12. श्री वासुपूज्य विधान
12. श्री वासुपूज्य विधान
श्री वासुपूज्य विधान
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श्री वासुपूज्य विधान
स्थापना
(दोहा)
जिन चरणों में सारी दुनियाँ, श्रद्धा से नत मस्तक है।
उनके दर्शन पूजन को अब, भक्तों ने दी दस्तक है ।।
इतनी शक्ति कहाँ है हममें, नाथ! आपको बुला सकें ।
करें महोत्सव, भाव भक्ति से, चरण अर्चना रचा सकें ।।
फिर भी विरह वेदना से हम, तड़कें भर-भर के आहें ।
कब आओगे? कब आओगे?, अखियाँ तकती प्रभु राहें ।।
देहालय का मन मंदिर यह, आप बिना तो है शमशान ।
आप पधारो इसमें तो यह, बन जायेगा मोक्ष महान् ॥
(दोहा)
दोष-कोष हम हैं प्रभो, दुनियाँ में मद-होश।
छींटा मारो ज्ञान का, आये हम को होश ।।
ॐ ह्रीं श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्र ! अत्र अवतर अवतर संवौषट् इति आह्वानम्।
ॐ ह्रीं श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्र ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनाम् ।
ॐ ह्रीं श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्र ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधिकरणम् ।
( पुष्पांजलिं.......)
केवल सुख की आशा में हम, जिनको अपना मान रखे।
उनसे दुख ही दुख पाते पर, उन्हें तनिक ना त्याग सके ।।
जन्म मरण तो देते आये, क्या से मिथ्या दल-मल है ।
यदि है तो इनको धोने में तेरा मात्र कृपाजल है ।।
अतंर बाहर शुद्धि को, अर्पित यह जलधर ।
वासुपूज्य प्रभु को अतः, नमोस्तु बारम्बार ||
ॐ ह्रीं श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं..... ।
कितना हमने सहन किया प्रभु, कब तक और सहन करना ।
अब तो ढोया जाए न हमसे, कितना भार वहन करना ।।
अनादिकाल से तपते आये, अब तो तपा नहीं जाता।
राग द्वेष की इस ज्वाला को, अब तो सहा नहीं जाता ।।
चंदन से वंदन करें, हरो राग अंगार।
वासुपूज्य प्रभु को अतः, नमोस्तु बारम्बार ||
ॐ ह्रीं श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय संसारतापविनाशनाय चंदनं....
कहीं मोह के गहरे गड्ढे, कहीं मान का उच्च शिखर ।
कहीं राग माया का दल-दल, कहीं क्रोध का तीव्र जहर ।।
ऐसे में जब राह न सूझे, कहो किसे तब ध्याना है?
शरण आपकी आ पहुँचे तो, और कहाँ अब जाना है?
शरण प्राप्ति को चरण में, अक्षत हैं तैयार |
वासुपूज्य प्रभु को अतः, नमोस्तु बारम्बार ।।
ॐ ह्रीं श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान्..... ।
एक तरफ यह विश्व जहाँ पर, हल्दी मेंहदी में उलझा ।
वहीं आपका ब्रह्म स्वरूपी, चेतन इनसे है सुलझा ||
चढ़ी न हल्दी रँगी न मेंहदी, सचमुच तुम तो हो हीरा ।
अगर आपकी छाँव मिले तो, हम अब्रह्म हरें पीड़ा ||
काम नाश को सौंपते, पुष्पों का उपहार ।
वासुपूज्य प्रभु को अतः, नमोस्तु बारम्बार ||
ॐ ह्रीं श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं.... ।
कभी भोजनालय में जाकर, कभी औषधालय में जा ।
ज्यों-ज्यों दवा कराई त्यों-त्यों, रोग बढ़े ज्यादा ज्यादा ||
आप जिनालय में पहुँचे तो, स्वस्थ्य हुये सिद्धालय में ।
