज्ञान प्रकट होने पर मिथ्यादृष्टि और सम्यगदृष्टि जीव की सोच मे क्या अंतर होता है ?
* अवधिज्ञान प्रकट होते ही नारकी जीव पूर्व भव के पापोंको, बैर विरोध को, एवं शत्रुओं को जान लेते है। * जो सम्यगदृष्टि है, वे अपने पापों का पश्चाताप करते रहते है और मिथ्यादृष्टि पुर्व उपकारों को भी अपकार मानते हुए झगडा-मार काट करते है। * कोइ भद्र मिथ्यादृष्टि जीव पाप के फल को भोगते हुए, अत्यन्त दुःख से घबडाकर ‘वेदना अनुभव’ नामक निमित्त से सम्यगदर्शन को प्राप्त करते है।
नरको मे सम्यक्त्व मिलने के क्या कारण है ?
* धम्मा आदि तीन पृथ्वीयों मे मिथ्यात्वभाव से युक्त नारकियोँ मे से कोइ जातिस्मरण से, कोई दुर्वार वेदना से व्यथित होकर, कोई देवों का संबोधन पाकर सम्यक्त्व को प्राप्त करता है। * पंकप्रभा आदि शेष चार पृथ्वीयों मे देवकृत संबोधन नही होता, इसलिये जातिस्मरण और वेदना अनुभव मात्र से सम्यक्त्व को प्राप्त करता है। * इस तरह सभी नरकों मे सम्यप्त्व के लिये, कारणभूत सामग्री मिल जाने से नारकी जीव सम्यक्त्व को प्राप्त करता है।
जीव नरको मे किन किन कारणों से जाता है ?
* मुलतः पाँच पापों का और सप्त व्यसनों का सेवन करने से जीव नरक मे जाता है। * हिंसा, झुठ, चोरी, अब्रम्ह, और परिग्रह ये पाँच पाप है। * चोरी करना, जुँआ खेलना, शराब पीना, माँस खाना, परस्त्री सेवन, वेश्यागमन, शिकार खेलना ये सप्त व्यसन है। प्रत्येक नरक के प्रथम पटल (बिल) और अन्तिम पटल मे नारकीयों के शरिर की अवगाहना कितनी होती है ?- ! !! प्रथम पटल मे !! अन्तिम पटल मे प्रथम नरके मे ३ हाथ ७ धनुष ३ हाथ ६ अंगुल द्वितीय नरके मे ८ धनुष २ हाथ २४/११ अंगुल १५ धनुष २ हाथ १२ अंगुल तृतीय नरके मे १७ धनुष ३४ २/३ अंगुल ३१ धनुष १ हाथ चतुर्थ नरके मे ३५ धनुष २ हाथ २० ४/७ अंगुल ६२ धनुष २ हाथ पंचम नरके मे ७५ धनुष १२५ धनुष षष्ठम नरके मे १६६ धनुष २ हाथ १६ अंगुल २५० धनुष “} * साँतवे नरक के अवधिस्थान इन्द्रक बिल मे : ५०० धनुष * प्रत्येक नरक के अन्तिम पटल के शरिर की अवगाहना उस नरक की उत्कृष्ठ अवगाहना होती है।
लेश्या किसे कहते है ?
* कषायों के उदय से अनुरंजित, मन वचन और काय की प्रवृत्ती को लेश्या कहते है। * उसके कृष्ण, नील, कापोत, पीत, पद्म, और शुक्ल ऐसे ६ भेद होते है। * प्रारंभ की तीन लेश्यायें अशुभ है और संसार की कारण है एवं शेष तीन लेश्यायें शुभ है और मोक्ष की कारण है।
नरक मे कौनसी लेश्यायें होती है ? *
प्रथम और द्वितीय नरक मे : कापोत लेश्या * तृतीय नरक मे : ऊपर कापोत और निचे नील लेश्या * चतुर्थ नरक मे : नील लेश्या * पंचम नरक मे :ऊपरी भाग मे नील और निचले भाग मे कृष्ण लेश्या * षष्ठम नरक मे :कृष्ण लेश्या * सप्तम नरक मे :परमकृष्ण लेश्या
क्या नारकीयोंकी अपमृत्यु होती है ?
* नहीं। नारकीयोंकी अपमृत्यु नहीं होती है। * दुःखो से घबडाकर नारकी जीव मरना चाहते है, किन्तु आयु पूरी हुए बिना मर नही सकते है। * दुःख भोगते हुए उनके शरिर के तिल के समान खन्ड खन्ड होकर भी पारे के समान पुनः मिल जाते है।
नारकीयोंकी जघन्य, मध्यम, और उत्कृष्ठ आयु कितनी होती है ?
नारकीयोंकी जघन्य आयु १०,००० वर्ष और उत्कृष्ठ ३३ सागर की होती है। १०,००० वर्ष से एक समय अधिक और ३३ सागर से एक समय कम के मध्य की सभी आयु मध्यम कहलाती है।
प्रत्येक नरक के पटलों की अपेक्षा जघन्य, और उत्कृष्ठ आयु का क्या प्रमाण है?
प्रत्येक नरक के पहले पटल की उत्कृष्ठ आयु, दुसरे पटल की जघन्य आयु होती है। उदा॰ प्रथम नरक मे १३ पटल है। इसमे प्रथम पटल मे उत्कृष्ठ आयु, ९०,००० वर्ष है। यही आयु दुसरे पटल की जघन्य आयु हो जाती है। इसीप्रकार प्रथम नरक की उत्कृष्ठ आयु, दुसरे नरक की जघन्य आयु होती है।
{” class=”wikitable” “- ! नरक !! जघन्य आयु !! उत्कृष्ठ आयु – पहला १० हजार वर्ष १ सागर – दुसरा १ सागर ३ सागर – तिसरा ३ सागर ७ सागर – चौथा ७ सागर १० सागर – पाँचवा १० सागर १७ सागर – छठा १७ सागर २२ सागर – साँतवा २२ सागर ३३ सागर “} आयु के अन्त मे नारकियों के शरिर वायु से ताडित मेघों के समान निःशेष विलिन हो जाते है।
प्रत्येक नरक मे नारकियों के जन्म लेने के अन्तर का क्या प्रमाण है?
नरक मे उत्पन्न होने वाले दो जीव के जन्म के बीच के अधिक से अधिक समय (अन्तर) का प्रमाण निम्नप्रकार है। * प्रथम नरक मे : २४ मुहूर्त * द्वितीय नरक मे : ७ दिन * तृतीय नरक मे : १५ दिन * चतुर्थ नरक मे : १ माह * पंचम नरक मे : २ माह * षष्ठम नरक मे : ४ माह * सप्तम नरक मे : ६ माह
कौन कौन से जीव किन-किन नरको मे जाने की योग्यता रखते है?
* कर्म भुमी के मनुष्य और संज्ञी पंचेंद्रिय तिर्यंच जीव ही मरण करके अगले भव मे नरको मे जा सकते है। * असंज्ञी पंचेंद्रिय तिर्यंच जीव प्रथम नरक तक, सरीसृप द्वितीय नरक तक जा सकता है। * पक्षी तिसरे नरक तक, भुजंग आदि चौथे तक, सिंह पाँचवे तक, स्त्रियाँ छठे तक जा सकते है। * मत्स्य और मनुष्य साँतवे नरक जाने की योग्यता रखते है। * नारकी, देव, भोग भुमीयाँ, विकलत्रय और स्थावर जीव मरण के बाद अगले भव मे नरको मे नही जाते।
नरक से निकलकर नारकी किन-किन पर्याय को प्राप्त कर सकते है?
* नरक से निकलकर कोइ भी जीव अगले भव मे चक्रवर्ती, बलभद्र, नारायण और प्रतिनारायण नही हो सकता है। * प्रथम तीन नरको से निकले जीव तिर्थंकर हो सकते है। * चौथे नरक तक के जीव वहाँ से निकलकर, मनुष्य पर्याय मे चरम शरिरी हो कर मोक्ष भी जा सकते है। * पाँचवे नरक तक के जीव संयमी मुनी हो सकते है। * छठे नरक तक के जीव देशव्रती हो सकते है। * साँतवे नरक से निकले जीव कदाचित सम्यक्त्व को ग्रहण कर सकते है। मगर ये नियम से पंचेंद्रिय, पर्याप्तक, संज्ञी तिर्यंच ही होते है। मनुष्य नही हो सकते है।
भवनवासी देवों का स्थान अधोलोक मे कहाँ है?
पहली रत्नप्रभा भुमी के ३ भागो मे से पहले २ भाग (खरभाग और पंकभाग) मे उत्कृष्ठ रत्नों से शोभायमान भवनवासी और व्यंतरवासी देवों के भवन है।
भवनवासी देवों के कितने और कौनसे भेद है?
भवनवासी देवों के १० भेद है :
१)असुरकुमार २) नागकुमार, ३) सुपर्णकुमार ४) द्विपकुमार ५) उदधिकुमार ६) स्तनितकुमार ७) विद्युत्कुमार ८) दिक्कुमार ९) अग्निकुमार १०) वायुकुमार भवनवासी देवों के मुकुटों मे कौनसे चिन्ह होते है?
