श्री अनन्तनाथ जिनपूजा

(कवित्त छन्द, मात्रा 31)

पुष्पोत्तर-तजि नगर अजुध्या, जनम लियो सूर्या उर आय।

सिंहसेन नृप के नन्दन, आनन्द अशेष भरे जग राय।।

गुन अनन्त भगवन्त धरे, भव दंद हरे तुम हे जिनराय।

थापतु हों त्रय बार उचारिकैं, कृपा सिंधु तिष्ठहु इत आय।।

ओं ह्रीं श्रीअनन्तनाथ जिनेन्द्रं! अत्रावतर अवतर संवौषट् आह्नाननम्।

ओं ह्रीं श्रीअनन्तनाथ जिनेन्द्रं! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः स्थापनम्।

ओं ह्रीं श्रीअनन्तनाथ जिनेन्द्रं! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधिकरणम्।

अष्टक

(छन्द गीता तथा हरिगीता, मात्रा 28)

शुचि नीर निरमल गंग को लै, कनक भंृग भराइया।

मल करम धोवन हेत मन वच, काय धार ढराइया।।

जगपूज परम पुनीत मीत, अनन्त सन्त सुहावनो।

शिवकन्त वन्त महन्त ध्यावो, भ्रन्त तन्त नशावनो।।

ओं ह्रीं श्री अनन्तनाथ जिनेन्द्राय जन्म-जरा-मृत्यु विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।

हरिचन्द कदली नंद कुंकुम, दन्द ताप निकन्द है।

सब पापरुज संताप भंजन, आपको लखि चंद है।। जगपूज.

ओं ह्रीं श्री अनन्तनाथ जिनेन्द्राय भवतापविनाशनाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा।

कनशाल दुति उदियाल हीर, हिमाल गुलकनितैं घनी।

तसु पुंज तुम पदतर धरत, पद लहत स्वच्छ सुहावनी।। जगपूज.

ओं ह्रीं श्री अनन्तनाथ जिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा।

पुष्पकर अमरतरु जनित वर, अथवा अवर कर लाइया।

तुम चरण पुष्कर तर धरत, सब समरशूल नशाइया।। जगपूज.

ओं ह्रीं श्री अनन्तनाथजिनेन्द्राय कामबाणविनाशनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।

पकवान नैना घ्राण रसना को प्रमोद सुहाय है।

सो ल्याय चरण चढ़ाय रोग, क्षुधाय नाश कराय है।। जगपूज.

ओं ह्रीं श्री अनन्तनाथ जिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।

तममोह भानन जानि आनन्द, आनि शरण गही अबै।

वर दीप धारौ वार तुम ढिग, स्वपरज्ञान जु द्यो सबै।।जगपूज.

ओं ह्रीं श्री अनन्तनाथ जिनेन्द्राय मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।

यह गंध चूरि दशांग सुन्दर, धूम्र ध्वज में खेय हों।

वसुकर्म भर्म जराय तुम ढिग, निज सुधातम वेय हों।जगपूज.

ओं ह्रीं श्री अनन्तनाथ जिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।

रस थक्व पक्व सुभक्व चक्व, सुहावनें मृदु पावनें।

फल सार वृन्द अमन्द ऐसो, ल्याय पूज रचावनें।। जगपूज.

ओं ह्रीं श्री अनन्तनाथ जिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।

शुचि नीर चन्दन शालि कन्दन, सुमन चरु दीवा धरों।

अरु धूप फल जुत अर्घ करि, कर जोर जुग विनती करों।।

जगपूज परम पुनीत मीत, अनन्त सन्त सुहावनो।

शिवकन्त वन्त महन्त ध्यावो, भ्रन्त तन्त नशावनो।।

ओं ह्रीं श्री अनन्तनाथ जिनेन्द्राय अनघ्र्यपदप्राप्तये अघ्र्य निर्वपामीति स्वाहा।

पंचकल्याणक

(छन्द सुन्दरी तथा दु्रतविलम्बित)

