🔸दिगम्बर जैन आर्षोक्त/शास्त्र में कथित परम्परा के अनुसार णमोकारमन्त्र में
पाँच ही पद हैं। णमोकारमन्त्र के महत्त्व को प्रदर्शित करने वाला पाया
अनुष्टुप् छन्द अन्य ग्रन्थों में पाया जाता है। वह पद है-
एसो पंच णमोयारो, सव्वपावप्पणासणो। मंगलाणं च सव्वेसिं,
पढमं होइ मंगलं॥
🔻उक्त पद्य को मन्त्र के साथ जोड़ कर वर्तमान में अनेक जीव णमोकारमन्त्र में
नौ पद मानने लगे हैं। उनका यह मत युक्ति और आगम-इन दोनों अपेक्षाओं से
युक्तियुक्त नहीं ठहरता। पहले व्याकरण की अपेक्षा से विचार कर लेवें।
आचार्यश्री शर्मवर्म जी महाराज ने पद शब्द की व्याख्या करते समय लिखा है-
पूर्वपरयोरर्थोपलब्धौ पदम्। पुरुष आदि शब्द अथवा भू-आदि धातु पूर्व अथवा
प्रकृति कहलाते हैं। विभक्तियों को पर कहते हैं। पूर्व और पर मिल कर जो अर्थ
की उपलब्धि होती है, उसे पद कहते हैं। महर्षि पाणिनी के अनुसार- सुप्तिङन्तं
पदम्। यह पद शब्द का लक्षण है। इसका अर्थ है-शब्दरूप और धातुरूप को पद कहते
हैं। महर्षि के अनुसार पदविधि समर्थ होती है। अर्थात् अपने अर्थ को ध्वनित
करने की सामर्थ्य पद में होती है। सूत्र और मन्त्रों में तिङन्त प्रत्यय
अर्थात् धातुरूप नहीं होते। सुबन्तपद प्रधान बन कर सूत्र और मन्त्रों के अर्थ
को प्रकट करते हैं। 🔹णमोकारमन्त्र में स्थित णमो अव्यय है। मन्त्र में णमो
अव्यय का प्रयोग पाँच बार हुआ है। अरिहंताणं, सिद्धाणं, आइरियाणं, उवज्झायाणं
और साहूणं ये पाँचों शब्द चतुर्थी विभक्ति के बहुवचन हैं। अव्ययपूर्वक विभक्ति
का प्रयोग होने से वे पद कहलाये। 🔻काव्यशास्त्रानुसार अनुष्टुप् छन्द में चार
चरण होते हैं। काव्यशास्त्र में चरण को ही पद कहा जाता है। यह तर्क देकर यदि
कोई नौ पद की सिद्धि करता है तो यह अनुचित ही होगा, क्योंकि णमोकारमन्त्र
आर्या छन्द में लिपिबद्ध है। आर्या छन्द में नौ पद नहीं होते। अनुष्टुप् छन्द
में अंकित किये गये माहात्म्यप्रदर्शक/महात्म्य कओ दिखानेवाला पद्य का अर्थ
करने पर भी यह बात सिद्ध होती है कि वह एक पद है, चार नहीं। एसो पंच णमोयारो
यह पंचनमस्कारमन्त्र सव्वपावप्पणासणो सम्पूर्ण पापों का विनाशक है। मंगलाणं च
सव्वेसिं सभी मंगलों में पढमं होइ मंगलं पहला मंगल है। यहाँ विज्ञ/चतुर पुरुष
स्वयं निर्णय कर सकता है एसो पंच णमोयारो इस चरण में कर्त्ता का उल्लेख है,
किन्तु क्रिया का समुल्लेख नहीं है। सव्वपावप्पणासणो इस चरण में क्रिया का
उल्लेख है, किन्तु कर्त्ता का अभाव है। मंगलाणं च सव्वेसिं इस चरण को
स्वतन्त्र पद मानने पर कोई अर्थ स्पष्ट नहीं हो पाता। पढमं होइ मंगलं इस चरण
में क्रिया है, किन्तु क्रिया का कर्त्ता प्रथम चरण में स्थित होने से चौथा
चरण स्वयं अपने अर्थ को पूर्ण नहीं कर पाता। इस प्रकार व्याकरण की दृष्टि से
नौ पद की सिद्धि नहीं होती। युक्ति की अपेक्षा विचार करने पर भी नौ पद की
युक्तियुक्त सिद्धि नहीं हो सकती। स्वयं माहात्मप्रदर्शक/महात्म्य को
दिखानेवाला पद्य में एसो पंच णमोयारो यह प्रथम चरण सिद्ध कर रहा है कि
पंचपरमेष्ठिवाचक मन्त्र पाँच पदों में ही पूर्ण हो जाता है। मन्त्रपद भिन्न है
और माहात्म्य का वर्णन करनेे वाला पद्य भिन्न है। 🔻आगमप्रमाण भी मन्त्र के
पाँच पदों को ही स्वीकार करता है। रत्नकरण्ड-श्रावकाचार आदि प्राचीन ग्रन्थों
में पञ्चनमस्कारमनास्तनुं त्यजेत्सर्वयत्नेन इत्यादि उपदेशात्मक पद्यों द्वारा
इसे पंच परमेष्ठीवाचक मन्त्र ही माना है। किसी भी दिगम्बरागम में णमोकारमन्त्र
के नौ पद स्वीकार नहीं किये गये। वर्तमान में बहुत से भोले जीव णमोकारमन्त्र
में नौ पद मानने की भूल कर रहे हैं। बहुत से प्रकाशनों में मन्त्र के नौ पद ही
प्रकाशित किये गये हैं। आगमप्रमाण और तर्कप्रमाण, इन दोनों का समीचीन अवलोकन करने के उपरान्त यही सिद्ध होता है कि णमोकारमन्त्र पंचपदीय मन्त्र ही है। अतः सम्यग्दर्शन की विशुद्धि के लिये इसे पंचपदीय ही मानना चाहिये, नौपदीय नहीं।