भूख प्यास से अब क्या हो जब, मस्त हुये तेरी जय में ।।
क्षुधा रोग नैवेद्य से, कर पायें परिहार ।
वासुपूज्य प्रभु को अतः, नमोस्तु बारम्बार ||
ॐ ह्रीं श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं..... ।
मोह अँधेरा ऐसा छाया, हम भूले अपने घर को ।
अब अपना अहसास हुआ है, जब से पूजा जिनवर को ।।
ज्ञान सूर्य को दीप दिखाना, यह उपचार नहीं होता ।
पीप जलाये बिन भक्तों का, निज उद्धार नहीं होता ।।
दीप जला आरति करें, नशे मोह अँधकार ।
वासुपूज्य प्रभु को अतः, नमोस्तु बारम्बार ||
ॐ ह्रीं श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय मोहांधकारविनाशनाय दीपं..... ।
दौड़-धूप कितनी की आखिर, अपना घर तो विखर गया ।
दीप-धूप करने वालों का, घर मंदिर-सा निखर गया ||
कर्मों के आँधी तूफाँ में, धूप तपस्या की महके।
तो चेतन गृह में आतम की, सोन चिरैया भी चहके ।।
धूप चढ़े तो कर्म का होता है संहार ।
वासुपूज्य प्रभु को अतः, नमोस्तु बारम्बार ।। ।
ॐ ह्रीं श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूपं..... ।
ज्यों रसदार फलों को कीड़े, नीरस निष्फल कटुक करें ।
वैसे ही परभावों के पल, महामोक्ष को नष्ट करें ।। "
पुण्य फला अरिहंता" से कब, महामोक्ष फल दूर हुआ ।
अतः फलों के गुच्छ चढ़ाने, भक्त वर्ग मजबूर हुआ ||
महा मोक्ष प्राप्ति को, अर्पित फल रसदार ।
वासुपूज्य प्रभु को अतः, नमोस्तु बारम्बार ।।
ॐ ह्रीं श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फलं..... ।
अष्ट-कर्म हों कभी विरोधी, सहयोगी हो सदा-सदा ।।
आत्म द्रव्य सहयोगी करने, भक्तों का सहयोग करो ।
अपने भक्तों को हे स्वामी!, अपने जैसा योग्य करो ।।
तुम को तुम से माँगते, करो अर्घ्य स्वीकार ।
वासुपूज्य प्रभु को अतः, नमोस्तु बारम्बार ।।
ॐ ह्रीं श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्ध्या .....
श्री पंचकल्याणक अर्घ्य
( लय : बाजे कुल्डलपुर में बधाई ... )
हुआचम्पापुर में महोत्यव2 कि स्वर्गों से देव आये2, वासुपूज्य जी ।
माँ ने सोलह सपने देखे2, कि त्रिलोकीनाथ आये2, वासु....
माँ जयावती हर्षायी2, कि गर्भ में पूज्य आये2, वासु....
आषाढ़ कृष्ण छठ आई2, कि सुर नर गीत गाये2 वासु....
कृष्णा छठ आषाढ़ को, महाशुक्र सुर त्याग ।
जयावती के गर्भ में, वसे पूज्य जिनराज ।।
ॐ ह्रीं आषाढ़ कृष्णषष्ठ्यां श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय अर्घ्यं ..... । गर्भमङ्गलमडिताय
बाजे चम्पापुर में बधाई2, कि नगरी में पूज्य जन्मे2, वासु...
. घड़ी जन्मोत्सव की पाई2, कि त्रिलोक में आनंद छाये2, वासु....
अभिषेक हुआ मेरु पर2, कि देव क्षीर जल लाये2, वासु....
फागुन वदि चौदह हाई2, कि शचि सुर नर झूमें2, वासु....
चौदह फाल्गुन कृष्ण को, पूज्योत्यव घड़ि आई ।
राजा श्री वसुपूज्य के, बाजे जन्म बधाई ।।
ॐ ह्रीं फालगुनकृष्णचतुर्दश्यां जन्मतङ्गलमडिताय श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय अर्घ्यं.... ।
फाल्गुन वदि चौदस आई, कि प्रभु हुये वैरागी, वासु....
