*।। रत्नकरंडश्रावकाचार।।*
*।। सातवां परिच्छेद ।।*
अब श्रावक धर्म के ग्यारह पद हैं, जिसकी जैसी सामर्थ्य हो वैसा ही पद ग्रहण करो। ऐसा कहते हैं:-
*१३६. ग्यारह प्रतिमा*
*श्रावकपदानि देवै-रेकादश देशितानि येषु खलु।*
*स्वगुणा: पूर्वगुणै: सह, सन्तिष्ठन्ते क्रमविवृद्धा:।।१३६।।*
श्रावक के दर्जे निश्चय से प्रभु ने ग्यारह बतलाये हैं।
दर्शन, व्रत सामायिक प्रोषध और सचित्त त्याग कहाये हैं।।
है रात्रि भोजन विरति छठां ब्रह्मचर्यारंभ त्यागव्रत है।
परिग्रह अनुमति उद् दिष्ट त्याग इस क्रम से गुण वृद्धिगंत है।।
सर्वज्ञदेव ने श्रावक के ग्यारह पद कहे हैं। उनको प्रातिमा भी कहते हैं। जो इन पर चढ़ते हैं अर्थात् ग्रहण करते हैं वे भव्य उपासक कहलाते हैं। अपनी—अपनी प्रतिमाओं में नीचे—नाीचे की प्रतिमा का गुण होना जरूरी है। ये क्रम से बढ़ते रहते हैं।।१३६।।
अब प्रथम दर्शन पद के धारक का लक्षण कहते हैं :-
*१३७. दर्शन प्रतिमा*
*सम्यग्दर्शनशुद्ध:, संसारशरीर-भोगनिर्विण्ण:।*
*पञ्चगुरुचरणशरणो, दार्शनिकस्तत्त्वपथगृह्य:।।१३७।।*
पच्चीस दोष से रहित शुद्ध सम्यग्दर्शन से जो युत है।
संसार भोगतनु से विरक्त हो पंचपरमगुरु सेवक है।।
अरू अष्टमूलगुण का धारक वह दर्शनप्रतिमाधारी है।
दर्शनपूजन बिन ग्रहण नहीं करता भोजन व पानी है।।
निर्दोष शुद्ध सम्यग्दर्शन को धारण करने वाला दर्शन प्रतिमाधारी है। वह संसार शरीर और भोगों से विरक्त रहता है, पंचपरमेष्ठी के चरणों की शरण ग्रहण करता है और अष्ट मूलगुण का धारण करता हुआ मोक्षमार्ग में चरण रखता है।।१३७।।
अब दूसरे व्रत पद का लक्षण कहते हैं:-
१३८. व्रत प्रतिमा
निरतिक्रमणमणुव्रत-पञ्चकमपि शीलसप्तकं चापि।
धारयते नि:शल्यो, योऽसौ व्रतिनों मतो व्रतिक:।।१३८।।
जो मायामिथ्या अरू निदान तीनों शल्यों से विरहित है।
अतिचार रहित पांचों अणुव्रत अरु सप्त शीलव्रत से युत है।।
व्रतियों की गणना में वह भी व्रतप्रतिमाधारी कहलाता।
अरू भावी सिद्धों की गणना में अपना नाम लिखा आता।।
जो अतिचार रहित पांच अणुव्रतों के धारक हैं, तीन गुणव्रत, चार शिक्षाव्रत इन सात शीलों का पालन करते हैं, माया, मिथ्या, निदान इन तीनों शल्यों से रहित हैं वे व्रतिक जनों से मान्य व्रत प्रतिमाधारी होते हैं।।१३८।।
अब तीसरे सामायिक पद का लक्षण कहते हैं:-
*१३९. सामायिक प्रतिमा*
*चतुरावर्तत्रितय-श्चतु:प्रणाम: स्थितो यथाजात:।*
*सामयिको द्विनिषद्य -स्त्रियोग शुद्धस्त्रिसन्ध्यमभिवन्दी।।१३९।।*
जो चतुर्दिशा में त्रयावर्त करके चउदिश में नमन करे।
अरू यथाजात मुनि के समान स्थित होकर वंदना करे।।
त्रययोग शुद्धकर तीन समय जो विधिवत सामायिक करते।
खड्गासन पदमासन धारें तिसरी प्रतिमाधारी होते।।
जो तीनों संध्या कालों में सामायिक में देववंदना करता है, मन, वचन, काय की शुद्धिपूर्वक जातरूप को धारण करके बारह आवर्त, चार प्रणाम और दो बार निषद्या विधि करके विधिवत् सामायिक करता है वह सामायिक प्रतिमाधारी होता है।।१३९।।
