जीवत्व का लक्षण

तिक्काले चदुपाणा, इंदिय बलमाउ आणपाणो य।

ववहारा सो जीवो, णिच्चयणयदोदु चेदणाजस्स।।३।।

शंभुछंद- जिसके व्यवहार नयापेक्षा, तीनों कालों में चार प्राण।

इन्द्रिय बल आयू औ चौथा, स्वासोच्छ्वास ये मुख्य जान।।

निश्चय नय से चेतना प्राण, बस जीव वही कहलाता है।

यह दोनों नय से सापेक्षित, होकर पहचाना जाता है।।३।।

अर्थ - जिसके व्यवहारनय से तीनों कालों में इन्द्रिय, बल, आयु और श्वासोच्छ्वास ये चार प्राण हैं और निश्चयनय से चेतना प्राण है, वह जीव कहलाता है।

प्रश्न - व्यवहारनय किसे कहते हैं?

उत्तर - वस्तु के अशुद्ध स्वरूप को ग्रहण करने वाले ज्ञान को व्यवहारनय कहते हैं।

प्रश्न- व्यवहारनय से जीव का लक्षण बताइये?

उत्तर - जिसमें तीनों कालों में चार प्राण पाये जाते हैं, व्यवहारनय से वह जीव है।

प्रश्न - चार प्राण कौन से हैं ?

उत्तर - इन्द्रिय, बल, आयु और स्वासोच्छ्वास।

प्रश्न - निश्चयनय किसे कहते हैं?

उत्तर - वस्तु के शुद्ध स्वरूप का कथन करने वाले नय को निश्चयनय कहते हैं।

प्रश्न - निश्चयनय से जीव का लक्षण बताइये?

उत्तर - जिसमें चेतना पायी जाती है, निश्चयनय से वह जीव है।

प्रश्न - एकेन्द्रिय जीव के कितने प्राण होते हैं?

उत्तर - एकेन्द्रिय जीव के चार प्राण होते हैं-स्पर्शन इन्द्रिय, कायबल, आयु और श्वासोच्छ्वास।

प्रश्न - द्वीन्द्रिय जीव के कितने प्राण होते हैं?

उत्तर - १. स्पर्शन इन्द्रिय २. रसना इन्द्रिय ३. वचनबल ४. कायबल ५. आयु ६. श्वासोच्छ्वास ये कुल ६ प्राण द्वीन्द्रिय जीव के होते हैं।

प्रश्न - तीन इन्द्रिय जीव के कितने प्राण होते हैं?

उत्तर - तीन इन्द्रिय जीव के सात प्राण होते हैं-स्पर्शन, रसना, घ्राण ये तीन इन्द्रियाँ, वचनबल, कायबल, आयु और श्वासोच्छ्वास।

प्रश्न - चार इन्द्रिय जीव के कितने प्राण होते हैं?

उत्तर - स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु ये चार इन्द्रियाँ, वचनबल, कायबल, आयु और श्वासोच्छ्वास इस प्रकार कुल ८ प्राण चार इन्द्रिय जीव के होते हैं।

प्रश्न - असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीव के कितने प्राण होते हैं।

उत्तर - स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु, कर्ण ये पाँच इन्द्रियाँ, वचनबल, कायबल, आयु और श्वासोच्छ्वास ये कुल ९ प्राण असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीव के होते हैं।

प्रश्न - संज्ञी पंचेन्द्रिय जीव के कितने प्राण होते हैं?

उत्तर - संज्ञी पंचेन्द्रिय जीव के दस प्राण होते हैं-पाँचों इन्द्रियाँ, तीनों बल, आयु और श्वासोच्छ्वास।

प्रश्न - एक मात्र चेतना प्राण किनके होता है?

उत्तर - सिद्ध भगवान के दस प्राणों में से कोई भी प्राण नहीं है। उनको मात्र एक चेतना प्राण माना है।


णाणं अट्ठवियप्पं, मदिसुदओही अणाणणाणाणी।

मणपज्जयकेवलमवि, पच्चक्ख परोक्खभेयं च।।५।।

शंभुछंद- ज्ञानोपयोग के आठ भेद, उनमें मति श्रुत और अवधि जान।

मिथ्या सम्यक् के आश्रय से, छह हो जाते ये तीन ज्ञान।।

मनपर्यय केवलज्ञान इन्हीं में, भेद प्रत्यक्ष परोक्ष कहे।

मतिश्रुतपरोक्ष, केवल प्रत्यक्ष, बाकी त्रय देश प्रत्यक्ष रहें।।५।।

अर्थ - मति-श्रुत-अवधि ये तीन ज्ञान मिथ्या और सम्यक् दोनों रूप् होने से ऐसे छह भेद रूप होते हैं तथा मन: पर्यय और केवलज्ञान के मिलाने से ज्ञानोपयोग आठ प्रकार का होता है। इनके प्रत्यक्ष और परोक्ष ऐसे दो भेद होते हैं।

प्रश्न - मिथ्याज्ञान कितने होते हैं?

उत्तर - मिथ्या ज्ञान तीन हैं-१. कुमति २. कुश्रुत ३. कुअवधि।

प्रश्न - सम्यक्ज्ञान कितने होते हैं?

उत्तर - सम्यक्ज्ञान पाँच हैं-१. मतिज्ञान २. श्रुतज्ञान ३. अवधिज्ञान ४. मन:पर्ययज्ञान ५. केवलज्ञान।

प्रश्न - मतिज्ञान किसे कहते हैं?

उत्तर - पाँच इन्द्रिय और मन की सहायता से होने वाला ज्ञान मतिज्ञान कहलाता है।

प्रश्न - श्रुतज्ञान किसे कहते हैं?

उत्तर - मतिज्ञान पूर्वक होने वाला ज्ञान श्रुतज्ञान कहलाता है।

प्रश्न - अवधिज्ञान किसे कहते हैं?

उत्तर - द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की मर्यादापूर्वक जो रूपी पदार्थों को स्पष्ट जानता है वह अवधिज्ञान है।

प्रश्न - मन:पर्ययज्ञान किसे कहते हैं?

उत्तर - द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की मर्यादापूर्वक जो दूसरे के मन में स्थित रूपी पदार्थों को स्पष्ट जानता है, उसे मन: पर्ययज्ञान कहते हैं।

प्रश्न - केवलज्ञान किसे कहते हैं?

उत्तर - त्रिकालवर्ती समस्त द्रव्यों और उनकी समस्त पर्यायों को एकसाथ जानने वाले ज्ञान को केवलज्ञान कहते हैं।

प्रश्न - प्रत्यक्षज्ञान किसे कहते हैं?

उत्तर - इन्द्रिय आदि की सहायता के बिना आत्मा से होने वाला ज्ञान प्रत्यक्ष कहलाता है।

प्रश्न - परोक्षज्ञान किसे कहते हैं?

उत्तर - इन्द्रिय और आलोक आदि की सहायता से जो ज्ञान होता है उसे परोक्षज्ञान कहते हैं।

प्रश्न - प्रत्यक्ष ज्ञान कौन-कौन से हैं?

उत्तर - अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान और केवलज्ञान ये प्रत्यक्ष ज्ञान हैं। इनमें भी अवधिज्ञान और मन:पर्ययज्ञान एक देश प्रत्यक्ष कहलाते हैं और केवलज्ञान सकल प्रत्यक्ष कहलाता है।

उभयनय से उपयोग का लक्षण

अट्ठचदुणाण दंसण, सामण्णं जीवलक्खणं भणियं।

ववहारा सुद्धणया, सुद्धं पुण दंसणं णाणं।।६।।

ये ज्ञान आठ दर्शन चारों, बारह प्रकार उपयोग कहे।

व्यवहार नयाश्रित होता है, सामान्य जीव का लक्षण ये।।

औ शुद्धनयाश्रित शुद्ध ज्ञान, दर्शन यह लक्षण कहलाता।

बस उभय नयों के आश्रय से, यह जीव द्रव्य जाना जाता।।६।।

अर्थ — आठ प्रकार का ज्ञान और चार प्रकार का दर्शन व्यवहार नय से यह सामान्य जीव का लक्षण कहा गया है, पुन: शुद्धनय से शुद्ध ज्ञान-दर्शन ही जीव का लक्षण है।

प्रश्न - शुद्ध निश्चयनय किसे कहते हैं?

उत्तर - वस्तु के शुद्धस्वरूप का कथन करने की प्रक्रिया को शुद्ध निश्चयनय कहते हैं।

प्रश्न - शुद्ध निश्चयनय से जीव किसे कहते हैं?

उत्तर - जिसमें शुद्ध दर्शन और ज्ञान पाया जाता है, शुद्ध निश्चयनय से वह जीव है।

प्रश्न - व्यवहारनय से (सामान्य) जीव का लक्षण क्या है?

उत्तर - व्यवहारनय से आठ प्रकार का ज्ञान और चार प्रकार का दर्शन जीव का लक्षण है।

प्रश्न - सामान्य किसको कहते हैं ?

उत्तर - जिसमें संसारी, मुक्त, एकेन्द्रिय, दो इन्द्रिय आदि जीवों की विवक्षा न हो, उसको सामान्य जीव कहते हैं।

जीव अमूर्तिक है

वण्ण रस पंच गंधा, दो फासा अट्ठणिच्चया जीवे।

णो संति अमुत्ति तदो, ववहारा मुत्ति बंधादो।।७।।

रस पांच वर्ण भी पाँच गंध द्वय, आठ तथा स्पर्श कहे।

निश्चय नय से निंह जीव में ये, इसलिए अमूर्तिक इसे कहें।।

व्यवहार नयाश्रित कर्मबंध, होने से मूर्तिक भी जानो।

एकांत अमूर्तिक मत समझो, नय द्वय सापेक्ष सदा मानो।।७।।

अर्थ — पाँच वर्ण, पाँच रस, दो गंध और आठ स्पर्श निश्चयनय से ये जीव में नहीं है अत: यह अमूर्तिक है और कर्म बंध के होने से यह व्यवहारनय से मूर्तिक है।

प्रश्न - मूर्तिक किसे कहते हैं?

उत्तर - जिसमें स्पर्श, रस, गंध और वर्ण पाया जाता है उसे मूर्तिक कहते हैं।

प्रश्न - अमूर्तिक किसे कहते हैं?

उत्तर - जिसमें स्पर्श, रस, गंध और वर्ण नहीं पाये जाते हैं, उसे अमूर्तिक कहते हैं।

प्रश्न - जीव मूर्तिक है या अमूर्तिक?

उत्तर - जीव मूर्तिक भी है और अमूर्तिक भी है।

प्रश्न - जीव मूर्तिक किस अपेक्षा से है?

उत्तर - संसारी जीव व्यवहारनय से मूर्तिक है। क्योंकि यह अनादिकाल से कर्मों से बंधा हुआ है। कर्म पुद्गल है और पुद्गल मूर्तिक है। मूर्तिक के साथ रहने से अमूर्तिक आत्मा भी मूर्तिक कहा जाता है।

प्रश्न - जीव अमूर्तिक किस अपेक्षा से है?

उत्तर - निश्चयनय से जीव अमूर्तिक है, क्योंकि उसमें स्पर्श, रस, गंध और वर्ण नहीं पाये जाते हैं।

प्रश्न - स्पर्श के कितने भेद हैं?

उत्तर - स्पर्श आठ प्रकार का होता है-रूखा, चिकना, ठंडा, गरम, हल्का, भारी, कड़ा (कठोर), नरम (मुलायम)।

प्रश्न - रस के कितने भेद हैं?

उत्तर - रस के पाँच भेद हैं-खट्टा, मीठा, कड़वा, चरपरा और कषायला।

प्रश्न - गंध के कितने भेद हैं?

उत्तर - गंध दो प्रकार की होती है-सुगंध और दुर्गंध।

प्रश्न - वर्ण के कितने भेद हैं?

उत्तर - वर्ण पाँच प्रकार के होते हैं-काला, पीला, नीला, लाल और सफेद।

प्रश्न - हम सभी की आत्मा मूर्तिक है या अमूर्तिक है ?

उत्तर - हमारी आत्मा मूर्तिक है, क्योंकि हम अभी कर्म से बद्ध संसारी जीव हैं।

प्रश्न - सिद्ध भगवान की आत्मा कैसी है?

उत्तर - सिद्ध भगवान अमूर्तिक हैं क्योंकि पुद्गल-कर्मबंध से सर्वथा रहित (छूट गये) हैं।

जीव कर्ता है

पुग्गलकम्मादीणं, कत्ता ववहारदो दु णिच्चयदो।

चेदणकम्माणादा, सुद्धणया सुद्धभावाणं।।८।।

व्यवहार नयाश्रित जीव कहा, पुद्गल कर्मादिक का कर्ता।

होता अशुद्ध निश्चयनय से, रागादिक भावों का कर्ता।।

है कहा शुद्ध निश्चयनय से, निज शुद्ध भाव का ही कर्ता।

जब नय के भेद मिटा देता, तब होता भव दु:ख का हर्ता।।८।।

अर्थ — जीव व्यवहारनय से पुद्गलकर्मादि का कर्ता है किन्तु निश्चयनय से चेतन भावों का कत्र्ता है और शुद्धनय से शुद्ध भावों का कर्ता है। यहाँ निश्चयनय से अशुद्ध निश्चयनय लेना है और चेतन भावों से जीव के रागादि भावों को लेना है, क्योंकि आगे शुद्ध नय से अपने ही शुद्ध भावों का कर्ता कहा है।

प्रश्न - पुद्गल कर्म कौन-कौन से हैं?

उत्तर - ज्ञानावरण, दर्शनावरणादि आठ द्रव्य कर्म और छ: पर्याप्ति और तीन शरीर-ये नौ नोकर्म पुद्गल कर्म कहलाते हैं।

प्रश्न - भाव कर्म कौन से हैं?

उत्तर - राग, द्वेष, मोह आदि भावकर्म हैं।

प्रश्न - जीव के शुद्ध भाव कौन से हैं?

उत्तर - केवलज्ञान और केवलदर्शन जीव के शुद्धभाव हैं।

प्रश्न - कत्र्ता किसको कहते हैं ?

उत्तर - क्रिया या कार्य को करने वाले को कत्र्ता कहते हैं।

प्रश्न - नोकर्म किसे कहते हैं ?

उत्तर - तीन शरीर और छह पर्याप्ति के योग्य पुद्गल वर्गणा को नोकर्म कहते हैं।

प्रश्न - जीव व्यवहार नय से किसका कत्र्ता है ?

उत्तर - व्यवहारनय से ज्ञानावरणादि पुद्गल कर्मों का, नोकर्म का तथा घट-पटादिक का कत्र्ता है।

प्रश्न - अशुद्ध व शुद्ध निश्चयनय से किसका कर्ता है ?

उत्तर - अशुद्ध निश्चयनय से रागद्वेष आदि भाव कर्मों का कत्र्ता है, शुद्ध निश्चयनय से अपने शुद्ध चेतन भावों का कर्ता है, सूक्ष्म शुद्ध निश्चयनय से कत्र्ता-कर्म-क्रिया का भेद ही नहीं है-तीनों एक हैं।

प्रश्न - राग-द्वेषादि को अशुद्ध निश्चयनय से आत्मा के क्यों कहते हैं ?

उत्तर - कर्मोपाधि से राग-द्वेष उत्पन्न होता है इसलिए अशुद्ध है। जिस समय राग-द्वेष होते हैं, उस समय अग्नि से तपे हुए लोहे के गोले के समान तन्मय होकर होते हैं। राग-द्वेष आदि विकारों का द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव आत्मा से भिन्न नहीं रहता है अत: निश्चय है। इन दोनों से मिलकर अशुद्ध निश्चयनय शब्द की निष्पत्ति हुई है।

प्रश्न - जीव को घट-पट आदि का कत्र्ता क्यों कहा जाता है ?

उत्तर - व्यवहारनय से लौकिक दृष्टि से निमित्त-नैमित्तिक संबंध से जीव को घट-पट आदि का कत्र्ता कहा जाता है, क्योंकि घट-पट की निष्पत्ति में जीव का योग (मन-वचन-काय) उपयोग (ज्ञान) निमित्त है। निश्चयनय से पुद्गल की परिणति पुद्गल में है और आत्मा की परिणति आत्मा में है अत: आत्मा घट-पट आदि का कत्र्ता नहीं है। जैसे निश्चयनय से पुद्गल पिण्डरूप उपादान कारण से उत्पन्न घट व्यवहार में वुंâभकारकृत कहलाता है, क्योंकि उसमें कुंभकार निमित्त है, उसी प्रकार अपने उपादान से कर्मरूप परिणाम निमित्त होते हैं, अत: निमित्त की अपेक्षा से जीव कर्मों का कत्र्ता और तज्जन्य कर्मों का अनुभव करने वाला होने से भोक्ता भी कहलाता है।

जीव भोक्ता हे

ववहारा सुहदुक्खं, पुग्गलकम्मप्फलं पभुंजेदि।

आदा णिच्चयणयदो, चेदणभावं खु आदस्स।।९।।

आत्मा व्यवहार नयाश्रय से, पुद्गल कर्मों के फल नाना।

सुखदु:खों को भोगा करता, निज सुख को किंचित् नहिं जाना।।

निश्चयनय से निज आत्मा के, चेतन भावों का भोक्ता है।

निजशुद्ध ज्ञान दर्शन सहजिक, उनका ही तो अनुभोक्ता है।।९।।

अर्थ - यह आत्मा व्यवहारनय से पुद्गलमय कर्मों के फलस्वरूप ऐसे सुख और दु:ख को भोगता है और निश्चयनय से आत्मा के चेतन भाव-शुद्ध ज्ञानदर्शन को भोगता है-अनुभव करता है।

प्रश्न - आत्मा सुख-दु:ख का भोगने वाला किस अपेक्षा से है?

उत्तर - व्यवहारनय की अपेक्षा से।

प्रश्न - शुद्ध ज्ञान और शुद्ध दर्शन कौन से हैं?

उत्तर - केवलज्ञान और केवलदर्शन शुद्ध ज्ञान-दर्शन हैं। इन्हें केवलज्ञान-केवलदर्शन अथवा क्षायिकज्ञान-क्षायिकदर्शन भी कहते हैं।

प्रश्न - शुद्ध ज्ञान-दर्शन किस जीव के पाये जाते हैं?

उत्तर - अरहंत-केवली भगवान व सिद्धों में शुद्ध ज्ञान-दर्शन पाया जाता है।

प्रश्न - आत्मा शुद्ध ज्ञान-दर्शन का भोगने वाला किस नय की अपेक्षा से है?

उत्तर -निश्चयनय की अपेक्षा से।

प्रश्न - भोक्ता किसे कहते हैं ?

उत्तर - वस्तुओं को भोगने वाला, अनुभव करने वाला भोक्ता कहलाता है।

प्रश्न - सुख किसको कहते हैं ?

उत्तर - साता कर्म के उदय से उत्पन्न आल्हादरूप परिणाम को सुख कहते हैं।

प्रश्न - दु:ख किसको कहते हैं ?

उत्तर - असाता कर्म के उदय से उत्पन्न खेदरूप परिणाम को दु:ख कहते हैं। विशेष-यह आत्मा निज शुद्ध आत्मीय ज्ञान से उत्पन्न परमार्थिक सुखामृतपान से शून्य हो उपचरित असद्भूत व्यवहारनय से पंचेन्द्रियजन्य इष्ट-अनिष्ट विषयों से उत्पन्न सुख-दु:ख का भोक्ता है। अनुपचरित असद्भूत व्यवहारनय से साता-असातारूप कर्म फल का भोक्ता है। अशुद्ध निश्चयनय से हर्ष-विषादरूप सुख-दु:ख परिणामों को भोक्ता है। शुद्ध निश्चयनय से निश्चयरत्नत्रय से उत्पन्न अविनाशी आनन्दामृत का भोक्ता है।

जीव स्वदेह बराबर है

अणुगुरुदेह-पमाणो, उवसंहारप्पसप्पदो चेदा।

असमुहदो ववहारा, णिच्चयणयदोअसंखदेसो वा।।१०।।

यह आत्मा व्यवहारिक नय से, छोटे या बड़े स्व तनु में ही।

संकोच विसर्पण के कारण, रहता उस देह प्रमाण सही।।

हो समुद्घात में तनु बाहर, अतएव अपेक्षा नहिं उसकी।

निश्चयनय से होते प्रदेश, संख्यातातीत लोक सम ही।।१०।।

अर्थ - यह चेतन जीव समुद्घात अवस्था के सिवाय हमेशा व्यवहारनय की अपेक्षा संकोच और विस्तार के कारण छोटे या बड़े अपने शरीर प्रमाण रहता है और निश्चयनय से असंख्यात प्रदेश वाला है। भावार्थ-वेदना-कषाय-विक्रिया आदि के निमित्त से मूल शरीर को बिना छोड़े आत्मा के कुछ प्रदेशों का बाहर निकलना समुद्घात कहलाता है। इसके अतिरिक्त यह जीव हमेशा अपने शरीर प्रमाण ही रहता है।

प्रश्न - जीव छोटे-बड़े शरीर के बराबर प्रमाण को धारण करने वाला कैसे है?

उत्तर - जीव में संकोच-विस्तार गुण स्वभाव से पाया जाता है। इसलिए व्यवहारनय की अपेक्षा से वह अपने द्वारा कर्मोदय से प्राप्त शरीर के आकार प्रमाण को धारण करता है।

प्रश्न - इस बात को किस उदाहरण से समझा जा सकता है?

उत्तर - जिस प्रकार एक दीपक को यदि छोटे कमरे में रखा जाय तो वह उसे प्रकाशित करेगा और यदि वही दीपक किसी बड़े कमरे में रख दिया जाय तो वह उसे प्रकाशित करेगा। ठीक उसी प्रकार एक जीव जब चींटी के रूप में जन्म लेता है तो वह उसके शरीर में समा जाता है और जब वही जीव हाथी के रूप में जन्म लेता है तो उसके शरीर में समा जाता है। इससे यह स्पष्ट होता है कि जीव छोटे शरीर में पहुँचने पर उसके बराबर और बड़े शरीर में पहुँचने पर उस बड़े शरीर के बराबर हो जाता है। इसी दृष्टि से जीव को व्यवहारनय से अणुगुरु-देह प्रमाण वाला बतलाया है। समुद्घात में ऐसा नहीं होता है।

प्रश्न - समुद्घात के समय ऐसा क्यों नहीं होता?

उत्तर - इसका कारण यह है कि समुद्घात के समय जीव शरीर के बाहर फैल जाता है।

प्रश्न - जीव असंख्यातप्रदेशी किस नय की अपेक्षा से है?

उत्तर - जीव निश्चयनय की अपेक्षा से असंख्यातप्रदेशी होता है।

प्रश्न - समुद्घात किसे कहते हैं?

उत्तर - मूल शरीर से संबंध छोड़े बिना आत्मप्रदेशों का तैजस व कार्मण शरीर के साथ बाहर फैल जाना समुद्घात कहलाता है।

प्रश्न - समुद्घात कितने प्रकार का होता है?

