स्वयंभू स्तोत्र भाषा
चैपाई
राजविषै जुगलनि सुख कियो, राज त्याग भुवि शिवपद लियो।
स्वयं बोध स्वयम्भू भगवान, बन्दौ। आदिनाथ गुणखान।।
इन्द्र क्षीरसागर-जल लाय, मेरु न्हवाये गाय बजाय।
मदन विनाशक सुख करतार, बन्दौ अजित अजित पदकार।।
शुक्ल ध्यान करि करम विनाशि, घाति अघाति सकल दुखराशि।
लह्यो मुकतिपद सुख अधिकार, बन्दौं संभव भवदुख टार।।
माता पच्छिम रयन मंझार, सुपने सोलह देखे सार।
भूप पूछि फल सुनि हरषाय, बन्दौं अभिनन्दन मन लाय।।
सर्व कुवादवादी सरदार, जीते स्याद्वाद धुनिधार।
जैन धरम परकाशक स्वामि, सुमति देवपद करहुँ प्रणामि।।
गर्भ अगाऊ धनपति आय, करि नगर शोभा अधिकाय।
बरसे रतन पंचदश मास, नमों पदमप्रभ सुख की रास।।
इन्द्र फनिन्द नरिन्द त्रिकाल, बानी सुनि सुनि होंहि खुस्याल।
द्वादश सभा ज्ञान दातार, नमौं सुपारसनाथ निहार।।
सुगुन छियालिस हैं तुम मांहि, दोष अठारह कोऊ नांहि।
मोह महातम नाशक दीप, नमौं चन्द्रप्रभ राख समीप।।
द्वादश विध तप करम विनाश, तेरहविध चरित परकाश।
निज अनिच्छ भवि इच्छक दान, वन्दौं पहुपदन्त मन आन।।
भवि सुखदाय सुरग ते आय, दसविध धर्म कह्यो जिनराय।
आप समान सबनि सुख-देह, वन्दौं शीतल धरम-सनेह।।
समता सुधा कोप विष नाश, द्वादशांग वानी परकाश।
चार संघ आनन्द दातार, नमौं श्रेयांस जिनेयश्वर सार।।
रतनत्रय चिरमुकुट विशाल, सोभैं कण्घ्ठ सुगुन मनिमाल।
मुक्तिनार भर्ता भगवान, वासुपूज्य वन्दौंे धर ध्यान।।
परमसमाधि स्वरूप जिनेश, ज्ञानी ध्यानी हित उपदेश।
कर्म नाशि शिवसुख विलसंत, वन्दौं मिवलनाथ भगवंत।।
अन्तर बाहिर परिग्रह डारि, परम दिगम्बर व्रत को धारि।
सर्व जीव हित राह दिखाय, नमौं छ-दरब बहु भाय।
लोक अलोक सकल परकाश, वन्दौं धर्मनाथ अविनाश।।
पंचम चक्रवर्ति निधि भोग, कामदेव द्वादशम मनोग।
शान्ति करन सोलम जिनराय, शान्तिनाथ वन्दौं हरषाय।।
बहु थुति करैं हरष नहिं होय, निन्दैं दोष गहै नहिं कोय।
शीलवान परब्रह्म स्वरूप, वन्दौं कुन्थुनाथ शिवभूप।।
द्वादशगण पूजैं सुखदाय, थुति वन्दना करैं अधिकाय।
जाकी निजथुति कबहुँ न होय, वन्दौं अर जिनवर पद दोय।।
परभव रतनत्रय-अनुराग, इह भव ब्याह समय वैराग।
बालब्रह्म पूरन व्रत धार, वन्दौं मल्लिनाथ जिनसार।।
बिन उपदेश स्वयं वैराग, थुति लोकान्त करैं पगलाग।
नमः सिद्ध कहि सब व्रत लेहि, वन्दौ। मुनिसुव्रत व्रत देहि।।
श्रावक विद्यावन्त निहार, भगतिभाव सों दियो आहार।
वरशी रतन शशि ततकाल, वन्दौं नमि प्रभु दीनदयाल।।
सब जीवन की वन्दी छोर, राग-द्वेष द्वै बन्धन तोर।
रजमति तजि शिवि-तिय सो मिले, नेमिनाथ वन्दौं सुख निले।।
दैत्य कियो उपसर्ग अपार, ध्यान देखिे आयो फनिधार।
गये कमठ शठ मुख कर श्याम, नमों मेरुसम पारसस्वाम।।
भवसागर तैं जीव अपार, धरम पोत में धरें निहार।
डूबत काढ़े दया विचार, वर्धमान वन्दौं बहुबार।।
दोहा
चैबीसों पद कमलजुग, वन्दौं मन-वच-काय।
‘द्यानत’ पढ़े सुने सदा, सो प्रभु क्यों न सहाय।।
।। इत्याशीर्वाद:- शांतये शांति त्रय धारा - दिव्य पुष्पांजलिः।।