बृहत् प्रतिक्रमण
जीवे मादजनिताः प्रचुराः प्रदोषाः।
यस्मात्प्रतिक्रमणतः प्रलणं प्रयांति।।
तस्मात्तर्थममलं गृहिबोधनार्थं।
वक्ष्ये विचित्रभवकर्मविशोधनार्थम्।।1।।
अर्थ- जीव प्रमाद और अज्ञानतासे अनन्त दोष (पापकर्म)
करते है। प्रतिक्रमण करने से उन दोषोंसे शांति हो जाती है इसलिये
कृत-कर्मोंकी शुद्धिके लिये यह प्रतिक्रमणका स्वरूप गृहस्थों के लिए
प्रतिपादन किया जाता है।
पापिष्ठेन दुरात्मना जडधिया मायाविना लोभिना
रागद्वेषमलोमसेन मनसा दुष्कर्म यन्निर्मितम्।।
त्रैलोक्याधिपते जिनेन्द्र! भवतः श्रीपाद मूलेऽधुना
निंदापूर्वमहं जहामि सततं वर्वर्तिषुः सत्पथे।।2।।
अर्थ - है त्रैलोक्य प्रभो! हे जिनेन्द्र! मैं बडा पापी, दुष्ट अज्ञानी,
मायाचारी और लोभी हूँ! मैने अपने मनको राग, द्वेषसे मलिन कर
अनन्त दुष्कर्म किये है। हे जिनराज! अब मैं आपके चरण-कमलोंकी
शरण लेकर आपके समक्ष उपस्थित हुआ हूं, और सन्मार्गमें चलने के
लिये बाध्य होता हूं तथा भविष्य मेें भी मुझसे कुत्सित कर्म न हो, ऐसी
मेरी इच्छा है।
सम्पई एव सम्पत्तोराहणा, जिणदेसिया।
किं कि ण जायदे, मज्झ सिद्धिसंदेहसंपई।।52।।
अर्थ- हे प्रभो! महान् पुण्योदयसे इस समय मुझे श्री जिनेन्द्रदेव
भगवाकी कही हुई आराधना प्रात् हुई है। इनके प्राप्त हो जानेसे इस
संसारमें ऐसी कौनसी सिद्ध और सम्पत्ति है जो मुझे प्राप्त नहीं हो।
इन आराधनाओंके प्रभावसे समस्त प्रकारकी सिद्धियां स्वयंमेव अवश्य
ही प्राप्त हो जायेगी इसमें किसी प्रकार का संदेह नहीं है।।52।।
अहो धम्मं अहो धम्मं, अहो में लद्धि णिम्मलो।
संजादा सम्पदा सारा, जेण सुक्खमणूपमं।।53।।
अथ्र- यह श्री जिनेन्द्रदेवका कहा हुआ दया धर्म बडा ही
आश्चर्यकारक है, तथा यह सबसे उत्कृष्ट है, सर्वोत्तम हैं और यह मुझे
प्राप्त हुई अत्यंत निर्मल काललब्धि भी अतिआश्चर्य उत्पन्न करनेवाली
है। इस निर्मल काललब्धि ओर जिनधर्मके प्रसादसे मुझे आराधनारूप
सर्वोत्तम संपत्ति प्राप्त हुई है। इस आराधनारूप महासम्पत्ति से ही उपमा
रहित मोक्षसुख अवश्य ही प्राप्त होगा।।53।।
एवं आरोहन्तो आलोयणावन्दणापडिक्कमणं।
पाइव फलं य तेसिं णिद्दिट्ठं अजियबम्भेण।।54।।
अर्थ- इस प्रकार आलोचना, वन्दना और प्रतिक्रमणकी
आराधना रकनेसे भगवान श्री जिनेन्द्रदेवकी कही हुई मोक्ष अवश्य प्राप्त
होती हैळ। यह आलोचनाका स्वरूप अति संक्षेपमें देशयति ‘अजित‘‘
ब्रह्मचारीने मनोरूपसे कहा है। 54।।