सब सिंहो को नमन कर, सरस्वती को ध्याय |
चालीसा नवकार का, लिखूं त्रियोग लगाय ||
महामंत्र नवकार हमारा, जन जन को प्राणों से प्यारा ||१||
मंगलमय यह प्रथम कहा हैं, मंत्र अनधि निधन महा हैं ||२||
षटखंडागम में गुरुवर ने, मंगलाचरण लिखा प्राकृत में ||३||
यही से ही लिपिबद्ध हुआ हैं, भविजन ने डर धार लिया हैं ||४||
पांचो पद के पैतीस अक्षर, अट्ठावन मात्राए हैं सुखकर ||५||
मंत्र चौरासी लाख कहाए, इससे ही निर्मित बतलाए ||६||
अरिहंतो को नमन किया हैं, मिथ्यातम का वमन किया हैं ||७||
सब सिद्धो को वन्दन करके, झुक जाते भावों में भरकर ||८||
आचार्यों की पद भक्ति से, जीव उबरते नीज शक्ति से ||९||
उपाध्याय गुरुओं का वन्दन, मोह तिमिर का करता खंडन ||१०||
सर्व साधुओ को मन में लाना, अतिशयकारी पुन्य बढ़ाना ||११||
मोक्षमहल की नीव बनाता, अतः मूल मंत्र कहलाता ||१२||
स्वर्णाक्षर में जो लिखवाता, सम्पति से टूटे नहीं नाता ||१३||
णमोकार की अद्भुत महिमा, भक्त बने भगवन ये गरिमा ||१४||
जिसने इसको मन से ध्याया, मनचाहा फल उसने पाया ||१५||
अहंकार जब मन का मिटता, भव्य जीव तब इसको जपता ||१६||
मन से राग द्वेष मिट जाता, समता बाव ह्रदय में आता ||१७||
अंजन चोर ने इसको ध्याया, बने निरंजन निज पद पाया ||१८||
पार्श्वनाथ ने इसको सुनाया, नाग-नागिनी सुर पद पाया ||१९||
चाकदत्त ने अज की दीना, बकरा भी सुर बना नवीना ||२०||
सूली पर लटके कैदी को, दिया सेठ ने आत्मशुद्धि को ||२१||
हुई शांति पीड़ा हरने से, देव बना इसको पढ़ने से ||२२||
पदमरुची के बैल को दीना, उसने भी उत्तम पद लीना ||२३||
श्वान ने जीवन्धर से पाया, मरकर वह भी देव कहाया ||२४||
प्रातः प्रतिदिन जो पढ़ते हैं, अपने दुःख संकट हराते हैं ||२५||
जोन वकार की भक्ति करते, देव भी उनकी सेवा करते ||२६||
जिस जिसने इसे जपा हैं, वही स्वर्ण सैम खूब तप हैं||२७||
तप-तप कर कुंदन बन जाता, अंत में मोक्ष परम पद पाटा ||२८||
जो भी कंठहार कर लेता, उसको भव-भव में सुख देता ||२९||
जिसने इसको शीश पर धारा, उसने ही रिपु कर्म निवारा ||३०||
विश्वशान्ति का मूल मंत्र हैं, भेदज्ञान का महामंत्र हैं ||३१||
जिसने इसका पाठ कराया, वचन सिद्धि को उसने पाया ||३२||
खाते-पीते-सूते जपना, चलते-फिरते संकट हराना ||३३||
क्रोध अग्नि का बल घट जावे, मंत्र नीर शीतलता लावे ||३४||
चालीसा जो पढ़े पढावे, उसका बेडा पार हो जावे ||३५||
क्षुल्लकमणि शीतलसागर ने, प्रेरित किया लिखा 'अरुण' ने ||३६||
तीन योग से शीश नवाऊ, तीन रतन उत्तम पा जाऊं ||३७||
पर पदार्थ से प्रीत हटाऊं, शुद्धतम के ही गुण गाऊ ||३८||
हे प्रभु! बस यही वर चाहूँ, अंत समय नवकार ही ध्याऊ ||३९||