उत्तर - समुद्घात सात प्रकार का होता है-१-वेदना समुद्घात, २-कषायसमुद्घात, ३-विक्रिया-समुद्घात, ४-मारणांतिक समुद्घात, ५-तैजस समुद्घात, ६-आहारक समुद्घात और ७-केवली समुद्घात।

प्रश्न - वेदना समुद्घात किसे कहते हैं ?

उत्तर - तीव्र वेदना (पीड़ा) के अनुभव से मूल शरीर का त्याग न करके आत्मा के प्रदेशों का शरीर से बाहर जाना, वेदना समुद्घात है।

प्रश्न - कषाय समुद्घात किसे कहते हैं ?

उत्तर - तीव्र क्रोधादिक कषायों के उदय से मूल अर्थात् धारण किये हुए शरीर को न छोड़कर जो आत्मा के प्रदेश दूसरे को मारने के लिए शरीर के बाहर जाते हैं, उसको कषाय समुद्घात कहते हैं।

प्रश्न - विक्रिया समुद्घात किसे कहते हैं ?

उत्तर - किसी प्रकार की विक्रिया (कामादिजनित विकार) उत्पन्न करने या कराने के अर्थ मूलशरीर को न त्यागकर जो आत्मा के प्रदेशों का बाहर जाना है, उसको विक्रिया समुद्घात कहते हैं, अथवा देवों के मूल शरीर को न छोड़कर अन्यत्र गमनागमन होता है, वह वैक्रियिक समुद्घात है।

प्रश्न - मारणान्तिक समुद्घात किसे कहते हैं ?

उत्तर- मरणान्त समय में मूल शरीर को न त्याग करके, जहाँ कहीं इस आत्मा ने आयु बांधा है (अग्रिम जन्मस्थान) का स्पर्श करने के लिए जो प्रदेशों का शरीर से बाह्य गमन करना मारणान्तिक समुद्धात है।

प्रश्न - तैजस समुद्घात किसे कहते हैं ?

उत्तर - संसार को रोग या दुर्भिक्ष आदि से दु:खी देखकर संयमी महामुनि के दया उत्पन्न होने पर उनकी तपस्या के प्रभाव से मूल शरीर को न छोड़कर उनके दाहिने कंधे से पुरुष के आकार का सफेद पुतला निकलकर दक्षिण प्रदक्षिणा देकर उस रोगादि को दूर कर फिर अपने स्थान में प्रवेश कर जाता है, वह शुभ तैजस समुद्घात कहलाता है। अनिष्टकारक कारण देखकर संयमी महामुनि के मन में क्रोध होने पर उनके बाँये कंधे से पुरुषाकार और सिंदूर के रंग का पुतला निकलकर जिस पर क्रोध हो उसे बांई प्रदक्षिणा से भस्म कर उस मुनि को भी भस्म कर देता है, वह अशुभ तैजस समुद्घात है।

प्रश्न - आहारक समुद्घात किसे कहते हैं ?

उत्तर - छठवें गुणस्थान के किसी ऋद्धिधारी मुनि के तत्व में शंका होने पर तपोबल से मूल शरीर को न छोड़कर मस्तक से एक हाथ बराबर पुरुषाकार, सफेद स्फटिक के समान पुतला निकलकर केवली, श्रुतकेवली के चरण मूल में जाकर अपनी श्का दूर कर अन्तर्मुहूर्त में अपने स्थान में प्रवेश करता है, उसे आहारक समुद्घात कहते हैं।

प्रश्न - केवली समुद्घात किसे कहते हैं ?

उत्तर - केवलज्ञान के होने पर मूल शरीर को न छोड़कर दण्ड, कपाट, प्रतर और लोकपूरण क्रिया द्वारा केवली की आत्मा के प्रदेशों का फैलना, केवली समुद्घात है।

जीव संसारी है

पुढविजलतेउवाऊ, वणप्फदी विविहथावरेइंदी।

विगतिगचदुपंचक्खा, तसजीवा होंति संखादी।।११।।

पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु काय, औ वनस्पतिकायिक जानो।

एकेन्द्रिय स्थावर पाँच कहे, इनके सब भेद विविध मानो।।

दो इंद्रिय त्रीन्द्रिय चतुरिन्द्रिय, और पंचेन्द्रिय त्रस माने हैं।

जो शंख पिपील भ्रमर मानव, आदिक से जाते जाने हैं।।११।।

अर्थ - पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति ये पाँच प्रकार के स्थावर एकेन्द्रय जीव होते हैं। द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय ये त्रस जीव हैं जो कि शंख, चिवटी, भ्रमर, मनुष्य आदि हैं।

प्रश्न - संसारी जीवों के कितने भेद हैं?

उत्तर - संसारी जीवों के २ भेद हैं-१-स्थावर, २-त्रस।

प्रश्न - स्थावर जीव के कितने भेद हैं?

उत्तर - पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पतिकायिक जीव ये स्थावर के पाँच भेद हैं।

प्रश्न - त्रस जीव कौन से हैं?

उत्तर - दो इंद्रिय से पाँच इंद्रिय तक के जीव त्रस हैं।

प्रश्न - शंख, चींटी, मक्खी, मनुष्य आदि कितने इंद्रिय वाले जीव हैं?

उत्तर - शंख-दो इंद्रिय जीव (स्पर्शन-रसना)। चींटी-तीन इंद्रिय जीव (स्पर्शन, रसना, घ्राण)। मक्खी-चार इंद्रिय जीव (स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु)। मनुष्य, नारकी, देव, हाथी, घोड़ा आदि पंचेन्द्रिय जीव हैं।

प्रश्न - जीव स्थावर या त्रस जीवों में किस कर्म के उदय से पैदा होता है?

उत्तर - स्थावर नामकर्म के उदय से जीव स्थावर जीवों में उत्पन्न होता है तथा त्रस नामकर्म के उदय से त्रस जीवों में उत्पन्न होता है।

चौदह जीव समास

समणा अमणा णेया, पंचिंदिय णिम्मणा परे सव्वे।

बादरसुहुमेइंदी, सव्वे पज्जत्त इदरा य।।१२।।

पंचेन्द्रिय संज्ञि असंज्ञी दो, इनसे अतिरिक्त सभी प्राणी।

होते मन रहित असंज्ञी ही, विकलेन्द्रिय तीन भेद प्राणी।।

एकेन्द्रिय बादर सूक्ष्म कहे, ये सात भेद हो जाते हैं।

पर्याप्त अपर्याप्तक दो से, सब चौदह भेद कहाते हैं।।१२।।

अर्थ — पंचेन्द्रिय जीव संज्ञी और असंज्ञी हैं तथा शेष सभी जीव असंज्ञी ही होते हैं ऐसा जानना चाहिए। बादर और सूक्ष्म ऐसे एकेन्द्रिय के दो भेद हैं। ये सभी पर्याप्तक और अपर्याप्तक होते हैं। भावार्थ—पंचेन्द्रिय के संज्ञी-असंज्ञी दो भेद, विकलेन्द्रिय के तीन भेद और एकेन्द्रिय के सूक्ष्म-बादर दो भेद ये सात हुए, इन सातों को पर्याप्त-अपर्याप्त से गुणा करने से चौदह जीव समास हो जाते हैं।

प्रश्न — पंचेन्द्रिय जीव के कितने भेद होते हैं?

उत्तर — दो भेद होते हैं—संज्ञी और असंज्ञी।

प्रश्न — मनसहित एवं मनरहित जीव कौन से हैं?

उत्तर — पंचेन्द्रिय जीव मनरहित भी होते हैं व मनसहित भी होते हैं किन्तु एकेन्द्रिय से चारइंद्रिय तक सभी जीव मनरहित होते हैं।

प्रश्न — एकेन्द्रिय जीव के कितने भेद हैं?

उत्तर — दो भेद हैं-बादर और सूक्ष्म।

प्रश्न — बादर जीव किन्हें कहते हैं?

उत्तर — जो स्वयं भी दूसरों से रुकते हैं और दूसरों को भी रोकते हैं उनको बादर जीव कहते हैं।

प्रश्न — सूक्ष्म जीव किन्हें कहते हैं?

उत्तर — जो दूसरों को नहीं रोकते हैं तथा दूसरों से रुकते भी नहीं हैं उन्हें सूक्ष्म जीव कहते हैं।

प्रश्न — पर्याप्तक जीव किन्हें कहते हैं?

उत्तर — जिन जीवों की आहारादि पर्याप्तियाँ पूर्ण हो जाये उन्हें पर्याप्तक जीव कहते हैं।

प्रश्न — अपर्याप्तक जीव किन्हें कहते हैं?

उत्तर — जिन जीवों की आहार आदि पर्याप्तियाँ पूर्ण नहीं होती हैं उन्हें अपर्याप्तक जीव कहते हैं।

प्रश्न — पर्याप्ति किसे कहते हैं?

उत्तर — गृहीत आहारवर्गणा को खल-रस-भाग आदि रूप परिणमाने की जीव की शक्ति के पूर्ण हो जाने को पर्याप्ति कहते हैं।

प्रश्न — पर्याप्तियों के कितने भेद हैं?

उत्तर — पर्याप्ति के ६ भेद हैं—१. आहार, २.शरीर, ३. इन्द्रिय, ४. श्वासोच्छ्वास, ५. भाषा, ६. मन।

प्रश्न — किस जीव की कितनी पर्याप्तियाँ हैं?

उत्तर — एकेन्द्रिय जीव के ४ पर्याप्तियाँ-आहार, शरीर, इंद्रिय और श्वासोच्छ्वास होती हैं। विकलत्रय जीव व असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीव के मन पर्याप्ति को छोड़कर पाँच होती हैं तथा सैनी पंचेन्द्रिय जीव के छहों पर्याप्तियाँ होती हैं।

प्रश्न — जीव समास किसे कहते हैं?

उत्तर — जिनके द्वारा अनेक जीव तथा उनकी अनेक प्रकार की जाति जानी जाय उन धर्मों को अनेक पदार्थों का संग्रह करने वाले होने से जीव-समास कहते हैं।

प्रश्न — चौदह जीवसमास कौन-कौन से होते हैं?

उत्तर — एकेन्द्रिय सूक्ष्म, बादर ·२ दो इन्द्रिय ·१ तीन इन्द्रिय ·१ चार इन्द्रिय ·१ पंचेन्द्रिय असैनी ·१ पंचेन्द्रिय सैनी ·१ ·७ ये सात प्रकार के जीव पर्याप्त भी होते हैं और अपर्याप्त भी होते हैं अत: ७²२·१४ जीव समास होते हैं।

उभयनय से संसारी जीव का स्वरूप

मग्गणगुणठाणेहय, चउदसिंहह-वंतितहअसुद्धणया।

विण्णेया संसारी, सव्वे सुद्धा हु सुद्धणया।।१३।।

चौदह मार्गणा तथा चौदह गुणस्थानों युत यह संसारी।

औ चौदह जीव समासों युत, जग में संसरण करें भारी।।

यह कथन अशुद्ध नयापेक्षा, इस नय से ही संसारी हैं।

फिर भी सब जीव शुद्धनय से, नितशुद्ध अवस्था धारी हैं।।१३।।

अर्थ — अशुद्धनय की अपेक्षा चौदह मार्गणा, चौदह गुणस्थान और चौदह जीव समासों के द्वारा ये जीव संसारी हैं और शुद्धनय से सभी जीव शुद्ध ही हैं, ऐसा जानना चाहिए।

प्रश्न — किस नय की अपेक्षा से जीव चौदह प्रकार के होते हैं?

उत्तर — व्यवहारनय की अपेक्षा से जीव चौदह मार्गणा, चौदह गुणस्थान वाले होने से चौदह प्रकार के होते हैं।

प्रश्न — किस नय की अपेक्षा से जीव शुद्ध माना जाता है ?

उत्तर — शुद्ध निश्चयनय की दृष्टि से।

प्रश्न — मार्गणा के कितने भेद हैं? नाम बताइये।

उत्तर — मार्गणाएँ चौदह होती हैं—१. गति मार्गणा २. इंद्रिय मार्गणा ३. कायमार्गणा ४. योगमार्गणा ५. वेदमार्गणा ६. कषायमार्गणा ७. ज्ञानमार्गणा ८. संयममार्गणा ९. दर्शनमार्गणा १०. लेश्यामार्गणा ११. भव्यत्वमार्गणा १२. सम्यक्त्व मार्गणा १३. संज्ञित्व मार्गणा १४. आहार मार्गणा।

प्रश्न — मार्गणा किसे कहते हैं?

उत्तर — जिन धर्मविशेषों के द्वारा जीवों का अन्वेषण किया जाए उन्हें मार्गणा कहते हैं।

प्रश्न — गुणस्थान किसे कहते हैं?

उत्तर — मोह और योग के निमित्त से होने वाले आत्मा के गुणों को गुणस्थान कहते हैं।

प्रश्न — गुणस्थान कितने होते हैं?

उत्तर — चौदह गुणस्थान होते हैं—१. मिथ्यात्व, २. सासादन, ३. मिश्र, ४. अविरत सम्यग्दृष्टि, ५. देशविरत, ६. प्रमत्तविरत, ७. अप्रमत्तविरत, ८. अपूर्वकरण, ९. अनिवृत्तिकरण, १०. सूक्ष्मसाम्पराय, ११. उपशान्तमोह, १२. क्षीणमोह, १३. सयोगकेवली, १४. अयोगकेवली।

प्रश्न - मिथ्यात्व गुणस्थान किसे कहते हैं ?

उत्तर - मिथ्यात्व कर्म के उदय से तत्त्वार्थ के विषय में जो अश्रद्धान उत्पन्न होता है अथवा विपरीत श्रद्धान होता है, उसको मिथ्यात्व गुणस्थान कहते हैं।

प्रश्न - सासादन गुणस्थान किसे कहते हैं ?

उत्तर - जो सम्यक्त्व की विराधना-आसादना सहित है, उसे सासादन कहते हैं, जो प्राणी सम्यक्त्वरूपी प्रासाद से गिरा हुआ है और जिसने मिथ्यात्व की भूमि का स्पर्श नहीं किया है, सम्यक्त्व एवं मिथ्यात्व इन दोनों के मध्य की जो अवस्था है, उसे सासादन गुणस्थान कहते हैं।

प्रश्न - सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थान किसे कहते हैं ?

उत्तर - सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृति के उदय से केवल सम्यक्त्वरूप या मिथ्यात्व रूप परिणाम न होकर मिश्ररूप परिणाम होते हैं। उसे सम्यग्मिथ्यात्व गुण स्थान कहते हैं।

प्रश्न - अविरतसम्यक्त्व गुणस्थान किसे कहते हैं ?

उत्तर - जो इन्द्रियों के विषय से तथा त्रस स्थावर जीवों की हिंसा से विरक्त नहीं है, किन्तु जिनेन्द्र द्वारा कथित प्रवचन का श्रद्धान करता है, अर्थात् सम्यक्त्व सहित और व्रत रहित परिणाम को अविरतसम्यक्त्व गुणस्थान कहते हैं।

प्रश्न - देशविरत गुणस्थान किसे कहते हैं ?

उत्तर - सम्यक्त्व और देशचारित्र सहित परिणाम को देशविरत गुणस्थान कहते हैं।

प्रश्न - प्रमत्तविरत गुणस्थान किसे कहते हैं ?

उत्तर - महाव्रतों सहित सम्पूर्ण मूलगुणों और शील के भेदों से युक्त होते हुए व्यक्त एवं अव्यक्त दोनों प्रकार के प्रमाद सहित परिणाम को प्रमत्तविरत गुणस्थान कहते हैं।

प्रश्न - अप्रमत्तविरत गुणस्थान किसे कहते हैं ?

उत्तर - प्रमादरहित महाव्रतों के पालन सहित परिणाम को अप्रमत्तविरत गुणस्थान कहते हैं।

प्रश्न - अपूर्वकरण गुणस्थान किसे कहते हैं ?

उत्तर - यहाँ करण का अभिप्राय अध्यवसाय, परिणाम या विचार है, अभूतपूर्व अध्यवसायों का उत्पन्न होना अपूर्वकरण गुणस्थान है।

प्रश्न - अनिवृत्तिकरण गुणस्थान किसे कहते हैं ?

उत्तर - जहाँ एक समय में सदृशपरिणाम रहते हैं, उसे अनिवृत्तिकरण गुणस्थान कहते हैं।

प्रश्न - सूक्ष्मसांपराय गुणस्थान किसे कहते हैं ?

उत्तर - समस्त कषायों को नष्ट कर केवल लोभ का अतिशय सूक्ष्म अंश जहाँ शेष रह जाता है, उसे सूक्ष्मसांपराय गुणस्थान कहते हैं।

प्रश्न - उपशांतमोह गुणस्थान किसे कहते हैं ?

उत्तर - कषायों के पूर्ण उपशमसहित परिणामों को उपशांतमोह गुणस्थान कहते हैं।

प्रश्न - क्षीणकषाय गुणस्थान किसे कहते हैं ?

उत्तर - कषायों के सर्वथा क्षय हो जाने को क्षीणकषाय गुणस्थान कहते हैं।

प्रश्न - सयोगकेवली गुणस्थान किसे कहते हैं ?

उत्तर - योग की प्रवृत्ति सहित केवलज्ञानरूप परिणामों को सयोग केवली गुणस्थान कहते हैं।

प्रश्न - अयोगकेवली गुणस्थान किसे कहते हैं ?

उत्तर - पूर्णत: योग की प्रवृत्ति रहित केवलज्ञान की अवस्था को अयोगकेवली गुणस्थान कहते हैं।

प्रश्न — शुद्धनय से संसारी जीव के कितने गुणस्थान और मार्गणा होती हैं?

उत्तर — शुद्ध निश्चयनय से संसारी जीव के गुणस्थान भी नहीं और मार्गणा भी नहीं होती हैं।

प्रश्न — क्या सिद्ध भगवान के गुणस्थान और मार्गणाएँ होती हैं?

उत्तर — सिद्ध भगवान गुणस्थान और मार्गणाओं से रहित गुणस्थानातीत व मार्गणातीत होते हैं।

सिद्ध और ऊध्र्वगमन का स्वरूप

णिक्कम्मा अट्ठगुणा,किंचूणा चरमदेहदो सिद्धा।

लोयग्गठिदा णिच्चा, उप्पादवयेहिं संजुत्ता।।१४।।

निष्कर्म जीव सब कर्मरहित, वे सिद्ध अष्ट गुण से युत हैं।

अंतिम शरीर से किंचित् कम, उत्पाद और व्यय संयुत हैं।।

स्वाभाविक ऊध्र्व गमन करके, वे नित्य निरंजन परमात्मा।

लोकाग्र शिखर पर स्थित हैं, अनुपम गुणशाली शुद्धात्मा।।१४।।

अर्थ — आठों कर्मों से रहित, आठ गुणों से सहित और अंतिम शरीर से किंचित कम ये सिद्धजीव होते हैं। नित्य और उत्पाद व्यय से सहित ये सिद्ध भगवान लोक के अग्र भाग पर विराजमान हैं। भावार्थ—लोक के ऊपर धर्मास्तिकाय का अभाव होने से ये सिद्ध भगवान लोक के अग्र भाग पर ही ठहर जाते हैं। इस प्रकार से यहाँ तक जीव के नव अधिकारों द्वारा जीव के विशेष स्वरूप बतलाये गये हैं।

प्रश्न - आठ कर्म कौन से हैं?

उत्तर - १. ज्ञानावरण २. दर्शनावरण ३. वेदनीय ४. मोहनीय ५. आयु ६. नाम ७. गोत्र ८. अंतराय।

प्रश्न - ज्ञानावरण किसे कहते हैं ?

उत्तर - जिस कर्म के उदय से जीव के ज्ञान होने में प्रतिबंध हो, जैसे बादलों का समूह सूर्य को आच्छादित कर देता है।

प्रश्न - दर्शनावरण किसे कहते हैं ?

उत्तर - जिस कर्म के उदय से आत्मा के दर्शनगुण में प्रतिबंध होता है। जैसे-राजा के दरबार में जाते हुए पुरुष को द्वारपाल रोकता है।

प्रश्न - वेदनीय कर्म किसे कहते हैं ?

उत्तर - जिस कर्म के उदय से जीव को सुख-दु:ख का अनुभव होता है। जैसे-तलवार की धार पर लगे शहद के चाटने के समान।

प्रश्न - मोहनीय कर्म किसे कहते हैं ?

उत्तर - जिस कर्म के उदय से आत्मा के श्रद्धान या चारित्र गुण का घात होता है, यह प्राणी को विवेक शून्य बना देता है। जैसे-मदिरा।

प्रश्न - आयु कर्म किसे कहते हैं ?

उत्तर - जिस कर्म के उदय से जीव नरकादि गतियों में बेड़ी की तरह बंधा हुआ या रुका रहता है, वह आयु कर्म है।

प्रश्न - नामकर्म किसे कहते हैं ?

उत्तर - जो नाना आकार, प्रकार वाले शरीर की रचना करता है। जैसे-चित्रकार विभिन्न रंग संजो-संजोकर अपनी तूलिका की सहायता से चित्र बनाता है।

प्रश्न - गोत्र कर्म किसे कहते हैं ?

उत्तर - जो जीव को नीच और ऊँच कुल में उत्पन्न करता है, वह गोत्र कर्म कहलाता है। जैसे-कुम्हार छोटे-बड़े बर्तन बनाता है।

प्रश्न - अंतराय कर्म किसे कहते हैं ?

उत्तर - जो दानादि में विघ्न डालता है, वह अन्तराय कर्म है। जैसे-अभीष्ट की प्राप्ति में बाधा देने वाला भंडारी।

प्रश्न - आठ गुण कौन से हैं?

उत्तर - १. अनंतज्ञान २. अनंतदर्शन ३. अनंतसुख ४. अनंतवीर्य ५. अव्याबाध ६. अवगाहनत्व ७. सूक्ष्मत्व और ८. अगुरुलघुत्व-ये सिद्धों के आठ गुण हैं।

प्रश्न - किस कर्म के नाश से कौन-सा गुण प्रकट होता है?

उत्तर - ज्ञानावरण कर्म के नाश से अनंतज्ञान गुण प्रकट होता है।

दर्शनावरण कर्म के नाश से अनंतदर्शन गुण प्रकट होता है।

मोहनीय कर्म के नाश से अनंतसुख गुण प्रकट होता है।

अंतराय कर्म के नाश से अनंतवीर्य गुण प्रकट होता है।

वेदनीय कर्म के नाश से अव्याबाध गुण प्रकट होता है।

आयु कर्म के नाश से अवगाहनत्व गुण प्रकट होता है।

नाम कर्म के नाश से सूक्ष्मत्व गुण प्रकट होता है।

और गोत्र कर्म के नाश होने से अगुरुलघुत्व गुण प्रकट होता है।

प्रश्न - उत्पाद किसे कहते हैं?

उत्तर - द्रव्य में नवीन पर्याय की उत्पत्ति को उत्पाद कहते हैं।

प्रश्न - व्यय किसे कहते हैं?

उत्तर - द्रव्य की पूर्व पर्याय के नाश को व्यय कहते हैं।

प्रश्न - ध्रौव्य किसे कहते हैं?