भवनवासी देवों के मुकुटों मे १० प्रकार के चिन्ह होते है : # असुरकुमार – चूडामणि # नागकुमार – सर्प # सुपर्णकुमार – गरुड # द्विपकुमार – हाथी # उदधिकुमार – मगर # स्तनितकुमार – वर्धमान # विद्युत्कुमार – वज्र # दिक्कुमार – सिंह # अग्निकुमार – कलश # वायुकुमार – घोडा
भवनवासी देवों के भवनों का कुल प्रमाण कितना है?
भवनवासी देवों के कुल ७ करोड, ७२ लाख भवन है। इन भवनों मे एक एक अकृत्रिम जिनालय है।
यही अधोलोक संबंधी ७ करोड, ७२ लाख अकृत्रिम चैत्यालय है जिसमे अकृत्रिम जिनबिंब है। इन्हे हम मन वचन काय से नमस्कार करते है।
भवनवासी देवों के इन्द्रों का और उनके भवनों का पृथक पृथक (अलग अलग) प्रमाण कितना है?==
भवनवासी देवों के १० प्रकारोँ मे पृथक पृथक दो दो इन्द्र होते है। इसप्रकार कुल २० इन्द्र होते है।
इनमे से प्रत्येकोंके प्रथम १० इन्द्रोंको दक्षिण इन्द्र और आगे के १० इन्द्रोंको उत्तर इन्द्र कहते है।
ये सब अणिमा-महिमा आदि ऋद्धियों से और मणिमय भुषणों से युक्त होते है।
– ! देव !! दक्षिण इन्द्र !! दक्षिणेंद्र के भवन !! उत्तर इन्द्र !! उत्तरणेंद्र के भवन !! कुल भवन – असुरकुमार चमर ३४ लाख वैरोचन ३० लाख ६४ लाख – नागकुमार भूतानंद ३४ लाख धरणानंद ४० लाख “”७४ लाख – सुपर्णकुमार वेणू ३८ लाख वेणूधारी ३४ लाख ७२ लाख – द्विपकुमार पूर्ण “”४० लाख वशिष्ठ ३६ लाख ७६ लाख – उदधिकुमार जलप्रभ ४० लाख जलकांत “”३६ लाख ७६ लाख – स्तनितकुमार घोष ४० लाख महाघोष “”३६ लाख ७६ लाख – विद्युत्कुमार हरिषेण ४० लाख हरिकांत “”३६ लाख ७६ लाख – दिक्कुमार अमितगती ४० लाख अमितवाहन “”३६ लाख ७६ लाख – अग्निकुमार अग्निशिखी ४० लाख अग्निवाहन “”३६ लाख ७६ लाख – वायुकुमार वेलंब ५० लाख प्रभंजन “”४६ लाख ९६ लाख “} इसप्रकार दक्षिणेंद्र के ४ करोड ६ लाख भवन और उत्तरेंद्र के ३ करोड ६६ लाख भवन मिलाकर कुल ७ करोड ७२ लाख भवन होते है।
भवनवासी देवों के निवास के कौनसे भेद है?
इनके ३ भेद है :
* भवन : रत्नप्रभा पृथ्वी मे स्थित निवास * भवनपुर : द्विप समुद्र के उपर स्थित निवास * आवास : रमणीय तालाब, पर्वत तथा वृक्षादिक के उपर स्थित निवास * नागकुमार आदि देवो मे से किन्ही के तीनों प्रकार के निवास होते है, मगर असुरकुमार देवो के सिर्फ भवनरुप ही निवास स्थान होते है। * इनमे से अल्पऋद्धि, महाऋद्धि और मध्यमऋद्धि के धारक भवनवासियों के भवन क्रमशः चित्रा पृथ्वी के निचे दो हजार, ४२ हजार और १ लाख योजन पर्यन्त जाक्र है।
भवनवासी देवों के भवनों का प्रमाण क्या है?
* ये सब भवन समचतुष्कोण तथा वज्रमय द्वारों से शोभायमान है। * इनकी ऊंचाइ ३०० योजन और विस्तार संख्यात और असंख्यात होता है। * संख्यात विस्तार वाले भवनों मे संख्यात देव और असंख्यात विस्तार वाले भवनों मे असंख्यात देव रहते है।
भवनवासी देवों के भवनों का स्वरुप कैसा है?
* भवनवासी देवो के भवनो के मध्य मे १०० योजन ऊंचे एक एक कूट स्थित है। * इन कूटों के चारो तरफ नाना प्रकार के रचनाओं से युक्त, उत्तम सुवर्ण और रत्नों से निर्मित भवनावासी देवो के महल है. * ये महल सात, आठ, नौ, दस इत्यादि अनेक तलों वाले है. * यह भवन रत्नामालाओं से भूषीत, चमकते हुए मणिमय दीपकों से सुशोभित, जन्मशाला, अभिषेकशाला, भूषणशाला, मैथुनशाला, परिचर्यागृह और मंत्रशाला आदि से रमणीय है. * इनमे मणिमय तोरणों से सुंदर द्वारों वाले सामान्यगृह, कदलिगृह, गर्भगृह, चित्रगृह, आसनगृह, नादगृह, और लतागृह इत्यादि गृह विशेष भी है. * यह भवन सुवर्णमय प्राकार से संयुक्त, विशाल छज्जों से शोभित, फहराती हुइ ध्वजाओं, पुष्करिणी, वापी, कूप, क्रीडन युक्त मत्तावारणो, मनोहर गवाक्ष और कपाटों सहित अनादिनिधन है. * इन भवनों के चारो पार्श्वभागों में चित्र विचित्र आसन एवं उत्तम रत्नों से निर्मित दिव्या शय्याये स्थित है.
भवनवासी देवों के भवनों मे किस प्रकार के जिन मंदिर है?
* भवनवासी देवो के भवनो के मध्य मे १०० योजन ऊंचे एक एक कूट स्थित है। * इन कूटों के उपर पद्मराग मणिमय कलशों से सुशोभित जिनमंदिर है। * यह मंदिर ४ गोपुर, ३ मणिमय प्राकार, वन ध्वजाये, एवं मालाओं से संयुक्त है।
भवनवासी देवों के चैत्यवृक्षों का प्रमाण क्या है?
* भवनवासी देवो के जिनमंदिरों के चारो ओर नाना चैत्यवृक्षो सहित पवित्र अशोक वन, सप्तच्छद वन, चंपक वन, आम्र वन स्थित है। * प्रत्येक चैत्यवृक्ष का अवगाढ-जड़ १ कोस, स्कंध की ऊँचाइ १ योजन, और शाखाओं की लंबाइ ४ योजन प्रमाण है।
भवनवासी देवों के चैत्यवृक्षों का स्वरूप कैसा है?
* असुरकुमार आदि १० प्रकार के भवनवासी देवों के भवनों में ओलग शालाओं के आगे विविध प्रकार के रत्नों से निर्मित चैत्यावृक्ष होते है। * पीपल, सप्तपर्ण, शाल्मली, जामुन, वेतस, कदंब, प्रियंगु, शिरीष, पलाश, और राजदृम ये १० चैत्यवृक्ष क्रम से उन असुरादिक कुलो के चिन्ह रूप है। * ये दिव्य वृक्ष विविध प्रकार के उत्तम रत्नो की शाखाओं से युक्त, विचित्र पुष्पों से अलंकृत, और उत्कृष्ठ मरकत मणिमय उत्तम पत्रों से व्याप्त है। * यह अतिशय शोभा को प्राप्त, विविध प्रकार के अंकुरों से मंडित, अनेक प्रकार के फलों से युक्त, है। * ये वृक्ष नाना प्रकार के रत्नों से निर्मित, छत्र के उपर से संयुक्त, घंटा ध्वजा से रमणीय, आदि अंत से रहित पृथ्वीकायिक स्वरुप है।
भवनवासी देवों के चैत्यवृक्षों के मूल मे विराजमान जिन प्रतिमाओं का स्वरूप कैसा है?
* भवनवासी देवों के चैत्यवृक्षों के मूल मे चारो दिशाओं मे से प्रत्येक दिशा मे पद्मासन से स्थित पाँच-पाँच जिन प्रतिमाये विराजमान होती है। * उन सभी प्रतिमाओं के आगे रत्नमय २० मानस्तंभ है। * एक एक मानस्तंभ के ऊपर चारो दिशाओ में सिंहासन की शोभा से युक्त जिन प्रतिमाये है। * ये प्रतिमाये देवो से पूजनीय, चार तोरणो से रमणीय, आठ महामंगल द्रव्यों से सुशोभित और उत्तमोत्तम रत्नो से निर्मित होती है।
भवनवासी देवों के जिन मंदिरों का स्वरूप कैसा है?
* इन जिनालयों मे चार-चार गोपुरों से संयुक्त तीन कोट है। * प्रत्येक वीथी मे एक एक मानस्थंभ व वन है। * स्तूप तथा कोटो के अंतराल मे क्रम से वनभूमि, ध्वजभुमि,और चैत्यभुमि ऐसे तीन भुमियाँ है। * इन जिनालयो मे चारों वनों के मध्य मे स्थित तीन मेखलाओ से युक्त नंदादिक वापिकायें, तीन पीठों से युक्त धर्म विभव तथा चैत्यवृक्ष शोभायमान होते है।
भवनवासी देवों के जिन मंदिरों के ध्वजभुमियों का स्वरूप कैसा है?