एक-एक सीधी चढ़ जाऊं, अनुक्रम से निजपद पा जाऊं ||४०||
पंच परम परमेष्ठी हैं, जग में विख्यात |
नमन करे जो भाव से, शिव सुख पा हर्षातहर्षात
१ णमोकार चालीसा
बंदू श्री अरिहंत पद, सिद्ध नाम सुखकार ।
सूरीश्रावकसूरीश्रावकसूरी साधुगण हैं, जग के आधार ||1||
इन पाँचों परमेष्ठि से, सहित मूल यह मंत्र ।
अपराजित व अनादि हैं, णमोकार शुभ मंत्र ।। 2 ।।
णमोकार महामंत्र को नमन करूं शतबार ।
चालीसा पढ़कर लहूँ, स्वात्मधाम साकार || 3 ।।
चौपाई
जैवन्त अनादिमंत्रम् णमोकार अपराजित मंत्रम्।
पंच पदों से युक्त संयत्रम्, सबमनोरथ सिद्धि सुतंत्रम् ॥4॥
पैतीस अक्षर माने इसमें, अठ्ठावन मात्राएं भी हैं।
अतिशयकारी मंत्र जगत में, सब मंगल में कहा प्रथम हैं । 5 ।।
जिसने इसका ध्यान लगाया, मन मंदिर में इसे बिठाया।
उसका बेड़ा पार हो गया, भवदधि से उद्धार हो गया ।।6।।
अंजन बना निरंजन क्षण में शूली बदली सिंहासन में।
नाग बना फूलों की माला, हो गयी शीतल अग्नि ज्वाला ॥ 7 ॥
जीवन्धर इसी मंत्र को सुना श्वान ने मरणासन्न हो ।
शांतभाव सें काया तजकर, गया स्वर्ग यक्षेन्द्र बना तब । ॥ 8 ॥
एक बैल ने मंत्र सुना था, राजघराने में जन्मा जातिस्मरण हुआ
जब उसको उसने खोजा उपकारी को था। ॥9॥
दमरुची को गले लगाया, आगे मैत्री भाव निभाया।
कालान्तर में वही पद्मरुचि, राम बने तब बहुत धर्मरुचि।।10।
बैल बना सुग्रीव बन्धुवर, दोनों के सम्बन्ध मित्रवार ।
रामायण की सत्य कथा हैं णमोकार से मिटी व्यथा हैं ।।11।।
ऐसी ही कितनी घटनाएँ, नये पुराने ग्रन्थ बताएँ।
इसीलिए इस मंत्र की महिमा कहीं सभी ने इसकी गरिमा।।12।। "
हो अपवित्र पवित्र दशा में सदा करें संस्मरण हृदय में।
जपें शुद्ध तन से जो माला, वे पाते हैं सौख्य निराला ||13||
अन्तर्मन पावन होता हैं, बाहर का अघमन धोता हैं।
णमोकार के पैंतीस व्रत है, श्रावक करते श्रद्धायुत है ।।14।।
हर घर के दरवाजे पर तुम, महामंत्र को लिखो जैनगण ।
जैनी संस्कृति दर्शाएगा, सुख समृद्धि भी दिलवाएगा || 15||
एक तराजू के पलड़े पर, सारे गुण भी रख देने परे।
दूजा पलड़ा मंत्र सहित जो, उठा न पाए कोई उसको ||16||
उठते चलते सभी क्षणों में, जंगल पर्वत या महलों में।
महामंत्र को कभी न छोड़ो, सदा इसी से नाता जोड़ो।।17।
देखो! इक सुभौम चक्री था, उसने मन में इसे जपा था।
देव मार नहीं पाया उनको, तब छल युक्ति बताई नृप को |॥18॥
उसके चंगुल में फंस करके, लिखा मंत्र राजा ने जल में ।
ज्यों ही उस पर कदम रख दिया, देव की शक्ति प्रगट कर दिया || 19 ||
देव ने उसको मार गिराया, नरक धरा को नृप ने पाया।
मंत्र का यह अपमान कथानक, सचमुच ही है हृदय विदारक ।।20।।