उत्तर - द्रव्य की नित्यता को ध्रौव्य कहते हैं।

जैसे-सिद्धजीवों में-संसारी पर्याय का नाश व्यय है। सिद्ध पर्याय की उत्पत्ति उत्पाद है और जीव द्रव्य ध्रौव्य है। इसी प्रकार पुद्गल में-स्वर्ण के कुण्डल पर्याय का नाश व्यय है। चूड़ी पर्याय की उत्पत्ति उत्पाद है एवं दोनों अवस्था में स्वर्णपना ध्रौव्य है।

प्रश्न - सिद्धगति में जाते समय जीव ऊध्र्वगमन क्यों करता है ?

उत्तर - प्रकृतिबंध, स्थितिबंध, अनुभाग बंध और प्रदेश बंध इन चारों बंध के छूट जाने से मुक्त जीव स्वभाव से ऊध्र्व गमन ही करता है।

प्रश्न - संसारी जीव भी ऊध्र्व गमन करता है क्या ?

उत्तर - यद्यपि संसारी जीव भी ऊध्र्वगमन कर सकता है, करता भी है-परन्तु कर्मबंध सहित होने से विदिशाओं को छोड़कर आकाश के प्रदेशों की श्रेणी के अनुसार चार दिशा में, अधो (नीचे) और ऊपर गमन करता है और कर्म रहित आत्मा ऊध्र्वगमन ही करती है।

प्रश्न - आत्मा को णिक्कम्मा (निष्कर्मा) क्यों कहते हैं ?

उत्तर - सदाशिव मत वाले जीव को सदा कर्म रहित मानते हैं-उनका निराकरण करने के लिए ‘णिक्कम्मा’ निष्कर्मा कहा गया है, क्योंकि संसारी जीव कर्म सहित है, वह कर्म नाशकर सिद्ध अवस्था प्राप्त करता है।

प्रश्न - सिद्धों में आठ गुण क्यो कहा है ?

उत्तर - नैयायिक और वैशेषिक सिद्धान्त वाले सिद्ध अवस्था में बुद्धि, सुख, दु:ख, धर्म आदि सर्व गुणों का विनाश मानते हैं अत: आचार्यों ने कहा है कि सिद्ध आत्मा, कर्म रहित होकर भी केवल ज्ञानादि आठ गुण सहित हैं।

अजीव द्रव्य और उनमें मूर्तिक-अमूर्तिक द्रव्य

अज्जीवो पुण णेओ, पुग्गल धम्मो अधम्म आयासं।

कालो पुग्गल मुत्तो, रूवादिगुणो अमुत्ति सेसादु।।१५।।

पुद्गल औ धर्म, अधर्म तथा, आकाश काल ये हैं अजीव।

इन पाँचों में पुद्गल मूर्तिक, रूपादि गुणों से युत सदीव।।

बाकी के चार अमूर्तिक हैं, स्पर्श वर्ण रस गंध रहित।

चैतन्य प्राण से शून्य अत:, ये द्रव्य अचेतन ही हैं नित।।१५।।

अर्थ — पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल ये अजीव द्रव्य पाँच प्रकार का है ऐसा जानो। इनमें से पुद्गल द्रव्य मूर्तिक है क्योंकि वह रूप, रस, गंध और स्पर्श गुण वाला है, बाकी शेष द्रव्य अमूर्तिक हैं।

प्रश्न - मूर्तिक किसे कहते हैं?

उत्तर - जिसमें रूप, रस, गंध और स्पर्श-ये गुण पाये जायें, उसे मूर्तिक कहते हैं।

प्रश्न - अमूर्तिक किसे कहते हैं?

उत्तर - जिसमें रूप, रस, गंध और स्पर्श-ये गुण नहीं पाये जाते हैं, उसे अमूर्तिक कहते हैं।

प्रश्न - परमाणु में रूपादि बीस गुणों में से कितने गुण पाये जाते हैं?

उत्तर - परमाणु में एक रस, एक गंध, एक वर्ण और दो स्पर्श पाये जाते हैं।

प्रश्न - अजीव द्रव्य कौन-कौन से हैं?

उत्तर - पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल-ये पाँच द्रव्य अजीव द्रव्य हैं।

प्रश्न - अमूर्तिक कितने हैं? मूर्तिक द्रव्य कितने हैं?

उत्तर - जीव, धर्म, अधर्म, आकाश और काल-ये अमूर्तिक द्रव्य हैं और पुद्गल द्रव्य मूर्तिक है।

प्रश्न - पुद्गल किसे कहते हैं ?

उत्तर -पूरण-गलन स्वभाव वाला द्रव्य पुद्गल कहलाता है-या जिसमें वर्ण (रंग) गंध, स्पर्श, रस पाए जाते हैं, जो इन्द्रियों के गोचर हैं, उसे पुद्गल कहते हैं। दृश्यमान अखिल जगत पुद्गल है।

प्रश्न - जीव सर्वथा अमूत्र्तिक है क्या ?

उत्तर - त्रिकाल ध्रुवस्वभाव की अपेक्षा निश्चयनय से जीव अमूत्र्तिक है और अनादिकाल से मूत्र्तिक कर्मों से बंधा हुआ है, अत: व्यवहारनय से मूत्र्तिक है। इसलिए कथंचित् मूत्र्तिक है और कथंचित् अमूत्र्तिक है।

पुद्गल द्रव्य की विभाव व्यंजन पर्यायें'

सद्दो बंधो सुहमो, थूलो संठाणभेदतमछाया।

उज्जोदादवसहिया, पुग्गल दव्वस्स पज्जाया।।१६।।

ये शब्द और जो बंध कहे, सूक्ष्मत्व और स्थूलपना।

आकार भेद तम छाया औ, उद्योत तथा आतप जितना।।

ये सब पुद्गल की पर्यायें, जो हैं विभाव व्यंजन जानो।

इन सबसे विरहित निज आत्मा को, निश्चय नय से पहचानो।।१६।।

अर्थ - शब्द, बन्ध, सूक्ष्मत्व, स्थूलत्व, भेद-खंड, अंधकार, छाया, उद्योत और आतप ये सब पुद्गल द्रव्य की पर्यायें हैं। अर्थात् इन्हें विभाव व्यंजन पर्याय कहते हैं।

प्रश्न - शब्द किसे कहते हैं ?

उत्तर - द्रव्य कर्ण (कान) इन्द्रिय के आधार से भाव कर्णेन्द्रिय के द्वारा जो ध्वनि सुनी जाती है, उसे शब्द कहते हैं।

प्रश्न - शब्द के भेद बताइये?

उत्तर - शब्द के दो भेद हैं—१-भाषारूप और २-अभाषारूप।

प्रश्न - बन्ध पर्याय के भेद बताइये?

उत्तर - बन्ध पुद्गल पर्याय के २ भेद हैं—१-वैस्रसिक और २-प्रायोगिक।

प्रश्न - सूक्ष्मता के कितने भेद है?

उत्तर - सूक्ष्मता दो प्रकार की होती है—१-अन्त्य और २-आपेक्षिक।

प्रश्न - स्थौल्य किसे कहते है? उसके भेद बताइये।

उत्तर - स्थूलता को स्थौल्य कहते हैं। यह भी दो प्रकार का है—१-अन्त्य और २-आपेक्षिक।

प्रश्न - संस्थान किसे कहते हैं?

उत्तर - आकृति को संस्थान कहते हैं। त्रिकोण, चतुष्कोण आदि आकार संस्थान हैं।

प्रश्न - भेद किसे कहते हैं?

उत्तर - वस्तु को अलग-अलग चूर्णादि करना भेद है।

प्रश्न - तम किसे कहते हैं?

उत्तर - जिससे दृष्टि में प्रतिबंध होता है और जो प्रकाश का विरोधी-अंधकार है वह तम कहलाता है।

प्रश्न - छाया किसे कहते हैं?

उत्तर - प्रकाश को रोकने वाले पदार्थों के निमित्त से जो पैदा होती है वह छाया कहलाती है। अर्थात् किसी की परछाई को छाया कहते हैं।

प्रश्न - आतप किसे कहते हैं?

उत्तर - जो सूर्य के निमित्त से उष्ण प्रकाश होता है उसे आतप कहते हैं।

प्रश्न - उद्योत किसे कहते हैं?

उत्तर - चंद्रकांतमणि और जुगनू आदि के निमित्त से जो प्रकाश होता है उसे उद्योत कहते हैं।

प्रश्न - शब्द आदि पुद्गल की पर्याय स्वभाव पर्याय है कि विभाव पर्याय?

उत्तर - शब्दादि विभाव पर्याय हैं, क्योंकि ये स्वंध के संयोग से उत्पन्न होती हैं, शुद्ध परमाणु से नहीं।

धर्म द्रव्य का स्वरूप

गइपरिणयाण धम्मो, पुग्गलजीवाण गमणसहयारी।

तोयं जह मच्छाणं, अच्छंता णेव सो णेई।।१७।।

गति क्रियाशील जो जीव और, पुद्गल नित गमन करें जग में।

इन दोनों के ही चलने में, यह धर्म द्रव्य सहकारि बने।।

जैसे मछली को चलने में, जल सहकारी बन जाता है।

नहिं रुकी हुई को प्रेरक हो, वैसे यह द्रव्य कहाता है।।१७।।

अर्थ - गति क्रिया में परिणत हुये पुद्गल और जीवों को गमन करने मे जो सहकारी है वह धर्म द्रव्य है जैसे जल मछलियों को गमन में सहकारी है किन्तु वह नहीं चलते हुये को नहीं ले जाता है। अर्थात् जैसे जल प्रेरक नहीं है वैसे ही यह द्रव्य प्रेरक नहीं है।

प्रश्न - धर्मद्रव्य का लक्षण बताओ?

उत्तर - जो जीव और पुद्गलों को चलने में सहकारी होते हैं उसे धर्मद्रव्य कहते हैं।

प्रश्न - यह धर्मद्रव्य दिखता क्यों नहीं है?

उत्तर - क्योंकि धर्मद्रव्य अमूर्तिक होता है।

प्रश्न - फिर यह धर्मद्रव्य चलने में निमित्त कैसे बनता है?

उत्तर - यह नहीं दिखते हुए भी उदासीनरूप से जीव और पुद्गल के गमन में सहकारी होता है। इसके बिना जीव-पुद्गल का गमन नहीं हो सकता है।

प्रश्न - निमित्त कितने प्रकार के होते हैं?

उत्तर - दो प्रकार के—१-प्रेरक निमित्त, २-उदासीन निमित्त।

प्रश्न - धर्मद्रव्य जीव और पुद्गल के लिए कौन-सा निमित्त है?

उत्तर - धर्मद्रव्य जीव और पुद्गल के गमन में सहकारी उदासीन निमित्त है क्योंकि यह बलपूर्वक किसी को चलाता नहीं है। हाँ , कोई चलता है तो सहायक होता है।

प्रश्न - धर्मद्रव्य कहाँ पाया जाता है?

उत्तर - सम्पूर्ण लोकाकाश में धर्मद्रव्य पाया जाता है। धर्म द्रव्य की सहायता बिना जीव पुद्गल का चलना-फिरना, एक स्थान से दूसरे स्थान जाना आदि सारी क्रियाएँ नहीं बन सकती हैं।

अधर्म द्रव्य का स्वरूप

ठाणजुदाण अधम्मो, पुग्गलजीवाण ठाणसहयारी।

छाया जह पहियाणं, गच्छंता णेव सो धरई।।१८।।

पुद्गल औ जीव ठहरते हैं, उनको जो होता सहकारी।

वह द्रव्य अधर्म कहलाता है, नहिं बल से ठहराता भारी।।

जैसे चलते पथिकों को, तरु-छाया नहिं रोके बलपूर्वक।

रुकते को मात्र सहायक है, वैसे यह द्रव्य सहायक बस।।१८।।

अर्थ - ठहरते हुए पुद्गल और जीवों को ठहरने में जो सहकारी है वह अधर्म द्रव्य है जैसे छाया पथिकों को ठहरने में सहायक है किन्तु यह द्रव्य चलते हुए को रोकता नहीं है।

प्रश्न - अधर्म द्रव्य किसे कहते हैं?

उत्तर - जो जीव और पुद्गलों को ठहरने में सहायक होता है उसे अधर्म द्रव्य कहते हैं।

प्रश्न - धर्म द्रव्य और अधर्म द्रव्य दोनों कहाँ रहते हैं?

उत्तर - ये दोनों द्रव्य सम्पूर्ण लोकाकाश में रहते हैं।

प्रश्न - अधर्म द्रव्य मूत्र्तिक है या अमूत्र्तिक ?

उत्तर - अधर्म द्रव्य अमूत्र्तिक है-मूत्र्तिक नहीं।

प्रश्न - धर्म और अधर्म द्रव्य में समान शक्ति है-या न्यूनाधिक ?

उत्तर - दोनों में समान शक्ति है। दोनों में समान शक्ति होते हुए भी परस्पर एक-दूसरे के विरोधी नहीं हैं।

आकाश द्रव्य का स्वरूप

अवगासदाण जोग्गं, जीवादीणं वियाण आयासं।

जेण्हं लोगागासं, अल्लोगागासमिदि दुविहं।।१९।।

जीवादी द्रव्यों को नित ही, अवकास दान के योग्य रहे।

जिनदेव कथित आकाश द्रव्य, उसके भी हैं दो भेद कहे।।

पहला है लोकाकाश कहा, औ दुतिय अलोकाकाश सही।

बस एक अखंड द्रव्य के भी, दो भेद हुए कारणवश ही।।१९।।

अर्थ - जीव-पुद्गल धर्म-अधर्म और काल इन द्रव्यों को अवकाश देने में योग्य आकाश द्रव्य है ऐसा तुम जानो। जिनेन्द्रदेव द्वारा कथित इस आकाश द्रव्य के लोकाकाश और अलोकाकाश ऐसे दो भेद होते हैं।

प्रश्न - आकाश द्रव्य किसे कहते हैं?

उत्तर - जीवादि पाँच द्रव्यों को रहने के लिए जो अवकाश-स्थान दे, उसे आकाश द्रव्य कहते हैं।

प्रश्न - आकाश द्रव्य का कार्य क्या है?

उत्तर - अवकाश देना आकाश द्रव्य का कार्य है।

प्रश्न - आकाश द्रव्य जीवादि द्रव्यों को अवकाश देने में कौन सा निमित्त है प्रेरक या उदासीन ?

उत्तर - आकाश अवकाश देने में उदासीन निमित्त है। जैसे धर्मद्रव्य जीव और पुद्गल को चलाने में और अधर्म द्रव्य ठहराने में और कालद्रव्य द्रव्यों को परिणमन कराने में उदासीन कारण है। जैसे सिद्ध निश्चयनय से अपने प्रदेशों में रहते हैं-उसी प्रकार निश्चयनय से सभी द्रव्य अपने में ही रहते हैं-व्यवहार नय से लोकाकाश में रहते हैं, ऐसा कहा जाता है।

प्रश्न - धर्म, अधर्म और आकाश ये तीनों द्रव्य सारे लोकाकाश में व्याप्त हैं, फिर एक-दूसरे को क्यों नहीं रोकते ?

उत्तर - ये तीनों द्रव्य अमूत्र्तिक हैं। अनादिकाल से लोकाकाश में रहते हैं अमूत्र्तिक होने से एक-दूसरे का व्याघात (रुकावट) नहीं करते हैं।

प्रश्न - पुद्गल द्रव्य से क्या होता है ?

उत्तर- पुद्गल द्रव्य के कारण ही जीव के शरीर, वचन, मन, श्वासोच्छ्वास कर्म आदि की रचना होती है। सुख, दु:ख, जीवन, मरण आदि भी पुद्गलकृत हैं।

लोकाकाश-अलोकाकाश का स्वरूप

धम्माधम्मा कालो, पुग्गलजीवा य संति जावदिये।

आयासे सो लोगो, तत्तो परदो अलोगुत्तो।।२०।।

जितने आकाश प्रदेशों में, पुद्गल औ जीव सभी रहते।

औ धर्म, अधर्म व काल रहें, बस लोकाकाश उसे कहते।।

उसके बाहर में सभी तरफ, है वृहत् अलोकाकाश रहा।

जिससे बढ़कर नहिं कोई है,फिर भी यह चेतन शून्य कहा।।२०।।

अर्थ - धर्म-अधर्म काल जीव और पुद्गल ये पाँच द्रव्य जितने आकाश में रहते हैं वह लोकाकाश है और उससे परे चारों तरफ अलोकाकाश है।

प्रश्न - लोकाकाश किसे कहते हैं?

उत्तर - जीव और अजीव द्रव्य जितने आकाश में पाये जायें उतने आकाश को लोकाकाश कहते हैं।

प्रश्न - अलोकाकाश किसे कहते हैं?

उत्तर - लोक के बाहर केवल आकाश ही आकाश है। जहाँ अन्य द्रव्यों का निवास नहीं है, इस खाली पड़े हुए आकाश को अलोकाकाश कहते हैं।

प्रश्न - लोकाकाश बड़ा है या अलोकाकाश?

उत्तर - अलोकाकाश बड़ा है। अलोकाकाश का अनन्तवाँ भाग लोकाकाश है।

प्रश्न - इतने छोटे लोकाकाश में अनन्त जीव, जीवों से भी अनन्तगुणे पुद्गल और असंख्यात कालपरमाणु वैâसे समा सकते हैं?

उत्तर - लोकाकाश अलोकाकाश से छोटा होने पर भी उसमें अवगाहन शक्ति बहुत बड़ी है। इसीलिए उसमें सभी द्रव्य समाये हुए हैं।

उदाहरण के लिए-जिस कमरे में एक दीपक का प्रकाश हो रहा है, उसी में अन्य सैकड़ों दीपक रख दिये जायें तो उनका प्रकाश भी पहले वाले दीपक में समा जाता है। आकाश एक अर्मूितक द्रव्य है। उसमें अवगाहन करने वाले सभी द्रव्य मूर्तिक और स्थूल होते तथा आकाश स्वयं भी मूर्तिक होता तो लोकाकाश में इतने द्रव्यों का अवगाहन नहीं होता। परन्तु लोकाकाश में निवास करने वाले अनन्त जीव अमूर्तिक हैं, पुद्गलों में भी कुछ सूक्ष्म हैं और कुछ बादर हैं, कालाणु, धर्म, अधर्म द्रव्य अमूर्तिक ही हैं अत: आकाश में सभी द्रव्य समाये हुए हैं, इसमें कोई विरोध नहीं आता है।

कालद्रव्य का स्वरूप

दव्वपरिवट्टरूवो, जो सो कालो हवेइ ववहारो।

परिणामादीलक्खो, वट्टणलक्खो व परमट्ठो।।२१।।

द्रव्यों में परिवर्तनकारी, व्यवहार काल कहलाता है।

परिणाम क्रियादिक लक्षण से, यह जग में जाना जाता है।।

व्यवहार और निश्चय से जो, दो भेद रूप भी हो जाता।

बस मात्र वर्तना लक्षण से, परमार्थ काल माना जाता है।।२१।।

अर्थ - काल द्रव्य के दो भेद हैं-व्यवहार और निश्चय। जो द्रव्यों में परिवर्तन कराने वाला है और परिणाम क्रिया आदि लक्षण वाला है वह व्यवहारकाल है और वर्तना लक्षण वाला परमार्थ काल-निश्चयकाल है। भावार्थ-जीव-पुद्गल आदि के परिवर्तन में अर्थात् नवीन या जीर्ण अवस्थाओं के होने में काल द्रव्य सहायक होता है। इनमें से घड़ी, घण्टा, दिन-रात आदि व्यवहार है। वर्तनारूप-सूक्ष्म परिणमनरूप निश्चयकाल है।

प्रश्न - परिणाम किसे कहते हैं?

उत्तर - समस्त द्रव्यों के स्थूल परिवर्तन को परिणाम-परिणमन कहते हैं।

प्रश्न - कालद्रव्य अन्य द्रव्यों के परिणमन में कौन सा निमित्त है?

उत्तर - उदासीन निमित्त है।

प्रश्न - वर्तना किसे कहते हैं?

उत्तर - समस्त द्रव्यों में सूक्ष्म परिवर्तन को वर्तना कहते हैं। जैसे-कपड़ा, मकान, वस्त्रादि में निरन्तर परिवर्तन होता रहता है, मनुष्य, स्त्री-पुरुष आदि के वर्षों की गणना यह काल द्रव्य का ही परिवर्तन समझना चाहिए।

प्रश्न - क्रिया किसे कहते हैं ?

उत्तर - देशान्तर में संचलनरूप या परिस्पन्दन (हलन-चलन) आदि को क्रिया कहते हैं।

प्रश्न - परत्वापरत्व किसे कहते हैं ?

उत्तर - कालकृत छोटे-बड़े के व्यवहार को परत्वापरत्व कहते हैं-जैसे यह इससे दो महीना छोटा है और यह इससे दो महीना बड़ा है आदि व्यवहार परत्वापरत्व है।

प्रश्न - निश्चयकाल किसे कहते हैं ?

उत्तर - वत्र्तना को ही निश्चयकाल कहते हैं।

प्रश्न - व्यवहारकाल किसे कहते हैं ?

उत्तर - क्रिया परिणाम, परत्वापरत्व आदि को व्यवहार काल कहते हैं तथा समय, आवलि, घटिका आदि व्यवहार भी व्यवहारकाल है।

प्रश्न - काल के अस्तित्व को क्यों स्वीकार किया जाता है ?

उत्तर - काल के अभाव में किसी को ज्येष्ठ, किसी को कनिष्ठ, नया, पुराना किस आधार पर कह सकते हैं, अत: लोकव्यवहार में काल को स्वीकार करना आवश्यक है। सारा विश्व, कालसत्ता पर ही क्षण-क्षण में परिवत्र्तित होता रहता है। वस्तुएँ देखते-देखते नवीन से पुरातन और जीर्ण-शीर्ण हो जाती हैं। सुगन्ध, दुर्गन्ध में परिवर्तित हो जाती है, यह काल का ही प्रभाव है।

काल द्रव्य की संख्या

लोयायासपदेसे, इक्केक्के जे ठिया हु इक्केक्का।

रयणाणं रासीमिव, ते कालाणू असंखदव्वाणि।।२२।।

सब लोकाकाश प्रदेशों में, इक-इक प्रदेश पर एक-एक।

कालाणू संस्थित हैं सदैव, सब पृथक रहें नहिं एकमेक।।

रत्नों की राशी के समान, वे अलग-अलग ही रहते हैं।

वे हैं असंख्य कालाणु द्रव्य, जो लोकाकाश प्रमित ही हैं।।२२।।

अर्थ - लोकाकाश के एक-एक प्रदेश पर एक-एक कालाणु स्थित हैं जो कि रत्नों की राशि के समान पृथक्-पृथक् रहते हैं। वे काल द्रव्य असंख्यात हैं। अर्थात् लोकाकाश के असंख्यात प्रदेशों पर अलग-अलग एक-एक काल द्रव्य स्थित हैं इसीलिए वे काल द्रव्य असंख्यात हैं।

प्रश्न - कालाणु असंख्यात हैं, इसका प्रमाण क्या है?