* इन ध्वजभुमियों मे सिंह, गज, वृषभ, गरुड, मयुर, चंद्र, सूर्य, हंस, पद्म, चक्र इन चिन्होंसे अंकित ध्वजायें होती है। * उपरोक्त प्रत्येक चिन्हों वाली १०८ महाध्वजायें होती है और इन एक-एक महाध्वजा के आश्रित १०८ लघु (क्षुद्र) ध्वजायें भी होती है।
भवनवासी देवों के जिन मंदिरों के मंडपों का स्वरूप कैसा है?
* इस जिन मंदिरों मे वंदन मंडप, अभिषेक मंडप, नर्तन मंडप, संगीत मंडप और प्रेक्षणमंडप होते है। * इसके अलावा क्रीड़गृह, गुणनगृह (स्वाध्याय शाला) एवं विशाल चित्रशालायें भी होती है।
भवनवासी देवों के जिन मंदिरों के भीतर की रचना कैसी होती है?
* इन मंदिरोँ मे देवच्छंद के भीतर श्रीदेवी, श्रुतदेवी, तथा सर्वाण्ह और सानत्कुमार यक्षों की मूर्तियाँ एवं आठ मंगल द्रव्य होते है। * झारी, कलश, दर्पण, ध्वजा, चामर, छत्र, व्यजन और सुप्रतिष्ठ इन आठ मंगल द्रव्यों मे से वहाँ प्रत्येक १०८ – १०८ होते है। * इनमे चमकते हुए रत्नदीपक और ५ वर्ण के रत्नों से निर्मित चौक होते है। * यहाँ गोशीर्ष, मलयचंदन, कालागरू और धूप कि गंध तथा भंभा, मृदंग, मर्दल, जयघंटा, कांस्यताल, तिवली, दुंदुभि एवं पतह के शब्द नित्य गुंजायमान होते है।
भवनवासी देवों के जिन मंदिरों की प्रतिमायें कैसी होती है?
* हांथ मे चंवर लिए हुए नागकुमार देवों से युक्त, उत्तम उत्तम रत्नों से निर्मित, देवों द्वारा वंद्य, ऐसी उत्तम प्रतिमायें सिंहासन पर विराजमान है। * प्रत्येक जिनभवन मे १०८ – १०८ प्रतिमायें विराजमान है। * ऐसे अनादिनिधन जिनभवन ७ करोड ७२ लाख है, जो की भवनवासी देवों के भवनों की संख्या प्रमाण है।
भवनवासी देवों के जिन मंदिरों मे कौन कौन से देव पूजा करते है?
जो देव सम्यगदर्शन से युक्त है, वे कर्म क्षय के निमित्त नित्य ही जिनेंद्र भगवान कि पूजा करते है। इसके अतिरिक्त सम्यगदृष्टि देवों से सम्बोधित किये गये मिथ्यादृष्टि देव भी कुल देवता मानकर जिनेंद्र प्रतिमाओं की बहुत प्रकार से पूजा करते रहते है।
भवनवासी देवों के परिवारों मे कौन कौन होते है?
* भवनवासी देव १० प्रकार (जाती) के होते है और प्रत्येक प्रकार में दो – दो इंद्र होते है. * प्रत्येक इंद्र के दस-दस प्रकार के परिवार देव होते है. जैसे चमरेंद्र के १० परिवार देव, वैरोचणेंद्र के १० परिवार देव इत्यादि. * ये परिवार देव इस प्रकार होते है : प्रतिन्द्र, त्रायस्त्रिंश, सामानिक, लोकपाल, तनुरक्षक (आत्मरक्षक), पारिषद, अनीक, प्रकीर्णक, आभियोग्य और किल्विषक. * इस परिवार में इंद्र – राजा के समान, प्रतिन्द्र – युवराज के समान, त्रायस्त्रिंश – पुत्र के समान, और सामानिक देव – पत्नी के समान होते हे. * प्रत्येक इंद्र के सोम, यम, वरुण और कुबेर नामक, चार – चार रक्षक लोकपाल होते है जो क्रम से पूर्व, पश्चिम आदि दिशाओं में होते है. ये परिवार में तंत्रपालो के समान होते है. * तनुरक्षक देव अंगरक्षक के समान होते है. * राजा की बाह्य, मध्य और आभ्यंतर समिती के समान देवो में भी ३ प्रकार की परिषद होती है. इन तीन परिषदों में बैठनेवाले देव, क्रमशः बाह्य पारिषद, मध्य * पारिषद, और आभ्यंतर पारिषद कहलाते है. * अनीक देव सेना के तुल्य, प्रकीर्णक – प्रजा के तुल्य, आभियोग्य – दास के समान और किल्विषक – चांडालके समान होते है.
भवनवासी देवों के परिवारों मे कौन कौन होते है?
* भवनवासी देव १० प्रकार (जाती) के होते है और प्रत्येक प्रकार में दो – दो इंद्र होते है. * प्रत्येक इंद्र के दस-दस प्रकार के परिवार देव होते है. जैसे चमरेंद्र के १० परिवार देव, वैरोचणेंद्र के १० परिवार देव इत्यादि. * ये परिवार देव इस प्रकार होते है : प्रतिंद्र, त्रायस्त्रिंश, सामानिक, लोकपाल, तनुरक्षक (आत्मरक्षक), पारिषद, अनीक, प्रकीर्णक, आभियोग्य और किल्विषक. * इस परिवार में इंद्र – राजा के समान, प्रतिन्द्र – युवराज के समान, त्रायस्त्रिंश – पुत्र के समान, और सामानिक देव – पत्नी के समान होते हे. * प्रत्येक इंद्र के सोम, यम, वरुण और कुबेर नामक, चार – चार रक्षक लोकपाल होते है जो क्रम से पूर्व, पश्चिम आदि दिशाओं में होते है. ये परिवार में तंत्रपालो के समान होते है. * तनुरक्षक देव अंगरक्षक के समान होते है. * राजा की बाह्य, मध्य और आभ्यंतर समिती के समान देवो में भी ३ प्रकार की परिषद होती है. इन तीन परिषदों में बैठनेवाले देव, क्रमशः बाह्य पारिषद, मध्य * पारिषद, और आभ्यंतर पारिषद कहलाते है. * अनीक देव सेना के तुल्य, प्रकीर्णक – प्रजा के तुल्य, आभियोग्य – दास के समान और किल्विषक – चांडालके समान होते है.
भवनवासी देवों के कितने प्रतिंद्र होते है?
भवनवासी प्रतिंद्रो की संख्या उनके इंद्रो के समान – बीस होती है. (हर जाती के २ इंद्र और २ प्रतिंद्र होते है)
भवनवासी देवों के कितने त्रायस्त्रिंश होते है?
प्रत्येक भवनवासी इंद्रो के ३३ ही त्रायस्त्रिंश होते है.
भवनवासी सामानिक देवों का प्रमाण क्या है?
* चमरेन्द्र के ६४,०००, वैरोचन के ६०,००० और भूतानंद के ५६,००० सामानिक देव है. * शेष १७ इंद्रो के पचास – पचास हजार सामानिक देव है. * इसप्रकार भवनवासी सामानिक देवों का कुल प्रमाण १० लाख ३० हजार है. * ६४००० + ६०००० + ५६००० + (१७ × ५०,०००) = १०,३०,०००
भवनवासी आत्मरक्षक देवों का प्रमाण क्या है?
* चमरेन्द्र के २ लाख ५६ हजार , वैरोचन के २ लाख ४० हजार और भूतानंद के २ लाख २४ हजार आत्मरक्षक देव है. * शेष १७ इंद्रो के दो – दो लाख आत्मरक्षक देव है. * इसप्रकार भवनवासी आत्मरक्षक देवों का कुल प्रमाण ४१ लाख २० हजार है. * २,५६,००० + २,४०,००० + २,२४,००० + (१७ × २,००,०००) = ४१,२०,०००
भवनवासी पारिषद देवों का प्रमाण क्या है?
* चमरेन्द्र के २८ हजार , वैरोचन के २६ हजार और भूतानंद के ६ हजार आभ्यंतर पारिषद देव है. * शेष १७ इंद्रो के चार – चार हजार आभ्यंतर पारिषद देव है. * इसप्रकार भवनवासी आभ्यंतर पारिषद देवों का कुल प्रमाण १ लाख २८ हजार है. * २८,००० + २६,००० + ६,००० + (१७ × ४,०००) = १,२८,०००
भवनवासी मध्यम पारिषद देवों का प्रमाण क्या है?
* चमरेन्द्र के ३० हजार , वैरोचन के २८ हजार और भूतानंद के ८ हजार मध्यम पारिषद देव है. * शेष १७ इंद्रो के छ – छ हजार मध्यम पारिषद देव है. * इसप्रकार भवनवासी मध्यम परिषद, जिसका नाम “चंद्रा“ है, उसके देवों का कुल प्रमाण १ लाख ६८ हजार है. * ३०,००० + २८,००० + ८,००० + (१७ × ६,०००) = १,६८,०००
भवनवासी बाह्य पारिषद देवों का प्रमाण क्या है?
* चमरेन्द्र के ३२ हजार , वैरोचन के ३० हजार और भूतानंद के १० हजार बाह्य पारिषद देव है. * शेष १७ इंद्रो के आठ – आठ हजार बाह्य पारिषद देव है. * इसप्रकार भवनवासी बाह्य परिषद, जिसका नाम “समिता“ है, उसके देवों का कुल प्रमाण २ लाख ८ हजार है. * ३२,००० + ३०,००० + १०,००० + (१७ × ८,०००) = २,०८,०००
भवनवासी अनीक देवों का प्रमाण क्या है?