लौकांतिक देव पधारे 2, कि बने तप सहभोगी, वासु....
फिर पुष्पाभा शिविका से, कि वन मनोहर पहुँचे , वासु....
झट नमः सिद्धेभ्य कहकर, कि केशलौंच किये त्यागी, वासु....'
चौदस फाल्गुन कृष्ण को, तजे मोह जग वस्तु ।
वासुपूज्य मुनि न गये, सादर जिन्हें नमोस्तु ।।
ॐ ह्रीं फालगुनकृष्णचतुर्दश्यां तपो मङ्गलमंडिताय श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय अर्घ्यं..... ।
जब दूज माघ सुदि आई , कि घातिकर्म सब नाशे, वासु...
तब बने केवली स्वामी , कि लगा समवसरण प्यारा , वासु.
. फिर खिरी दिव्यध्वनि मंगल, कि गूंजे जय-जयकारें, वासु...
बही तत्त्वज्ञान की धारा 2, कि धर्म ध्वजा फहराई 2, वासु...
दूजमाघ सुदि को प्रभो, घाति कर्म परिहार ।
वासुपूज्य तीर्थेश को, नमन अनंतों बार ।।
ॐ ह्रीं माघशुक्लद्वितीययायां ज्ञानमङ्गलमडिताय श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय अर्घ्य.....।
भादों सुदि चौदस आई, कि कर्म सारे हर डाले, वासु...
हुई मुक्ति वधू नत नयना', कि वरमाला तुम्हें डाली, वासु...
हुई चंपापुर से मुक्ति, कि पाँचों कल्याण हुये, वासु...
बाजे चंपापुर शहनाई, कि प्रभु को मोक्ष हुआ, वासु....
भाद्र शुक्ल दस लक्षणी, अनंत चौदस साथ ।
चंपापुर से पूज्य प्रभु, मुक्त जिन्हें नत माथ ।।
ॐ ह्रीं भाद्रशुक्लचतुर्दश्यां मोक्षमङ्गलमडिताय श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय अर्घ्यं..... ।
जयमाला
(दोहा)
दर्शन का अतिशय महा, रुचे नहीं संसार ।
अतः कहें जयमाला हम, नत हो बारम्बार ।।
(ज्ञानोदय)
बारहवें प्रभु वासुपूज्य हैं, बारह अंगों के दाता ।
बारह सभासदों के स्वामी, बारह तपो अधिष्ठाता ।
। बारह भावनायें भा करके, बारह विधि के बजा दिये ।
सो बारह चक्री इन्द्रदिक, चरणों में सिर झुका दिये || 1 |
| - जिन चरणों में महापुरुष भी, झुक झुक शीश झुकाते हैं ।
उन चरणों में झुक झुक हम भी, अपना भाग्य जगाते है ||
इन्द्र पुज्य, वसुपूज्य पुत्र हैं, वासुपूज्य तीर्थंकर जो ।
जिनका नाम अकेला हरले, संकट महाभयंकर जो । ॥ 2 ॥ -
एक हुए पद्मोत्तर राजा, करें धर्ममय भू-पालन ।
जिसने जिनवर के दर्शन कर, किया अर्चना और नमन ||
तब प्रभु से उपदेश प्राप्त कर, तत्त्वज्ञान उत्पन्न हुए।
राज्य सौंपा धनमित्र पुत्र को, संयम धार प्रसन्न हुए || 3 ||
तीर्थंकर पद बाँध मरण कर, महाशुक्र में इन्द्र हुए।
भोग स्वर्ग सुख, सपने देकर चम्पापुर में जन्म लिए ।
धर्म हुआ विच्छेद जहाँ पर, देकर वहीं हुआ जन्मोत्सव था ।
नगर शहर घर बजी बधाई, हुआ पूर्ण सुभिक्ष तब था । ॥ 4 ॥
