परम पूज्य चारित्र चक्रवर्ती 108 आचार्य श्री शांतिसागर जीमहाराज की पूजा
आवो आवो शांति सिंद्धो मुनीशा।
ध्यावों ध्यावों, तिश्ठिये हे गुणीशा।।
राजो राजो, चित प्रसाद मांहीं।
पूजों बंदो, पाद स्वामिन् सदाहीं।।
ऊँ ह्रीं श्री 108 शान्तिसागर जी आचार्य परमेष्ठिन्अत्र अवतर अवतर संवौषट्।
ऊँ ह्रीं श्री 108 शान्तिसागर जी आचार्य परमेष्ठिन्अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः प्रतिष्ठापन्नं।
ऊँ ह्रीं श्री 108 शान्तिसागर जी आचार्य परमेष्ठिन्अत्र मम सन्निहितो भव भव वष्ज्ञअ्।
जल
संसार वन में विष्ज्ञय भवदव जल रही चहुं ओर से।
मैं घूम रिफर कर पड़ा उसमें प्यास लागी जोर से।।
अति शुद्ध शीतल मिष्ट जल की भरि कटोरी चाव से
श्री शांति सागर चरण चरचों शांति पाऊं भाव से
ऊँ ह्रीं श्री 108 शान्तिसागर जी आचार्य परमेष्ठिन्
जन्म जरा मृत्यु विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
चन्दन
क्रोधादि भाव विभाव की दव दाह से चित जल रहा
लेये अनेकों द्रव्य शीतल ताप फिर भी बढ़ रहा
हिम चन्द्र सम चन्दन सुशीतन घिस कटोंरी भरलिया
श्री शंातिसागर चरण चरचों दाह सारा मिट गया।
ऊँ ह्रीं श्री 108 शान्तिसागर जी आचार्य परमेष्ठिन्
भव ताप निवारणाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा।
अक्षत
मेरे सभी गुण क्षय किये इस कर्म ने बहु दुःख दिया
संसार में रूलता रहा मैं कर्म का नहीं क्षय किया
अब लेय अक्षत पुंज सुंदर थार भर अतिकोद से
श्री शांतिसागर चरण चरचों मोक्ष फल अनुरोध से।
ऊँ ह्रीं श्री 108 शान्तिसागर जी आचार्य परमेष्ठिन्
अक्ष्ज्ञय पद प्राप्ताय अक्षतं निर्वपामीति स्वाहाः
पुष्प
इस काम दुष्ट प्रचण्ड के वश सभी संसारी हुए।
निज शील बढा न पा सके सब हीन अचारी हुए।।
चम्पा चमेली अति सुगंधित पुष्प ताजे चुन लिये।
श्री शांतिसागर चरण चरचों मदन हरने के लिये।
ऊँ ह्रीं श्री 108 शान्तिसागर जी आचार्य परमेष्ठिन्
कामबाण विध्वंशनाय पुष्प निर्वपामोति स्वाहाः
नैवेद्य
व्यंजन अनेको रोज खाये भूख तो भी ना गई।
ज्यों ज्यों छहों रस चाख डाले लालसा बढ़ती गई।
पकवान नाना शुद्ध ताजे थाल भर आगे धरों
श्री शांति सागर चरण चरचों क्षुधा बाधा को हरो।।
ऊँ ह्रीं श्री 108 शान्तिसागर जी आचार्य परमेष्ठिन्
क्षुधारोग विनाशनाय नरैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहाः
दीप
अज्ञान तिमिर अनादि छायो स्वपर रुपन मैं लखा।
दे ज्ञान अंजन नेत्र खोले, सुगुरु वे नहिं पा सका।
सोभाग्य मेरा आज घृत करपूर दीप जलाय लूं।
श्री शांति सागर चरण चरचों ज्ञान केवल पाय लूं।।
ऊँ ह्रीं श्री 108 शान्तिसागर जी आचार्य परमेष्ठिन्मोहान्धकार विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहाः
धूप
अति दुष्ट कर्म प्रचण्ड बसु मैं मार से उनके दबा।
सम्यक्त्व सुखबल ज्ञान चारित आदि गुण सब उन ढका।।
ले धूप मनहर अति सुगंधित अग्नि माहि खपाय हूं।
श्री शांति सागर चरण चरचों कर्म काष्ठ जलाय हूं।।
ऊँ ह्रीं श्री 108 शान्तिसागर जी आचार्य परमेष्ठिन्अष्ट कर्म विध्वंशनाय धूपं निर्वपामिति स्वाहाः
फल
मैं फल अनेकों भोगते हु कुफल ही पाता गया।
ये विषय वर्धक फल सभी, यों वीतरागी गुरु कहा।।
ले पक्क ताजे सेव केला आम दाडिम फल सभी।
श्री शांति सागर चरण चरचों मोक्ष फल पावों तभी।।
ऊँ ह्रीं श्री 108 शान्तिसागर जी आचार्य परमेष्ठिन्महामोक्षफल प्राप्ताय फलं निर्वपामीति स्वाहाः
अर्घं
अति विमल मुनि सम शुद्ध शीतल नीर आदि भरायके।