अब चोथे प्रोषध पद का लक्षण कहते हैं:-
*१४०. प्रोषध प्रतिमा*
*पर्वदिनेषु चतुर्ष्वपि, मासे मासे स्वशक्तिमनिगुह्य।*
*प्रोषधनियमविधायी, प्रणधिपर: प्रोषधानशन:।।१४०।।*
जो हर महिने दो चतुदर्शी दो अष्टमि चारों पर्वो में।
निज शक्ती नहीं छिपा करके जो लीन रहे शुभकर्मो में।।
विधिवत् प्रोषध उपवास करे वह प्रोषध प्रतिमाधारी है।
व्रत को धरने से परभव में उसको मिलता सुखभारी है।।
प्रत्येक महिने की दोनों अष्टमी और दोनों चतुर्दशी इन चारों ही पर्व में अपनी शक्ति को नहीं छिपाकर उपवास या एकाशन करना धर्म ध्यान में रत होते हुए विधिवत् प्रोषधोपवास करने वाले के यह चतुर्थ प्रोषधोपवास प्रतिमा होती है।।१४०।।
अब सचित्त त्याग नामक पंचमपद का लक्षण कहते हैं:-
*१४१. सचित्त त्याग प्रतिमा:-*
*मूलफलशाकशाखा - करीरकन्दप्रसूनबीजानि।*
*नामानि योऽत्ति सोऽयं, सचित्तविरतो दयामूर्ति:।।१४१।।*
जो दयामूर्ति कच्चे अपक्व फल का नहिं भक्षण करते हैं।
अरूमूल शाक फल कोपल का भी वे स्पर्श न करते हैं।।
जो जमीकन्द अरू बीजपुष्प आदिक अभक्ष को तजते हैं।
वह सचित्त त्याग प्रतिमाधारी जल भी ठण्डा नहिं पीते है।।
फल, मूल, पत्ते, कोंपल, शाक, कटीर, कंद, पुष्प और बीज ये, सचित्त हैं और भी अनेक प्रकार की हरित वनस्पति हैं। इनको प्रासुक करके जो खाता है, सचित्त नहीं खाता है, वह दयामूर्ति सचित्त त्यागी प्रतिमाधारी कहलाता है।।१४१।।
अब रात्रिभुक्ति विरत नामक छठे पद का लक्षण कहते हैं:-
*१४२. रात्रि भुक्ति त्याग प्रतिमा*
*अन्नं पान खाद्यं, लेह्यं नाश्नाति यो विभावर्याम्।*
*स च रात्रिभुक्तिविरत: सत्त्वेष्वनुकम्पमानमना:।।१४२।।*
जों मनुज रात्रि में अन्नपान अरू खाद्यलेह्य का त्याग करें।
जीवों पर दयाभाव रखकर वह रात्रिभुक्ति से विरत रहे।।
अरू किन्हीं—किन्हीं आचार्यों ने इस षष्ठम प्रतिमाधारी को।
है कहा दिवामैथुनत्यागी नहिं पूर्ण विरक्ती हो इसको।।
जो अन्न, खाद्य, लेह्य, पेय इन चार प्रकार के आहार को रात्रि में कभी नहीं करता है वह सभी प्राणियों में दया करने वाला श्रावक गृहस्थ आश्रम में रहकर भी धर्म का उपासक माना जाता है।
अब बह्मचर्य नामक सप्तम पद का लक्षण कहते हैं:-
*१४३. ब्रह्मचर्य प्रतिमा*
*मलबीजं मलयोनिं, गलन्मलं पूतगन्धि बीभत्सं।*
*पश्यन्नङ्गमनङ्गाद्-विरमति यो ब्रह्मचारी स:।।१४३।।*
जो निज शरीर को रजोवीर्य रूपीमल बीज समझता है।
मलयोनि रूप इस काया के नवद्वारों से मल बहता है।।
दुर्गन्धि ग्लानि ने युक्त काय को देख कामसेवन से जो।
है पूर्णरूप से विरत रहे सप्तम प्रतिमा का धारी वों।।
यह शरीर मल बीज है अर्थात् रज और वीर्य से बना हुआ है। मलयोनि है अर्थात् मल को उत्पन्न करने वाला है। हमेशा इससे दुर्गंधित मल झरता रहता है। यह देखने में वीभत्स—ग्लानियुक्त हैं। ऐसे शरीर को देखकर जो सम्पूर्ण स्त्रियों से विरक्त होकर अपने आत्मगुणों में अनुरक्त रहते हैं वे ब्रह्मचर्य प्रतिमाधारी होते हैं।।१४३।।