असित कार्तिक एकम भावनों, गरभ को दिन सो गिन पावनों।

किय सची तित चर्चन चावसौं, हम जजैं इत आनन्द भावसौं।।

ओं ह्रीं कार्तिककृष्णाप्रतिनदि गर्भमंगलमंडिताय श्रीअनन्तनाथ-जिनेन्द्राय अघ्र्य निर्वपामीति स्वाहा।

जनम सेठ वदी तिथि द्वादशी, सकल मंगल लोक विषैं लसी।

हरि जजे गिरिराज समाजतैं, हम जजैं इत आतम काजतैं।।

ओं ह्रीं ज्येष्ठकृष्णाद्वादश्यां जन्ममंगलमंडिताय श्रीअनन्तनाथ-जिनेन्द्राय अघ्र्य निर्वपामीति स्वाहा।

भव शरीर विनश्वर भाइयो, असित जेठ दुवादशि गाइयो।

सकल इन्द्र जजे तित आइकै, हम जजैं इत मंगल गाइकैं।।

ओं ह्रीं ज्येष्ठकृष्णाद्वादश्यां निःक्रमणमहोत्सवमडिताय श्री अनन्तनाथ जिनेन्द्राध्य अघ्र्य निर्वपामीति स्वाहा।

असित चैत अमावस को सही, परम केवलज्ञान जग्यो कही।

लहि समोसृत धर्म धुरंधरो, हम समर्चत विघ्न सबै हरो।।

ओं ह्रीं चैत्रकृष्णामावस्यां केवलज्ञानमंगलमंडिताय श्री अनन्तनाथ जिनेन्द्राध्य अघ्र्य निर्वपामीति स्वाहा।

असित चैत तुरी तिथि गाइयो, अघत घाति हते शिव पाइयो।

गिरि समेद जजैं हरि आयकैं, हम जजैं पद प्रीति लगाइकैं।।

ओं ह्रीं चैत्रकृष्णाचतुथ्र्यां मोक्षमंगलमंडिताय श्री अनन्तनाथ जिनेन्द्राध्य अघ्र्य निर्वपामीति स्वाहा।

जाप मंत्र (पुष्प से 9, 27 या 108 बार निम्न दो मंत्रों में से किसी एक मंत्र का जाप करें)

1.        आं ह्रीं सरस्वती, लक्ष्मी, सर्वाण्हयक्ष, सनत्कुमारयक्ष, अष्टप्रातिहार्य, अष्टमंगलद्रव्य, किन्नरयक्ष, अनन्तमतीयक्षी, पंचदशतिथिदेवता, नवग्रहदेवता, पंचक्षेत्रपालादि संचित्ताचित्तमिश्र परिकरसहिताय शतेन्द्र पूजिताय श्रीअनन्तनाथजिनेन्द्राय नमः मम ऋद्धिं वृद्धिं सौख्यं कुरु कुरु स्वाहा।

2.        ओं ह्रीं किन्नरयक्ष, अनन्तमतीयक्षी आदि सचित्त अचित्त मिश्र परिकरसहिताय श्रीअनन्तनाथजिनेन्द्राय नमः मम ऋद्धिं वृद्धिं सौख्यं कुरु कुरु स्वाहा।

जयमाला

(दोहा, विशेषाक्ति अलंकार)

तुम गुन वरनन येम जिम, खं विहाय कर मान।

तथा मेदिनी पदनि करि, कीनों चहत प्रमान।।

जय अनन्त रवि भव्य मन, जलज वृन्द विहसाय।

सुमति कोक तियथोक सुख, वृद्ध कियो जिनराय।।

(छन्द नयमालिनी, चंडी तथा तामरस, मात्रा 16)