बहु मूल्य सुन्दर अरू अनूपम द्रव्य आठों लायके।।
मन हर्ष पूर्वक भक्ति श्रद्धा भाव से पुजा करूं।
श्री शांति सागर चरण चरचों गुण अमूल्य तभी धरूं।।
ऊँ ह्रीं श्री 108 शान्तिसागर जी आचार्य परमेष्ठिन्अनर्घ्य पद प्राप्ताय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहाः
जयमाला
शांति सागराचार्य के गुण अनंत अभिराम।
पारन उनका पा संकु जजो सुखद शुभ नाभ।।
जय शांति ऋषीश्वर नमू पायं, वसु अंग नाय मन वचन कायस।
जय सुरि शिरोमणि श्रीतराग, जय परम दिगम्बर नग्न काय।।2
जय जनक भीम गौड़ा सुधन्य, जिन पुत्र, बन्धु जग के अनन्य।
जय लोक पूज्य जननी सुजान, जिन सत्यवती अन्वर्थ नाम।।3
तिनके ही सुत ये सुगुण धाम, है जग वंदित अद्भुत ललाम।
शुभ नगर भोज पाटील वंश, जो परम पवित्र कुलावतंश।।4
उस कुल में तुमने जन्म पाय, भवि भव तारे शिव मग बताय।
है धन्य हमारी भाग्य आज, जो ऐसे गुरू निरखे दयाल।।5
गुण मूल अठोतर बीस पाल, परिवार भोग तन ममतटाल।
तुम ध्यान कमान वितान तान, झट मोह सुभट जीव्यों महान।।6
फिर काम क्रोध मद लोभ रंक, सब भगे देख तुमको निशंक।
लहि पंच महाव्रत समिति पंच, अरू तीन गुप्ति पालन महन्त।7
दृए निश्चल समकित भाव धार, तुम स्वानुभूति में रत अपार।
गहि स्वपर भेद विज्ञान वान, गिरि कर्मवज्र भेदत महान।।8
गुण सूरि योग्य छत्तीस धार, आचार्य भये लहि गुण अपार।
हो ज्ञाता तत्वन के महान, तुम बाणी ही आगम प्रमाण।।9
बहु चतुरनुयोगी शास्त्र सार, तुम गहन सुक्ष्म कथनी अपार।
विद्वज्जन सुन होवे प्रसन्न, सब मुख से कहते धन्य धन्य।।10
तम घोर तपस्वी अचल ध्यान, उपवास निरन्तर पक्ष ठान।
क्षुध तृषा शीत वहु उष्ण आदि, सब परिषह सहते धरी समाधि।।11
इक नाग भंकर फण उठा, गुरू दिव्य देह पर चढो आय।
वह तन पर घूमे शान्ति पाय, तुम बैंठे अचल समाधि लाय।।12
जब गुरूवर पहुंचे राज खेट, बहु शिष्य साधु श्रावक समेत।
तहं प्राणघात संकट महानत्र, सब सहो घोर उपसर्ग महान।।13
मुनि संग मारने गहि कृपान, इक विप्र चलो अति पाप खान।
जब कोट पाल बाँधो रिसाय, दे अभय छुडायो सुगुरू तांय।।14
तुम समता सरिता अति गंभीर, बच सुधा मिष्ठ हित मय सगोर
तहं शांति सुधा रस करत पान, सब शिष्य तपस्वी मुनि महान।।15
तमुम गुण नामा हो शान्ति सिंधु, जो भक्ति स्वाति में लहे बिन्दू।
सो भव्य मुक्ति का रत्न पाय, सुख पावे शिव पद मिले तांय।।16
तुम श्रावकगण बोधे जगाय, द्धिज चिन्ह सूत्र उनको बताय।
अद्ध शुद्र स्पर्शी जल छुड़ाय, दिये सत्य द्विजन्मा तुम बनाय।।17
सब भारतवर्ष बिहार कीन, सबोधि सुधारे शुद्र हीन।
लाखों ही जन मद मांस त्याग, सब बने जैन गुरू के प्रसाद।।18
जे जाति पांति लौपे मलीन, अरू करे घरेजा पाप लीन।
तिन घर में भोजन करे नांहि, वे सुगुरू शील पथ जेगत मांहि।।19
कोल्हापुर लश्कर अरू निजाम, बहु राज्य भ्रमे लहि नृपति मान।
तुम अतिशय पुण्य प्रताप वान, सब नुपगण पूजे चरण आन।।20
जैसे मुनि होते पूर्वकाल, वैसे ही गुरू तुम आज काल।
तुम परम वैद्य निरपेक्ष जान, भव रोग हरे भवि बुप महान।।21
अज्ञान तिमिर नाशक दयाल, जिन ध्शर्म उद्योतक सूर्य ताल।
हम सूर्य काल वत सुगुरू पाय, तुम चरणन में निज शीशनाय।।
धता
आचार्य वर श्री शंतिसागर आपकी स्तुति भाव से।
तब भक्ति वश कुछ बीब पाके रची मैं अतिचाव से।।
मुनि मूल उत्तर गुण अनन्ते पार उनका है नहीं।
गुरू चरण रज ही नाव चढ़के पार भव पाऊं सहि।।
ऊँ ह्रीं श्री 108 शान्तिसागर जी आचार्य परमेष्ठिन्
जयमाला पूर्ण अर्घ्यं नर्वपामीति स्वाहाः
इति पुष्पांजलि