– दोहा –

सन्मति शासन को नमूं, नमूं शारदा सार।

कुन्दकुन्द आचार्य की, महिमा मन में धार।। १ ।।

इसी शुद्ध आम्नाय में, हुए कई आचार्य।

सदीं बीसवीं के प्रथम, शांतिसागराचार्य ।। २ ।।

ये चारित चक्री मुनि, गुरुओं के गुरु मान्य।

चालीसा इनका कहूं, पढ़ो सुनो धर ध्यान ।। ३ ।।

-चौपाई –

जय श्री गुरुवर शांतिसागर, मुनि मन कमल विकासि दिवाकर ।। १ ।।

इस कलियुग के मुनिपथ दर्शक, नमन करूँ गुरु चरणों में नित ।। २ ।।

शास्त्रों में मुनियों की महिमा, लोग पढ़ा करते थे गरिमा ।। ३ ।।

भूधर द्यानत की कविताएँ , कहती है उन हृदय व्यथाएं ।। ४ ।।

वे तो तरस गए दर्शन को, आगम वर्णित मुनि वंदन को ।। ५ ।।

नग्न दिगंबर चर्या दुर्लभ, थी सौं वर्ष पूर्व धरती पर ।। ६ ।।

तब दक्षिण भारत ने पाया , एक सूर्य सा तेज़ दिखाया ।। ७ ।।

भोज ग्राम का पुण्य खिला था , वहां सुगन्धित पुष्प खिला था ।। ८ ।।

सत्यवती की बगिया महकी , भीमगौंडा की खुशियां झलकी ।। ९ ।।

नाम सातगौंडा रक्खा था , बचपन से ही ज्ञानी वह था ।। १ ०।।

बाल विवाह किया बालक का , तो भी वह ब्रह्मचारीवत था ।। १ १।।

उनके मन वैराग्य समाया, जब श्री गुरु का दर्शन पाया ।। १ २ ।।

श्री देवेंद्रकीर्ति मुनिवर से, उन्नीस सौ चौदह के सन में ।। १३ ।।

क्षुल्लक दीक्षा ली उत्तुर में , श्री शांतिसागर बन चमके ।। १४ ।।

फिर उन्नीस सौ बीस में उनसे , दीक्षा ले मुनिराज बने थे ।। १५ ।।

मूलाचार ग्रन्थ को पढ़कर , मुनिचर्या बतलाई घर -घर ।। १६ ।।

समडोली की जनता ने तब , पदवी दी आचार्य बने तुम ।। १७ ।।

संघ चतुर्विध बना तुम्हारा, जैनधर्म का बजा नगाड़ा ।। १८ ।।

दक्षिण से उत्तर भारत तक , कर विहार फैलाया था यश ।। १ ९।।

अंग्रेजों के शासन में तुम, पहुचें इन्द्रप्रस्थ में ले संघ ।। २० ।।

उनको गुरु का दर्श मिला था , जैन दिगंबर पंथ खुला था ।। २१ ।।

धवल ग्रन्थ उद्धार कराया , नया प्रकाशन था करवाया ।। २२ ।।

पैतींस वर्ष के मुनि जीवन में , साढ़े पच्चीस वर्ष तक तुमने ।। २३ ।।

उपवासों में समय बिताया , परम तपस्वी थी तुम काया ।। २४ ।।

सर्प ने तन पर क्रीड़ा कर ली , विष न चढ़ा पाया विषधर भी ।। २५ ।।

ली उत्कृष्ट समाधि तुमने , कुंथलगिरि पर सन पचपन में ।। २६ ।।

भादों शुक्ला दुतिया तिथि में , करी समाधि प्रभु सन्निधि में ।। २७ ।।

पुनः वीरसागर मुनिवर ने , गुरु आज्ञा अनुसार शिष्य ने ।। २८ ।।

प्रथम पट्ट सूरी पद पाया , कुशल चतुर्विध संघ चलाया ।। २९ ।।

सन उन्नीस सौ सत्तावन में , शिवसागर आचार्य बने थे ।। ३० ।।

इसके बाद तृतीय पट्ट पर, था दिन सन उन्नीस सौ उनहत्तर ।। ३१ ।।

धर्मसिन्धु आचार्य प्रवर बन , किया संघ का शुभ संचालन ।। ३२ ।।

सन उन्नीस सौ सत्तासी में , चौथे सूरी अजित सिंधु ने ।। ३३ ।।

परम्परा क्रम में पद पाया , छत्तीस गुण को था अपनाया ।। ३४ ।।

नब्बे सन में पंचम पदवी , श्री श्रेयांशसिंधु मुनि को दी ।। ३५ ।।

सन उन्नीस सौ बानवे से फिर , बने सूरी अभिन्दनसागर ।। ३६ ।।

संघ चलाते सक्षमता से , शिष्यों के प्रति वत्सलता से ।। ३७ ।।

श्री चारित्र चक्रवर्ती की , परम्परा के छठे पुष्प थे ।। ३८ ।।

बढ़ा रहे निज गुरु की महिमा , दिन – दिन बढ़ती संघ मधुरिमा ।। ३९ ।।

चलता रहे यही क्रम उत्तम , निष्कलंक परमेष्ठी सूरी बन ।। ४० ।।

-दोहा –

नमन शांतिसागर गुरु , नमन ज्ञानमती मात।

उनकी शिष्या चंदना-मति रचित यह पाठ।।

वीर संवत पच्चीस सौ , बाइस शुभ तिथि जान।

श्रावण कृष्णा अष्टमी , पूरण गुरु गुणगान।।

गुरुमणि माला परम्परा , का हो जग में वास।

वीरांगज मुनि तक रहे, यह निर्दोष प्रकाश।।