* प्रत्येक भवनवासी इंद्रो के सात – सात अनीक होती है. * इन सातो में से प्रत्येक अनीक सात सात कक्षाओं से युक्त होती है * उनमे से प्रथम कक्षा का प्रमाण अपने अपने सामानिक देवो के बराबर होता है, इसके आगे उत्तरोत्तर प्रथम कक्षा से दूना दूना होता जाता है * असुरकुमार जाती में महिष, घोडा, हाथी, रथ, पादचारी, गंधर्व और नर्तकी ये सात अनीक होती है, इनमे से प्रथम ६ अनीको में देव प्रधान होते है तथा आखिरी अनीक में देवी प्रधान होती है * शेष नागकुमार आदि जातियों में सिर्फ प्रथम अनीक अलग है और आगे की ६ अनीक असुरकुमारो जैसी ही है * नागाकुमारो में प्रथम अनीक – नाग, सुपर्णकुमारो में गरुड़, द्वीपकुमारो में गजेन्द्र, उदधिकुमारो में मगर, स्तनितकुमारो में ऊँट, विद्युतकुमारो में गेंडा, दिक्कुमारो में सिंह, अग्निकुमारो में शिविका और वायुकुमारो में अश्व ये प्रथम अनीक है. * चमरेन्द्र के ८१ लाख, २८ हजार इतनी प्रथम अनीक की महिषसेना है. तथा उतनी ही सेना बाकी अनीको की होती है. (७ × ८१,२८,०००) = ५,६८,९६,००० * वैरोचन के ७६ लाख, २० हजार इतनी महिषसेना है तथा शेष इतनी ही है. (७ × ७६,२०,०००) = ५,३३,४०,००० * भूतानंद के ७१ लाख, १२ हजार इतनी प्रथम नागसेना है तथा शेष घोडा आदि भी इतनी ही है. (७ × ७१,१२,०००) = ४,९७,८४,००० * शेष १७ भवनवासी इंद्रो की प्रथम अनीक का प्रमाण ६३ लाख, ५० हजार और कुल ७ अनीको का प्रमाण ४,४४,५०,००० है
भवनवासी प्रकीर्णक आदि शेष देवों का प्रमाण क्या है?
भवनवासियों के सभी २० इन्द्रोके, प्रकीर्णक, अभियोग्य और किल्विषक इन शेष देवों का प्रमाण का उपदेश काल के वश से उपलब्ध नहीं है.
भवनवासी इंद्रों की देवियों की संख्या कितनी होती है?
* चमरेंद्र के कृष्णा, रत्ना, सुमेघा, सुका और सुकांता ये पाँच अग्रमहिषी महादेवीयाँ है. इन महादेवीयों में प्रत्येक के ८००० परिवार देवीयाँ है. इस प्रकार “परिवार देवियाँ” ४०,००० प्रमाण है. ये महादेवीयाँ विक्रिया से अपने आठ – आठ हजार रूप बना सकती है. चमरेंद्र के १६,००० वल्लभा देवियाँ भी है. इन्हें मिलाने से चमरेंद्र की कुल ५६ हजार देवियाँ होती है * द्वितीय – वैरोचन इंद्र के पदमा, पद्मश्री, कनकश्री, कनकमाला, और महापद्मा ये पाँच अग्रमहिषी महादेवीयाँ है. इनकी विक्रिया, परिवार देवी, वल्लभा देवी आदि का प्रमाण चमरेन्द्र के समान होने से इस इंद्र की भी कुल ५६ हजार देवियाँ होती है. * इसीप्रकार भूतानंद और धरणानंद के पचास – पचास हजार देवियाँ है. * वेणुदेव, वेणुधारी इंद्रों के ४४ हजार देवियाँ है और शेष इंद्रों के ३२ – ३२ हजार प्रमाण है. * इन इंद्रों की पारिषद आदि देवों की देवांगनाओ का प्रमाण तिलोयपन्नत्ति से जान लेना चाहिए. * सबसे निकृष्ठ देवों की भी ३२ देवियाँ अवश्य होती है
भवनवासी देवों का आहार कैसा और कब होता है?
* भवनवासी देव तथा देवियों का अति स्निग्ध, अनुपम और अमृतमय आहार होता है. * चमर, और वैरोचन इन दो इंद्रो का १००० वर्ष के बाद आहार होता है. * इसके आगे भूतानंद आदि ६ इंद्रो का साढ़े बारा दिनों में, जलप्रभ आदि ६ इंद्रो का १२ दिनो में, और अमितगती आदि ६ इंद्रो का साढ़े सात दिनों में आहार ग्रहण होता है. * दस हजार वर्ष वाली जघन्य आयु वाले देवो का आहार दो दिन में तो पल्योपम की आयु वालो का पाँच दिन में भोजन का अवसर आता है. * इन देवो के मन में भोजन की इच्छा होते ही उनके कंठ से अमृत झरता है और तृप्ति हो जाती है. इसे ही मानसिक आहार कहते है.
भवनवासी देव उच्छवास कब लेते है?
* चमर, और वैरोचन इंद्र १५ दिन में, भूतानंद आदि ६ इंद्र साढ़े बार मुहुर्त में, जलप्रभ आदि ६ इंद्र साढ़े छ मुहुर्त में, उच्छवास लेते है. * दस हजार वर्ष वाली आयु वाले देव ७ श्वासोच्छ्वास प्रमाण काल के बाद, और पल्योपम की आयु वाले पाँच मुहुर्त के बाद उच्छवास लेते है
भवनवासी देवो के शरीर का वर्ण कैसा होता है?
* असुरकुमार, सुपर्णकुमार, द्वीपकुमार और दिक्कुमार का वर्ण काला होता है * नागकुमार, उधदिकुमार, स्तानितकुमार का वर्ण अधिक काला होता है * विद्युतकुमार का वर्ण बिजली के सदृश्य, अग्निकुमार का अग्नि की कांती के समान, एवं वायुकुमार का नीलकमल के सदृश्य होता है
भवनवासी देवो का गमन (विहार) कहाँ तक होता है?
* भवनवासी इंद्र भक्ति से पंचकल्याणको के निमित्त ढाई द्वीप में, जिनेन्द्र भगवान के पूजन के निमित्त से नन्दीश्वर द्वीप आदि पवित्र स्थानो में, शील आदी से संयुक्त किन्ही मुनिवर की पूजन या परीक्षा के निमित्तसे तथा क्रीडा के लिए यथेच्छ स्थान पर आते जाते रहते है. * ये देव स्वयं अन्य किसी की सहायता से रहित ईशान स्वर्ग तक जा सकते है तथा अन्य देवो की सहायता से अच्युत स्वर्ग तक भी जाते है.
भवनवासी देव – देवियों का शरीर कैसा होता है?
* इनके शरीर निर्मल कांतीयुक्त, सुगंधीत उच्छवास से सहित, अनुपम रूप वाले, तथा समचतुरस्त्र सस्न्थान से युक्त होते है. * इन देव-देवियों को रोग, वृद्धत्व नहीं होते बल्कि इनका अनुपम बल और वीर्य होता है. * इनके शरीर में मल, मूत्र, हड्डी, माँस, मेदा, खून, मज्जा, वसा, शुक्र आदि धातु नहीं है.
भवनवासी देव – देवियाँ काम सुख का अनुभव कैसे करते है?
* ये देवगण काय प्रवीचार से युक्त है. अर्थात् वेद की उदीरणा होने पर मनुष्यों के समान काम सुख का अनुभव करते है. * ये इंद्र और प्रतिन्द्र विविध प्रकार के छत्र आदि विभूतियों को धारण करते है. * चमर इंद्र सौधर्म इंद्र से ईर्ष्या करता है. वैरोचन ईशान से, वेणु भूतानंद से, वेणुधारी धरणानंद से, ईर्ष्या करते है. * नाना प्रकार की विभूतियों को देखकर मात्सर्य से या स्वभाव से ही जलाते रहते है
भवनवासी प्रतिन्द्र, इंद्र आदि के विभूतियों में क्या अंतर होता है ?
* प्रतिन्द्र आदि देवो के सिंहासन, छत्र, चमर अपने अपने इंद्रो की अपेक्षा छोटे रहते है. * सामानिक और त्रायस्त्रिंश देवो में विक्रिया, परिवार, ऋद्धि और आयु अपने अपने इंद्रो की समान है. * इंद्र उन सामानिक देवो की अपेक्षा केवल आज्ञा, छत्र, सिंहासन और चामरो से अधिक वैभव युक्त होते है.
भवनवासी देवो की आयु का प्रमाण कितना है ?
* चमर, वैरोचन : १ सागरोपम * भूतानंद, धरणानंद : ३ पल्योपम * वेणु, वेणुधारी : २ १/२ पल्योपम * पूर्ण, वसिष्ठ : २ पल्योपम * जलप्रभ आदि शेष १२ इंद्र : १ पल्योपम
भवनवासी देवियों की आयु का प्रमाण कितना है ?
