श्री उत्तम तप धर्म की जय।आज हम उत्तम तप धर्म पर स्वाध्याय करेंगे। कल संयम धर्म के माध्यम से कर्मो का संवर किया था, अब उसकी निर्जरा करने हेतु जो जीव अपने चैतन्यस्वरूप में स्थिरता को बढ़ाता हैं ,और बाह्य में कर्मो की निर्जरा तप के माध्यम से करता हैं। तप को व्याख्या 2 प्रकार से मिलती हैं। स्वरूप प्रतापन इति तप: ,और इच्छा निरोधः तप। यहां अस्ति नास्ति से व्याख्या हैं। जिस जीव को स्वरूप का प्रताप बढ़ता हैं, स्वरूप का संवेदन बढ़ता हैं, स्वरूप की महिमा बढ़ती हैं, स्वरूप में स्थिरता बढ़ती हैं, उस जीव को स्वरूप में इतना आनंद आजाता हैं, इतना सुख मिल जाता हैं कि अब उसको सुख की खोज अटक गई हैं। और इसी लिये पहेले जो सुख के लिये अन्य द्रव्यों में अपने उपयोग को स्थिर कर रहा था ,अब अपने स्वरूप में उपयोग को स्थिर करता हैं। और उस जीव को परद्रव्य,परभाव किसी भी अन्य वस्तु की इच्छा उत्पन्न नहीं होती हैं, उसको वास्तव में तप कहेते हैं।ऐसा तप जो जीव करता हैं उसके 12 प्रकार से तप होता हैं। उसमें 6 तप तो अंतरंग के होते है और 6 तप बहिरंग के कहे हैं।

1-प्रायश्चित,2-विनय,3-वैयावृत्ति,4-व्यूत्सर्ग,5-स्वाध्याय,6-ध्यान और 6 बाह्य तप होते हैं।

1-अनसन तप,2-उनोदर, 3-वृतिपरिसंख्यान,4- रस परित्याग, 5- विविक्त संयासन,6-काय क्लेश

यह तप उत्तोतर क्रमिक विकास के आधर से बताए है।अनसन में मात्र भोजन का त्याग ही अनसन नहीं है, स्वाध्याय , स्वरूप के संवेदन आदि के माध्यम से भोजन की इच्छा का अभाव अनसन हैं, उनोदर भी भूख से कम भोजन करने को कहेते हैं, इसमें भी स्वरूप के संवेदन की इतनी तलावली होती हैं कि भोजन में समय बर्बाद करने का भाव ही न हो तो उपयोग को स्थिर करने हेतु अल्प भोजन करके बाकी की इच्छा का निरोध करते हैं।मुनिराज स्वरूप में ज्यादा से ज्यादा स्थिर रहने हेतु 2 या अधिक से अधिक 3 घर मे भोजन के हेतु जाते हैं, अधिक उपयोग को बर्बाद नहीं करते बाकी की इच्छा का निरोध करते हैं, स्वरूप के रस में बाह्य के भोजन के रस का ख्याल ही नही आता हैं तो जैसा मिले वैसा नीरस भोजन लेते हैं, यानि कि भोजन रस वाला हो या न हो,मुनिराज तो स्वरूप का रस लेते हैं तो उनको भोजन का रस आता ही नहीं तो उनके लिये सर्व भोजन नीरस ही हैं।एकांत स्थान में सुने घर मे मुनिराज ठहरते हैं वहां अन्य किसी की वांछा नहीं करते हैं।मुनिराज एक साइड से ही सोते हैं, अल्प सोते हैं, मौन रहते हैं और कयोसर्ग को धारण करके धूप,ठंडी आदि के विकल्पों से पार ध्यान करते हैं।

