भगवान पार्श्वनाथ कथा
भगवान पार्श्वनाथ कथा
अ-भगवान पार्श्वनाथ
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भगवान पार्श्वनाथ वर्तमान चौबीस तीर्थंकरों में तेइसवें तीर्थंकर हैं । आत्मसाधना कर पूर्ण वीतरागी भगवान बनने के पूर्व बालक पार्श्वकुमार का जन्म लगभग २८०० वर्ष पूर्व पौष कृष्ण एकादशी के दिन वाराणसी नगर के राजा विश्वसेन व उसकी पत्नी महारानी वामादेवी के घर हुआ था। वे जन्म से ही अन्य तीर्थंकरो के समान सुंदर, प्रतिभाशाली व अतुलबल संपन्न थे । उनका जन्मकल्याणक नगरवासियों के साथ-साथ देवों ने भी अत्यंत , उत्साहपूर्वक मनाया था ।
1 बालक पार्श्वकुमार बचपन से ही वैराग्य संपन्न व धर्मरुचिवंत थे । उनका चित्त जगत से उदास रहता था, तथा वे सदैव आत्महित के संबंध में ही विचार किया करते रहते थे । युवावस्था में एक दिन उन्होंने देखा कि उनके नाना तापसी वेश में अपने चारों ओर लकड़ियां जलाकर पंचाग्नि तप कर रहे हैं। उन जलती लकड़ियों के बीच एक नाग-नागिन का जोड़ा भी जल रहा था । पार्श्वकुमार ने अपने अवधिज्ञान से यह जान लिया तथा अपने नाना को इस खोटे कार्य से मना किया । तापसी वेशधारी नाना ने उनकी बातों पर विश्वास नहीं किया, किंतु लकड़ी फाड़कर देखने पर उसमें से अधजले नाग-नागिन निकले। पार्श्वकुमार ने उन नाग-नागिन को संबोधित किया और वे शांत भाव से मरण को प्राप्त होकर स्वर्ग में देव-देवी हुए, जिनके नाम धरणेन्द्र व पद्मावती थे।
पार्श्वकुमार का चित्त तो इस घटना से वैराग्यवंत हो गया, पर उनके तापसी वेशधारी नाना ने उनके प्रति द्वेषपूर्वक बैर बांध लिया । वास्तव में वह पिछले अनेक भवों से वह (नाना का जीव) पार्श्वकुमार के जीव के साथ बैर
निभाता चला आ रहा था, जिसके फल में उसे नरकों में भी जाना पड़ा था। इस घटना के थोड़े समय बाद जन्मदिवस के उत्सव के दिन जाति स्मरण ज्ञान होने पर पार्श्वकुमार के चित्त में वैराग्य प्रबल हो उठा और उन्होंने जिन दीक्षा धारण कर ली और वे उग्र तपश्चर्या में लीन हो गए।
एक बार वे अहिक्षेत्र के वन में ध्यानस्थ थे, तब उनके नाना का जीव, जो मरकर देव हो गया था, वह वहां से निकला, मुनि पार्श्वनाथ को देखकर उसके पूर्व भव का बैर जागृत हो गया और उसने उनके उपर घोर उपसर्ग करना आरंभ कर दिया। परंतु पार्श्वनाथ मुनि अपनी आत्म साधना से डिगे नहीं । यद्यपि मुनि पार्श्वकुमार तो अपनी आत्मसाधना द्वारा अपने में पूर्ण सुरक्षित थे तथा उपसर्गों से सर्वथा अप्रभावित थे, परंतु उसी समय धरणेन्द्रपद्मावती को उनकी रक्षा का विकल्प आया और उन्होंने यथाशक्य अपने विकल्प की पूर्ति भी की । इन्हीं उपसर्गों के बीच चैत्र कृष्ण चतुर्दशी के दिन मुनि पार्श्वकुमार आत्म-साधना को पूर्ण कर पूर्ण वीतरागी व पूर्णज्ञानी भगवान पार्श्वनाथ बन गये । उसके बाद लगभग सत्तर वर्ष तक सारे भारतवर्ष में उनका विहार होता रहा । उनकी दिव्य देशना के माध्यम से लाखों जीवों ने मुक्तिमार्ग प्राप्त किया। अंत में श्रावण शुक्ल सप्तमी के दिन श्री सम्मेदशिखर से उन्होंने निर्वाण प्राप्त किया अर्थात वे इस दिन अरहन्त भगवान से सिद्ध भगवान बन गये ।
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