उत्तर - लोकाकाश के प्रदेश असंख्यात होते हैं अत: उन पर स्थित कालाणु भी असंख्यात होते हैं।

प्रश्न - लोकाकाश में काल द्रव्य कैसे स्थित रहते हैं?

उत्तर - लोकाकाश असंख्यप्रदेशी है। एक-एक प्रदेश पर एक-एक कालाणु रत्नराशि के समान स्थित रहते हैं।

प्रश्न - काल द्रव्य बहुप्रदेशी है या नहीं ?

उत्तर - प्रत्येक कालाणु स्वतंत्र द्रव्य है-एक समय दूसरे समय के साथ मिलता नहीं, अत: कालाणु बहुप्रदेशी नहीं है।

प्रश्न - समय किसे कहते हैं ?

उत्तर - आकाश के एक प्रदेश से एक पुद्गल परमाणु मंद गति से दूसरे आकाश प्रदेश पर और तीव्र गति से चौदह राजू प्रमाण गमन करता है, उतने काल को समय कहते हैं।

द्रव्य और अस्तिकाय के भेद

एवं छब्भेयमिदं, जीवाजीवप्पभेददो दव्वं।

उत्तं कालविजुत्तं, णायव्वा पंच अत्थिकाया दु।।२३।।

इस विधि से ये छह भेद रूप, जो द्रव्य कहे परमागम में।

वे जीव अजीवों के प्रभेद, से ही माने जिन शासन में।।

इनमें से कालद्रव्य वर्जित, जो पाँच द्रव्य रह जाते हैं।

वे ही अर्हंत देव भाषित, पंचास्तिकाय कहलाते हैं।।२३।।

अर्थ - इस प्रकार से जीव और अजीवों के प्रभेद से द्रव्य के छह भेद हो जाते हैं। इनमें से काल द्रव्य को छोड़कर शेष पाँच द्रव्य अस्तिकाय कहलाते हैं, ऐसा जानना चाहिए।

प्रश्न - कालद्रव्य को अस्तिकाय क्यों नहीं कहा है?

उत्तर - कालद्रव्य के केवल एक ही प्रदेश होता है (कालद्रव्य एकप्रदेशी है) इसलिए उसे अस्तिकाय नहीं कहा गया है।

प्रश्न - पुद्गल का एक परमाणु भी एकप्रदेशी होता है, तो उसे अस्तिकाय क्यों कहा है?

उत्तर - कालाणु सदा एक प्रदेश वाला ही रहता है किन्तु पुद्गल परमाणु में विशेषता यह पाई जाती है कि वह एक प्रदेश वाला होकर भी स्वंधरूप में परिणत होते ही नाना प्रदेश (संख्यात, असंख्यात, अनन्त) वाला हो जाता है। कालाणु में बहुप्रदेशीपने की योग्यता ही नहीं है। किन्तु परमाणु में वह योग्यता है इसलिए परमाणु को अस्तिकाय कहा गया है।

प्रश्न - कालाणु में बहुप्रदेशी होने की योग्यता क्यों नहीं है?

उत्तर - कालाणु पुद्गल के अणुओं के समान नहीं हो सकते हैं। पुद्गल परमाणु में रूप, रस आदि पाये जाते हैं इसलिए वह मूर्तिक है, स्वंâध बन जाता है। परन्तु कालाणु अमूर्तिक है, स्पर्श,रसादि गुणों से रहित है अत: उसमें बहुप्रदेशीपना बन नहीं पाता अर्थात् उसमें स्वंध बनने की योग्यता ही नहीं पाई जाती है।

प्रश्न - पुद्गल के कितने भेद हैं ?

उत्तर - अणु और स्वंध के भेद से पुद्गल दो प्रकार का है।

प्रश्न - स्वंध किसको कहते हैं ?

उत्तर - दो आदि अणुओं के संबंध को स्वंध कहते हैं।

प्रश्न - हमारी आँखों से दिखने वाले पदार्थ अणु हैं कि स्वंध ?

उत्तर - हमारी आँखों से दिखने वाले सारे पदार्थ स्वंध हैं, क्योंकि अणु आँखों का विषय नहीं है।

प्रश्न - अणु की उत्पत्ति कैसे होती है ?

उत्तर - अणु की उत्पत्ति भेद से होती है।

प्रश्न - स्वंध की उत्पत्ति कैसे होती है ?

उत्तर - स्वंध की उत्पत्ति भेद और संघात से होती है। जैसे एक सेर वस्तु में आधा सेर मिला देने से (संघात कर देने से) डेढ़ सेर का स्वंâध उत्पन्न हो जाता है, वैसे ही सेर आदि में से कुछ घटा देने पर स्वंध उत्पन्न होता है।

अस्तिकाय का स्वरूप और नाम की सार्थकता

संति जदो तेणेदे, अत्थीति भणंति जिणवरा जम्हा।

काया इव बहुदेसा, तम्हा काया या अत्थिकाया य।।२४।।

जिस हेतू से ये ‘सन्ति’ हैं इस हेतु से ही ‘अस्ति’ कहे।

इस विध श्री जिनवर कहते हैं, ये विद्यमान ही सदा रहें।।

ये बहुप्रदेश युत काय सदृश, इसलिए ‘काय’ माने जाते।

दोनों पद मिलकर ‘अस्तिकाय’ संज्ञा से ये जाने जाते।।२४।।

अर्थ - ‘‘संति’’ अर्थात् विद्यमान हैं इसीलिए ये ‘‘अस्ति’’ हैं। इस प्रकार जिनेन्द्रदेव कहते हैं और जिस हेतु से ये काय के समान बहुत प्रदेशी हैं उसी हेतु से ये ‘काय’ इस नाम को प्राप्त हैं। अत: ये ‘अस्तिकाय’ इस सार्थक नाम वाले हैं।

प्रश्न - अस्ति किसे कहते हैं?

उत्तर - जो सदा विद्यमान रहे, जिसका कभी नाश नहीं हो, वह ‘अस्ति’ कहलाता है।

प्रश्न - ‘अस्ति’ द्रव्य कितने हैं?

उत्तर - जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल ये छहों द्रव्य ‘अस्ति’ रूप हैं।

प्रश्न - ‘काय’ किसे कहते हैं?

उत्तर - जो शरीर के समान बहुप्रदेशी हो उसे काय कहते हैं।

प्रश्न - ‘काय’ संज्ञा सहित द्रव्य कितने हैं?

उत्तर - ‘काल’ द्रव्य को छोड़कर शेष पाँच द्रव्य कायसंज्ञा वाले होते हैं और काल एक प्रदेशी ही रहता है।

प्रश्न - अस्तिकाय किसे कहते हैं?

उत्तर - जो अस्तिरूप भी हो तथा काय के गुण से समन्वित भी हो, वह अस्तिकाय है।

प्रश्न - अस्तिकाय कितने हैं?

उत्तर - जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और आकाश ये पाँच अस्तिकाय हैं।

प्रश्न - कालद्रव्य अस्तिकाय क्यों नहीं है?

उत्तर - काल द्रव्य अस्तिरूप तो है किन्तु काय का लक्षण उसमें घटित नहीं होता है इसलिए वह अस्तिकाय नहीं माना जाता है।

द्रव्यों की प्रदेश संख्या

होति असंखा जीवे, धम्माधम्मे अणंत आयासे।

मुत्ते तिविह पदेसा, कालस्सेगोणतेण सो काओ।।२५।।

इक जीव धर्म व अधर्म में, माने प्रदेश हैं असंख्यात।

नभ में अनंत होते प्रदेश, औ लोकाकाश में असंख्यात।।

पुद्गल में त्रिविध प्रदेश कहें, जो संख्य असंख्य अनन्ते भी।

बस काल में एक प्रदेश कहा, नहिं काय नाम है अत: सही।।२५।।

अर्थ - एक जीव में, धर्मद्रव्य और अधर्मद्रव्य में असंख्यात प्रदेश होते हैं, आकाश द्रव्य में अनन्त प्रदेश हैं, मूर्तिक-पुद्गल द्रव्य में तीन प्रकार के-संख्यात, असंख्यात और अनन्त प्रदेश होते हैं तथा काल द्रव्य का एक प्रदेश होता है इसीलिए वह काल द्रव्य ‘काय’ नहीं होता है। भावार्थ-आकाश में से लोकाकाश में एक जीव के समान असंख्यात प्रदेश होते हैं और अलोकाकाश में अनन्त प्रदेश होते हैं। कालद्रव्य में एक प्रदेश ही है क्योंकि वे कालद्रव्य असंख्यात माने गये हैं। इसीलिए बहुप्रदेशी न होने से उन्हें ‘काय’ संज्ञा नहीं है किन्तु वह काल ‘अस्ति’ अवश्य है।

प्रश्न - जीव असंख्यात प्रदेशी कैसे माना गया है?

उत्तर - केवली समुद्घात के समय जीव सारे लोकाकाश में फैल सकता है और लोकाकाश के असंख्यात प्रदेश है। अत: जीव असंख्यात प्रदेशी कहा गया है।

प्रश्न - धर्म द्रव्य और अधर्म द्रव्य को असंख्यात प्रदेशी क्यों कहा है?

उत्तर - धर्म द्रव्य और अधर्म द्रव्य भी तिल में तेल के समान सारे लोकाकाश में व्याप्त हैं अत: ये दोनों द्रव्य भी असंख्यात प्रदेशी कहे गये हैं।

प्रश्न - आकाश द्रव्य को अनन्त प्रदेशी क्यों माना है?

उत्तर - लोक और अलोक दोनों में व्याप्त होने से आकाश की कोई सीमा नहीं है अत: वह अनन्त कहा गया है।

प्रश्न - पुद्गल द्रव्य में संख्यात, असंख्यात और अनन्त प्रदेशी ये तीनों प्रकार कैसे हैं?

उत्तर - संख्यात पुद्गल परमाणु का पिण्ड होने से वह संख्यात प्रदेशी है। असंख्यात परमाणुओें का पिण्ड होने से उसे असंख्यात प्रदेशी कहते हैं और अनन्त परमाणुओं का पिण्ड होने से वे अनन्त प्रदेशी होते हैं।

प्रश्न - काल द्रव्य को एक प्रदेशी क्यों कहा है?

उत्तर - काल के अणु रत्नों की राशि के समान एक-एक अलग रहते हैं क्योंकि एक साथ मिलकर पुद्गल के समान पिण्ड होने की शक्ति काल में नहीं है इसलिए काल एक प्रदेशी कहा गया है और वह कायवान नहीं है।

प्रश्न - समुद्घात किसे कहते हैं?

उत्तर - मूल शरीर को छोड़कर आत्मा के प्रदेशों का शरीर के बाहर निकलने का नाम समुद्घात है।

प्रश्न - समुद्घात के कितने भेद हैं?

उत्तर - समुद्घात के सात भेद हैं-वेदना, कषाय, विक्रिया, मारणान्तिक, तैजस, आहारक और केवली।

प्रश्न - वेदना समुद्घात किसे कहते हैं?

उत्तर - तीव्र वेदना से मूल शरीर को न छोड़कर आत्म प्रदेशों का बाहर निकलना वेदना समुद्घात कहलाता है।

प्रश्न - कषाय समुद्घात का लक्षण क्या है?

उत्तर - तीव्र कषाय से आत्म प्रदेशों का बाहर निकलना कषाय समुद्घात है।

प्रश्न - वैक्रियिक समुद्घात क्या होता है?

उत्तर - अनेक रूप बनाने के लिए आत्म प्रदेशों का बाहर निकलना वैक्रियिक समुद्घात कहलाता है।

प्रश्न - मारणान्तिक समुद्घात किसे कहते हैं?

उत्तर - शरीर में रहते हुए भी आगे के जन्मस्थान के स्पर्श हेतु प्रदेशों का बाहर जाना मारणांतिक समुद्घात कहा गया है।

प्रश्न -तैजस समुद्घात का क्या कार्य होता है?

उत्तर - रोगादि से दु:खी देख संयमी मुनि के दया के उत्पन्न होने पर मुनि के दाहिने कंधे से जो पुतला निकलकर रोगादि को नष्ट कर दे वह शुभ तैजस है। क्रोधादि के निमित्त से संयमी मुनि के बाएँ कंधे से पुतला निकलकर उस देश को भस्म करके मुनि को भी भस्म कर दे वह अशुभ तैजस समुद्घात कहलाता है।

प्रश्न - आहारक समुद्घात किसके होता है?

उत्तर - ऋद्धिधारी मुनि के किसी विषय में सूक्ष्म शंका आदि होने पर मस्तक से जो पुतला निकलकर केवली के पादमूल में जाकर वापस आ जावे और समाधान हो जावे वह आहारक समुद्घात है।

प्रश्न - केवली समुद्घात का लक्षण बताएँ?

उत्तर - केवली भगवान के आयु की स्थिति अन्तर्मुहूर्त रहने पर और नाम, कर्मादि की स्थिति अधिक होने पर बराबर करने के लिए दण्ड कपाट प्रतर और लोकपूरण क्रिया का होना केवली समुद्घात है।

पुद्गल का परमाणु अस्तिकाय है

एयपदेसो वि अणू, णाणाखंधप्पदेसदो होदि।

बहुदेसो उवयारा, तेण य काओ भणंति सव्वण्हू।।२६।।

जो एक प्रदेशी भी अणु है, वह कारण बहु स्कंध का।

उपचार विधी से कहलाता, वह बहुत प्रदेशी जो होगा।।

इसलिए काय संज्ञा अणु की, सर्वज्ञ देव बतलाते हैं।

पर काल द्रव्य में बहु प्रदेश की, शक्ति भी नहिं पाते हैं।।२६।।

अर्थ - एक प्रदेशी भी अणु नानाप्रदेश रूप का कारण होने से वह उपचार से बहुप्रदेशी माना है। इसीलिए सर्वज्ञदेव उसे ‘काय’ कहते हैं। भावार्थ-यद्यपि परमाणु में एक प्रदेश ही है फिर भी वह स्कं स्कंधने की शक्ति रखता है इसीलिए उस परमाणु को भी उपचार से बहुप्रदेशी मानकर काय कहा है। उस हेतु से वह अस्तिकाय माना गया है। किन्तु कालद्रव्य उपचार से भी बहुप्रदेशी नहीं हो सकता है अत: अस्ति है, काय नहीं है।

प्रश्न - परमाणु किसको कहते हैं?

उत्तर - जिसका दूसरा टुकड़ा न हो ऐसे अविभागी पुद्गल की अन्तिम अवस्था को परमाणु कहते हैं।

प्रश्न - एक प्रदेशी परमाणु बहु प्रदेशी कैसे कहा जाता है?

उत्तर - यद्यपि पुद्गल एक प्रदेशी है-तथापि नाना प्रकार के दो अणु आदि स्कंध- रूप बहुत प्रदेशी का कारण होने से पुद्गल को उपचार से बहुप्रदेशी कहा है।

प्रश्न - उपचार किसे कहते हैं?

उत्तर - किसी वस्तु को किसी निमित्त स्वभाव से भिन्नरूप कहना उपचार कहलाता है। जैसे-शुद्ध पुद्गल परमाणु स्वभाव से एकप्रदेशी है किन्तु अन्य के (पुद्गलों के) संयोग से वह (संख्यात, असंख्यात, अनंत) बहुप्रदेशी कहलाता है।

प्रश्न - जैसे परमाणु का परस्पर बंध होता है, वैसे कालाणु का क्यों नहीं होता ?

उत्तर - जिस प्रकार पुद्गल परमाणु में परस्पर बंध का कारण स्निग्धत्व- रुक्षत्व है। वैसे-कालाणु में परस्पर बंध का कारण स्निग्ध और रुक्षत्व नहीं है अत: कालाणु में परस्पर बंध नहीं होता।

प्रश्न - परमाणु किसको कहते हैं ?

उत्तर - जिसका दूसरा टुकड़ा न हो, ऐसे निर्विभाग पुद्गल की अन्तिम अवस्था को परमाणु कहते हैं।

प्रदेश का लक्षण और उसकी योग्यता

जावदियं आयासं, अविभागी पुग्गलाणु वट्ठद्धं।

तं खु पदेसं जाणे, सव्वाणुट्ठाणदाणरिहं।।२७।।

इस जितने मात्र नभस्थल को, अविभागी इक पुद्गल अणु ने।

रोका है उतने नभ को ही, इक प्रदेश संज्ञा दी प्रभु ने।।

ऐसा जो एक प्रदेश कहा, वह युगपत् सब परमाणु को।

ठहरा सकता है अपने में, तुम जानो इतना क्षम इसको।।२७।।

अर्थ - जितना मात्र आकाश एक अविभागी पुद्गल के परमाणु से रुका हुआ है उतने मात्र को तुम प्रदेश जानो। वह प्रदेश भी सभी परमाणुओं को ठहराने में समर्थ हो सकता है। भावार्थ-आकाश में एक प्रदेश में अनन्त परमाणुओं का स्वंâध भी रह सकता है। आकाश में ऐसी अवकाश देने की योग्यता विद्यमान है।

प्रश्न - प्रदेश किसको कहते हैं?

उत्तर - जितने आकाश क्षेत्र को परमाणु रोकता है-उतने आकाश क्षेत्र को प्रदेश कहते हैं।

प्रश्न - असंख्यातप्रदेशी लोक में अनन्त जीव, अनन्तानन्त पुद्गल कैसे रहते हैं?

उत्तर - यह आकाश द्रव्य में रहने वाले अवगाहन गुण का प्रभाव है। एक निगोदिया जीव के शरीर में सिद्धराशि से अनन्त गुणे जीव समाये हुए हैं। इसी प्रकार असंख्यातप्रदेशी लोकाकाश में अनन्तानन्त जीव और उनसे भी अनन्त गुणे पुद्गल समाये हुए हैं।

प्रश्न - जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल द्रव्यों की संख्या बताइये?

उत्तर - जीव-अनन्तानन्त हैं। पुद्गल-जीव द्रव्य से अनन्तगुणे पुद्गल हैं। धर्मद्रव्य, अधर्म द्रव्य-एक-एक हैं। आकाश-एक अखण्ड द्रव्य है। छ: द्रव्यों के निवास की अपेक्षा इसके दो भेद हैं-१. लोकाकाश, २. अलोकाकाश। कालद्रव्य-असंख्यात हैं।

प्रश्न - जीव और पुद्गल के संयोग से होने वाली पर्याय कौन-कौन हैं ?

उत्तर - जीव और पुद्गल की संयोगज पर्याय है आस्रव और बंध।

प्रश्न - जीव और पुद्गल वियोगज पर्याय कौन सी है ?

उत्तर - जीव और पुद्गल के वियोग से उत्पन्न होने वाली पर्याय है-मोक्ष।

प्रश्न - उन दोनों की विभागज पर्याय कौन सी है ?

उत्तर - जीव और पुद्गल की विभागज पर्याय है संवर और निर्जरा।

अथ द्वितीय अधिकार

आसव बंधणसंवर-णिज्जरमोक्खा सपुण्णपावा जे।

जीवाजीव-विसेसा, तेवि समासेण पभणामो।।२८।।


हैं जीव अजीव इन्हीं दो के, सब भेद विशेष कहे जाते।

वे आस्रव बंध तथा संवर, निर्जरा मोक्ष हैं कहलाते।।

ये सात तत्त्व हो जाते हैं, इनमें जब मिलते पुण्य पाप।

तब नौ पदार्थ होते इनको, संक्षेप विधि से कहूँ आज।।२८।।

अर्थ - जीव और अजीव के विशेष भेद रूप आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष होते हैं। ये पुण्य और पाप से सहित भी हैं। इन सबको हम संक्षेप से कहते हैं।

भावार्थ - जीव और अजीव के ही विशेष भेद आस्रव आदि रूप हैं जो कि सात तत्त्व हैं। उनमें पुण्य-पाप मिलाने से नव पदार्थ हो जाते हैं।

प्रश्न - मूल में द्रव्य कितने होते हैं?

उत्तर - दो हैं-१. जीव, २. अजीव।

प्रश्न - तत्त्व के कितने भेद हैं?

उत्तर - तत्त्व सात हैं-१. जीव, २. अजीव, ३. आस्रव, ४. बन्ध, ५. संवर, ६. निर्जरा और ७. मोक्ष

प्रश्न - पदार्थ कितने हैं?

उत्तर - सात तत्त्वों में पुण्य-पाप को मिलाने पर-जीव, अजीव, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा, मोक्ष, पुण्य और पाप ये नौ पदार्थ कहलाते हैं।

प्रश्न - जीव तत्त्व के कितने भेद हैं ?

उत्तर - जीव तत्त्व के तीन भेद हैं-बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा।

प्रश्न - बहिरात्मा किसे कहते हैं ?

उत्तर - शरीर और आत्मा को एक मानने वाला बहिरात्मा है। मिथ्यादृष्टि, जीव बहिरात्मा कहलाता है।

प्रश्न - अन्तरात्मा किसे कहते हैं ?

उत्तर - चतुर्थ गुणस्थानवर्ती सम्यग्दृष्टि से लेकर बारहवें गुणस्थान तक के जीव अन्तरात्मा हैं।

प्रश्न - परमात्मा किसको कहते हैं ?

उत्तर - अरिहंत और सिद्ध को परमात्मा कहते हैं। शरीर सहित होने से अरिहंत को सकल परमात्मा कहते हैं और कल (शरीर) से नि: (रहित) होने से सिद्धों को निकल परमात्मा कहते हैं।

प्रश्न - अजीव तत्त्व के कितने भेद हैं ?

उत्तर - अजीव तत्त्व के पाँच भेद हैं-पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल।

प्रश्न - आस्रव किसको कहते हैं ?

उत्तर - कर्मों के आने को आस्रव कहते हैं।

प्रश्न - आस्रव के कितने भेद हैं ?

उत्तर - आस्रव के दो भेद हैं-द्रव्यास्रव और भावास्रव।

प्रश्न - द्रव्यास्रव किसको कहते हैं ?

उत्तर - मिथ्यात्वादि के कारण जो पुद्गल कार्माण वर्गणा आती है, वह द्रव्यास्रव है।

प्रश्न - भावास्रव किसको कहते हैं ?

उत्तर - मिथ्यात्वादि भावों को भावास्रव कहते हैं।

प्रश्न - बंध किसको कहते हैं ?

उत्तर - आत्मा के साथ दूध पानी की भाति कर्मों का मिल जाना बंध कहलाता है।

प्रश्न - बंध के कितने भेद हैं ?

उत्तर - बंध के दो भेद हैं-द्रव्य बंध और भाव बंध।

प्रश्न - द्रव्य बंध किसे कहते हैं ?

उत्तर - आत्म प्रदेश और कर्मों का परस्पर प्रवेश हो जाना द्रव्य बंध है।

प्रश्न - भाव बंध किसको कहते हैं ?

उत्तर - जिन चेतन भावों से कर्म बंधते हैं, वह परिणाम भाव बंध है।

प्रश्न - संवर किसको कहते हैं ?

उत्तर - कर्मों के निरोध को संवर कहते हैं या आस्रव का रुक जाना ही संवर है।

प्रश्न - संवर के कितने भेद है ?