अब परिणाम बढ़ने पर आठवें आरंभ त्याग पद का लक्षण कहते हैं:-
*१४४. आरम्भ त्याग प्रतिमा*
*सेवाकृषिवाणिज्य-प्रमुखादारम्भतो व्युपारमति।* *प्राणातिपातहेतो-र्योऽसावारम्भ-विनिवृत्त:।।१४४।।*
प्राणी हिंसा के हेतु भूत सेवाकृषि आदी कामों का।
वह प्रतिमाधारी त्याग करे व्यापार आदि आरंभों का।।
आरंभत्याग प्रतिमा नामक अष्टमप्रतिमा का धारी है।
अभिषेक दान पूजा आदिक शुभ कार्यों का वह रागी है।।
सेवा, नौकरी, खेती और व्यापार आदि सभी गृहस्थी के आरम्भ प्राणीहिंसा के निमित्त हैं। जो इन गृह—कार्यों से दूर हट जाते हैं वे आरम्भ त्यागी प्रतिमाधारी पापास्रव से बच जाते हैं। तथा जिन पूजा, यात्रा दान आदि सत्कार्यों को करते भी हैं।।१४४।।
अब नवमें परिग्रहत्याग नामक पद का लक्षण कहते हैं:-
*१४५. परिग्रह त्याग प्रतिमा*
*बाह्मेषु दशसु वस्तुषु, ममत्वमुत्सृज्य निर्ममत्वरत:।*
*स्वस्थ: सन्तोषपर:, परिचितपरिग्रहाद्विरत:।।१४५।।*
जो दशविध बाह्य परिग्रह से सर्वस्व मोह को तजता है।
निर्मोही हो माया विरहित उसकी कांक्षा नहिं करता है।।
वह परिग्रह से विरक्त होने से नौंवी प्रतिमाधारी है।
आवश्यक वस्तु रखे लेकिन पर से रहता वैरागी है।।
धन धान्य आदि इस प्रकार के बाह्य परिग्रह होते हैं। इनसे ममत्व को छोड़कर जो निर्ममत्व होकर कुछ वस्त्र आदि मात्र परिग्रह रखते हैं वे स्वस्थ और संतोषी हुए परिग्रहत्यागी प्रतिमाधारी कहलाते हैं।।१४५।।
अब दशवां अनुमतित्याग नामक पद का लक्षण कहते हैं-
*१४६. अनुमति त्याग प्रतिमा*
*अनुमतिरारम्भे वा, परिग्रहे वैहिकेषु कर्मसु वा।*
*नास्ति खलु यस्य समधी-रनुमतिविरत: स मन्तव्य:।।१४६।।*
दसवीं अनुमती त्याग प्रतिमा का सूक्ष्म विवेचन करते हैं।
जो विवाहादि लौकिक कार्यों में निज अनुमति नहिं देते हैं।।
आरम्भ परिग्रह संबंधी कार्यों में भी नहिं रूचि लेते।
वह रागद्वेष से रहित व्यक्ति दसवीं प्रतिमाधारी होते।।
जो गृह आरम्भ आदि कार्यों में, परिग्रह में, विवाह आदि ऐहिक कार्यों में, और धनसंचय व्यापारादि कार्यों में अनुमति नहीं देते हैं, माध्यस्थ भाव धारण करते हैं वे अनुमति त्यागी प्रतिमाधारी निज में ही रमते रहते हैं।।१४६।।
अब ग्यारहवें उद्दिष्ट त्याग पद का लक्षण कहते है:-
*१४७. उद्दिष्ट त्याग प्रतिमा*
*गृहतो मुनिवनमित्वा, गुरूपकण्ठे व्रतानि परिगृह्य।* *भैक्ष्याशनस्तपस्य-न्नुत्कृष्टश्चेलखण्डधर:।।१४७।।*
घर से मुनि के आश्रम जाकर गुरु के समीप व्रत ग्रहण करे।
वह वैरागी तप को तपकर भिक्षावृत्ती से अशन करे।।
कोपीन तथा कुछ ढके हुए जो खण्डवस्त्र का धारक है।
वह श्रावक ही क्षुल्लक, ऐलक उद्दिष्ट त्याग व्रत पालक है।।