* चमरेंद्र की देवियाँ : २ १/२ पल्योपम * वैरोचन की देवियाँ : ३ पल्योपम * भूतानंद की देवियाँ : १/८ पल्योपम * धरणानंद की देवियाँ:कूछ आधिक १/८ पल्योपम * वेणु की देवियाँ:३ पूर्व कोटि * वेणुधारी की देवियाँ:कूछ आधिक ३ पूर्व कोटि * अवशिष्ठ दक्षिण इंद्रो में से प्रत्येक इंद्र की देवियों की आयु ३ करोड़ वर्ष और उत्तर इंद्रो में से प्रत्येक इंद्र की देवियों की आयु कुछ आधिक ३ करोड़ वर्ष है. * असुर आदि १० प्रकार के देवो में निकृष्ट देवो की जघन्य आयु का प्रमाण १० हजार वर्ष मात्र है.
भवनवासी देवो के शरीर की अवगाहना का प्रमाण कितना है ?
* असुरकुमारों के शरीर की ऊंचाई : २५ धनुष्य * शेष देवों के शरीर की ऊंचाई : १० धनुष्य * यह ऊंचाई का प्रमाण मूल शरीर का है. * विक्रिया से निर्मित शरीरो की ऊंचाई अनेक प्रकार की है.
भवनवासी देवो के अवधिज्ञान एवं विक्रिया का प्रमाण कितना है ?
* अपने अपने भवन में स्थित देवो का अवधिज्ञान उर्ध्व दिशा में उत्र्कुष्ठ रूप से मेरु पर्वत को स्पर्श करता है, तथा अपने भवनों के निचे, थोड़े थोड़े क्षेत्र में प्रवृत्ति करता है. * वही अवधिज्ञान तिरछे क्षेत्र की अपेक्षा अधिक क्षेत्र को जानता है. * असुरादी देव अनेक रूपों की विक्रिया करते हुए अपने अपने अवधिज्ञान के क्षेत्र को पूरित करते है
भवनवासी देव योनी में किन कारणों से जन्म होता है ?
निम्नलिखित आचरण से भवनवासी योनी में जन्म होता है.
* शंकादी दोषों से युक्त होना * क्लेशभाव और मिथ्यात्व भाव से युक्त चारित्र धारण करना * कलहप्रिय, अविनयी, जिनसुत्र से बहिर्भुत होना. * तीर्थंकर और संघ की आसादना (निंदा) करना कुमार्ग एवं कुतप करने वाले तापसी भवनवासी योनी में जन्म लेते है.
भवनवासी देव योनी में किन कारणों से सम्यक्त्व होता है ?
* सम्यक्त्व सहित मरण कर के कोई जीव भवनवासी देवो में उत्पन्न नहीं होता. * कदाचित् जातिस्मरण, देव ऋद्धि दर्शन, जिनबिम्ब दर्शन और धर्म श्रवण के निमित्तो से ये देव सम्यक्त्व को प्राप्त करा लेते है.
भवनवासी देव योनी से निकलकर जीव कहाँ उत्पन्न होता है ?
* ये जीव कर्म भूमि में मनुष्य गती अथवा तिर्यंच गति को प्राप्त कर सकते है, किन्तु शलाका पुरुष नहीं हो सकते है. * यदि मिथ्यात्व से सहित संक्लेश परिणाम से मरण किया तो एकेंद्रिय पर्याय में जन्म लेते है
भवनवासी देव किस प्रकार और कौनसी शय्या पर जन्म लेते है और क्या विचार करते है ?
* भवनवासी भवनों में उत्तम, कोमल उपपाद शाला में उपपाद शय्या पर देवगति नाम कर्म के कारण जीव जन्म लेता है * उत्पन्न होते ही अंतर्मुहूर्त में छहों पर्याप्तियो को पूर्ण कर १६ वर्ष के युवक के समान शरीर को प्राप्त कर लेते है * इन देवो के वैक्रियिक शरीर होने से इनको कोई रोग आदि नहीं होते है * देव भवनों में जन्म लेते ही, बंद किवाड़ खुल जाते है और आनंद भेरी का शब्द (नाद) होने लगता है * इस भेरी को सुनकर, परिवार के देव देवियाँ हर्ष से जय जयकार करते हुए आते है * जय, घंटा, पटह, आदि वाद्य, संगीत नाट्य आदि से चतुर मागध देव मंगल गीत गाते है * इस दृश्य को देखकर नवजात देव आश्चर्यचकित हो कर सोचता है की तत्क्षण उसे अवधिज्ञान नेत्र प्रकट होता है * यहाँ अवधि विभंगावधि होती है और सम्यक्त्व प्रकट होने पर सुअवधि कहलाती है * ये देवगण पूर्व पुण्य का चिंतवन करते हुए यह सोचते है की मैंने सम्यक्त्व शुन्य धर्म धारण करके यह निम्न देव योनी पायी है. * इसके पश्चात अभिषेक योग्य द्रव्य लेकर जिन भवनों में स्थित जिन प्रतिमाओं की पूजा करते है (सम्यग्दृष्टि देव कर्म क्षय का कारण मानकर देव पूजा करते है तो मिथ्यादृष्टि देव अन्य देवो की प्रेरणा से कुल देवता मानकर पूजा करते है.) * पूजा के पश्चात अपने अपने भवनों में आकर सिंहासन पर विराजमान हो जाते है.
भवनवासी देव किस प्रकार क्रीडा करते है ?
* ये देवगण दिव्य रूप लावण्य से युक्त अनेक प्रकार की विक्रिया से सहित, स्वभाव से प्रसन्न मुख वाली देवियों के साथ क्रीडा करते है * ये देव स्पर्श, रस, रूप और शब्द से प्राप्त हुए सुखों का अनुभव करते हुए क्षणमात्र भी तृप्ति को प्राप्त नहीं करते है * द्वीप, कुलाचल, भोग भूमि नंदनवन आदि उतम स्थानों में ये देव क्रीडा करते है
प्रश्न १ – तेरहव्दीप तीनों लोकों में से किस लोक में निर्मित है?
उत्तर-मध्यलोक में।
प्रश्न २ – तेरहद्वीपों में किस-किस द्वीप में अकृत्रिम जिनमंदिर हैं?
उत्तर – जम्बूद्वीप, धातकीखण्डद्वीप, पुष्करार्धद्वीप, नंदीश्वरद्वीप, कुण्डलवरद्वीप और रुचकवरद्वीप।
प्रश्न ३ – पूरे तेरहद्वीप में कितने अकृत्रिम जिनमंदिर हैं?
उत्तर – ४५८ अकृत्रिम जिनमंदिर हैं।
प्रश्न ४ – तेरहद्वीप रचना में पंचमेरु पर्वत कहाँ-कहाँ हैं?
उत्तर – जम्बूद्वीप, पूर्वधातकीखण्डद्वीप, पश्चिम धातकीखण्डद्वीप, पूर्व पुष्करार्धद्वीप और पश्चिम पुष्करार्धद्वीप।
प्रश्न ५ – पांचों मेरु पर्वत के नाम बताओ?
उत्तर – १. सुदर्शनमेरु २. विजयमेरु ३. अचलमेरु ४. मंदरमेरु और ५. विध्युन्माली मेरु।
प्रश्न ६ – जम्बूद्वीप-हस्तिनापुर में निर्मित १०१ फूट ऊँचे पर्वत का क्या नाम है?
उत्तर-सुमेरुपर्वत।
प्रश्न ७ – हस्तिनापुर की तेरहद्वीप रचना में तीर्थंकर भगवन्तों के कितने समवसरण बनाये गये हैं?
उत्तर-१७० समवसरण।
प्रश्न ८ – तेरहद्वीप में कहाँ-कहाँ कितनी भोगभूमियाँ हैं?
उत्तर – ३० भोगभूमि हैं-एक मेरु संबंधी-हिमवत्, हरि, रम्यक्, हैरण्यवत्, देवकुरु, उत्तर-कुरु, ऐसी ६, इस प्रकार पाँच मेरु संबंधी ६x५=·३० भोगभूमि हैं।
प्रश्न ९ – तेरहद्वीप रचना में विदेहक्षेत्र कहाँ-कहाँ और कितने हैं?
उत्तर – १६० विदेहक्षेत्र हैं-जम्बूद्वीप में ३२, पूर्वधातकीखण्ड मे ३२, पश्मिच धातकीखण्ड में ३२, पूर्व पुष्करार्धद्वीप में ३२,पश्चिम पुष्करार्धद्वीप में ३२, इस प्रकार ३२²५·१६० विदेहक्षेत्र हैं।
प्रश्न १० – तेरहद्वीप रचना पूज्य ज्ञानमती माताजी के ध्यान में किस सन् में प्रगट हुई थी?
उत्तर-सन् १९६५ में।
प्रश्न ११ – तेरहद्वीपों में मनुष्यों का आवागमन किस द्वीप तक रहता है?
उत्तर-ढाईद्वीप तक।
प्रश्न १२ – तेरहद्वीप मे पाँचवें द्वीप और समुद्र का नाम क्या है?
उत्तर-क्षीरवर द्वीप और क्षीरवर समुद्र।
प्रश्न १३ – तेरहवें रुचकवर द्वीप में कितने जिनमंदिर हैं?
उत्तर-४ अकृत्रिम जिनमंदिर हैं।
प्रश्न १. कर्म किसे कहते हैं कर्म के मूल भेद कितने हैं ?