उत्तर - संवर के दो भेद हैं-द्रव्य संवर और भाव संवर।

प्रश्न - द्रव्य संवर किसको कहते हैं ?

उत्तर - ज्ञानावरणादि कर्मों के आगमन का निरोध द्रव्य संवर है।

प्रश्न - भाव संवर किसे कहते हैं ?

उत्तर - आत्मा के जिन चैतन्य भावों से द्रव्य कर्म का आना रुकता है, वह भाव संवर है।

प्रश्न - निर्जरा किसको कहते हैं ?

उत्तर - एकदेश कर्मों के क्षय को निर्जरा कहते हैं।

प्रश्न - निर्जरा के कितने भेद हैं ?

उत्तर - निर्जरा के दो भेद हैं-द्रव्य निर्जरा और भाव निर्जरा।

प्रश्न - द्रव्य निर्जरा किसको कहते हैं ?

उत्तर - पूर्वबद्ध कर्मों का झड़ जाना, आत्मा से पृथव् हो जाना द्रव्य निर्जरा है।

प्रश्न - द्रव्य निर्जरा के कितने भेद हैं ?

उत्तर - दो भेद हैं-सविपाक और अविपाक।

प्रश्न - सविपाक निर्जरा किसे कहते हैं ?

उत्तर - अपनी अवधि पूर्ण होने पर स्वत: कर्मों का उदय में आना और फल देकर झड़ जाना सविपाक निर्जरा है।

प्रश्न - अविपाक निर्जरा किसे कहते हैं ?

उत्तर - तप आदि विशिष्ट साधना से बलात्कर्मों का उदय में आकर झड़ जाना अविपाक निर्जरा है।

प्रश्न - भाव निर्जरा किसे कहते हैं ?

उत्तर - तप आदि विशिष्ट साधना से बलात्कर्मों का उदय में लाकर झड़ जाना अविपाक निर्जरा है।

प्रश्न - भाव निर्जरा किसे कहते हैं ?

उत्तर - आत्मा के जिन परिणामों से एकदेश कर्म छूटते हैं, उन परिणामों को भाव निर्जरा कहते हैं।

प्रश्न - मोक्ष किसको कहते हैं ?

उत्तर - संवर द्वारा नवीन कर्मों का आगमन रुक जाने पर और निर्जरा द्वारा पूर्वबद्ध कर्मों के क्षीण हो जाने पर आत्मा की पूर्ण निष्कर्म दशा प्राप्त हो जाती है-आत्मा कर्म उपाधि से रहित हो जाती है, उसको मोक्ष कहते हैं।

प्रश्न - मोक्ष के कितने भेद हैं ?

उत्तर - मोक्ष के दो भेद हैं-द्रव्य मोक्ष और भाव मोक्ष।

प्रश्न - द्रव्यमोक्ष किसको कहते हैं ?

उत्तर - ज्ञानावरणादि आठो कर्मों से आत्मा का पृथक् हो जाना द्रव्यमोक्ष है।

प्रश्न - भावमोक्ष किसे कहते हैं ?

उत्तर - कर्म आगमन के कारणभूत राग-द्वेषादि भावों का नाश हो जाना भावमोक्ष है।

प्रश्न - पुण्य किसको कहते हैं ?

उत्तर - जो आत्मा को पवित्र करता है अथवा पवित्रता की ओर ले जाता है, वह पुण्य कहलाता है।

प्रश्न - पुण्य के कितने भेद हैं ?

उत्तर - पुण्य के दो भेद हैं-भाव पुण्य और द्रव्य पुण्य।

प्रश्न - द्रव्य पुण्य किसे कहते हैं ?

उत्तर - कर्मजन्य पुण्य प्रकृतियों को द्रव्य पुण्य कहते हैं।

प्रश्न - भाव पुण्य किसे कहते हैं ?

उत्तर - जीव के जिन परिणामों से शुभ कर्म प्रकृतियों का आगमन होता है, वह परिणाम भाव पुण्य है।

प्रश्न - पाप किसे कहते हैं ?

उत्तर - जो आत्मा को शुभ क्रियाओं में नहीं जाने देता, जो आत्मा का पतन करता है, वह पाप कहलाता है।

प्रश्न - पाप के कितने भेद है ?

उत्तर - पाप के दो भेद हैं-भाव पाप और द्रव्य पाप।

प्रश्न - भाव पाप किसे कहते हैं ?

उत्तर - मिथ्यात्व आदि जीव के परिणामों को भाव पाप कहते हैं ?

प्रश्न - द्रव्य पाप किसे कहते हैं ?

उत्तर - मिथ्यात्वादि अशुभ कर्म प्रकृतियों को द्रव्य पाप कहते हैं।

भावास्रव और द्रव्यास्रव

आसवदि जेण कम्मं, परिणामेणप्पणो स विण्णेयो।

भावासवो जिणुत्तो, कम्मासवणं परो होदि।।२९।।

आत्मा के जिन परिणामों से, कर्मों का आना होता है।

जिनराज कथित परिणाम वही, भावास्रव जाना होता है।।

जो कर्मों का आना होता, वह द्रव्यास्रव कहलाता है।

आस्रव के कारण समझ जीव, सब आस्रव से छुट जाता है।।२९।।

अर्थ - आत्मा के जिन परिणामों से कर्म आता है उस परिणाम को जिनेन्द्र द्वारा कहा गया भावास्रव ्नााम से जानना चाहिये। इससे भिन्न कर्मों का आना द्रव्यास्रव होता है।

प्रश्न - आस्रव किसे कहते हैं?

उत्तर - आत्मा में कर्मों का आना आस्रव कहलाता है।

प्रश्न - आस्रव के कितने भेद हैं?

उत्तर - दो भेद हैं-१. भावास्रव, २. द्रव्यास्रव।

प्रश्न - भावास्रव किसे कहते हैं?

उत्तर - मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योगरूप जिन परिणामों से कर्मों का आस्रव होता है उन परिणामों को भावास्रव कहते हैं।

प्रश्न - द्रव्यास्रव का क्या लक्षण है?

उत्तर - ज्ञानावरणादि पुद्गल कर्मों का आना द्रव्यास्रव कहलाता है।

प्रश्न - द्रव्यास्त्रव और भावास्त्रव में अन्तर क्या है ?

उत्तर - इन दोनों में परस्पर निमित्त-नैमित्तक भाव है। जीव के रागादि भावों का निमित्त पाकर पुद्गल वर्गणा स्वयमेव अपने उपादान से कर्मरूप परिणत हो जाती है और मिथ्यात्व आदि द्रव्यकर्मप्रकृति का निमित्त प्राप्त कर स्वयं परिणमनशील आत्मा अपनी उपादान शक्ति से रागद्वेषरूप परिणमन करता है अत: द्रव्यास्त्रव से भावास्त्रव और भावास्त्रव से द्रव्यास्त्रव होता है।

भावास्रव के भेद

मिच्छत्ताविरदिपमाद - जोगकोहादओथ विण्णेया।

पण पण पण दह तिय चदु, कमसो भेदा दु पुव्वस्स।।३०।।

मिथ्यात्व पाँच अविरती पाँच, पन्द्रह प्रमाद त्रय योग कहे।

क्रोधादि कषायें चार कहीं, सब मिलकर बत्तीस भेद लहे।।

आत्मा के इन सब भावों से, कर्मों का आस्रव होता है।

जो इन भावों से बचता है, वह द्रव्यास्रव को खोता है।।३०।।

अर्थ - पाँच मिथ्यात्व, पाँच अविरति, पन्द्रह प्रमाद, तीन योग और चार कषाय इस प्रकार क्रम से भावास्रव के बत्तीस भेद जानना चाहिये।

भावार्थ - एकांत, विपरीत, विनय, संशय और अज्ञान ये पाँच मिथ्यात्व हैं। हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह ये पाँच अविरति हैं। चार विकथा, चार कषाय, पाँच इन्द्रियों के विषय, निद्रा और स्नेह ये पन्द्रह प्रमाद हैं। मन, वचन और काय इनके निमित्त से आत्म प्रदेशों का परिस्पंदन ये तीन प्रकार का योग है और क्रोध, मान, माया तथा लोभ ये चार कषायें हैं।

प्रश्न - भावास्रव के कितने भेद हैं?

उत्तर - भावास्रव के पाँच भेद हैं-मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग।

प्रश्न - भावास्रव के अन्य और भेद बताइये।

उत्तर - भावास्रव के विस्तार से ३२ भेद हैं-५ मिथ्यात्व, ५ अविरति, १५ प्रमाद, ३ योग, ४ कषाय · ३२।

प्रश्न - मिथ्यात्व किसे कहते हैं? इसके पाँच भेद कौन-से हैं?

उत्तर - तत्त्व का श्रद्धान नहीं होना मिथ्यात्व कहलाता है। इसके पाँच भेद हैं-एकान्त, विपरीत, संशय, वैनयिक एवं अज्ञान।

प्रश्न - एकान्त मिथ्यात्व किसे कहते हैं ?

उत्तर - अनेक धर्मात्मक वस्तु को एकान्तरूप से मानना एकान्त मिथ्यात्व है, जैसे आत्मा नित्य ही है-या अनित्य ही है।

प्रश्न - विपरीत मिथ्यात्व किसे कहते हैं ?

उत्तर - धर्म के स्वरूप का विपरीत श्रद्धान करना-विपरीत मिथ्यात्व हैं, जैसे हिंसादि से स्वर्ग को प्राप्ति मानना।

प्रश्न - विनय मिथ्यात्व किसे कहते हैं ?

उत्तर - विनय का अर्थ सत्कार है-बिना विवेक चाहे जिस किसी का सत्कार करना विनय मिथ्यात्व है।

प्रश्न - संशय मिथ्यात्व किसे कहते हैं ?

उत्तर - वस्तु के स्वरूप का निश्चय न करने वा निरंतर संशयालु रहने को संशय मिथ्यात्व कहते हैं।

प्रश्न - अज्ञान मिथ्यात्व किसे कहते हैं ?

उत्तर - हित एवं अहित की परीक्षा से शून्य विश्वास को अज्ञान मिथ्यात्व कहते हैं।

प्रश्न - अविरति किसे कहते हैं? उसके पाँच भेद कौन-से हैं?

उत्तर - पाँच पापों से विरत (त्याग) नहीं होना अविरति है। उसके पाँच भेद हैं-हिंसा अविरति, असत्य अविरति, चौर्य अविरति, कुशील अविरति और परिग्रह अविरति।

प्रश्न - प्रमाद किसे कहते हैं? इसके पन्द्रह भेद कौन-कौन से हैं?

उत्तर - शुभ क्रियाओं में यत्नपूर्वक-सावधानीपूर्वक प्रवृत्ति नहीं करना प्रमाद है। इसके पन्द्रह भेद हैं-४ विकथा, ४ कषाय, ५ इन्द्रिय विषय, १ निद्रा और १ स्नेह हैं।

प्रश्न - विकथा किसे कहते हैं ?

उत्तर - संयम की विरोधी कथाओं या वाक्य प्रबंधों को विकथा कहते हैं।

प्रश्न - विकथा कितने प्रकार की होती है ?

उत्तर - स्त्रीकथा, भोजनकथा, राष्ट्रकथा, राजकथा, ये चार प्रकार की विकथा होती है।

प्रश्न - कषाय किसे कहते हैं ?

उत्तर - जिससे आत्मा के संयम गुण का घात होता है, जो आत्मा को कषती है, दु:ख देती है, उसे कषाय कहते हैं-उसके चार भेद है-क्रोध, मान, माया, लोभ।

प्रश्न - इन्द्रियाँ किसे कहते हैं ?

उत्तर - जो आत्मा का चिन्ह है-जिसके द्वारा कर्म कल्मष आत्मा रस-रूप आदि को ग्रहण करता है, उन्हें इन्द्रियाँ कहते हैं। स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और कर्ण ये पाँच इन्द्रियाँ होती हैं।

प्रश्न - निद्रा किसे कहते हैं ?

उत्तर - स्पर्शन, रसना आदि पाँचों इन्द्रियाँ जब अपने-अपने विषय को ग्रहण करने में असमर्थ हो जाती हैं, उसको निद्रा कहते हैं।

प्रश्न - योग किसे कहते हैं? उसके कितने भेद हैं?

उत्तर - मन, वचन, काय की क्रिया को योग कहते हैं। इसके तीन भेद हैं-मनोयोग, वचनयोग और काययोग।

द्रव्यास्रव का स्वरूप और भेद

णाणावरणादीणं, जोग्गं जं पुग्गलं समासवदि।

दव्वासवो च णेओ, अणेयभेयो जिणक्खादो।।३१।।

ज्ञानावरणादी कर्मों के, जो योग्य कहे पुद्गल जग में।

वे आते हैं उनको समझो, द्रव्यास्रव वह हो क्षण क्षण में।।

श्री जिनवर ने द्रव्यास्रव के, हैं भेद अनेकों बतलाये।

वे आठ तथा इकसौ अड़तालिस, औ असंख्य भी कहलाये।।३१।।

अर्थ - ज्ञानावरण आदि द्रव्य कर्मों के योग्य जो पुद्गल वर्गणाओं का आस्रव होता है उसे द्रव्यास्रव जानना चाहिये। उसके जिनेन्द्रदेव द्वारा कथित अनेक भेद होते हैं अर्थात् कर्म के ज्ञानावरण-दर्शनावरण आदि आठ भेद और मति ज्ञानावरण आदि एक सौ अड़तालिस अथवा असंख्यात लोक प्रमाण भी भेद होते हैं।

प्रश्न - द्रव्यास्रव किसे कहते हैं?

उत्तर - ज्ञानावरणादि आठ कर्मों के योग्य जो पुद्गल परमाणु आते हैं, उन्हें द्रव्यास्रव कहते हैं।

प्रश्न - द्रव्यास्रव कितने प्रकार का है?

उत्तर - द्रव्यास्रव संक्षेप में आठ प्रकार का है-ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय।

प्रश्न - द्रव्यास्रव के और कितने भेद हैं?

उत्तर - द्रव्यास्रव के विस्तार से १४८ भेद हैं-ज्ञानावरण ५, दर्शनावरण ९, वेदनीय २, मोहनीय २८, आयु ४, नाम ९३, गोत्र २ और अन्तराय ५ के भेद से १४८ प्रकार का है।

भावबंध और द्रव्यबंध

बज्झदि कम्मं जेण दु, चेदणभावेण भावबंधो सो।

कम्मदपदेसाणं अण्णोण्णपवेसणं इदरो।।३२।।

जिन चेतन के परिणामों से, ये कर्म जीव से बंधते हैं।

उन भावों को ही भाव बंध, संज्ञा श्री जिनवर कहते हैं।।

जो कर्म और आतम प्रदेश, इनका आपस में मिल करके।

अति एकमेक हो बंध जाना, यह द्रव्यबंध है बहुविध से।।३२।।

अर्थ - आत्मा के जिन भावों से कर्म बंधता है वह आत्मा का भाव ही भाव बंध कहलाता है, कर्म और आत्मा के प्रदेशों का परस्पर में प्रवेश हो जाना—मिल जाना द्रव्य बंध कहलाता है।

प्रश्न - बन्ध किसे कहते हैं?

उत्तर - जीव कषाय सहित होने से कर्म के योग्य कार्मण वर्गणारूप पुद्गल परमाणुओं को जो ग्रहण करता है, वह बन्ध है।

प्रश्न - बन्ध के कितने भेद हैं?

उत्तर - दो भेद हैं-१. भावबन्ध २.द्रव्यबन्ध

प्रश्न - भावबन्ध किसे कहते हैं?

उत्तर - जिन मिथ्यात्वादि आत्म-परिणामों से कर्म बँधता है वह भावबन्ध कहलाता है।

प्रश्न - द्रव्यबन्ध किसे कहते हैं?

उत्तर - पुद्गल कर्मों से जो कर्मबन्ध होता है उसे द्रव्यबन्ध कहते हैं।

बन्ध के भेद और कारण

पयडिट्ठिदिअणुभाग-प्पदेसभेदा दु चदुविधो बंधो।

जोगा पयडिपदेसा, ठिदि अणुभागा कसायदो होंति।।३३।।

प्रकृति, स्थिती, अनुभाग बंध, औ प्रदेश बंध ये चार कहे।

इनमें से योगों के वश से, प्रकृती प्रदेश दो बंध कहे।।

होते कषाय से स्थिति औ, अनुभाग बंध बहु दु:खकारी।

इनके ही वश से जीव भ्रमे, अतएव कषाय दु:खकारी।।३३।।

अर्थ - प्रकृति बन्ध, स्थिति बन्ध, अनुभाग बन्ध और प्रदेश बन्ध इन भेदों से बन्ध चार प्रकार का है। इनमें से प्रकृति और प्रदेश बन्ध योग के निमित्त से होते हैं तथा स्थिति और अनुभाग बन्ध कषाय से होते हैं।

प्रश्न - प्रकृतिबन्ध का क्या लक्षण है ?

उत्तर - कर्मों के स्वभाव को प्रकृतिबन्ध कहते हैं। जैसे-ज्ञानावरणादि।

प्रश्न - स्थितिबन्ध किसे कहते हैं ?

उत्तर - ज्ञानावरणादि कर्मों का अपने स्वभाव से च्युत नहीं होना सो स्थितिबन्ध है।

प्रश्न - अनुभागबन्ध किसे कहते हैं ?

उत्तर - ज्ञानावरणादि कर्मों के रस विशेष को अनुभागबन्ध कहते हैं।

प्रश्न - प्रदेशबन्ध किसे कहते हैं ?

उत्तर - ज्ञानावरणादि कर्मरूप होने वाले पुद्गल स्कन्धों के परमाणुओं की संख्या को प्रदेशबन्ध कहते हैं।

प्रश्न - चारों प्रकार के बन्ध किन-किन निमित्तों से होते हैं ?

उत्तर - इन चारों प्रकार के बन्धों में प्रकृति और प्रदेशबन्ध योग के निमित्त से होते हैं तथा स्थिति और अनुभागबन्ध कषाय के निमित्त से होते हैं।

भावसंवर और द्रव्यसंवर का स्वरूप

चेदणपरिणामो जो, कम्मस्सासवणिरोहणे हेऊ।

सो भावसंवरो खलु, दव्वासवरोहणे अण्णो।।३४।।

आत्मा का जो परिणाम हुआ, कर्मों का आस्रव रोकन में।

हेतू होता वह कहा भाव-संवर जावे जिनवर वच में।।

जो द्रव्यास्रव के रोधन में, कारण होता है श्रुत ख्याता।

वह कहा द्रव्यसंवर जाता, इन दोनों से भव नश जाता।।३४।।

अर्थ - आत्मा का जो परिणाम कर्मों के आस्रव के रोकने में कारण है वह परिणाम ही भावसंवर है और द्रव्यास्रव के रोकने में जो कारण है वह द्रव्यसंवर कहलाता है।

प्रश्न - संवर के कितने भेद हैं ?

उत्तर - दो भेद हैं-१. भावसंवर २. द्रव्यसंवर।

प्रश्न - भावसंवर किसे कहते हैं ?

उत्तर- आस्रव को रोकने में कारणभूत आत्म-परिणाम भावसंवर है।

प्रश्न - द्रव्यसंवर किसे कहते हैं ?

उत्तर - कर्मरूप पुद्गल द्रव्य का आस्रव रुकना द्रव्यसंवर है।

प्रश्न - संवर किसको होता है ?

उत्तर - संवर तो सम्यग्दृष्टि के ही होता है, क्योंकि कर्म आस्रव के कारण मिथ्यात्व का नाश होता है अत: मिथ्यात्व और अनन्तानुबंधी कषाय से आने वाली इकतालीस कर्म प्रकृतियों का निरोध हो जाता है, कर्म प्रकृतियों का आना रुक जाना ही संवर है, मिथ्यादृष्टि के एक भी प्रकृति का निरोध नहीं होता है।

भावसंवर के भेद

वदसमिदी गुत्तीओ, धम्माणुपिहा परीसहजओ य।

चारित्तं बहुभेयं, णायव्वा भावसंवरविसेसा।।३५।।

व्रत पाँच समिति भी पाँच-गुप्ति हैं तीन धर्म दशरूप कहे।

अनुप्रेक्षा बारह परिषहजय, बाईस सु चारित पाँच कहे।।

ये कहे भाव संवर जिन ने, सब बासठ भेद समझ लीजे।

इनके पालन से आत्मा में, कर्मास्रव का रोधन कीजे।।३५।।

अर्थ - व्रत, समिति, गुप्ति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परीषहजय और बहुत प्रकार के चारित्र ये सब भावसंवर के विशेष भेद जानने चाहिये।

प्रश्न - संक्षेप में भावसंवर के कितने भेद हैं ?

उत्तर - सात भेद हैं-१. व्रत, २. समिति, ३. गुप्ति, ४. धर्म, ५. अनुप्रेक्षा, ६. परिषहजय और ७. चारित्र।

प्रश्न - विस्तार से भावसंवर के कितने भेद हैं ?

उत्तर - विस्तार से भावसंवर के ६२ भेद हैं-५ व्रत, ५ समिति, ३ गुप्ति, १० धर्म, १२ अनुप्रेक्षा, २२ परीषहजय और ५ चारित्र।

प्रश्न - व्रत किसे कहते हैं ? और उनके क्या नाम हैं ?

उत्तर - पाँच पापों का त्याग करना व्रत है। व्रत ५ होते हैं-१. अिंहसाव्रत, २. सत्यव्रत, ३. अचौर्यव्रत, ४. ब्रह्मचर्यव्रत और ५. परिग्रहपरिमाणव्रत।

प्रश्न - समिति किसे कहते हैं ? पाँच समितियाँ कौन-सी हैं ?

उत्तर - जीवों की रक्षा के लिए यत्नाचारपूर्वक प्रवृत्ति करने को समिति कहते हैं। पाँच समितियाँ हैं-१. ईर्या समिति, २. भाषा समिति, ३. एषणा समिति, ४. आदाननिक्षेपण समिति और ५. प्रतिष्ठापना समिति।

प्रश्न - गुप्ति किसे कहते हैं ? उसके भेद बताइये ?

उत्तर - संसार भ्रमण के कारणभूत मन, वचन, काय तीनों योगों का निग्रह करना गुप्ति है। उसके तीन भेद हैं-मनोगुप्ति, वचनगुप्ति तथा कायगुप्ति।

प्रश्न - धर्म किसे कहते हैं ? उसके दस भेद कौन-से हैं ?

उत्तर - जो आत्मा को संसार के दु:खों से छुड़ाकर उत्तम सुख में प्राप्त करावे उसे धर्म कहते हैं। दस धर्म-१. उत्तम क्षमा, २. उत्तम मार्दव, ३. उत्तम आर्जव, ४. उत्तम शौच, ५. उत्तम सत्य, ६. उत्तम संयम, ७. उत्तम तप, ८. उत्तम त्याग, ९. उत्तम आकिञ्चन्य, १०. उत्तम ब्रह्मचर्य।

प्रश्न - अनुप्रेक्षा का लक्षण व उसके बारह भेद बताइये ?