कुमारकाल बिताकर प्रभु ने, नश्वर जग का चिंतन कर |
निज को सजा विधि को दें, तप धारा बेला कर कर ||
देवों ने तप कल्याणक कर, पुण्य कमाया मौके में ।
अगले दिन फिर हुई पारणा, सुन्दर नृप के चौके में ॥5॥
एक वर्ष छद्मस्थ बिताकर, कदम्ब तरुतल में थित हो ।
घाति कर्म हर बने केवली, अतः सभी से पूजित हो ।।
समवसरण में छ्यासठ गणधर, बहत्तर हजार मुनि ध्यानी ।
अनगिन जन से भरे खचाखच, सभासदों के तुम स्वामी ॥ 6 ॥
आर्यक्षेत्र में विहार करके, धर्मवृष्टि कर वापस आ ।
एक हजार वर्ष तक रहकर, चंपापुर में ध्यान लगा ||
रजतमालिका नदी किनारे, मंदरगिरि पर थित होकर ।
साँयकाल में मोक्ष पधारे, बंधन हर वंदित होकर || 7 ||
ये ऐसे तीर्थंकर हैं जो, पहले बाल ब्रह्मचारी ।
राज्य न भोगे, और जिन्हें भी, रुची नहीं दुनियाँदारी ।।
जिनके पाँच हुए कल्याणक, सबके सब चंपापुर में ।
जिनके ध्याता भक्त पहुँचते, देखो शीघ्र मोक्षपुर में । ॥ 8 ॥
जिनके शासन तीर्थकाल में द्विपृष्ठ नामक नारायण ।
तथा अचल बलभद्र हुए थे । थे तारक प्रतिनारायण ||
ऐसे वासुपूज्य प्रभु करते, नित कल्याणस भक्त जन का ।
मंगल ग्रह क्या मोह अमंगल, टले मिले फल पूजन का ॥ ॥ 9 ॥
अतः हमें प्रभु वासुपूज्य को, निज आदर्श बनाना है।
ब्रह्मचर्य की कठिन साधना, प्रभु जैसी अपनाना है ।
। चलकर जिनके महामार्ग पर प्रभु प्रसाद को पाना है ।
रागद्वेष को मंद बनाकर, वीतरागता लाना है ।।10 ॥
मुक्तिवधू अब भायी तो फिर, शादी ब्याह रचाना क्यों?
मुक्तिवधू से मन लाना तो, मन अन्यत्र लगाना क्यों?
मुक्तिवधू से होए सगाई, पिछी कमण्डल धारो तो ।
सिद्धालय में हो वरमाला, वासुपूज्य को ध्यायो तो ॥11॥
(सोरठा)
भैंसा जिनका चिह्न, वासुपूज्य वे नाथ हैं।
प्राए मुक्ति अभिन्न, अतः चरण में माथ हैं ।।
ॐ ह्रीं श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय जयमालापूर्णा अर्घ्य.…...
वासुपूज्य स्वामी करें, विश्वशांति कल्याण।
प्रासुक जल की धार दे, हम पूजत भगवान् ॥
( शांतये शांतिधारा... )
कल्पवृक्ष के पुष्प सम, पुष्पांजलि पद लाय।
भव दुःखों को मेंट दो, वासुपूज्य जिनराय ||
( पुष्पांजलि...)
विधान अर्ध्यावली
( बारह भावना) (विद्योदय)
जग तृष्णा पर्यायें सपने, सभी सत्य हैं ।
हैं ये क्षणिक, नहीं हैं अपने, अतः अनित्य हैं ॥
हम भी त्यागें इन्हें आपने त्यागा जैसे।
वासुपूज्य प्रभु हमें बना लो, अपने जैसे ।।1।
ॐ ह्रीं नित्यसंपत्तिदायक श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय अर्ध्या ..... | ।
कुछ भी करो मरण निश्चित है, कहाँ सुरक्षा ?