उत्तर—जो जीव को परतंत्र करता है अथवा जिसके द्वारा जीव परतंत्र किया जाता है, उसे कर्म कहते हैं।
कर्म के मूलत: दो भेद हैं—
१. द्रव्यकर्म — ज्ञानावरणादि आठ प्रकार के कर्म द्रव्यकर्म कहलाते हैं।
२. भावकर्म — राग—व्देषादि विकारी भाव भावकर्म कहलाते हैं।
प्रश्न २. द्रव्यकर्म के आठ भेद और उनके कार्य क्या हैं ?
उत्तर—द्रव्यकर्म के आठ भेद निम्न हैं—
१. ज्ञानावरण कर्म — जो आत्मा के ज्ञान गुण को प्रकट नहीं होने देता, उसे ज्ञानावरण कर्म कहते हैं। जैसे—देवप्रतिमा के मुख पर ढका हुआ वस्त्र देव प्रतिमा के दर्शन नहीं होने देता।
२. दर्शनावरण कर्म — जो आत्मा के दर्शन गुण को प्रकट नहीं होने देता, उसे दर्शनावरण कर्म कहते हैं। जैसे—द्वारपाल राजा के दर्शन नहीं होने देता।
३. वेदनीय कर्म — जो सुख—दु:ख का वेदन (अनुभव) कराता है, वह वेदनीय कर्म है। जैसे—मधुलिप्त तलवार।
४. मोहनीय कर्म — जो आत्मा के सम्यक्त्व और चारित्र गुण का घात करता है, उसे मोहनीय कर्म कहते हैं। जैसे—मदिरा मध्यपायी के विवेक को नष्ट कर देती है।
५. आयुकर्म — जो जीव को मनुष्यादि के शरीर में रोककर रखता है। वह आयुकर्म है। जैसे—पैर में लगी हुई बेड़ियाँ।
६. नामकर्म — जो अनेक प्रकार के शरीर की रचना करता है, वह नामकर्म है। जैसे—चित्रकार (पेन्टर) अनेक प्रकार के चित्र बनाता है।
७. गोत्रकर्म — जो जीव को उच्चकुल अथवा नीचकुल में उत्पन्न कराता है, वह गोत्रकर्म है। जैसे—कुम्भकार छोटे—बड़े घड़े तैयार करता है।
८. अन्तरायकर्म — जो दान, लाभ, भोग, उपभोग एवं वीर्य में बाधा डालता है, वह अन्तराय कर्म है। जैसे—भण्डारी (मुनीम) राजा की आज्ञा होने पर भी अर्थ (धनादि) देने में बाधा डालता है।
प्रश्न ३.घातिया कर्म किसे कहते हैं और कितने होते हैं ?
उत्तर—जो आत्मा के ज्ञानादि गुणों का घात करते हैं, वे घातिया कर्म कहलातो हैं।
घातियाकर्म चार होते हैं—१. ज्ञानावरण, २. दर्शनावरण, ३. मोहनीय, ४. अंतराय।
प्रश्न ४. अघातियाकर्म किसे कहते हैं। और कितने होते हैं ?
उत्तर—जो आत्मा के ज्ञानादि गुणों का घात नहीं करते हैं किन्तु संसार में रोके रखते हैं, वे अघातिया कर्म कहलाते हैं। अघातिया कर्म चार हैं— १. वेदनीय, २. आयु, ३. नाम, ४. गोत्र।
प्रश्न ५. ज्ञानावरण—दर्शनावरण कर्म बन्ध के कारण कौन से हैं ?
उत्तर—१. ज्ञानी की निंंदा करना एवं उसके अवगुण निकालना।
२. शिक्षागुरु का नाम छिपाना।
३. ज्ञान के साधनों का दुरुपयोग करना।
४. ज्ञान के प्रचार—प्रसार में बाधा डालना।
५. आजीविका हेतु ज्ञान के उपकरणों का विक्रय करना।
प्रश्न ६. वेदनीय कर्म बन्ध के कारण कौन से हैं ?
उत्तर—१. सभी प्राणियों पर दया भाव रखना। २. व्रतियों की सेवा करना, दान देना। ३. कषायों का उपशम एवं शांत भाव रखना। उपरोक्त कारणों से सातावेदनीय का बंध एवं इससे विपरीत कार्यों से असातावेदनीय का बंध होता है।
प्रश्न ७. मोहनीय कर्मबन्ध के कारण कौन से हैं ?
उत्तर—१. केवली भगवान, श्रुत, संघ, धर्म आदि में झूठे दोष लगाने से दर्शनमोहनीय का बंध होता है।
२. कषायों की तीव्रता से, चारित्र लेने से रोकने में, चारित्र से भ्रष्ट करने से चारित्रमोहनीय कर्म का बंध होता है।
प्रश्न ८. आयुकर्मबन्ध के कारण कौन से हैं ?
उत्तर—१. नरकायु — बहुत आरम्भ—परिग्रह रखने से, विषयासक्ति एवं क्रूर परिणामों से नरकायु का बंध होता है।
२. तिर्यञ्चायु — मायाचार, छलकपट, विश्वासघात करने से तिर्यञ्चायु का बंध होता है।
३. मनुष्यायु — अल्पारम्भ, अल्पपरिग्रह, मृदुस्वभाव, संतोषवृत्ति से मनुष्यायु का बंध होता है।
४. देवायु — संयम, तपश्चरण करने से, कषाय मंद करने से, दान देने से, अकामनिर्जरा एवं बालतप करने से देवायु का बंध होता है।
प्रश्न ९. नामकर्म बन्ध के कारण कौन से हैं ?
उत्तर—मन, वचन, काय की कुटिलता, चित्त की अस्थिरता आदि से अशुभनामकर्म का बन्ध होता है। २. मन, वचन, काय की सरलता, चित्त की स्थिरता आदि से शुभनाम कर्म का बन्ध होता है। प्रश्न १०. गोत्रकर्म बन्ध के कारण कौन से हैं ?
उत्तर—१. परनिंदा, आत्मप्रशंसा, दूसरों के गुणों का ढकना, अरिहंत आदि में भक्ति न होने से अशुभ गोत्र कर्म का बन्ध होता है।
२. अपनी निन्दा, पर प्रशंसा, अपने गुणों को ढकना, दूसरों के दोषों को ढकना, अरहंत आदि में भक्ति करने से शुभ गोत्रकर्म का बन्ध होता है।
प्रश्न ११. अन्तराय कर्म बन्ध के कारण कौन से हैं ?
उत्तर—दानादि कार्यों के बाधा डालने से, शुभ क्रियाओं का निषेध करने से, निर्माल्य द्रव्य का सेवन करने से अन्तराय कर्म का बन्ध होता है।
प्रश्न १२. कर्म की विविध अवस्थाएं कितने प्रकार की होती हैं ?
उत्तर—कर्म की विविध अवस्थाएं दस प्रकार की होती हैं।
१. बंध — कर्म परमाणुओं का आत्मप्रदेशों के साथ मिलना बंध है।
२. उदय — द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के अनुसार कर्मों का फल देना उदय है।
३. सत्त्व — कर्मबंध के बाद और फल देने के पूर्व की स्थिति को सत्त्व कहते हैं।
४. उदीरणा — नियम समय से पहले कर्म का उदय में आ जाना उदीरणा है।
५.उत्कर्षण — पूर्वबद्ध कर्मों की स्थिति और अनुभाग में वृद्धि होना उत्कर्षण है।
६. अपकर्षण — पूर्वबद्ध कर्मों की स्थिति और अनुभाग में हानि होना अपकर्षण है।
७. संक्रमण — जिस किसी प्रकृति का दूसरी सजातीय प्रकृति के रूप में परिणमन हो जाना संक्रमण कहलाता है।
८. उपशम — उदय में आ रहे कर्मों के फल देने की शक्ति को कुछ समय के लिए दबा देना अथवा काल विशेष के लिए उन्हें फल देने में अक्षम बना देना उपशम है।
९.निधत्ति — कर्म की जिस अवस्था में उदीरणा और संक्रमण का सर्वथा अभाव हो उसे निधत्ति कहते हैं।
प्रश्न १—द्रव्य के कितने भेद हैं ?