उत्तर - शरीरादिक के स्वरूप का बार-बार चिन्तन करना अनुप्रेक्षा है। बारह अनुप्रेक्षाएँ-१. अनित्य, २. अशरण, ३. संसार, ४. एकत्व, ५. अन्यत्व, ६. अशुचि, ७. आस्रव, ८. संवर, ९. निर्जरा, १०. लोक, ११. बोधिदुर्लभ और १२. धर्म।

प्रश्न - परीषहजय किसे कहते हैं ? उसके बाईस भेदों के नाम बताइये।

उत्तर - क्षुधा, तृषा (भूख-प्यास) आदि की वेदना होने पर कर्मों की निर्जरा के लिए उसे शान्त भावों से सह लेना परीषहजय कहलाता है। बाईस परीषह के नाम-१. क्षुधा, २. तृषा, ३. शीत, ४. उष्ण, ५. दंशमशक, ६. नाग्न्य,७. अरति, ८. स्त्री, ९. चर्या, १०. निषद्या, ११. शय्या, १२. आक्रोश, १३. वध, १४. याचना, १५. अलाभ, १६. रोग, १७. तृणस्पर्श, १८. मल, १९. सत्कार-पुरस्कार, २०. प्रज्ञा, २१. अज्ञान, २२. अदर्शन। इन २२ परीषहों को जीतना २२ प्रकार का परीषहजय है।

प्रश्न - उपसर्ग और परीषह में क्या अन्तर है ?

उत्तर - उपसर्ग कारण है और परीषह कार्य है।

प्रश्न - चारित्र का लक्षण बताकर उसके भेद बताइये ?

उत्तर - कर्मों के आस्रव में कारणभूत बाह्य-आभ्यन्तर क्रियाओं के रोकने को चारित्र कहते हैं। चारित्र पाँच प्रकार का होता है-१. सामायिक, २. छेदोपस्थापना, ३. परिहारविशुद्धि, ४. सूक्ष्मसाम्पराय और ५. यथाख्यात।

नर्जरा का स्वरूप

जह कालेण तवेण य, भुत्तरसं कम्मपुग्गलं जेण।

भावेण सडदि णेया, तस्सडणं चेदि णिज्जरा दुविहा।।३६।।

जिन परिणामों से यथाकाल, फल देकर पुद्गल कर्म झड़ें।

औ जिन भावों से तप द्वारा, फल दे अकाल में कर्म झड़ें।।

बस भाव निर्जरा कहलाता, है भाव वही ऐसा जानो।

है द्रव्य निर्जरा कर्मों का, झड़ना यह बात सही मानो।।

अर्थ — यथाकाल—काल पूर्ण होने पर और तप के द्वारा जिनका फल भोग लिया है ऐसे पुद्गल कर्म जिन भावों से झड़ जाते हैं उन भावों को भाव निर्जरा जानना चाहिये और पुद्गल कर्मों का झड़ जाना ही द्रव्य निर्जरा है ऐसे निर्जरा के भी दो भेद हैं।

भावार्थ — फल देकर आत्मा से कर्मों का एक देश अलग होना निर्जरा कहलाती है। कर्मों की स्थिति पूरी होने पर जब वे उदय में आते हैं और उनका फल भोग लिया जाता है तब वे निर्जीर्ण हो जाते हैं। वह सविपाक-निर्जरा है तथा अकाल में तप आदि के द्वारा कर्मों का उदय में आकर खिर जाना अविपाक निर्जरा है। ये दोनों भेद भाव-निर्जरा और द्रव्य-निर्जरा दोनों में ही हो जाते हैं।

प्रश्न — निर्जरा किसे कहते हैं ? उसके भेद बताइये।

उत्तर — बँधे हुए कर्मों का एकदेश झड़ना निर्जरा कहलाती है। निर्जरा के दो भेद हैं—१. भाव-निर्जरा, २. द्रव्य-निर्जरा। सविपाक और अविपाक निर्जरा के भेद से भी निर्जरा दो प्रकार की है।

प्रश्न — भाव निर्जरा का स्वरूप बताओ।

उत्तर — जिन परिणामों से बँधे हुए कर्म एकदेश झड़ जाते हैं उन परिणामों को भाव निर्जरा कहते हैं।

प्रश्न — द्रव्य निर्जरा का लक्षण क्या है ?

उत्तर— बँधे हुए द्रव्य कर्मों का एकदेश निर्जीर्ण होना द्रव्य निर्जरा है।

प्रश्न — सविपाक निर्जरा किसे कहते हैं ?

उत्तर — अपनी अवधि पाकर या फल देकर बँधे हुए कर्मों का एकदेश झड़ना सविपाक निर्जरा है। यह निर्जरा समय के अनुसार पककर अपने आप गिरे हुए आम के समान होती है।

प्रश्न — अविपाक निर्जरा का क्या स्वरूप है ?

उत्तर — तपश्चरण के द्वारा समय से पहले ही बँधे हुए कर्मों का एकदेश झड़ना अविपाक निर्जरा है। यह निर्जरा पाल में रखकर पकाये गये आम के समान होती है।

प्रश्न — तप किसे कहते हैं तथा तप के कितने भेद हैं ?

उत्तर — सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्ररूप रत्नत्रय को प्रकट करने के लिये इच्छाओं का निरोध करना तप कहलाता है। मुख्यरूप से तप दो प्रकार का है—१. बाह्य तप तथा २. आभ्यन्तर तप।

प्रश्न — बाह्य तप किसे कहते हैं ?

उत्तर — जो बाहर से देखने में आता है अथवा जिसे सभी लोग पालन करते हैं, वह बाह्य तप है।

प्रश्न — बाह्य तप के कितने भेद हैं ?

उत्तर — बाह्य तप के छह भेद हैं—१. अनशन, २. अवमौदर्य, ३.वृत्तिपरिसंख्यान, ४. रसपरित्याग, ५. विविक्तशय्यासन और ६. कायक्लेश।

प्रश्न — आभ्यन्तर तप किसे कहते हैं ?

उत्तर — जिन तपों का आत्मा से सीधा सम्बन्ध होता है वे आभ्यन्तर तप कहे जाते हैं।

प्रश्न — आभ्यन्तर तप के कितने भेद हैं ?

उत्तर — आभ्यन्तर तप के छह भेद हैं—१. प्रायश्चित, २. विनय, ३. वैय्यावृत्य, ४. स्वाध्याय, ५. व्युत्सर्ग और ६. ध्यान।

प्रश्न — प्रायश्चित तप के कितने भेद हैं, उनके नाम बतायें ?

उत्तर — प्रायश्चित तप के नव भेद होते हैं—१. आलोचना, २. प्रतिक्रमण, ३. तदुभय, ४. विवेक, ५. व्युत्सर्ग, ६. तप, ७. छेद, ८. परिहार, ९. उपस्थापना।

प्रश्न — विनय के भेद तथा नाम बताइये ?

उत्तर — विनय के चार भेद हैं—१. ज्ञान विनय, २. दर्शन विनय, ३. चारित्र विनय तथा ४. उपचार विनय।

प्रश्न — वैय्यावृत्य तप के भेद व नाम बताइये ?

उत्तर — वैय्यावृत्य तप के १० भेद हैं—१. आचार्य, २. उपाध्याय, ३. तपस्वी, ४. शैक्ष्य, ५. ग्लान, ६. गण, ७. कुल, ८. संघ, ९. साधु, १०. मनोज्ञ। इन दस प्रकार के मुनियों की सेवा करना दस प्रकार का वैय्यावृत्य है।

प्रश्न — स्वाध्याय तप के भेद व नाम बताओ ?

उत्तर — स्वाध्याय तप पाँच प्रकार का है—१. वाचना, २. पृच्छना, ३. अनुप्रेक्षा, ४. आम्नाय और ५. धर्मोपदेश।

प्रश्न — व्युत्सर्ग तप के भेद व नाम बताइये ?

उत्तर — व्युत्सर्ग तप के दो भेद हैं—बाह्य और आभ्यन्तर। धन-धान्यादि बाह्य परिग्रहों का त्याग बाह्य व्युत्सर्ग है तथा क्रोधादि अशुभ भावों का त्याग करना आभ्यन्तर व्युत्सर्ग तप है।

प्रश्न — ध्यान तप के भेद व नाम बताओ ?

उत्तर — ध्यान तप के चार भेद हैं—१. आत्र्त ध्यान, २. रौद्र ध्यान, ३. धम्र्य ध्यान और ४. शुक्ल ध्यान।

मोक्ष का स्वरूप और उसके भेद

सव्वस्स कम्मणो जो, खयहेदू अप्पणो हु परिणामो।

णेओ स भावमोक्खो, दव्वविमोक्खो य कम्मपुधभावो।।३७।।

जो निज आत्मा का भाव सभी, कर्मों के क्षय में हेतू है।

बस भाव वही है भाव मोक्ष, जो अक्षय सुख में हेतू है।।

आत्मा से कर्म पृथक् होना, सो द्रव्य मोक्ष कहलाता है।

बस इसीलिये इन तत्त्वों का, श्रद्धान कराया जाता है।।

अर्थ — आत्मा का जो परिणाम सभी कर्मों के क्षय में हेतु है, उस परिणाम को ही भाव मोक्ष जानना चाहिये और आत्मा से कर्मों का पृथक् हो जाना ही द्रव्य मोक्ष कहलाता है।

प्रश्न — मोक्ष किसे कहते हैं ? इसके भेद बताइये।

उत्तर — समस्त कर्मों का आत्मा से अलग हो जाना मोक्ष कहलाता है। मोक्ष के दो भेद हैं—भाव मोक्ष तथा द्रव्य मोक्ष।

प्रश्न — मोक्ष कौन प्राप्त करते हैं ?

उत्तर — भव्य जीव कर्मरहित होकर मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं।

प्रश्न — क्या संसार के सभी जीव मोक्ष प्राप्त कर सकते हैं ?

उत्तर — नहीं, भव्य जीवों में ही मोक्ष प्राप्त करने की योग्यता होती है।

प्रश्न — भव्य किसे कहते हैं ?

उत्तर— जिसमें सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्ररूप रत्नत्रय को प्राप्त करने की योग्यता है, वे भव्य कहलाते हैं।

पुण्य और पाप पदार्थ

सुह असुह भावजुत्ता, पुण्णं पावं हवंति खलु जीवा।

सादं सुहउणाणं, गोदं पुण्णं पराणि पावं च।।३८।।

शुभ भाव सहित ये जीव नियम से, पुण्यरूप हो जाते हैं।

औ अशुभ भाव से पापरूप, मिल नव पदार्थ कहलाते हैं।।

साता प्रकृति शुभ आयु नाम, शुभ गोत्र सुपुण्य प्रकृतियाँ हैं।

इनसे उल्टी जो अशुभ आयु, नामादिक पाप प्रकृतियाँ हैं।।३८।।

अर्थ — शुभ और अशुभ भावों सहित जीव नियम से पुण्यरूप और पापरूप होते हैं। साता वेदनीय, शुभ आयु, शुभ नाम और शुभ गोत्र ये पुण्यरूप हैं, इनसे भिन्न शेष कर्म पापरूप होते हैं।

भावार्थ — पुण्य और पाप पदार्थ भी भाव और द्रव्य की अपेक्षा दो-दो भेदरूप हो जाते हैं। उनमें से जीव के जो शुभ-अशुभ भाव हैं वे भाव पुण्य और भाव पाप हैं तथा पुद्गल कर्म की प्रकृतियों में से पुण्य प्रकृतियाँ द्रव्य-पुण्य और पाप प्रकृतियाँ द्रव्य-पाप हैं ऐसा समझना चाहिये।

प्रश्न — पुण्य कितने प्रकार का होता है ?

उत्तर — पुण्य दो प्रकार का होता है—भावपुण्य और द्रव्यपुण्य।

प्रश्न — पाप कितने प्रकार का माना गया है ?

उत्तर — पाप दो प्रकार का माना गया है—भावपाप और द्रव्यपाप।

प्रश्न — भावपुण्य और द्रव्यपुण्य का क्या लक्षण है ?

उत्तर — शुभ भावों को धारण करने वाले जीव भावपुण्य कहलाते हैं तथा कर्मों की प्रशस्त प्रकृतियों को द्रव्यपुण्य कहते हैं।

प्रश्न — शुभ भाव कौन से हैं ?

उत्तर — जीवों की रक्षा करना, सत्य बोलना, चोरी नहीं करना, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, अरहन्त भगवान की भक्ति करना, पंचपरमेष्ठी को नमन करना, गुरुभक्ति, वैय्यावृत्य, दान, दया, मैत्री, प्रमोद आदि शुभ भाव हैं।

प्रश्न — अशुभ भाव कौन से कहलाते हैं ?

उत्तर — हिंसा, झूठ, चोरी आदि पाँच पाप करना, देव-शास्त्र-गुरु की उपासना नहीं करना, गुरुओं की निन्दा करना, दान, दया, संयम, तपादि का पालन नहीं करना, क्रोध, मान, माया, लोभादि पापरूप भाव अशुभ भाव कहलाते हैं।

प्रश्न — पाप प्रकृतियाँ कितनी और कौनसी हैं ?

उत्तर — पाप प्रकृतियाँ १०० हैं—घातिया कर्म की ४७, असातावेदनीय १, नीचगोत्र १, नरकायु १ और नामकर्म की ५० (नरकगति १, नरकगत्यानुपूर्वी १, तिर्यग्गति १, तिर्यग्गत्यानुपूर्वी १, जाति में से आदि की ४ जातियाँ, संस्थान-अन्त के ५, संहनन-अंत के ५, स्पर्शादिक अशुभ २०, उपघात १, अप्रशस्त विहायोगति १, स्थावर १, सूक्ष्म १, अपर्याप्त १, अनादेय १, अयश:कीर्ति १, अस्थिर १, अशुभ १, दुर्भग १, दु:स्वर १ और साधारण १)।

प्रश्न — पुण्य प्रकृतियाँ कितनी हैं और उनके क्या नाम हैं ?

उत्तर — पुण्य प्रकृतियाँ ६८ हैं—सातावेदनीय १, तिर्यंच-मनुष्य-देवायु ३, उच्चगोत्र १, मनुष्य गति १, मनुष्यगत्यानुपूर्वी १, देवगति १, देवगत्यानुपूर्वी १, पंचेन्द्रिय जाति १, शरीर ५, बंधन ५, संघात ५, अंगोपांग ३, शुभ वर्ण, गंध, रस, स्पर्श इन ४ के २० भेद, समचतुरस्रसंस्थान १, वङ्काऋषभनाराच संहनन, उपघात के बिना अगुरुलघु आदि ५ तथा प्रशस्तविहायोगति १, त्रस आदिक १२।

अथ अध्याय 3

व्यवहार और निश्चय मोक्ष मार्ग

सम्मद्दंसण णाणं, चरणं मोक्खस्स कारणं जाणे।

ववहारा णिच्चयदो, तत्तियमइयो णिओअप्पा।।३९।।

सम्यग्दर्शन और ज्ञान चरित, ये मुक्ती के कारण जानो।

व्यवहार नयापेक्षा कहना, तीनों के लक्षण पहिचानो।।

इन रत्नत्रयमय निज आत्मा, निश्चय से शिव पथ का कारण।

इन उभय नयों के समझे बिन, निंह होता शिव पथ का साधन।।३९।।

अर्थ — सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र व्यवहारनय से ये मोक्ष के कारण हैं और निश्चयनय से इन रत्नत्रय से परिणत हुई अपनी आत्मा ही मोक्ष का कारण है, ऐसा तुम जानो।

प्रश्न — मोक्ष क्या है ?

उत्तर — आत्मा से आठों कर्मों का पूर्णरूप से अलग हो जाना मोक्ष है।

प्रश्न — मोक्ष मार्ग कितने प्रकार का है?

उत्तर — दो प्रकार का है-व्यवहार मोक्षमार्ग और निश्चय मोक्षमार्ग।

प्रश्न — व्यवहार मोक्षमार्ग किसे कहते हैं ?

उत्तर — व्यवहारनय से सम्यक्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र मोक्षमार्ग है।

प्रश्न — निश्चय मोक्षमार्ग क्या है ?

उत्तर — रत्नत्रय युक्त आत्मा को निश्चय मोक्षमार्ग कहते हैं।

आत्मा ही निश्चयनय से मोक्ष मार्ग है

रयणत्तयं ण वट्टइ, अप्पाणं मुयत्तु अण्णदवियम्हि।

तम्हा तत्तियमइयो, होदि हु मोक्खस्स कारणं आदा।।४०।।

आत्मा को छोड़ न रह सकता, यह रत्नत्रय परद्रव्यों में।

अतएव इन्हीं रत्नत्रयमय, आत्मा ही हेतू मुक्ती में।।

निज शुद्ध चिदात्मा की श्रद्धा, सुज्ञान उसी में रत होना।

यह निश्चय रत्नत्रय होता, एकाग्रमयी परिणति होना।।४०।।

अर्थ — आत्मा को छोड़कर रत्नत्रय अन्य द्रव्यों में नहीं रहता है, इसीलिए वह रत्नत्रयमय आत्मा ही मोक्ष का कारण होता है। अर्थात् आत्मा से अतिरिक्त रत्नत्रय अन्यत्र नहीं रह सकता है इसी हेतु से यह आत्मा निश्चय मोक्षमार्ग माना गया है।

प्रश्न — निश्चयनय से रत्नत्रययुक्त आत्मा ही मोक्ष का कारण क्यों है ?

उत्तर — क्योंकि रत्नत्रय आत्मा अर्थात् जीवद्रव्य को छोड़कर अन्य में नहीं पाया जाता है।

प्रश्न — वे रत्नत्रय कौन से हैं ?

उत्तर — १. सम्यग्दर्शन २. सम्यक्ज्ञान ३. सम्यक्चारित्र।

प्रश्न - निश्चय मोक्षमार्ग किसे कहते हैं ?

उत्तर - अभेद रत्नत्रय को निश्चय मोक्षमार्ग कहते हैं।

प्रश्न - अभेद रत्नत्रय किसे कहते हैं ?

उत्तर - जिसमें सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र का भेद नहीं है, अभेदरूप परिणति है, उसको अभेद रत्नत्रय कहते हैं।

प्रश्न - व्यवहार मोक्षमार्ग किसे कहते हैं ?

उत्तर - भेदरूप रत्नत्रय के पालन को व्यवहार मोक्षमार्ग कहते हैं।

व्यवहार सम्यग्दर्शन

जीवादीसद्दहणं, सम्मत्तं रूवमप्पणो तं तु।

दुरभिणिवेसविमुक्वं, णाणं सम्मं खु होदि सदि जम्हि।।४१।।

जीवादी तत्त्वों की श्रद्धा, करना सम्यक्त्व कहाता है।

वह आत्मा का ही है स्वरूप, जो निज में निज को पाता है।।

जिसके होने पर निश्चित ही, संशय आदि से रहित ज्ञान।

सम्यक् हो जाता है उसको, सम्यग्दर्शन समझो महान।।४१।।

अर्थ — जिसके होने पर ज्ञान दुरभिप्राय रहित समीचीन हो जाता है, ऐसा जीवादि तत्त्वों का श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है, जो कि आत्मा का स्वरूप ही है। अर्थात् सम्यक्त्व के होने पर ही ज्ञान सम्यग्ज्ञान होता है अन्यथा नहीं।

प्रश्न — सम्यग्दर्शन किसे कहते हैं ?

उत्तर — जीव, अजीव, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष इन सात तत्त्वो का श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है।

प्रश्न — आत्मा का वास्तविक स्वरूप क्या माना गया है ?

उत्तर — सम्यक्दर्शन आत्मा का वास्तविक स्वरूप होता है।

प्रश्न — ज्ञान में समीचीनता कैसे आती है ?

उत्तर — सम्यक्दर्शन के होने पर सम्पूर्ण ज्ञान समीचीन या सम्यक्ज्ञान बन जाता है।

प्रश्न — सम्यक्ज्ञान निर्दोष कैसे बनता है ?

उत्तर — १. संशय २. विपर्यय और ३. अनध्यवसाय, ये तीन चीजें जब ज्ञान में नहीं होती हैं तब वह ज्ञान, सम्यग्ज्ञान निर्दोष बनता है।

प्रश्न - दुरभिनिवेश किसे कहते हैं ?

उत्तर - संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय को दुरभिनिवेश कहते हैं।

प्रश्न — संशय किसे कहते हैं ?

उत्तर — विरुद्ध नाना कोटि के स्पर्श करने वाले ज्ञान को संशय कहते हैं। इसके होने पर किसी पदार्थ का निश्चय नहीं हो पाता, क्योंकि इसके होने पर बुद्धि सो जाती है-‘समीचीनतया बुद्धि: शेते यस्मिन् स: संशय:।’

प्रश्न — विपर्यय किसे कहते है ?

उत्तर — विपरीत एक कोटि को स्पर्श करने वाला ज्ञान विपर्यय कहलाता है। जैसे-सीप को चाँदी समझ लेना।

प्रश्न — संशय और विपर्यय में क्या अन्तर है ?

उत्तर — संशय में सीप है या चाँदी ? ऐसा संशय बना रहता है। निर्णय नहीं हो पाता, परन्तु विपर्यय में एक कोटि का निश्चय होता है। जैसे-सीप को सीप न समझकर चाँदी समझ लेना।

प्रश्न — अनध्यवसाय किसे कहते हैं ?

उत्तर — अध्यवसाय का अर्थ है निश्चय और इसका न होना अनध्यवसाय कहलाता है। जैसे रास्ते में चलते समय पैरों के नीचे अनेक चीजें आती हैं, पर उनमें से निश्चय किसी एक का भी नहीं हो पाता है, यही ज्ञान अनध्यवसाय कहलाता है।

प्रश्न - ज्ञान सम्यग्ज्ञान रूप कब होता है ?

उत्तर - सम्यग्दर्शन के होने पर ज्ञान सम्यग्ज्ञान होता है।

प्रश्न - सम्यग्दर्शन आत्मा का स्वरूप क्यों है ?

उत्तर - आत्मा को छोड़कर अन्य द्रव्यों में सम्यग्दर्शन नहीं होता, इसलिए सम्यग्दर्शन आत्मा का स्वरूप है।

सम्यग्ज्ञान का स्वरूप

संसयविमोह विब्भम, विवज्जियं अप्पपरसरूवस्स।

गहणं सम्मं णाणं; सायार-मणेयभेयं च।।४२।।

संशय विपरीत तथा विभ्रम, इन दोषों से वर्जित होकर।

अपने स्वरूप औ परस्वरूप को, ग्रहण करे निश्चित होकर।।

सविकल्प रूप बहु भेद सहित, वह सम्यग्ज्ञान कहाता है।

जो स्वपर प्रकाशी ज्ञान सदा, निज पर का भान कराता है।।४२।।

अर्थ — आत्मा के स्वरूप का और पर के स्वरूप का संशय, विपरीत और अनध्यवसाय रहित ग्रहण करना-जैसे का तैसा जानना सो सम्यग्ज्ञान है जोकि साकार-सविकल्प और अनेक भेद सहित है।

भावार्थ — पदार्थ के आकार का ‘यह घट है’ इत्यादि विकल्प रूप जानना यह ज्ञान का लक्षण है।

प्रश्न — सम्यक्ज्ञान किसे कहते हैं ?