अतः शरण के योग्य चरण में, धारो दीक्षा ।
निज को पायें, निज को तुमने, पाया जैसे।
वासुपूज्य प्रभु हमें बना लो, अपने जैसे ।।2।।
ॐ ह्रीं आश्रयदायक श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय अर्घ्यं..... ।
सुख चाहें, दुख जहाँ मिले संसार वही है ।
क्यों फँसते हे! प्राणी जिसमें सार नहीं है ।
भव को छोड़ हम भी तुमने छोड़ा जैसे।
वासुपूज्य प्रभु हमें बना लो, अपने जैसे ।।3।।
ॐ ह्रीं दुःखविनाशकसुखदायक श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय अर्घ्यं..... |
चलो! अकेले, चलो! अकेले, कोई न साथी ।
अतः प्रभु ने घर न वसाया, की नहिं शादी ||
एक बने हम अंदर बाहर, तुम हो जैसे।
वासुपूज्य प्रभु हमें बना लो, अपने जैसे ॥4॥
ॐ ह्रीं एकत्वविरहवेदनानाशक श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय अर्घ्यं..... ।
हम वो है तो दृश्य जगत् से, भिन्न अन्य हैं।
ये न हमारे हम नहिं इनके, सो प्रसन्न हैं ।।
इनसे हों हम मुक्त हुए, हो तुम भी जैसे।
वासुपूज्य प्रभु हमें बना लो, अपने जैसे ॥5॥
ॐ ह्रीं दुःखविनाशकसुखदायक श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय अध्य..... ।
अशुचि देह से शुद्ध विदेही, क्या मिल पाते।
फिर भी तन- श्रंगारों से हम कष्ट बढ़ाते ।।
करें भेदविज्ञान ध्यान भी, तुमरे जैसे ।
वासुपूज्य प्रभु हमें बना लो, अपने जैसे।
वासुपूज्य प्रभु हमें बना लो, अपने जैसे 16 ॥
ॐ ह्रीं देह अशुद्धिभावनाशक श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय अर्घ्यं ..... |
अच्छे बुरे विचार हमारे, भाग्य-विधाता।
तभी मोह से निज का, चित्र न आता ।।
तजें अशुभ सब भाव आपने त्यागे जैसे।
वासुपूज्य प्रभु हमें बना लो, अपने जैसे |॥ 7 ॥
ॐ ह्रीं वैमनस्यभावनाशक श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय अर्घ्यं .... ।
रोको, रोको उनको जो नित, हमें सुलाते ।
जागो चेतन संयम धारो, संत बताते ।।
आस्रव रोके संवर धारें तुमरे जैसे ।
वासुपूज्य प्रभु हमें बना लो, अपने जैसे |॥ 8 ॥
ॐ ह्रीं सदाचारदायक श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय अर्घ्यं.... ।
ज्यों-ज्यों भार हुआ कम त्यों-त्यों पहुँचो ऊपर |
सम्यक् जप-तप झट पहुँचाये अष्टम भूपर
करें निर्जरा का प्रयत्न हम, तुमरे जैसे।
वासुपूज्य प्रभु हमें बना लो, अपने जैसे 19।।
ॐ ह्रीं पुरुषार्थहीनतानाशक श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय अर्घ्यं .... |
हमें लोक में परवश निजवश फिरना होगा ।
पर निज लोक वसे तो फिरना, फिर ना होगा ।।
लोकशिखर को हम पायें तुम, पाये जैसे।
वासुपूज्य प्रभु हमें बना लो, अपने जैसे ।।10।
ॐ ह्रीं व्यर्थभ्रमणनाशक श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय अर्घ्यं .... |
निःसंतान सुलभ आत्मा कब, माँ बन जाये ।
रत्नत्रय संतान कठिन की, झट मिल जाये ||
हम अर्हत सिद्ध बन जायें, तुमरे जैसे।