उसीप्रकार अंतरंग तपो में प्रायश्चित करते हैं, जो पूर्व में दोष हुये थे उसको वर्तमान में स्वरूप में स्थिर रहकर भविष्य में वैसे दोष न हो उस प्रकार से परिणमन करते हैं, भविष्य में दोषो को लगाने की वांछा का निरोध करते हैं, मात्र प्रायश्चित पाढ़ बोलना वह तप नहीं हैं, विनय भी जैसे अपने उपकारी हो उसको यथायोग्य विनय करते हैं, स्वरूप की विनय के साथ जीव को अन्य गुरुजनों की यथायोग्य विनय होती हैं, कहि भी जुकते नहीं हैं।विनय के भी 5 भेद हैं आप उसका स्वाध्याय जिनवाणी से करना।वैयावृत्ति तप - यांनी ज्ञानी जीव अपने स्वरूप के संवेदन से अपने स्वरूप की वैयावृत्ति करता हैं और उसी काल में जो जीव स्वरूप में सलग्न रहते है उनको उसमे स्थिरता हेतु जैसा बने वैसा हेतु बनने को वैयावृत्ति कहेते हैं।मात्र मुनिराज के पैर दबाना आदि वैयावृत्ति तप नहीं हैं।स्वाध्याय- स्व का अध्यन वह स्वाध्याय हैं,अपने स्वरूप का निरंतर अध्यन करना वह स्वाध्याय हैं और वह अध्यन वीतरागी देव-शास्त्र-गुरु की आज्ञा अनुसार, जिनवाणी के उपदेश अनुसार करना उसको भी स्वाध्याय कहेते हैं। मात्र जिनवाणी पढ़ना,पढ़ाना वह स्वाध्याय नहीं हैं।और व्यूत्सर्ग में कायोत्सर्ग के माध्यम से बाह्य तथा अंतरंग सर्व उपाधि का त्याग करना और सबसे उत्तम तप ध्यान है। स्वरूप का ध्यान करके बाह्य में सर्व पदार्थो से विरक्त हो जाना वह वास्तव में ध्यान तप कहा जाता हैं।

इसप्रकार से जीव स्वरूप में स्थिर रहकर अन्य सर्व इच्छा ओ का अभाव करता हैं।इसप्रकार हम भी सर्व तप के माध्यम से स्वरूप का प्रताप बढ़ाये और बाह्य में इच्छा ओ का अभाव करे ऐसी मंगल भावना।

जय जिनेन्द्र शुभ प्रभात


प्रवचनसार ग्रन्थ की तात्पर्यवृत्ति नामक संस्कृत टीका 79 वीं गाथा में तप की परिभाषा आचार्य जयसेन ने इस प्रकार दी है - *"समस्तरागादिपरभावेच्छात्यागेन स्वस्वरूपे प्रतपनं विजयनं तपः ।*


समस्त रागादि परभावों की इच्छा के त्याग द्वारा स्वस्वरूप में प्रतपन करना - विजयन करना तप है । 'धवला' में इच्छा निरोध को तप कहा है । नास्ति से इच्छाओं का अभाव और अस्ति से आत्मस्वरूप में लीनता ही तप है ।


तप के साथ लगा 'उत्तम' शब्द सम्यग्दर्शन की सत्ता का सूचक है । यदि कोई जीव सम्यक्त्व के बिना करोड़ों वर्षों तक उग्र तप भी करे तो भी वह बोधीलाभ प्राप्त नहीं कर सकता । इसी प्रकार भाव *पण्डित दौलतराम जी* ने भी व्यक्त किया है - 


*कोटि जन्म तप तपैं, ज्ञान बिन कर्म झरैं जे ।*

*ज्ञानी के छिन माँहि, त्रिगुप्ति तैं सहज टरैं ते ।।*


देह और आत्मा का भेद नहीं जानने वाला अज्ञानी मिथ्यादृष्टि यदि घोर तपश्चरण भी करे तब भी मुक्ति को प्राप्त नहीं कर सकता । 


समाधिशतक में *आचार्य पूज्यपाद स्वामी* लिखते हैं - 


*"यो न वेत्ति परं देहादेवमात्मानमव्ययम् ।*

*लभते स न निर्वाणं तप्त्वापि परमं तपः ।।"*


जो अविनाशी आत्मा को शरीर से भिन्न नहीं जानता, वह घोर तपश्चरण करके भ मोक्ष को प्राप्त नहीं करता । उत्तम तप सम्यकचारित्र का भेद है और सम्यकचारित्र सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान के बिना नहीं होता । परमार्थ अर्थात शुद्धात्मतत्वरूपी परम अर्थ की प्राप्ति बिना किया गया समस्त तप बाल तप है । 


*आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी* समयसार में लिखते हैं -


*"परमठ्ठम्हि दु अठिदो जो कुणदि तवं वदं च धारेदि ।*

*तं सव्वं बालतवं बेंति सव्वण्हू ।।"*


परमार्थ में अस्थित अर्थात आत्मानुभूति से रहित जो जीव तप करता है और व्रत धारण करता है, उसके उन सब व्रतों और तप को सर्वज्ञ भगवान बालव्रत और बालतप कहते हैं । 


जिनागम में उत्तमतप की महिमा पद-पद पर गाई है । *भगवती आराधना* में लिखा है - 


*"तं णत्थि जं ण लब्भइ तवसा सम्मं कएण पुरिसस्स ।*

*अग्गीव तणं जलिओ कम्मतणं डहदि य तवग्गी ।।1472।।*


*सम्मं कदस्स अपरिस्सवस्स ण फलं तवस्स बण्णेदुं ।*

*कोई अत्थि समत्थे जस्स वि जिब्भा सयहस्सं ।।1473।।"*


जगत में ऐसा कोई पदार्थ नहीं जो निर्दीष तप से पुरुष को प्राप्त न हो सके अर्थात तप से सर्व उत्तम पदार्थों की प्राप्ति होती है । जिस प्रज्वलित अग्नि तृण को जलाती है ; उसी प्रकार तपरूपी अग्नि कर्मरूप तृण को जलाती है । 


तप दो प्रकार का माना गया है - (1). बहिरंग (2). अंतरंग ।


बहिरंग तप छह प्रकार का है - (1). अनशन (2). अवमौदर्य (3).  वृत्तिपरिसंख्यान (4). रसपरित्याग (5). विविक्तशय्यासन और (6). कालक्लेश ।


अंतरंग तप छह प्रकार का है - (1). प्रायश्चित्त (2). विनय (3). वैयावृत्त्य (4). स्वाध्याय (5). व्युत्सर्ग और (6). ध्यान ।


उक्त समस्त तपों में एक शुद्धोपयोगरूप वीतरागभाव की ही प्रधानता है । इच्छाओं के निरोधरूप शुद्धोपयोगरूपी वीतरागभाव ही सच्चा तप है । प्रत्येक तप में वीतराग भाव की वृद्धि होनी ही चाहिए - तभी वह तप है, अन्यथा नहीं ।

जय जिनेंद्र

             🙏ॐ हीं उत्तमतप धर्मांगाय नमः🙏


🌹इच्छानिरोधस्तपः’ अर्थात इच्छाओं का निरोध/अभाव/नाश करना, तप है। वह तप जब आत्मा के श्रद्धान (सम्यग्दर्शन) सहित/पूर्वक होता है, तब ‘उत्तम तप धर्म’ कहलाता है।


🌹प्रत्येक दशा में तप को महत्त्वपूर्ण माना है। जिस प्रकार, स्वर्ण (सोना) अग्नि में तपाए जाने पर अपने शुद्ध स्वरूप में प्रगट होता है; उसी प्रकार, आत्मा स्वयं को तप-रूपी अग्नि में तपाकर अपने शुद्ध स्वरूप में प्रगट होता है।


🌹मात्र देह की क्रिया का नाम तप नहीं है अपितु आत्मा में उत्तरोत्तर लीनता ही वास्तविक ‘निश्चय तप’ है। ये बाह्य तप तो उसके साथ होने से ‘व्यवहार तप’ नाम पा जाते हैं। 


👉यही पंडित जी प्रस्तुत पंक्तियों में दर्शाते हैं:


उत्तम तप धर्म

(सोरठा)


*तप चाहें सुरराय, करम-शिखर को वज्र है।

*द्वादश विधि सुखदाय, क्यों न करे निज सकति सम।।

(चौपाई)


*उत्तम तप सब-माँहिं बखाना, करम-शैल को वज्र-समाना।

*बस्यो अनादि-निगोद-मँझारा, भू-विकलत्रय-पशु-तन धारा।।

(हरिगीतिका)


*धारा मनुष्-तन महा-दुर्लभ, सुकुल आयु निरोगता।

*श्री जैनवानी तत्त्वज्ञानी, भर्इ विषय-पयोगता।।

*अति महादुरलभ त्याग विषय, कषाय जो तप आदरें।

*नर-भव अनूपम कनक-घर पर, मणिमयी-कलसा धरें।।


👉अर्थात:


🏵️तप की महिमा इतनी है, “कि सुरराज (इंद्र) भी इसको करने के लिए लालायित रहते हैं क्योंकि यह कर्म-रूपी शिखर (पर्वत) को तोड़ने के लिए वज्र के समान है।”


🏵️“यह 12 प्रकार के भेदों वाला है, तो अपनी शक्ति के अनुसार क्यों नहीं किया जा सकता?, अर्थात अवश्य किया जाना चाहिए।”


🏵️[सर्वप्रथम, तप के दो भेद किये, अभ्यन्तर/अंतरंग तप और बाह्य/बहिरंग तप।


🏵️अभ्यन्तर/अंतरंग तप के 6 भेद हैं : प्रायश्चित, विनय, वैय्यावृत्य, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग, ध्यान


🏵️बाह्य/बहिरंग तप के 6 भेद हैं :


🏵️अनशन, अवमौदर्य, वृत्ति-परिसंख्यान, रस-परित्याग, विविक्त-शैय्यासन, काय-क्लेश]


🏵️आगे पंडित जी लिखते हैं, “उत्तम तप का बखान सारे ग्रंथों में किया गया है, क्योंकि यह कर्म-रूपी पत्थर को तोड़ने के लिए वज्र के समान है। अनादि काल से यह जीव (मैं) निगोद में रहा, एकेन्द्रियादि विकलत्रय पर्यायों (1,2,3,4 इन्द्रिय अवस्थाओं) में रहा, पशु पर्याय में बहुत काल तक रहने के बाद अब महादुर्लभ यह मनुष्य पर्याय मिली है।


🏵️आगे पंडित जी इसी में लिखते हैं कि, “इस मनुष्य पर्याय को पाकर तप करना ही योग्य है। अभी सर्व प्रकार से अनुकूलता मिल गयी है- उत्तम कुल, उत्तम आयु तथा निरोग शरीर की प्राप्ति हुई है। और साथ ही जिनवाणी का समागम मिला, तत्त्वज्ञान मिला तथा उसे समझने हेतु उपयोग (ज्ञान/बुद्धि) मिला।”


🏵️“ये सब साधन मिलने के बाद जो जीव विषय-कषाय को त्यागकर, दुर्लभ तप को धारण करते हैं, वे इस सोने के घर के समान मनुष्य-भव पर तप-रूपी मणियों से बने कलश की स्थापना करते हैं।”


🏵️इस प्रकार, उत्तम तप धर्म का स्वरूप पंडित जी ने स्पष्ट करते हुए यह प्रेरणा दी, कि यह जन्म मौज-मस्ती आदि के लिए नहीं, जन्म-जन्म के दुखों से मुक्ति की प्राप्ति की तैयारी करने के लिए मिला है। यदि इसे यूँ ही गँवा दिया, तो फिर से इसकी प्राप्ति कठिन है और फिर अनंत काल के लिए संसार में रुलना पड़ेगा। अतः शीघ्र ही ‘उत्तम तप धर्म’ धारण करने योग्य है।


🏵️साथ ही, यह भी बताया कि मात्र बाह्य तप को धारण करने से धर्म नहीं हो जाता। जब तक अंतरंग तप प्रगट नहीं होते, तब तक बहिरंग तप भी तप नाम नहीं पाते। वे तो फिर ‘बाल तप’ (बच्चों के द्वारा, देखा-देखी में किया जाने वाला तप) नाम पाते हैं। इसलिए, पहले अंतरंग तप प्रगट करने का पुरुषार्थ करो। बाह्य तप करने के पीछे अंतरंग तप की प्रगटता का उद्देश्य बनाओ।


👉कहा भी है,


*कोटि जन्म तप तपै, ज्ञान बिन कर्म झरें जे।


*ज्ञानी के छिन-माँहि, त्रिगुप्ति-तें सहज टरें जे।।


*मुनिव्रत धार अनंत बार, ग्रेवेयक उपजायो।


*पै निज आतम ज्ञान बिना, सुख लेश न पायो।


– श्री छहढाला जी, पंडित दौलतराम जी


(ढाल-4, छंद-4)