उत्तर — संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय रहित व आकार सहित अपने और पर के स्वरूप का जानना सम्यक्ज्ञान कहलाता है।

प्रश्न — सम्यक्ज्ञान के कितने भेद हैं ?

उत्तर — पाँच भेद हैं—(१) मतिज्ञान, (२) श्रुतज्ञान, (३) अवधिज्ञान, (४) मन:-पर्ययज्ञान और (५) केवलज्ञान।

प्रश्न - श्रुतज्ञान के दो भेद कौन से हैं ?

उत्तर - अंगबाह्य और अंगप्रविष्ट के भेद से श्रुतज्ञान दो प्रकार का है।

प्रश्न - अंगबाह्य श्रुतज्ञान किसे कहते हैं ?

उत्तर - जो आरातीय (कुन्दकुन्दादि) आचार्यो के द्वारा रचित है, वह अंग- बाह्य कहलाता है।

प्रश्न - अंगबाह्य के कितने भेद हैं ?

उत्तर - अंगबाह्य को प्रकीर्णक कहते हैं, उसके चौदह भेद हैं। वह चौदह भेद निम्न प्रकार हैं-सामायिक, चतुर्विंशति संस्तवन, वंदना, प्रतिक्रमण, वैनयिक, कृतिकर्म, दशवैकालिक, अनुत्तराध्ययन, कल्पव्यवहार, कल्पाकल्प, महाकल्प, पुण्डरीक, महापुण्डरीक और अशीतिक।

प्रश्न - अंग प्रविष्ट किसे कहते हैं ?

उत्तर - जो गणधर के द्वारा तथा पूर्वधर के द्वारा रचित हैं, वह अंग प्रविष्ट कहलाते हैं।

प्रश्न - अंग प्रविष्ट श्रुतज्ञान के कितने भेद हैं ?

उत्तर - अंग प्रविष्ट श्रुतज्ञान के बारह भेद हैं।

प्रश्न - अंग प्रविष्ट के बारह भेद कौन-कौन से हैं ?

उत्तर - आचारांग, सूत्रकृतांग, स्थानांग, समवायांग, व्याख्याप्रज्ञप्त्यंग, ज्ञातृकथांग, उपासकाध्ययनांग, अन्तकृद्दशांग, अनुत्तरोपपादिकदशांग, प्रश्न-व्याकरणांग, विपाकसूत्रांग और दृष्टिवादांग ये अंगप्रविष्ट के बारह भेद हैं।

प्रश्न - चौदह पूर्व के नाम कौन-कौन से हैं ?

उत्तर - उत्पादपूर्व, अग्रणीयपूर्व, वीर्यानुप्रवादपूर्व, अस्तिनास्तिप्रवादपूर्व, ज्ञान प्रवादपूर्व, सत्यप्रवादपूर्व, आत्माप्रवाद, कर्मप्रवाद, प्रत्याख्यानप्रवादपूर्व, विद्यानुप्रवादपूर्व, कल्याणवादपूर्व, प्राणानुप्रवादपूर्व, क्रियाविशालपूर्व, लोकबिन्दु- सारपूर्व ये चौदह पूर्व के नाम हैं।

प्रश्न - अवधिज्ञान के कितने भेद हैं ?

उत्तर - सर्वावधि, परमावधि, देशावधि आदि अवधिज्ञान के भी अनेक भेद हैं।

प्रश्न - मन:पर्यय ज्ञान के कितने भेद हैं ?

उत्तर - ऋजुमति और विपुलमति के भेद से मन:पर्यय ज्ञान के दो भेद हैं।

प्रश्न - ज्ञान सम्यव् किससे बनता है ?

उत्तर - सम्यग्दर्शन से ज्ञान में समीचीनता आती है क्योंकि सम्यग्दर्शन सहित ज्ञान सम्यग्ज्ञान कहलाता है। ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से या क्षय से ज्ञान की प्राप्ति होती है और ज्ञान में समीचीनता और समीचीनता सम्यग्दर्शन और मिथ्यादर्शन से आती है।

दर्शनोपयोग का स्वरूप

जं सामण्णं गहणं, भावाणं णेव कट्टुमायारं।

अविसेसदूण अट्ठे, दंसणमिदि भण्णए समये।।४३।।

जो भावों का आकार नहीं, करके सामान्य ग्रहण होता।

अर्थों में नहीं विशेष करे, वह दर्शन नाम कहा जाता।।

जिन शासन में इस विध से यह, दर्शन उपयोग कहा जाता।

भावों की सत्ता का ग्राहक यह, निराकार समझा जाता।।४३।।

अर्थ — पदार्थों में विशेषता-भेद नहीं करके और उनके आकार को ग्रहण नहीं करके जो पदार्थों का सामान्य-सत्तामात्र करना है वह जैन आगम में ‘दर्शन’ इस नाम से कहा जाता है।

भावार्थ — ‘यह घट है’, ‘यह गोल है’ इत्यादि भेद न करके जो निर्विकल्प मात्र ग्रहण होता है वह दर्शन है जो कि ज्ञान के पहले होता है।

प्रश्न — दर्शनोपयोग किसे कहते हैं ?

उत्तर — सामान्य अंश का जानना दर्शन कहलाता है। इसमें पदार्थ के आकार का ज्ञान नहीं होता है, केवल सत्ता का भान होता है। जैसे—सामने कोई पदार्थ आने पर सबसे पहले ‘‘यह कोई पदार्थ है’’ इतना मात्र जानना ‘दर्शनोपयोग’ है।

प्रश्न - दर्शन और ज्ञान में अन्तर क्या है ?

उत्तर - यह घट है, पट है, कृष्ण है, शुक्ल है इन विकल्पों को ग्रहण करता है वह ज्ञान है और जिनमें घट-पटादि ज्ञेय पदार्थ का विकल्प, ज्ञेयाकार का विकल्प ग्रहण नहीं होता, वह दर्शन है। यह दोनों में अन्तर है।

प्रश्न - सम्यग्दर्शन और दर्शन में क्या अन्तर है ?

उत्तर - सम्यग्दर्शन तत्वश्रद्धानरूप है और दर्शन सामान्य अवलोकनरूप है। सम्यग्दर्शन सम्यग्दृष्टि के ही होता है और दर्शन सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि दोनों के होता है। दर्शन मोक्षमार्ग में अनुपयोगी है। सम्यग्दर्शन मोक्षमार्ग में उपयोगी है। यह इन दोनों में मौलिक अन्तर है। विषय, विषयी के सन्निपात होने पर दर्शन होता है। वस्तु को जानने के लिए जो आत्मा का व्यापार होता है अथवा ज्ञान के उत्पादक प्रयत्न से संबंधित स्वसंवेदन अर्थात् आत्मविषयक उपयोग को दर्शन कहते हैं।

दर्शन और ज्ञान का क्रम

दंसणपुव्वं णाणं, छदुमत्थाणं ण दुण्णि उवओगा।

जुगवं जह्मा केवलि-णाहे जुगवं तु ते दो वि।।४४।।

दर्शनपूर्वक ही ज्ञान सदा, छद्मस्थ जनों को होता है।

इसलिए नहीं युगपत् दोनों, उपयोग उन्हों के होता है।।

पर केवलियों भगवंतों के, युगपत् दोनों उपयोग रहें।

वे लोकालोक प्रकाशी जिन, बस एक समय में सर्व ग्रहें।।४४।।

अर्थ — छद्मस्थ जीवों का ज्ञान दर्शनपूर्वक होता है क्योंकि उनके दोनों उपयोग एक साथ नहीं होते हैं, किन्तु केवली भगवान् के दोनों ही उपयोग युगपत्-एक साथ होते हैं।

भावार्थ — अल्पज्ञानियों के पहले क्षण में दर्शन पुन: ज्ञान ऐसे क्रम से दोनों उपयोग होते हैं। किन्तु केवली भगवान् के ये एक साथ ही प्रगट रहते हैं।

प्रश्न — छद्मस्थ किसे कहते हैं ?

उत्तर — मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान और केवलज्ञान इन पाँच ज्ञानों में से प्रारम्भ के चार ज्ञान छद्मस्थ (अल्पज्ञान) कहलाते हैं।

प्रश्न — छद्मस्थ जीव के उपयोग का क्रम बताइये।

उत्तर — छद्मस्थ जीव पहले देखते हैं और फिर बाद में जानते हैं, किसी पदार्थ को देखे बिना छद्मस्थ उसे जान ही नहीं सकते इसलिये छद्मस्थों के पहले दर्शनोपयोग होता है और बाद में ज्ञानोपयोग होता है।

प्रश्न — केवलज्ञानी के उपयोग का क्रम बताइये।

उत्तर — केवलज्ञानी किसी भी पदार्थ को एक ही साथ देखते और जानते हैं इसलिये उनका दर्शनोपयोग और ज्ञानोपयोग एकसाथ होता है।

प्रश्न - केवली भगवान के दर्शनोपयोग और ज्ञानोपयोग एक साथ क्यों होते हैं ?

उत्तर - केवली भगवान के ज्ञान और दर्शन दोनों निरावरण हैं क्षायिक हैं इसलिए एक साथ होते हैं और छद्मस्थों के सावरण हैं क्षायोपशमिक हैं अत: उनके ज्ञानोपयोग-दर्शनोपयोग एक साथ नहीं हो ते, क्रमश: होते हैं।

प्रश्न - छद्मस्थ किसे कहते हैं ?

उत्तर - जिनके ज्ञानावरण और दर्शनावरण कर्म का क्षयोपशम है, क्षय नहीं हुआ है ऐसे मिथ्यात्व गुणस्थान से लेकर बारहवें गुणस्थान तक के जीव छद्मस्थ कहलाते हैं।

व्यवहार सम्यक्चारित्र और उसके भेद

असुहादो विणिवित्ती, सुहे पवित्ती य जाण चारित्तं।

वदसमिदिगुत्तिरूवं, ववहारणया दु जिणभणियं।।४५।।

जो अशुभ क्रियाओं से विरती, औ शुभ में सदा प्रवृत्ती है।

उसको ही तुम चारित जानो, वह व्रत समिती और गुप्ती है।।

इन रूप चरित्र कहा जिनने, व्यवहार नयापेक्षा समझो।

इन बिन निश्चय चारित्र न हो, इसलिए इन्हें साधन समझो।।४५।।

अर्थ — अशुभ क्रियाओं से विरक्त होना और शुभ क्रियाओं में प्रवृत्ति करना चारित्र है जोकि व्रत, समिति और गुप्ति रूप है ऐसा तुम जानो। यह चारित्र व्यवहार नय की अपेक्षा से जिनेन्द्र देव द्वारा कथित है।

भावार्थ — व्यवहार चारित्र पाँच महाव्रत, पाँच समिति और तीन गुप्ति ऐसे तेरह प्रकार का है जो कि जिनदेव द्वारा कहा गया है।

प्रश्न — व्यवहार चारित्र किसे कहते हैं ?

उत्तर — अशुभ कार्यों—हींसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह पापों का त्याग करना, यत्नाचारपूर्वक चलना, बोलना, बैठना, खाना आदि करना और अशुभ मन-वचन और काय को वश में करना तथा शुभ कार्यों में प्रवृत्ति करना व्यवहार चारित्र है।

प्रश्न - अशुभोपयोग किसे कहते हैं ?

उत्तर - आत्र्तध्यान, रौद्रध्यान को अशुभोपयोग कहते हैं-अथवा विषय और कषायों में गाढ़ प्रीति, दु:शास्त्र श्रवण, दुष्टचित्तप्रवृत्ति, दु:गोष्ठी (बुरी संगति) आदि अशुभोपयोग हैं।

प्रश्न - शुभोपयोग किसे कहते हैं ?

उत्तर - सविकल्प धर्मध्यान को शुभोपयोग कहते हैं, अथवा व्यसन, कषाय, हिंसादि पापजनक कार्यों से विरक्त होकर दान, पूजा, व्रत, समिति, गुप्ति आदि में प्रवृत्ति करना शुभोपयोग कहलाता है। अथवा अशुभोपयोग से निवृत्ति और पाँच महाव्रत, पांच समिति और तीन गुप्तिरूप प्रवृत्ति को व्यवहार या सराग चारित्र कहते हैं। इसका दूसरा नाम अपहृत संयम भी है। यह शुभोपयोग सहित होता है। सराग चरित्र में बाह्य पंचेन्द्रिय विषयों का त्याग है, यह उपचरित असद्भूत व्यवहारनय से चारित्र है। जितने अंश में कषायों का अभाव हुआ है, वह अशुद्ध निश्चयनय से चारित्र है। ऐस यह शुभोपयोग लक्षण धारक व्यवहार चारित्र निश्चयचारित्र का साधक है।

निश्चयचारित्र का लक्षण

बहिरब्भंतरकिरिया-रोहो भवकारणप्पणासट्ठं।

णाणिस्स जं जिणुत्तं, तं परमं सम्मचारित्तं।।४६।।

भव कारण के नाशन हेतू, ज्ञानी के बाह्य क्रियाओं का।

औ आभ्यन्तरी क्रियाओं का, इन सबका जो रोधन होता।।

वह जिनवर द्वारा कहा गया, निश्चय सम्यक्चारित्र सही।

जो साधु उसको पा लेते, वे पा लेते हैं मोक्षमही।।४६।।

अर्थ — ज्ञानी जीव के संसार के कारणों का नाश करने के लिए जो बाह्य और अभ्यंतर क्रियाओं का रोकना है वह जिनेन्द्रदेव द्वारा कथित परम सम्यक्चारित्र है।

भावार्थ — सम्पूर्ण अंतरंग बहिरंग प्रवृत्तियों को रोक करके जो आत्मा में स्थिर हो जाना है वही निश्चय सम्यक्चारित्र है जो कि महामुनियों के ही हो सकता है।

प्रश्न - चारित्र के कितने भेद हैं ?

उत्तर - चारित्र के मुख्यत: दो भेद हैं-निश्चय और व्यवहार।

प्रश्न - व्यवहार चारित्र किसे कहते हैं ?

उत्तर - जो व्रत, समिति आदि भेदरूप है, जिसमें हिंसादि, अशुभ क्रियाओं से निवृत्ति और अहिंसादि शुभ क्रियाओं में प्रवृत्ति होती है, वह व्यवहार चारित्र है।

प्रश्न - व्यवहार चारित्र के कितने भेद हैं ?

उत्तर - देश चारित्र, सकल चारित्र आदि अनेक भेद हैं।

प्रश्न - देश चारित्र किसे कहते हैं ?

उत्तर - जिसमें अहिंसादि व्रतों का एकदेश पालन किया जाता है, वह श्रावक का व्रत कहलाता है, यह देशसंयम है, इसका दूसरा नाम संयमासंयम भी है।

प्रश्न - देशसंयम को संयमासंयम क्यों कहते हैं ?

उत्तर - संकल्पपूर्वक मन, वचन, काय से, कृत, कारित, अनुमोदना से त्रस घात का तो त्याग किया है, इसलिए संयम है। स्थावर घात का त्याग नहीं है, इसलिए असंयम है तथा संयम और असंयम दोनों एक साथ होने से इसे संयमासंयम कहते हैं।

प्रश्न - देश संयम के कितने भेद हैं ?

उत्तर - सामान्यत: अप्रत्याख्यानावरण कषाय के अभाव से उत्पन्न होता है इसलिए एक प्रकार का है और प्रत्याख्यानावरण कषाय की तरतमता से इसके अनेक भेद हैं, उनको ग्यारह भागों में विभाजित किया है।

प्रश्न - देश संयम के ग्यारह भेद कौन से हैं ?

उत्तर - (१) दर्शन प्रतिमा-निर्दोष सम्यग्दर्शन और आठ मूलगुणों का पालन करना और संसार-शरीर-भोगों से विरक्त होकर पंचपरमेष्ठी की शरण में लीन रहना। (२) व्रत प्रतिमा-माया, मिथ्यात्व और निदानरूप तीन शल्यों का त्यागकर निरतिचार पाँच अणुव्रतों का पालन और अभ्यासरूप से सात शीलों का धारण।

प्रश्न - सात शील किसे कहते हैं ?

उत्तर - तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत को सात शील कहते हैं। (३) सामायिक प्रतिमा-त्रिकाल देववंदना करना, चारों दिशाओं में तीन-तीन आवर्त और चार शिरोनति करके। (४) प्रोषध प्रतिमा-अष्टमी और चतुर्दशी के दिन अपनी शक्ति के अनुसार प्रोषध (एकासन) उपवास और प्रोषधोपवास करना। (५) सचित्त त्याग प्रतिमा-अपक्व अंकुरोत्पत्ति के कारणभूत सचित्त जड़, फल, बीज आदि को अचित्त किये बिना नहीं खाना और अप्रासुक पानी नहीं पीना।

प्रश्न - प्रासुक किसे कहते हैं ?

उत्तर - जो पानी गर्म किया हो, या सौंफ, लौंग आदि डालने से जिसका रंग बदल गया है, वह पानी प्रासुक कहलाता है। (६) रात्रि भुक्ति त्याग प्रतिमा-रात्रि में खाद्य, स्वाद्य, लेह्य और पेय इन चारों प्रकार के आहार का त्याग करना तथा दिन में मैथुन सेवन नहीं करना। इस प्रतिमा का दूसरा नाम दिवामैथुनत्याग प्रतिमा भी है।

प्रश्न - छट्ठी प्रतिमा में रात्रि भोजन का त्याग है तो पाँचवीं प्रतिमा तक रात्रि में पानी आदि पी सकता है क्या ? यदि नहीं पी सकता है, तो छट्ठी प्रतिमा को रात्रि भुक्ति त्याग प्रतिमा क्यों कहा ?

उत्तर - रात्रि में चार प्रकार के आहार का त्याग तो प्रथम प्रतिमा में ही हो जाता है, छट्ठी प्रतिमा में निरतिचार रात्रिभुक्ति त्याग होता है।

प्रश्न - रात्रि भुक्ति का त्याग का अतिचार कौन सा है ?

उत्तर - सूर्योदय के ४८ मिनट हो जाने के बाद और सूर्यास्त के ४८ मिनट पूर्व भोजन करना, रात्रि में भोजन कराना, रात्रि में बने हुए पदार्थों को भक्षण करना रात्रि भुक्ति त्याग का अतिचार है। छट्ठी प्रतिमाधारी इन सबका त्याग करके निरतिचार व्रत का पालन करता है। (७) ब्रह्मचर्य प्रतिमा-स्त्रीमात्र के संयोग का त्याग करना। (८) आरंभ त्याग प्रतिमा-नौकरी, खेती, व्यापार आदि हिंसाजनक आरंभ का त्याग। (९) परिग्रह त्याग प्रतिमा-बाह्य दश प्रकार के परिग्रह से ममत्व का त्याग कर अपने पहनने योग्य धोती, दुपट्टा आदि के सिवाय सर्व परिग्रह का त्याग करना। (१०) अनुमति त्याग-आरंभजन्य कार्यों में तथा लौकिक विवाहादिकार्यों में अनुमति नहीं देना। (११) उद्दिष्ट त्याग प्रतिमा-घर को छोड़कर मुनिराज के पास जाकर व्रतों को ग्रहण करके भिक्षावृत्ति से भोजन करता है और एक लंगोटी तथा एक दुपट्टा रखता है। ये देशसंयम के ११ भेद संक्षेप से कहे हैं, विस्तार से इसके असंख्यात भेद हैं।

प्रश्न - सकल चारित्र किसे कहते हैं ?

उत्तर - हिंसादि पाँचों पापों का सर्वथा त्याग करना तथा पंच महाव्रत, पाँच समिति और तीन गुप्ति का पालन सकल चारित्र है।

प्रश्न - सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसांपराय और यथाख्यात किस चारित्र के भेद हैं ?

उत्तर - ये सब सकल चारित्र के भेद हैं।

प्रश्न — निश्चयचारित्र किसे कहते हैं ?

उत्तर — बाह्य-आभ्यन्तर क्रियाओं के निरोध से प्रादुर्भूत आत्मा की शुद्धि को निश्चय सम्यक्चारित्र कहते हैं।

प्रश्न — बाह्य-आभ्यन्तर क्रिया कौन रोकता है ?

उत्तर — ‘णाणी’—ज्ञानी पुरुष अपनी मानसिक, वाचनिक व कायिक आभ्यन्तर और बाह्य क्रियाओं को रोकता है।

प्रश्न — बाह्य-आभ्यन्तर क्रियाओं के निरोध से ज्ञानी को क्या प्राप्त होता है ?

उत्तर — ज्ञानी को बाह्य-आभ्यन्तर क्रियाओं के निरोध से निश्चय चारित्र की प्राप्ति होती है।

ध्यानाभ्यास की प्ररेणा

दुविहं पि मोक्खहेउं, झाणे पाउणदि जं मुणी णियमा।

तम्हा पयत्तचित्ता, जूयं झाणं समब्भसह।।४७।।

मुनिवरगण ध्यान लगा करके, इन द्विविध मोक्ष के कारण को।

जो निश्चय और व्यवहाररूप, निश्चित ही पा लेते उनको।।

अतएव प्रयत्न सभी करके, तुम ध्यानाभ्यास करो नित ही।

सम्यक् विधिपूर्वक बार-बार, अभ्यास सफल होता सच ही।।।४७।।

अर्थ — मुनिराज निश्चित ही ध्यान के द्वारा दोनों प्रकार के मोक्ष के कारण को प्राप्त कर लेते हैं, इसलिए प्रयत्न चित्त होते हुए तुम लोग ध्यान का सम्यक् प्रकार से अभ्यास करो।

भावार्थ — निश्चय और व्यवहार ये दोनों मोक्ष मार्ग ध्यान से ही प्राप्त हो सकते हैं।

प्रश्न - निश्चय और व्यवहार मोक्ष मार्ग की सिद्धि किससे होती है ?

उत्तर - निश्चय और व्यवहार दोनों ही मोक्षमार्ग की सिद्धि ध्यान से होती है।

प्रश्न - ध्यान किसे कहते हैं ?

उत्तर - किसी विषय में मन का एकाग्र हो जाना ध्यान है।

प्रश्न - ध्यान के कितने भेद हैं ?

उत्तर - शुभ-अशुभ के भेद से ध्यान दो प्रकार का है।

प्रश्न - अशुभ ध्यान किसे कहते हैं ?

उत्तर - पंचेन्द्रियजन्य विषयों में चित्त का एकाग्र हो जाना अशुभ ध्यान है।

प्रश्न - अशुभ ध्यान के कितने भेद हैं ?

उत्तर - अशुभ ध्यान के दो भेद हैं-आत्र्तध्यान और रौद्रध्यान।

प्रश्न - आत्र्तध्यान किसे कहते हैं ?

उत्तर - आत्र्त का अर्थ पीड़ा है। मानसिक और शारीरिक पीड़ा के कारण शोक, संताप, अरति और चिंता मन पर प्रभुत्व जमा लेती है, वह आत्र्तध्यान है।

प्रश्न - आत्र्तध्यान कितने प्रकार का है ?