उत्तर—द्रव्य के छ: भेद हैं—जीव, पुद्गल धर्म, अधर्म, आकाश और काल।
प्रश्न २—चैतन्य स्वरूप तेज कैसा है ? उत्तर—चैतन्य स्वरूप तेज पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश, काल से सर्वथा भिन्न है तथा ज्ञानावरणादि कर्मों से रहित है और बड़े—बड़े देव व इन्द्रादिक सदा उसकी पूजन करते हैं।
प्रश्न ३—चैतन्य आत्मा का अनुभव किसे होता है ? उत्तर—चैतन्य आत्मा का अनुभव अखण्ड ज्ञान के धारक ज्ञानी को ही हो सकता है।
प्रश्न ४—चैतन्य आत्मा को कहाँ प्राप्त किया जा सकता है ? उत्तर—निर्मल चैतन्य आत्मा प्रत्येक प्राणी की देह में विराजमान है तो भी जिन मनुष्यों की आत्मा अज्ञानान्धकार से ढकी हुई है वे इसको नहीं जानते हैं तथा चैतन्य से भिन्न बाह्य पदार्थों में ही चैतन्य के भ्रम से भ्रान्त होते हैं।
प्रश्न ५—वस्तु का स्वरूप कैसा है ? उत्तर—वस्तु का स्वरूप अनेकान्त स्वरूप है।
प्रश्न ६—क्या धर्म को परीक्षा करके ग्रहण करना चाहिए ? उत्तर—संसार संकट में फंसे हुए प्राणियों का उद्धार करने वाला धर्म है किन्तु स्वार्थी दुष्टों ने उसको विपरीत ही कर दिया इसलिए भव्य जीवों को धर्म परीक्षा करके ही ग्रहण करना चाहिए।
प्रश्न ७—कौन सा धर्म प्रमाण करने योग्य है ? उत्तर—समस्त लोकालोक के पदार्थों के जानने वाले तथा वीतरागी मनुष्य का कहा हुआ धर्म ही प्रमाणीक होता है।
प्रश्न ८—लब्धि कितने प्रकार की होती है ? उत्तर—लब्धि ५ प्रकार की होती है—(१) देशना (२) प्रायोग्य (३) विशुद्धि (४) क्षयोपशम तथा (५) करण।
प्रश्न ९—देशना लब्धि किसे कहते हैं ? उत्तर—सत्य उपदेश का नाम देशना है।
प्रश्न १०—प्रायोग्य लब्धि का लक्षण बताओ ? उत्तर—पंचेन्द्रीपना, सैनीपना, गर्भजपना, मनुष्यपना, ऊँचा कुल यह प्रायोग्य नामक लब्धि है।
प्रश्न ११—क्षयोपशम लब्धि क्या है ? उत्तर—सर्वघाती प्रकृतियों का उदयाभावी क्षय तथा देशघाती प्रकृतियों का उपशम क्षयोपशम लब्धि है।
प्रश्न १२—विशुद्धि लब्धि किसे कहते हैं ? उत्तर—परिणामों की विशुद्धता का नाम विशुद्धि लब्धि है।
प्रश्न १३—करण लब्धि किसे कहते हैं ? उत्तर—अध:करण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण यह करणलब्धि है।
प्रश्न १४—वास्तविक सुख कहाँ है ? उत्तर—वास्तविक सुख की प्राप्ति मोक्ष में है।
प्रश्न १५—सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवं सम्यग्चारित्र की परिभाषा बताइए ? उत्तर—आत्मा का निश्चय सम्यग्दर्शन है, आत्मा का ज्ञान सम्यग्ज्ञान है और आत्मा में निश्चय रीति से रहना सम्यक्चारित्र है।
प्रश्न १६—शुद्ध निश्चयनय और व्यवहारनय से आत्मा का स्वरूप क्या है ? उत्तर—शुद्ध निश्चयनय से आत्मा नित्य तथा चैतन्यस्वरूप है और व्यवहारनय से प्रमाण, नय तथा निक्षेप स्वरूप है।
प्रश्न १७—अशुभ कर्मों का बन्ध कैसे होता है ? उत्तर—राग—द्वेष के होने से ही शुभ तथा अशुभ कर्मों का बन्ध होता है।
प्रश्न १८—द्वैत किसे कहते हैं ? उत्तर—कर्म तथा आत्मा के मिलाप का नाम द्वैत है।
प्रश्न १९—जीव संसारी कब तक है और मुक्त कब तक ? उत्तर—जब तक कर्म तथा आत्मा का मिलाप रहेगा तब तक तो संसारी है किन्तु जिस समय कर्म तथा आत्मा का मिलाप छूट जाएगा तब मुक्त हो जाएगा।
प्रश्न २०—संसार और मोक्ष कब तक है ? उत्तर—जब तक कर्मों का सम्बन्ध है तब तक संसार है और जब कर्मों का सम्बन्ध छूट जाता है उस समय मोक्ष है।
प्रश्न २१—आचार्यों ने चैतन्य स्वरूपी तेज को किसकी उपमा दी है ? उत्तर—आचार्यों ने चैतन्यस्वरूपी तेज को प्रबल विद्या, स्फुरायमान तेज और जन्म, जरा आदि को नाश करने वाली परम औषधि कहा है।
प्रश्न २२—परमात्मा का स्वरूप क्या है ? उत्तर—परमात्मा अगम्य तथा दृष्टि के अगोचर है इसलिए जिस प्रकार अमूर्तिक आकाश पर चित्र लिखना कठिन है उसी प्रकार परमात्मा का वर्णन करना भी अत्यन्त कठिन है।
प्रश्न २३—साम्य किसे कहते हैं ? उत्तर—जिसमें न कोई आकार है, न कोई अक्षर है, न कोई नीला आदि वर्ण है, न कोई विकल्प है किन्तु केवल एक चैतन्य ही है वही साम्य है।
प्रश्न २४—साम्य से किसकी प्राप्ति होती है ? उत्तर—साम्य से भव्य जीवों को सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति होती है, अविनाशी सुख मिलता है, साम्य ही शुद्धात्मा का स्वरूप है तथा साम्य ही मोक्षरूपी मकान का द्वार है। समस्त शास्त्रों का सारभूत यह साम्य ही है।
प्रश्न २५—साम्य का दूसरा अर्थ क्या है ? इसे कैसे प्राप्त किया जा सकता है ? उत्तर—साम्य का दूसरा अर्थ समता है जिसकी प्राप्ति शास्त्र के अध्ययन से होती है।
प्रश्न २६—जिसके पास विवेक नहीं है वह मनुष्य कैसा है ? उत्तर—जिसके पास विवेक नहीं है उसका मनुष्यपना, उत्तम कुल में जन्म, धन, ज्ञान और कृतज्ञपना होकर भी निष्फल है।
प्रश्न २७—विवेक किसको कहते हैं ? उत्तर—संसार में चेतन और अचेतन दो प्रकार के तत्त्व हैं, उनमें ग्रहण करने योग्य को ग्रहण करने वाले तथा त्याग करने योग्य को त्याग करने वाले पुरुष का जो विचार है उसी को विवेक कहते हैं।
प्रश्न २८—विवेकी मनुष्य को यह संसार कैसा लगता है ? उत्तर—मूर्ख पुरुषों को इस संसार में कुछ सुख तथा कुछ दुख मालूम पड़ता है किन्तु जो हिताहित के जानने वाले विवेकी हैं उनको तो इस संसार में सब दुख ही दुख निरन्तर मालूम होता है।
प्रश्न २०३—धर्म की परिभाषा क्या है ?
उत्तर—सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र इन तीनों के समुदाय को धर्म कहते हैं।
प्रश्न २०४—यह रत्नत्रयात्मक धर्म कितने प्रकार का है ?
उत्तर—यह रत्नत्रयात्मक धर्म दो प्रकार का है—(१) सर्वदेश धर्म, (२) एकदेश धर्म
प्रश्न २०५—सर्वदेश धर्म का पालन कौन करते हैं और एकदेश धर्म का पालन कौन करते हैं ?
उत्तर—सर्वदेश धर्म का पालन निग्र्रंथ मुनि करते हैं और एकदेश धर्म का पालन गृहस्थ करते हैं।
प्रश्न २०६—मुनिधर्म तो उत्कृष्ट है ही किन्तु श्रावक धर्म किस प्रकार उत्कृष्ट है ?
उत्तर—श्रावकगण बड़े—बड़े जिनमंदिर बनवाते हैं, आहार देकर मुनियों के शरीर की स्थिति करते हैं, सर्वदेश और एकदेशरूप धर्म की प्रवृत्ति करते हैं और दान देते हैं इसलिए इन सब बातों का मूल कारण श्रावक ही है अत: श्रावक धर्म भी अत्यन्त उत्कृष्ट है।
प्रश्न २०७—श्रावक के षट् आवश्यक कत्र्तव्य कौन से हैं ? उत्तर—श्रावक के षट् आवश्यक कत्र्तव्य हैं—(१) देवपूजा, (२) गुरूपास्ति, (३) स्वाध्याय, (४) संयम (५) तप और (६) दान।
प्रश्न २०८—सामायिक का लक्षण बताइये ?
उत्तर—समस्त प्राणियों में साम्यभाव रखना, संयम धारण करने में अच्छी भावना रखना और आर्तध्यान व रौद्रध्यान का त्याग करना इसी का नाम सामायिक व्रत है।
प्रश्न २०९—देवपूजा करने वाले को क्या फल मिलता है ?
उत्तर—जो भव्य जीव जिनेन्द्र भगवान को भक्तिपूर्वक देखते हैं, उनकी पूजा—स्तुति करते हैं वे तीनों लोकों में दर्शनीय, पूजा योग्य तथा स्तुति के योग्य होते हैं अर्थात् सर्व लोक उनको भक्ति से देखता है तथा उनकी पूजा—स्तुति करता है।
प्रश्न २१०—भव्य जीवों को प्रात:काल उठकर क्या करना चाहिए ?
उत्तर—भव्य जीवों को प्रात:काल उठकर जिनेन्द्रदेव एवं गुरू का दर्शन करना चाहिए, भक्तिपूर्वक उनकी वन्दना, स्तुति करनी चाहिए और धर्म का श्रवण भी करना चाहिए।
प्रश्न २११—गुरुओं को नहीं मानने वाले मनुष्य कैसे होते हैं ?
उत्तर—जो मनुष्य परिग्रहरहित तथा ज्ञान, ध्यान, तप में लीन गुरुओं को नहीं मानते हैं, उनकी उपासना, भक्ति आदि नहीं करते हैं उन पुरुषों के अंतरंग में अज्ञानरूपी अंधकार सदा विद्यमान रहता है।
प्रश्न २१२—यथार्थ रीति से वस्तु का स्वरूप कैसे जाना जाता है ?