वासुपूज्य प्रभु हमें बना लो, अपने जैसे ॥11॥
ॐ ह्रीं दुर्लभवस्तुदायक श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय अर्घ्यं..... ।
धर्म “अहिंसा परमो धर्मः", निज का दाता ।
मालामाल करे ना तो
फिर कैसा नाता? निज स्वभाव में लीन रहें हम, तुमरे जैसे।
वासुपूज्य प्रभु हमें बना लो, अपने जैसे ॥2॥
ॐ ह्रीं नश्वरसाथीदायक श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय अर्घ्यं..... |
(बारह तप वर्णन )
खान-पान से खान-दान भी, बिगड़े सुधरे ।
अतः करो उपवास जभी प्रभु, मूरत उभरे ||
अनशन करें रमें निज में हम, प्रभु के जैसे
वासुपूज्य प्रभु हमें बना लो, अपने जैसे ।।13।।
ॐ ह्रीं निज-निवासदायक श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय अर्घ्यं .... | ।
इच्छा से कम खाना-पीना, ऊनोदर है ।
हम अपने में स्वयं पूर्ण यह, ध्यान किधर है ||
ऊनोदर से इच्छा त्यागें, प्रभु के जैसे ।
वासुपूज्य प्रभु हमें बना लो, अपने जैसे ॥14॥
ॐ ह्रीं निज इच्छापूरक श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय अर्घ्यं .... |
तरह-तरह के कठिन नियम ले, चर्या करना ।
पुण्य परीक्षा हरे समस्या, दे निज-झरना ।।
वृत्तिपरिसंख्यान करें हम, प्रभु के जैसे
वासुपूज्य प्रभु हमें बना लो, अपने जैसे ।।15।
ॐ ह्रीं भिक्षावृत्तिदोषनाशक श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय अर्घ्यं..... |
षट्रस तजकर नीरज लेकर, पेट भरो तो ।
निज से निज का निजरस लेकर, श्रेष्ठ बनो तो । ।
रस परित्याग करें हम स्वामी, तुमरे जैसे।
वासुपूज्य प्रभु हमें बना लो, अपने जैसे ।।16।।
ॐ ह्रीं रसविकारनाशक श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय अर्घ्यं ..... |
एकांत वासा झगड़ा ना झाँसा, हरे समस्या |
अतः गुफा एकांत वास में, करो तपस्या ।।
विविक्त शैय्यासन अब करना, प्रभु के जैसे
वासुपूज्य प्रभु हमें बना लो, अपने जैसे ।।17॥
ॐ ह्रीं निद्रा आसनविकारनाशक श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय अर्घ्यं ..... |
तरह-तरह के तप कर अपनी देह सुखया ।
काय क्लेश से जैन भेष से, निज सुख पाना ।।
धरें सदा हम कायक्लेश तप, तुमरे जैसे।
वासुपूज्य प्रभु हमें बना लो, अपने जैसे ॥18॥
ॐ ह्रीं निद्रा आसनविकारनाशक श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय अर्घ्यं ..... |
प्रमाद सा अज्ञान दशा से, दोष लगें जो ।
तप आदिक से शुद्ध बनाकर, पूर्ण भगें वो ॥
प्रायश्चित हमें भी करना, प्रभु के जैसे •
वासुपूज्य प्रभु हमें बना लो, अपने जैसे ॥19॥
ॐ ह्रीं दोष शुद्धिदायक श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय अर्घ्यं ..... ।
पूज्य जनों का आदर करना, विनय कहाता ।
विषय मोक्ष का महाद्वार हर, कार्य बनाता ।।
विनयशील हमको भी बनना, प्रभु के जैसे ।
वासुपूज्य प्रभु हमें बना लो, अपने जैसे ।।20।