जो घर को छोड़कर मुनि के आश्रम में जाकर गुरु के सानिध्य में ग्यारहवीं प्रतिमा के व्रत लेकर तपश्चरण करते हैं और संघ में रहते हुए भिक्षावृत्ति से आहार लेते हैं, कोपीन और खंडवस्त्र धारण करते हैं वे ग्याहरवीं उदिष्टत्यागी प्रतिमा के धारक होते हैं। इसमें क्षुल्लक—ऐलक ऐसे दो भेद हैं। क्षुल्लक कोपीन और खंडवस्त्र धारण करते हैं और ऐलक मात्र कोपीन ही रखते हैं। ये दोनों ही उपासक कहलाते हैं।।१४७।।
अब श्रेष्ठ ज्ञाता का स्वरुप कहते हैं:-
*१४८. श्रेष्ठ ज्ञाता कौन है ?*
*पाप-मराति र्धर्मो, बन्धु र्जीवस्य चेति निश्चिन्वन्।*
*समयं यदि जानीते, श्रेयो ज्ञाता ध्रुवं भवति।।१४८।।*
जिस भव्य पुरुष ने दोष रहित सम्यग्दर्शन अपनाया है।
अरू सम्यकज्ञान चरणरूपी यह रत्नपिटारा पाया है।।
तीनों लोकों में स्वयंवरण करने की इच्छा से उसको।
चउ पुरुषाथे की सिद्धि रूप नायिका प्राप्त होती उसको।।
तीनों लोकों में जितने भी जीव हैं उन सबके लिए एक पाप ही शत्रु है और एक धर्म ही बन्धु है, अन्य कोई बन्धु नहीं है। जो मनुष्य यदि ऐसा चिंतन करता रहता है वह ही जिन शास्त्रों को जानने वाला सर्वश्रेष्ठ ज्ञाता माना गया है।।१४८।।
अब श्रावकाचार के उपदेश को समाप्त करते हुए श्री समन्तभद्र स्वामी फल प्रतिपादन करने वाला श्लोक कहते हैं:-
*१४९. रत्नत्रय का फल*
*येन स्वयं वीतकलंकविद्या-दृष्टिक्रियारत्नकरण्डभावम्।*
*नीतस्तमायातिपतीच्छयेव, सर्वार्थसिद्धिस्त्रिषुविष्टपेषु।।१४९।।*
यह पाप जीव का शत्रु है अरू धर्म हितैषी है सबका।
ऐसा यह नर विचार करके यदि पठन करे जिनवाणी का।।
तब वह ही प्राणी निश्चय से है ज्ञाता श्रेष्ठ कहा जाता।
क्योंकि इन पुण्यपाप दो से ही चलता है जग का नाता।।
जिस भव्य जीव ने सम्यग्दर्शन को निर्दोष कर लिया है, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्र को प्राप्त कर लिया है उसने इन तीन रत्न रूप रत्नों का करण्डक—पिटारा प्राप्त कर लिया है। तीनों लोकों में घूमकर स्वयं पतिरूप से वरण करने की इच्छा से चारों पुरुषार्थो की सिद्धि उसे स्वयं ही वर लेती है।।१४९।।
अन्तिम प्रार्थना ( मंगल )
*१५०. इष्ट प्रार्थना*
*सुखयतु सुखभूमि: कामिनं कामिनीय सुतमिव जननी मां शुद्धशीला भुनत्तु।*
*कुलमिव गुणभूषा, कन्यका सम्पुनीताज्जिनपतिपदपद्म-प्रेक्षिणी दृष्टिलक्ष्मी:।।१५०।।*
जिनराज चरण की श्रद्धालु सम्यग्दर्शनरूपी लक्ष्मी।
सुखदायक कामिनी के समान मुझ नायक को सुखदेवे भी।।
सुसवत्सल माता के समान वह शीलवती पाले मुझको।
वैसे ही मुझे पवित्र करो गुणवति कन्या जैसे कुल को।।
जिनेन्द्रदेव के चरण—कमलों का अवलोकन करने वाली ऐसी यह सम्यग्दर्शनरूपी लक्ष्मी सुख की भूमि ऐसी कामिनी के सदृश मुझे नित्य ही सुख देने वाली होवे। और शुद्ध शीलवती माता जैसे अपने पुत्र का पालन करती है ऐसे ही मेरा पालन करे तथा गुणों से भूषित कन्या जैसे अपने कुल को पवित्र करती है वैसे ही वह मुझे पवित्र करे।।१५०।।
🙏🙏🙏🙏🙏
*।।इति सातवां परिच्छेद।।*