जै अनन्त गुनवन्त नमस्ते, शुद्ध ध्येय नित संत नमस्ते।

लोकालोक विलोक नमस्ते चिन्मूरत गुण थोक नमस्ते।।

रत्नत्रय धर धीर नमस्ते, करम शत्रु करि कीर नमस्ते।

च्यार अनन्त महंत नमस्ते, जै जै शिवतिय कन्त नमस्ते।।

पंचाचार विचार नमस्ते, पंच वर्ण मद हार नमस्ते।

पंच परावर्त चूर नमस्ते, पंचम गति सुख पूर नमस्ते।।

पंच लब्धि धरनेश नमस्ते, पंच भाव सिद्धेश नमस्ते।

छहों दरब गुण जान नमस्ते, छहों काल पहिचान नमस्ते।।

छहों काय रखेश नमस्ते, छह सम्यक उपदेश नमस्ते।

सप्त विशन वन वन्हि नमस्ते, जय केवल अपरान्हि नमस्ते।।

सप्त तत्त्व गुन भनन नमस्ते, सप्त शुभ्र गति हनन नमस्ते।

सप्त भंग के ईश नमस्ते, सातों नय कथनीश नमस्ते।।

अष्ट करम मलदल्ल नमस्ते, अष्ट जोग निःशल्ल नमस्ते।

अष्टम धराधिराज नमस्ते, अष्ट गुननि सिरताज नमस्ते।।

जै नव केवल प्राप्त नमस्ते, नव पदार्थ थिति आप्ता नमस्ते।

दशों धरम धरतार नमस्ते, दशौं बन्ध परिहार नमस्ते।।

विघ्न महीधर बिज्जु नमस्ते, जै ऊरघ गति रिज्जु नमस्ते।

तन कनंकं दुति पूर नमस्ते, इक्ष्वाकु वंश सूर नमस्ते।।

धनु पचास तन उच्च नमस्ते, कृपासिन्धु गुन शुच्च नमस्ते।

सेही अंक निशंक नमस्ते, चित चकोर मृग अंक नमस्ते।।

राग दोष मद टार नमस्ते, निज विचार दुख हार नमस्ते।

सुर सुरेशगन वृन्द नमस्ते, ‘वृन्दकरो सुख कन्द नमस्ते।।

घत्ता छन्द

जय जय जिनदेवं, सुरकृत सेवं, नित कृतचित हुल्लास धरं।

आपद उद्धारं, समता गारं, वीतराग विज्ञान भरं।।

ओं ह्रीं श्री अनंतनाथ जिनेन्द्राय पूर्णाघ्र्य निर्वपामीति स्वाहा।

जो मन वच काय लाय, जिन जजै नेह धर,

वा अनुमोदन करै, करावै पढ़ै पाठ वर।

ताके नित नव होय, सुमंगल आनन्द दाई

अनुक्रम तैं निरवान, लहै सामग्री पाई।।

।। इत्याशीर्वादः- शांतये त्रय शांतिधारा - परिपुष्पांजलिं क्षिपेत्।।

किन्नर यक्ष का अर्घ

श्रीअनन्त के शासन रक्षक, किन्नर को आह्नानन है।

आओ तिष्ठो पास हमारे, करते यही निवेदन है।।

स्वीकारो स्वीकारो मेरा अर्घ देव तुम स्वीकारो।

जिनवर के मुझ श्रद्धानी को ले अपने संग में तारो।।

ओं आं क्रौं ह्रीं किन्नर यख देवतेभ्यो जलादि अघ्र्य समपर्यामीति स्वाहा।

अनन्तमती यक्षी का अर्घ

श्रीअनन्त के शासन रक्षक, किन्नर को आह्नानन है।

आओ तिष्ठो पास हमारे, करते यही निवेदन है।।

स्वीकारो स्वीकारो मेरा अर्घ देव तुम स्वीकारो।

जिनवर के मुझ श्रद्धानी को ले अपने संग में तारो।।

ओं आं क्रौं ह्रीं अनन्तमयी देव्यै जलादि अघ्र्य समपर्यामीति स्वाहा।

क्षेत्रपालजी का अर्घ

श्रीअनन्त के क्षेत्रपाल जी सुनो सुनो आह्नानन है।

आओ तिष्ठो पास हमारे, करते यही निवेदन है।।

स्वीकारो स्वीकारो मेरा अर्घ देव तुम स्वीकारो।

जिनवर के मुझ श्रद्धानी को ले अपने संग में तारो।।

ओं आं क्रौं ह्रीं अत्रस्थ अनन्तनाथ जिनस्य क्षेत्रपाल, भूमिपाल आदि सचित्त अचित्त मिश्र देवतेभ्यो जलादि अघ्र्य समपर्यामीति स्वाहा।

।। इति।।