ॐ ह्रीं मानसम्मानवर्धक श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय अर्घ्यं..... |
तन मन धन से संत जनों की सेवा करना ।
सेवा से ही आत्म गुणों का, झरता झरना ।।
वैयावृत्य हमें भी करना, प्रभु के जैसे।
वासुपूज्य प्रभु हमें बना लो, अपने जैसे ॥21॥
ॐ ह्रीं परस्परसेवकभावदायक श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय अर्घ्यं ..... |
आलस तज कर ज्ञान भावना, में रत रहना ।
ज्ञान भावना करने आलस, कभी न करना ।।
ऐसा हो स्वाध्याय हमें भी, प्रभु के जैसे ।
वासुपूज्य प्रभु हमें बना लो, अपने जैसे ॥22॥
ॐ ह्रीं आलस्य अज्ञाननाशक श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय अर्घ्यं ..... ।
अहंकार ममकार त्याग कर, परिग्रह तजना ।
बाहर अंदर तन-मूर्च्छा तज, ज्ञानी बनना ।।
हमें यही व्युत्सर्ग प्राप्त हो, प्रभु के जैसे।
वासुपूज्य प्रभु हमें बना लो, अपने जैसे ॥23॥
ॐ ह्रीं परिग्रहदोषनाशक श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय अघ्र्यं..... ।
मन की चंचलता को तज कर, ध्यान लगाना ।
चिंतन मंथन से आगम का, मक्खन खाना ।।
ज्ञानी ध्यानी हमको बनना, प्रभु के जैसे।
वासुपूज्य प्रभु हमें बना लो, अपने जैसे ।।24।।
ॐ ह्रीं ध्यानदोषनायाक श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय अर्घ्यं.... ।
( रोहणी अर्घ्य )
दुर्गन्ध जब बनी रोहणी, किया रोहणी ।
वणिक बना अशोक राजा जब, किया रोहणी ।।
वह राजा प्रभु वासुपूज्य के, समवसरण में ।
संन्यासी बन जा पहुँचा वह, मोक्षशरण में ।।
बनी रोहणी रानी आर्या, स्वर्ग सिधारी ।
स्वर्ग त्याग जल्दी पायेगी, मोक्ष सवारी ।।
सम्यग्दर्शन सहित रोहणी, हो प्रभु जैसे।
वासुपूज्य प्रभु हमें बना लो, अपने जैसे ।।25॥
ॐ ह्रीं देहदुर्गन्धिनाशक श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय .अर्घ्यं... ।
( मुक्तावली अर्घ्य )
मुक्तावली व्रतकर दुर्गंधा, स्वर्ग भोगकर ।
तथा पद्मरथ पुत्र बनी फिर, प्रभु का गणधर ॥
गणधर जैसे हमें मोक्ष हो प्रभु के जैसे
वासुपूज्य प्रभु हमें बना लो, अपने जैसे ।।26॥
ॐ ह्रीं आत्मसुगन्धिदायक श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय अर्घ्यं ..... ।
पूर्णार्घ्य
कभी द्रव्य से कभी भाव से, कभी न दोनों ।
कभी बाह्य से कभी आंतरिक, कभी न दोनों ।।
ऐसेकितनी बार अर्ध्य हम, चढ़ चुके हैं।
किन्तु लक्ष्य तो हुआ न हासिल, अतः थके है ।।
भव-भव की ये थकान स्वामी, कब मिट जायें।
अतः द्रव्य ले भाव बना कर, अर्घ चढ़ायें ।।
ज्ञाता दृष्टा रह जायें बस, प्रभु के जैसे।
वासुपूज्य प्रभु हमें बना लो, अपने जैसे ॥
विनय भक्ति से आज, वासुपूज्य प्रभु को नमन ।
पायें निज साम्राज्य, मोक्ष महल में हो भ्रमण ।।
ॐ ह्रीं वैराग्यतपवर्धक श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय पूर्णा .... |
जाप्यमंत्र: ह्रीं अरिहंताणं श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय नमो नमः
