🔹आराधना शब्द को परिभाषित करते हुए
पण्डितप्रवरश्री आशाधर जी ने लिखा है- वृत्तिर्जातसुदृष्टयादेस्तद्गतातिशयेषु
उद्योतादिषु सा तेषां, भक्तिराराधनोच्यते॥ (अनगार धर्मामृत = 1/98)
अर्थात्ः- जिसको सम्यग्दर्शन आदि परिणाम उत्पन्न हो गये हैं अर्थात्
सम्यग्दृष्टि पुरुष की सम्यग्दर्शन आदि में पाये जाने वाले उद्योतन आदि रूप
अतिशयों में जो प्रवृत्ति होती है, उसे सम्यग्दर्शनादि की भक्ति कहते हैं।
भक्ति को ही आराधना कहते हैं।
📙आचार्यश्री शिवार्य जी महाराज द्वारा रचित भगवती आराधना नामक ग्रन्थ के
सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र और सम्यक्तप इन चारों के उद्योत,
उद्यवन, निर्वहण, साधन और निस्तरण को आराधना कहते हैं। दर्शन, ज्ञान चारित्र
और तप को भेद से आराधना चार प्रकार की है।
▪ साधु-परमेष्ठी सदैव जिनशासन की आज्ञा की परिपालना करते हैं। जिनशासन के
प्रति वे निःशंक होते हैं। उनकी आराधना मुख्यरूप से सम्यग्दर्शन को विशुद्ध
करती है। अतः दर्शनाराधना को प्राप्त करने के लिये णमो लोए सव्व साहूणं इस पद
का जप तथा ध्यान करना चाहिये।
▪उपाध्याय-परमेष्ठी अनवरत वाचना, पृच्छना, अनुप्रेक्षा, आम्नाय और धर्मोपदेश
नामक पाँच प्रकार के स्वाध्याय में प्रवृत्त रहते हैं। अभीक्ष्ण-ज्ञानोपयोगी
उन उपाध्याय-परमेष्ठी की भक्ति सम्यग्ज्ञान की वृद्धि में कारण है। अतः
ज्ञानाराधना की प्राप्ति के लिये णमो उवज्झायाणं इस पद का जप तथा ध्यान करना
▪आचार्य-परमेष्ठी अहर्निश दर्शनाचार, ज्ञानाचार, चारित्राचार, तपाचार और
वीर्याचार नामक पाँच प्रकार के आचरणविशेषों का परिपालन करने में दत्तचित्त
रहते हैं। वे अपने आचरण के द्वारा सत्क्रियाओं का उपदेश देते हैं। चारित्र के
चक्रवर्ती, मूर्तिमान मोक्षमार्ग, धरती के देवता, उन आचार्य-परमेष्ठी की भक्ति
करने से सम्यक्चारित्र की उत्पत्ति, वृद्धि एवं रक्षा होती है। अतः
चारित्राराधना की समुपलब्धि के लिये णमो आइरियाणं इस पद का जप तथा ध्यान करना
▪कवलाहार से विवर्जित अरिहन्त-परमात्मा अनशन, अवमौदर्य, वृत्तिपरि-संख्यान और
रसपरित्याग इन चार तपों के स्वामी हैं।
▪सिद्ध-परमेष्ठी सदैव अनाहारक होने से अनशनादिक तपों के परिपालक हैं। ये दोनों
परमेष्ठी परद्रव्य, परक्षेत्र, परकाल और परभाव से शून्य आत्मस्थान में
स्वरूपासन से रहते हैं। अरिहन्त-परमेष्ठी काया के योग का विनाश करने में उद्यत
हैं। सिद्ध परमेष्ठी ने काया का ही निःशेषाभाव कर दिया है। इस प्रकार दोनों
परमेष्ठी विविक्तशय्यासन एवं कायक्लेश इन दो तपों से समन्वित हैं।
आत्मा का जो उत्कृष्ट ज्ञान है, उसे ही चित्त कहते हैं। उसमें जो प्र अर्थात्
उत्कृृष्ट रूप से अय अर्थात् गमन करते हैं, वे अरिहन्त और सिद्ध परमेष्ठी ही
वस्तुतः प्रायश्चित्ततप के पालक हैं। दोनोें परमेष्ठी अपने उपयोग को अपनी
आत्मा में नियत कर चुके हैं। अतः निजगुणविहारी द्वयपरमात्मा परमेष्ठी विनयतप
के धारक हैं। संसार की आवृत्ति से विरक्त हो चुके अरिहन्त और सिद्ध परमेष्ठी
प्रति समय स्व-समय में लीन होकर आत्मसेवा करते हैं। अतः वे वैयावृत्तितप के
प्रतिपालक हैं। स्व शब्द के साथ अधि उपसर्गपूर्वक अय् धातु से स्वाध्याय की
निष्पति होती है। जिन्होंने अपनी आत्मपरिणति के अभिमुख होकर अय् अर्थात् ज्ञान
को प्राप्त कर लिया है, उन केवलज्ञानी अरिहन्त और सिद्ध-परमेष्ठी से अधिक
श्रेष्ठ स्वाध्यायतप का आराधक कौन हो सकता है? विशेषरूप से विभाव भावों को
उत्सर्ग कर देने के कारण अरिहन्त और सिद्ध-परमेष्ठी व्युत्सर्गतप के सन्धारक
हैं। अपने ज्ञान और दर्शनोपयोग को अचल बनाने वाले अरिहन्त और सिद्ध-परमेष्ठी
ध्यानतप के उत्कृष्ट स्वामी हैं। अरिहन्त-परमेष्ठी बारह तप के द्वारा प्राप्त
होने वाले मोक्षङ्गल की लब्धि के सन्निकट हो चुके हैं तथा सिद्ध-परमेष्ठी तो
मोक्षरूपी महाफल को प्राप्त कर चुके हैं। दोनो परमेष्ठियों की भक्ति तप में
स्थिरता को प्रदान करती हैं।
अतः तपाचार की सम्प्राप्ति के लिये त्रियोंगो को एकाग्र करके णमो अरिहंताणं
तथा णमो सिद्धाणं इन दो पदों का निरन्तर अनुस्मरण और ध्यान करना चाहिये।
उपर्युक्त विवरण से यह बात अत्यन्त सुस्पष्ट हो जाती है कि णमोकारमन्त्र की
सम्यक् उपासना करने से आराधनादेवी प्रसन्न होकर अपना सर्वस्व भेंट करने के
लिये तत्पर हो जाती है। अतः अपनी आत्मा का कल्याण चाहने वाले भव्य जीव को
आराधनारूपी देवी को प्रसन्न करने के लिये निरन्तर णमोकारमन्त्र का जप करना
चाहिये तथा इस मन्त्र में जिनका नामोल्लेख किया गया है, उन परमेष्ठियों का
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