उत्तर—वस्तु का स्वरूप यथार्थ रीति से शास्त्र से जाना जाता है।
प्रश्न २१३—शास्त्र स्वाध्याय न करने वाले कैसे कहे जाते हैं ?
उत्तर—शास्त्र स्वाध्याय न करने वाले नेत्र सहित होने पर भी अन्धे कहलाते हैं।
प्रश्न २१४—संयम का लक्षण बताओ ?
उत्तर—जीवों की रक्षा करना और मन व इन्द्रियों को वश में रखने का नाम संयम है।
प्रश्न २१५—गृहस्थों के आठ मूलगुण कौन से हैं ?
उत्तर—मद्य, मांस, मधु तथा पाँच उदुम्बर फल इन आठों का सम्यग्दर्शनपूर्वक त्याग करना ही आठ मूलगुण है।
प्रश्न २१६—श्रावक के १२ व्रत कौन से हैं ?
उत्तर—पांच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार प्रकार के शिक्षाव्रत ये श्रावक के १२ व्रत हैं।
प्रश्न २१७—पांच अणुव्रतों के नाम बताइये ?
उत्तर—अहिंसा अणुव्रत, सत्य अणुव्रत, अचौर्य अणुव्रत, ब्रह्मचर्य अणुव्रत तथा परिग्रह परिमाण अणुव्रत।
प्रश्न २१८—तीन गुणव्रत कौन से हैं ?
उत्तर—दिग्व्रत, देशव्रत और अनर्थदण्डव्रत।
प्रश्न २१९—चार शिक्षाव्रत कौन—कौन से हैं ?
उत्तर—देशावकाशिक, सामायिक, प्रोषधोपवास और वैयावृत्य।
प्रश्न २२०—गृहस्थ किस प्रकार तप कर सकते हैं ?
उत्तर—गृहस्थ अष्टमी चतुर्दशी को शक्ति के अनुसार उपवास आदि तप तथा छने हुए जल का पान और रात को भोजन का त्यागकर तप का पालन कर सकते हैं।
प्रश्न २२१—गृहस्थी को किन—किन की विनय करनी चाहिए ?
उत्तर—जिनेन्द्र भगवान के अनुयायी गृहस्थों को उत्कृष्ट स्थान में रहने वाले परमेष्ठियों में तथा सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान व सम्यग्चारित्र को धारण करने वाले महात्माओं की विनय करनी चाहिए।
प्रश्न २२२—विनय से किसकी प्राप्ति होती है ?
उत्तर—विनय से सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यग्चारित्र तथा तप आदि की प्राप्ति होती है।
प्रश्न २२३—विनय को आचार्यों ने किसकी संज्ञा दी है ?
उत्तर—विनय को गणधर आदि महापुरुषों ने मोक्ष का द्वार कहा है।
प्रश्न २२४—दान के बिना गृहस्थ कैसा है ?
उत्तर—दान के बिना गृहस्थों का गृहस्थपना निष्फल ही है।
प्रश्न २२५—दान न देने वाले गृहस्थ के लिए घर कैसा है ?
उत्तर—दान न देने वाले गृहस्थ के लिए घर मनुष्यों के फांसने के लिए जाल है।
प्रश्न २२६—गृहस्थों को कितने दान देने योग्य हैं ?
उत्तर—गृहस्थियों को औषधि, शास्त्र, अभय और आहार ये चारों दान देने योग्य हैं।
प्रश्न २२७—समर्थ होकर भी दान न देने वालों को क्या फल मिलता है ?
उत्तर—समर्थ होकर भी दान न देने वाला मूढ़ पुरुष आगामी जन्म में होने वाले अपने सुख का स्वयं नाश कर लेता है और कदापि मोक्ष की प्राप्ति नहीं कर सकता है।
प्रश्न २२८—साधर्मी जनों से प्रीति न रखने वाले मनुष्य कैसे कहलाते हैं ?
उत्तर—जो मनुष्य साधर्मी सज्जनों में शक्ति के अनुसार प्रीति नहीं करते उन मनुष्यों की आत्मा प्रबल पाप से ढकी हुई है और वे
धर्म से पराङ्मुख हैं।
प्रश्न २२९—अहिंसा की परिभाषा क्या है ?
उत्तर—केवल अन्य प्राणियों को पीड़ा देने से ही पाप की उत्पत्ति नहीं होती अपितु ‘उस जीव को मारूंगा अथवा वह जीव मर जावे तो अच्छा हो’ इस प्रकार हिंसा का संकल्प भी नहीं करना अहिंसा है।
प्रश्न २३०—भावनाएँ कितनी होती हैं, नाम बताइये ?
उत्तर—भावनाएँ १२ होती हैं—(१) अध्रुव अर्थात् अनित्य, (२) अशरण, (३) संसार, (४) एकत्व, (५) अन्यत्व, (६) अशुचित्व, (७) आस्रव, (८) संवर, (९) निर्जरा, (१०) लोक, (११) बोधिदुर्लभ, (१२) धर्म।
प्रश्न २३१—अनित्य भावना का स्वरूप बताइये ?
उत्तर—प्राणियों के समस्त शरीर, धन—धान्यादि पदार्थ विनाशीक हैं इसलिए उनके नष्ट होने पर जीवों को कुछ भी शोक नहीं करना अनित्य भावना है।
प्रश्न २३२—अशरण भावना किसे कहते हैं ?
उत्तर—संसार में आपत्ति के आने पर जीव को कोई इन्द्र, अहमिन्द्र आदि नहीं बचा सकते, मात्र धर्म ही प्राणी का रक्षक है।
प्रश्न २३३—संसार भावना का स्वरूप क्या है?
उत्तर—संसार में जो सुख है वह सुखाभास है और जो दुख है वह सत्य है किन्तु वास्तविक सुख मोक्ष में ही है, यही संसार भावना है।
प्रश्न २३४—एकत्व भावना किसे कहते हैं ?
उत्तर—इस संसार में प्रत्येक जीव अकेला है, उसका न कोई स्वजन है और न ही परिजन है, प्रत्येक प्राणी अपने किए हुए कर्म को अकेला भोगता है।
प्रश्न २३५—अन्यत्व भावना का लक्षण बताइये ?
उत्तर—शरीर और आत्मा की स्थिति दूध और जल में मिली होने के समान होते हुए भी परस्पर में भिन्न है तब तो स्त्री, पुत्रादि भिन्न ही हैं इसलिए स्त्री, पुत्रादि को कदापि अपना नहीं मानना चाहिए।
प्रश्न २३६—अशुचित्व भावना किसे कहते हैं ?
उत्तर—मल, मूत्र, धातु आदि अपवित्र पदार्थों से भरा हुआ यह शरीर इतना अपवित्र है कि उसके सम्बन्ध से दूसरी वस्तु भी अपवित्र हो जाती है इसलिए इसमें कदापि ममत्व नहीं रखना चाहिए अपितु इससे होने वाले जप, तप आदि उत्तम कार्यों से इसे सफल करना चाहिए।
प्रश्न २३७—आस्रव भावना का स्वरूप बताओ ?
उत्तर—जिस प्रकार समुद्र में जहाज में छिद्र हो जाने पर जल भर जाता है और जहाज डूब जाता है उसी प्रकार यह जीव मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग के द्वारा कर्मों को ग्रहण करता है।
प्रश्न २३८—संवर किसे कहते हैं ?
उत्तर—आते हुए कर्मों का रुक जाना संवर है तथा मन, वचन, काय का जो संवरण करना है यही संवर का आचरण है।
प्रश्न २३९—निर्जरा का स्वरूप बताइए ?
उत्तर—पहले संचित किए हुए कर्मों का जो एकदेश रूप से नाश होता है वही निर्जरा है तथा वह निर्जरा संसार, देह आदि से वैराग्य कराने वाले अनशन, अवमौदर्य आदि तप से होती है।
प्रश्न २४०—लोकानुप्रेक्षा का स्वरूप क्या है ?
उत्तर—यह समस्त लोक विनाशीक और अनित्य है तथा नाना प्रकार के दुखों का करने वाला है अत: इससे हटकर मोक्ष की ओर बुद्धि लगाना चाहिए।
प्रश्न २४१—बोधिदुर्लभ भावना का स्वरूप बताओ ?
उत्तर—सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रस्वरूप रत्नत्रय की प्राप्ति का नाम बोधि है, जिसकी प्राप्ति संसार में अत्यन्त कठिन है, उसकी प्राप्ति होने पर प्रबल प्रयत्नपूर्वक उसकी रक्षा करना बोधिदुर्लभ भावना है।
प्रश्न २४२—धर्मानुप्रेक्षा किसे कहते हैं ?
उत्तर—संसार में प्राणियों को ज्ञानानन्द स्वरूप जिनधर्म को प्राप्त कर मोक्षपर्यन्त तक रहने की भावना करना चाहिए, जिनेन्द्रदेव द्वारा कहा हुआ आत्मस्वभाव रत्नत्रय स्वरूप तथा उत्तम क्षमादि स्वरूप यह धर्म है।
प्रश्न २४३—इन बारह भावनाओं के चिन्तवन से क्या फल मिलता है ?’
उत्तर—इन बारह भावनाओं के चिन्तवन से पुण्य का उपार्जन होता है जो स्वर्ग तथा मोक्ष का कारण है।