। समुच्च जयमाला।
भाव सहित गुणगान को, मन भौंरा बेचैन ।
वासुपूज्य प्रभु को अतः, वंदन दे सुख चैन ।।
(ज्ञानोदय)
जय हो! जय हो ! वासुपूज्य जी, जय हो ! पहले बालयति ।
श्रद्धा सुमन चढ़ायें हम सब, आप पूज्य हो जगत्पति ।।
नाथ! आपके गुण गाने को, आज भक्त हम उद्यत हैं ।
देखविशाल महायश वैभव, हाथ जोड़ हम तो नत है ।। 1 ।।
गुण-गण तो क्या? हम कह सकते, अतः शरण की आशा है।
भक्त और भगवन् की जोड़ी, अजब-गजब परिभाषा है।
तुम ज्ञानी हो हम अज्ञानी, आप मृदुल हम मानी हैं।
आप रहे हो ठोस ज्ञानधन, हम तो बहते पानी हैं । ॥ 2 ॥
तुम पालक हो हमबालक हैं, तुम योगी हो हम भोगी ।
तुम दाता हम रहे भिखारी, आप स्वस्थ हम हैं रोगी ।।
तुम शंकर हो हम कंकर हैं। तुम धर्मी हो हम पापी ।
आप पूज्य हो पतित रहे हम, तुम दयालु हम अभिशापी ।।3।।
हम तो अणु तुम विराट हो प्रभु, तुम सिंह हम हैं बिंदु ।
तुम सूरज हो, हम तो रज हैं, हम जुगनू तुम हो इंदु ||
तुम अनंत हम शुन्य रहे हैं, आप शिखर हम तो धूलि ।
महा-महा तुम और कहाँ हम, तुम सक्षम हम मामूली ॥4॥
तुम सुखिया हो, हम दुखिया हैं, आप निराकुल हम आकुल ।
क्षमाशील तुम हम क्रोधी हैं, आप तृप्त हैं हम व्याकुल ।।
ज्ञान ज्योति तुम हम अँधयारे, हम कुरूप तुम सुंदर हो ।
हम हैं रागी तुम वैरागी, पूर्ण दिगम्बर मंदिर हो । ॥ 5 ॥
फिर कैसे हो मिलन हमारा, सत्पथ कब दिखलाओगे ।
आप फूल हो हम शूलों को कैसे गले लगाओगे ।।
कुछ-कुछ हमको करना होगा, कुछ कुछ आप करो स्वामी ।
पूज्य बनें हम सुखी रहें हम, सिद्ध बनें हम आगामी ॥6॥
लेकिन हमको पिछली यादें, तजती होंगी सब बातें ।
वर्तमान यदि सुधर गया तो, सुप्रभातमय हों रातें ।।
तभी मोह मद राग द्वेष को, मंद-मंदतम करना हैं ।
भावनाएँ बारह भाकर के, बारह तप उर धरना है ॥ 7 ॥
हर प्रयास हो सफल हमारा कृपा आप की पाकर के।
कथा रोहणी मुक्तावली सम, सिद्ध करें गुण गाकर के।।
ब्रह्मानंद स्वरूपी हम हों, वासुपूज्य की हर पूजा ।
अद्वितीय बनने को 'सुव्रत', पूज्य शरण में झट तू जा ।।8।।
(सोरठा)
वासुपूज्य जिनदेव, तुम्हें सदा जो पूजते ।
मुक्त हुए स्वयमेव महल में पहुँचते ।।
अतः बनाकर भाव, की पूजा नत शीश हो ।
पायें ब्रह्मस्वभाव, बस ऐसा आशीष हो ॥
ॐ ह्रीं श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय समुच्चयजयमालापूर्णायं..... ।
वासुपूज्य स्वामी करें, विश्वशांति कल्याण |
प्रासुक जल की धार दे, हम पूजत भगवान् ।।
(शांतये शांतिधारा....)
कल्पवृक्ष के पुष्प सम, पुष्पांजलि पद लाय |
भव दुःखों को मेंट दो, वासुपूज्य जिनराय ||
( पुष्पांजलिं.... )
।। इति श्री वासुपूज्यविधान सम्पूर्णम् ||
प्रशस्ति
सिद्धक्षेत्र अतिशय जहाँ, मूल पार्श्व भगवान् ।
पूर्ण 'पवाजी' में हुआ, वासुपूज्य विधान ।।
दो हजार तेरह दिसम्बर बुध दो कम बीस । '
विद्या' के 'सुव्रत' रचे, गुरु प्रभु को नत शीश ।।
॥ इति शुभम् भूयात् ॥