- "उत्तम मार्दव धर्म"*
दिगंबर जैन धर्म में लोग पर्युषण के दस दिनों में द्वितीय दिन को *"उत्तम मार्दव धर्म"* के रूप में मनाते हैं। पहला दिन था *"उत्तम क्षमा धर्म"*, मनुष्य के जीवन में क्षमा का आगमन क्रोध के आभाव में ही होता है अर्थात पर्युषण के प्रथम दिन क्रोध के त्याग का अभ्यास किया।
दूसरा दिन उत्तम मार्दव धर्म का दिन आया। जिज्ञासा होगी मार्दव क्या है? अभिमान, घमंड आदि के आभाव में मनुष्य के अंदर *"मार्दव गुण"* प्रगट होता है। अर्थात मार्दव का अर्थ है मान रहित होना।
पर्युषण का दूसरा दिन मनुष्य को अपने जीवन से मान, अभिमान तथा घमंड को समाप्त करने की शिक्षा देता है। क्रोध तथा मान आदि के आभाव में ही मनुष्य अनंत शक्ति संपन्न अपनी आत्मा के यथार्थ स्वरूप से परिचित हो सकता है।
जैन जन उत्तम मार्दव धर्म के दिन अर्थात दूसरे दिन जो भावना करते है उसके किसी कवि ने इस तरह व्यक्त किया है-
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१. *मान महा विषरूप,*
*करहि नीच गति जगत में।*
*कोमल सुधा अनूप,*
*सुख पावै प्राणी सदा।।*
*अर्थ -* अभिमान या घमंड भयंकर विष के समान है जिसके कारण मनुष्य को निकृष्ट अवस्था प्राप्त होती है। जबकि विनम्रता अमृत के समान होती है, विनम्र व्यक्ति जीवन में सुखी रहता है।
२. *उत्तम मार्दव गुण मन माना,*
*मान करन को कौन ठिकाना।*
*वस्यो निगोद माँहि तैं आया,*
*दमरी रुकन भाग विकाया।।*
*अर्थ -* अभिमान के आभाव में मनुष्य मार्दव गुण उत्पन्न होता है, यह मनुष्य का बहुत बड़ा गुण है। अभिमानी व्यक्ति को सूक्ष्म जीव, पशु आदि की पर्यायों को धारण कर दुःख भोगना पड़ता है।
३. *रुकन विकाया भाग वशतैं,*
*देव इक-इंद्री भया।*
*उत्तम मुआ चांडाल हूवा,*
*भूप कीड़ों में गया।।*
*अर्थ -* अभिमान के कारण देव अवस्था से भी जीव मरण के उपरांत पेड़-पौधों आदि के शरीर को भी प्राप्त �
*ॐ ह्री उत्तम मार्दव धर्मांगाय नमो नमः*