उत्तर - आत्र्तध्यान चार प्रकार का है- (१) अनिष्ट संयोगज-अनिष्ट वस्तु का संयोग होने पर उसके वियोग- पृथक्करण के लिए होने वाली चिन्ता। (२) इष्ट वियोगज-इष्ट वस्तु के प्राप्त होने पर उसका संबंध विच्छेद न होने की चिंता और संबंध विच्छेद होने पर उसकी पुन: प्राप्ति की कामना। (३) पीड़ा चिन्तन-व्याधिजन्य दु:ख और पीड़ा से मुक्ति पाने की चिंता। (४) निदान-भविष्य में कमनीय स्वप्नों की पूर्ति की चिंता।

प्रश्न - रौद्रध्यान किसे कहते हैं ?

उत्तर - रुद्र का अर्थ है-व्रूर आशय। व्रूर आशय से उत्पन्न होने वाली चित्तवृत्ति की एकाग्रता रौद्रध्यान है।

प्रश्न - रौद्रध्यान के कितने भेद हैं ?

उत्तर - रौद्रध्यान के चार भेद हैं- (१) हिंसानुबंधी-प्राणि हिंसा का व्रूर संकल्प अथवा हिंसाजन्य कार्यों में मानसिक आनन्द का अनुभव होना। (२) मृषानुबंधी-असत्य, परपीड़ाजनक वाणी का प्रयोग करना व असत्य, अप्रिय, कठोर वचन बोलकर आनन्दित होना। (३) चौर्यानुबंधी-अदत्तादान की चित्त वृत्ति-या चोरी करने मेें आनन्द का अनुभव करना, चोरी करने का चिंतन करना। (४) विषयसंरक्षणानुबंधी-परिग्रह की रक्षा में संलग्नचित्त का होना या परिग्रह के प्राप्त होने पर मानसिक आनन्द का अनुभव होना। यहाँ पर मोक्षमार्ग का प्रकरण है-अत: इन अशुभ ध्यानों से कोई प्रयोजन नहीं है। यहाँ प्रयोजन है-शुभ और शुद्धध्यान से। वह शुभध्यान है-धर्मध्यान और शुद्धध्यान है शुक्लध्यान। धर्मध्यान और शुक्लध्यान मोक्ष का कारण है और आत्र्त-रौद्रध्यान संसार का।

प्रश्न - धर्मध्यान किसे कहते हैं ?

उत्तर - धार्मिक कार्यों में चित्त का एकाग्र होना धर्मध्यान है।

प्रश्न - धर्मध्यान के कितने भेद हैं ?

उत्तर - धर्मध्यान के चार भेद हैं।

प्रश्न - धर्मध्यान के चार भेद कौन-कौन हैं?

उत्तर - आज्ञाविचय, अपायविचय, विपाकविचय और संस्थानविचय ये धर्मध्यान के चार भेद हैं।

ध्यान का उपाय

मा मुज्झह मा रज्जह, मा दुस्सह इट्ठणिट्ठअत्थेसु।

थिरमिच्छह जइ चित्तं, विचित्तझाणप्पसिद्धीए।।४८।।

सब इष्ट अनिष्ट पदार्थों में, मत मोह करो मत राग करो।

मत द्वेष करो इन तीनों का, जैसे होवे परिहार करो।।

इस विधि के ध्यान सुसाधन के, हेतु यदि तुम अपने मन को।

स्थिर करना चाहो तो तुम, बस सब विभाव से दूर हटो।।४८।।

अर्थ — यदि तुम अनेक प्रकार का ध्यान सिद्ध करने के लिए मन को स्थिर करना चाहते हो तो इष्ट और अनिष्ट पदार्थों में मोह मत करो, राग मत करो और द्वेष मत करो।

भावार्थ — मोह, राग और द्वेष इनके निमित्त से मन ही एकाग्रता नहीं हो सकती है इसीलिए इनको हटाना आवश्यक है।

प्रश्न — राग किसे कहते हैं ?

उत्तर — इष्ट वस्तु में प्रीति को राग कहते हैं।

प्रश्न — द्वेष किसे कहते हैं ?

उत्तर — अनिष्ट वस्तु में अप्रीति को द्वेष कहते हैं।

प्रश्न — ध्यान के अनेक प्रकार कौन-से हैं ?

उत्तर — (१) पिण्डस्थ, (२) पदस्थ, (३) रूपस्थ तथा (४) रूपातीत।

प्रश्न - धर्मध्यान में लीन होने का उपाय क्या है ?

उत्तर - इष्ट, अनिष्ट पदार्थों में राग-द्वेष नहीं करना ही ध्यान में लीन होने का उपाय है, क्योंकि सांसारिक पदार्थों में रागद्वेष करने से आत्मा आत्र्त-रौद्र- ध्यान में पंâसकर संसार में भटकती है और रागद्वेष का त्याग कर आत्मस्वभाव में लीन होने से रत्नत्रय के कारणभूत धर्मध्यान और शुक्लध्यान की प्राप्ति होती है और आत्मा संसार से छूट जाती है।

प्रश्न - णमोकार मंत्र के अक्षरों का ध्यान किस ध्यान में गर्भित होता है ?

उत्तर - णमोकार मंत्र के अक्षरों का ध्यान पदस्थ ध्यान में गर्भित है।

प्रश्न - ध्यान किस गुण की पर्याय है ?

उत्तर - ध्यान चारित्र गुण की पर्याय है।

ध्यान के योग्य मंत्र

पणतीस सोल छप्पण, चदुदुगमेगं च जबह झाएह।

परमेट्ठिवाचयाणं, अण्णं च गुरूवएसेण।।४९।।

परमेष्ठी के वाचक पैंतीस, अक्षरयुत महामंत्र शाश्वत।

सोलह छह पाँच चार दो औ, एकाक्षर ऊँ अकारादिक।।

गुरु के उपदेशों से बहुविध, के अन्य मंत्र को भी पाकर।

नित जाप करो तुम ध्यान करो, जैसे हो मन स्थिरता कर।।४९।।

अर्थ — परमेष्ठी के वाचक पैंतीस, सोलह, छह, पाँच, चार, दो और एक अक्षर वाले मंत्रों का तथा गुरु के उपदेश से अन्य भी मन्त्रों का जाप करो और ध्यान करो।

भावार्थ — णमोकार मंत्र में पैंतीस अक्षर हैं, ‘अरिहन्त सिद्ध आइरिय उवज्झाय साहू’ यह सोलह अक्षर का मंत्र है, ‘अरिहन्त सिद्ध’ ‘ऊँ नम: सिद्धेभ्य:’ इनमें छह ‘अ सि आ उ सा’ में पाँच, अरिहन्त में चार, सिद्ध में दो और ऊँ या ह्रीं में एक अक्षर है। अथवा गुरु की आज्ञा से सिद्ध चक्र आदि मंत्रों का जाप्य या ध्यान करना चाहिए।

प्रश्न — परमेष्ठी किसे कहते हैं ?

उत्तर — जो परम पद में स्थित हैं वे परमेष्ठी कहलाते हैं।

प्रश्न — परमेष्ठीवाचक पैंतीस अक्षरों का मंत्र कौन-सा है ?

उत्तर — णमो अरिहंताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आइरियाणं, णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सव्वसाहूणं। इसे णमोकार मंत्र, अनादिनिधन मंत्र, अपराजित आदि अनेक नामों से जाना जाता है।

प्रश्न — ध्यान की सिद्धि के लिये जाप्य की विधि क्या है ?

उत्तर — जाप्य तीन प्रकार से किया जाता है—(१) वाचनिक, (२) मानसिक, (३) उपांशु जाप्य। वाचनिक—वचन से बोलकर जप करना। मानसिक—मन-मन में उच्चारण करना। उपांशु—ओठों को हिलाते हुये मंद-मंद स्वर में जाप करना। इनमें मानसिक जाप उत्तम है। उसका फल भी उत्तम है। ‘उपांशु’ जाप मध्यम है तथा वाचनिक जाप जघन्य माना जाता है।

प्रश्न - सोलह अक्षर का मंत्र कौन सा है ?

उत्तर - अरिहंत सिद्ध आइरिय उवज्झाय साहू। अथवा ॐ अर्हदाचार्योपाध्याय सर्व साधुभ्यो नम: आदि।

प्रश्न - छह अक्षरों का मंत्र कौन सा है ?

उत्तर - अरिहंत सिद्ध। ॐ नम: सिद्धेभ्य:। अरहंत सिद्ध। नमोर्हत्सिद्धेभ्य:। इत्यादि छह अक्षर के मंत्र हैं।

प्रश्न - पाँच अक्षरों का मंत्र कौन सा है ?

उत्तर - असि आ उसा। अर्हद्भ्यो नम: इत्यादि पाँच अक्षर से निष्पन्न मंत्र हैं।

प्रश्न - चार अक्षर का मंत्र कौन सा है ?

उत्तर - अरिहंत यह चार अक्षरों से निष्पन्न मंत्र हैं।

प्रश्न - दो अक्षर का मंत्र कौन सा है ?

उत्तर - सिद्ध दो अक्षर का मंत्र है।

प्रश्न - एक अक्षर का मंत्र कौन सा है ?

उत्तर - ॐ, ह्रीं इत्यादि एकाक्षरी मंत्र हैं।

प्रश्न - ॐ अक्षर की निष्पत्ति कैसे हुई है, यह किसका वाचक है ?

उत्तर - यह ‘ॐ’ अक्षर अरिहंत आदि के प्रथम अक्षर से निष्पन्न है अत: यह पंचपरमेष्ठी वाचक है। सो ही कहा है- अरिहंता असरीरा, आइरिया तह उवज्झया मुणिणो। पढमक्खरणिप्पणो ओंकारो पञ्च परमेट्ठी।। अरिहंत का आदि अक्षर ‘अ’, अशरीरी (सिद्ध) का प्रथम अक्षर ‘अ’, आचार्य का प्रथम अक्षर ‘आ’, उपाध्याय का प्रथम अक्षर ‘उ’ और साधु अर्थात् मुनि का प्रथम अक्षर ‘म्’ इस प्रकार पंच परमेष्ठियों के प्रथम अक्षर (अ±अ±आ±उ±म्) इस प्रकार संधि करने पर ‘ॐ’ मंत्र की निष्पत्ति होती है। अर्थात् अ±अ± की संधि दीर्घ आ±आ·आ। आ±उ±-ओ। म्-का अनुस्वार लगता है। अत: यह ‘ॐ़’ पंचपरमेष्ठी वाचक है। पदस्थ धर्मध्यान में मन को स्थिर करने के लिए परमेष्ठी वाचक बीजाक्षरों का और मंत्राक्षरों का ध्यान किया जाता है।

प्रश्न - इन मंत्राक्षरों के सिवाय अन्य भी कोई मंत्र है जिसका ध्यान कर सकते हैं ?

उत्तर - सिद्धचक्र, ऋषिमंडल यंत्र, कलिकुण्ड आदि अनेक ध्यान करने योग्य मंत्र हैं, जिनका गुरुओं के उपदेश से जानकर ध्यान करना चाहिए।

अरिहंत परमेष्ठी का लक्षण

णट्ठचदुघाइकम्मो, दंसणसुहणाणवीरियमइयो।

सुहदेहत्थो अप्पा, सुद्धो अरिहो विचिंतिज्जो।।५०।।

जिन घाति चतुष्टय कर्म हरा, दर्शन सुख ज्ञान वीर्य मय हैं।

सु अनन्त चतुष्टय रूप परम, औदारिक तनु में स्थित हैं।।

अष्टादशदोष रहित आत्मा, वे ही अर्हंत परम गुरु हैं।

वे ध्यान योग्य हैं, नित उनको, तुम ध्यावो वे त्रिभुवन गुरु हैं।।५०।।

अर्थ — जिन्होंने चार घातिया कर्मों का नाश कर दिया है, जो अनंत दर्शन, अनंत सुख, अनंत ज्ञान और अनंत वीर्य इन चार चतुष्टय के धारक हैं, जो शुभ-परमौदारिक दिव्य शरीर में स्थित हैं, जो शुद्ध अर्थात् दोष रहित हैं ऐसे आत्मा अरहंत परमेष्ठी हैं उनका ध्यान करना चाहिए।

प्रश्न — अरिहंत परमेष्ठी किन्हें कहते हैं ?

उत्तर — जिनने चार घातिया कर्म नष्ट कर दिये हैं तथा जो अनन्तदर्शन, ज्ञान, सुख और वीर्य से युक्त हैं और १८ दोषों से रहित होते हैं, उन्हें अरिहंत कहते हैं।

प्रश्न — घातिया कर्म किसे कहते हैं ? वे कौन से हैं ?

उत्तर — जो जीव के अनुजीवी गुणों का घात करते हैं वे घातिया कर्म कहलाते हैं। वे चार—(१) ज्ञानावरण, (२) दर्शनावरण, (३) मोहनीय और(४) अन्तराय हैं।

प्रश्न — अनन्त चतुष्टय कौन से हैं ?

उत्तर — अनन्तदर्शन, अनन्तज्ञान, अनन्तसुख और अनन्तवीर्य ये अनन्त-चतुष्टय कहलाते हैं।

प्रश्न — किस कर्म के नाश से कौन-सा गुण प्रगट होता है ?

उत्तर — ज्ञानावरण कर्म के क्षय से अनन्तज्ञान, दर्शनावरण कर्म के क्षय से अनन्तदर्शन, मोहनीय कर्म के क्षय से अनन्तसुख तथा अन्तराय कर्म के क्षय से अनन्तवीर्य प्रकट होता है।

प्रश्न — अरिहंतों के साथ शुद्ध विशेषण क्यों दिया ?

उत्तर — अठारह दोषों से रहित होने से वे शुद्ध आत्मा हैं, इसलिये शुद्ध विशेषण दिया है।

प्रश्न - अठारह दोष कौन-कौन हैं ?

उत्तर - क्षुधा (भुख), प्यास, बुढ़ापा, रोग, मरण, जन्म, भय, विस्मय, चिंता, अरति, खेद, स्वेद (पसीना) मद, राग, द्वेष, मोह, शोक, जुगुप्सा। ये अठारह दोष अरिहंत के नहीं होते हैं।

सिद्ध परमेष्ठी का स्वरूप

णट्ठट्ठकम्मदेहो, लोयालोयस्स जाणओ दट्ठा।

पुरुसायारो अप्पा, सिद्धो झाएह लोय सिहरत्थो।।५१।।

जिन अष्ट कर्म तनु नष्ट किया, औ शाश्वत लोकालोक सकल।

उसके ज्ञाता औ दृष्टा हैं, जो पुरुषाकार तथा निष्कल।।

जो लोक शिखर पर स्थित हैं, वे आत्मा सिद्ध कहाते हैं।

तुम सब जन उनका ध्यान करो, वे सबको सिद्ध बनाते हैं।।५१।।

अर्थ — जिन्होने आठ कर्म रूपी शरीर का नाश कर दिया है, जो लोक और अलोक के जानने और देखने वाले हैं, पुरुषाकार हैं और लोक के शिखर पर स्थित हैं ऐसे आत्मा सिद्ध परमेष्ठी हैं उनका तुम सब जन ध्यान करो।

प्रश्न — सिद्ध परमात्मा कैसे होते हैं?

उत्तर — जो ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय-इन आठ कर्मों से रहित हैं, औदारिक, वैक्रियिक, आहारक, तैजस व कार्मण शरीर से रहित हैं, जो लोक-अलोक को जानने वाले हैं, वे सिद्ध परमेष्ठी हैं।

प्रश्न — सिद्ध परमेष्ठी कहाँ रहते हैं?

उत्तर — सिद्धपरमेष्ठी लोक के अग्रभाग में रहते हैं।

प्रश्न — लोक के अग्रभाग को क्या कहते हैं?

उत्तर — लोक के अग्रभाग को ‘सिद्धालय’ कहते हैं।

प्रश्न — सिद्धालय में सिद्धों का आकार कैसी होता है ?

उत्तर — सिद्ध परमेष्ठी का आकार पुरुषाकार होता है। वे लोकाग्र में अपने अंतिम शरीर से किञ्चित् न्यून आकार के रूप में रहते हैं।

आचार्य परमेष्ठी का स्वरूप

दंसणणाणपहाणे, वीरियचारित्त-वरतवायारे।

अप्पं परं च जुंजइ, सो आइरियो मुणी झेओ।।५२।।

दर्शन औ ज्ञान प्रधान जहाँ, ऐसे जो वीर्याचार तथा।

चारित्र महातप ये पाँचों, आचार कहाते सौख्यप्रदा।।

इन पंचाचारो में निज को, पर को जो नित्य लगाते हैं।

वे ध्यान योग्य हैं श्रेष्ठ मुनी, वे ही आचार्य कहाते हैं।।५२।।

अर्थ — जिनमें ज्ञानाचार और दर्शनाचार प्रधान हैं ऐसे वीर्याचार चारित्राचार और परम तपश्चरणाचार में जो अपने को और पर को लगाते हैं वे मुनि आचार्य परमेष्ठी हैं जो कि ध्यान करने योग्य हैं।

भावार्थ — जो साधु स्वयं पंचाचार का पालन करते हैं और शिष्यों को भी पालन कराते हैं वे आचार्य परमेष्ठी कहलाते हैं।

प्रश्न — आचार्य परमेष्ठी किन्हें कहते हैं?

उत्तर — जो पंचाचार का स्वयं पालन करते हैं तथा शिष्यों से भी पालन कराते हैं, वे आचार्य परमेष्ठी कहलाते हैं।

प्रश्न — पंचाचार के नाम क्या हैं?

उत्तर — १. दर्शनाचार, २. ज्ञानाचार, ३. चारित्राचार, ४. तपाचार, ५. वीर्याचार। इनकी संक्षिप्त व्याख्या इस प्रकार है- १. दर्शनाचार-निर्दोष सम्यक् दर्शन का पालन करना दर्शनाचार है। २. ज्ञानाचार-अष्टांग सहित सम्यक्ज्ञान की आराधना करना ज्ञानाचार है। ३. चारित्राचार-’तेरह प्रकार के चारित्र का निर्दोषरूप से आचरण करना चारित्राचार है। ४. तपाचार-बारह प्रकार के तपों का निर्दोष रीति से पालन करना तपाचार है। ५. वीर्याचार-अपनी शक्ति को नहीं छिपाते हुए उत्साहपूर्वक संयम की आराधना करना वीर्याचार है।

उपाध्याय परमेष्ठी का स्वरूप

जो रयणत्तयजुत्तो, णिच्चं धम्मोवएसणे णिरदो।

सो उवझाओ अप्पा, जदिवरवसहो णमो तस्स।।५३।।

जो रत्नत्रय से युक्त सदा, धर्मोपदेश में तत्पर हैं।

जो यति पुंगव में श्रेष्ठ रहें, सो आत्मा उपाध्याय गुरु हैं।।

उनको नित नमन हमारा है, वे ज्ञानामृत बरसाते हैं।

मोहादीविष से मूच्र्छित को, जिनवच औषधी पिलाते हैं।।५३।।

अर्थ — जो रत्नत्रय से सहित हैं और नित्य ही धर्मोपदेश देने मे लवलीन रहते हैं वे यतीश्वरों में भी श्रेष्ठ आत्मा उपाध्याय परमेष्ठी हैं उनको मेरा नमस्कार होवे।

प्रश्न — मुनियों में श्रेष्ठ कौन हैं?

उत्तर — ‘उपाध्याय परमेष्ठी’।

प्रश्न — ‘उपाध्याय परमेष्ठी’ कौन कहलाते हैं।

उत्तर — जो रत्नत्रय से युक्त हैं, नित्य धर्मोपदेश देने में तत्पर हैं। वे ‘उपाध्याय परमेष्ठी’ हैं।

प्रश्न — रत्नत्रय कौन से हैं?

उत्तर — सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान और सम्यक्चारित्र-ये तीन रत्न ही रत्नत्रय कहलाते हैं।

प्रश्न - उपाध्याय परमेष्ठी में और आचार्य परमेष्ठी में क्या अन्तर है ?

उत्तर - आचार्य परमेष्ठी मार्गप्रवत्र्तक हैं दीक्षा-शिक्षा देते हैं-प्रायश्चित्त देते हैं उपाध्याय परमेष्ठी मार्गदर्शक हैं-वे वस्तु के स्वरूप का प्रतिपादन करते हैं समझाते हैं, मार्ग दिखाते हैं, परन्तु दीक्षा वा प्रायश्चित्त देकर मार्ग में प्रवृत्ति नहीं कराते हैं।

प्रश्न - उपाध्याय परमेष्ठी के कितने गुण हैं ?

उत्तर - उपाध्याय परमेष्ठी दिगम्बर मुनि हैं-अत: अट्ठाईस मूलगुण तो होते ही हैं तथा ग्यारह अंग और चौदह पूर्व का पठन-पाठन करते हैं, अत: पच्चीस मूलगुण और होते हैं।

साधु परमेष्ठी का स्वरूप

दंसणणाण समग्गं, मग्गं मोक्खस्स जो हु चारित्तं।

साधयदि णिच्चसुद्धं, साहू सो मुणी णमो तस्स।।५४।।

जो दर्शन ज्ञान सहित ऐसा, चारित्र कहा शिव का मारग।

जो नित ही शुद्ध कहा जाता, उस रत्नत्रय के जो साधक।।

वे ही साधू कहलाते हैं, जो करें साधना शिवपथ की।

रत्नत्रयमय उन साधू को, हो मेरा नमस्कार नित ही।।५४।।

अर्थ — जो मुनि मोक्ष के मार्ग स्वरूप दर्शन और ज्ञान से सहित नित्य ही शुद्ध ऐसे चारित्र को साधते हैं वे साधु परमेष्ठी हैं, उनको मेरा नमस्कार हो।

प्रश्न — साधु परमेष्ठी किसे कहते हैं?

उत्तर — जो रत्नत्रय की साधना शुद्ध रीति से करते हैं, वे साधु परमेष्ठी कहलाते हैं।

प्रश्न - आचार्य के कितने गुण होते हैं ?

उत्तर - अट्ठाईस मूलगुण तो होते ही हैं-उनके सिवाय, दश धर्म, बारह तप, तीन गुप्ति, पाँच आचार और छह आवश्यक का पालन ये छत्तीस गुण होते हैं।

निश्चयध्यान का लक्षण

जं किंचिवि चिंतंतो, णिरीहवित्ती हवे जदा साहू।

लद्धूणय एयत्तं, तदा हु तं तस्स णिच्चयं झाणं।।५५।।

जब साधूजन एकाग्रमना, होकर जो कुछ भी ध्याते हैं।

वे इच्छा रहित तपोधन ही, निज समरस आनंद पाते हैं।।

बस उसी समय निश्चित उनका, वह निश्चय ध्यान कहाता है।

वह ध्यान अग्निमय हो करके, सब कर्म कलंक मिटाता है।।५५।।

अर्थ — जब साधु एकाग्रता को प्राप्त होकर जो कुछ भी चिंतवन करते हुए इच्छा से रहित हो जाते हैं उसी समय उन साधु का वह ध्यान निश्चय ध्यान कहलाता है।

भावार्थ — पूर्णतया निर्विकल्प होकर जो साधु ध्यान करते हैं वही निश्चय-ध्यान माना गया है।

प्रश्न — साधु के निश्चय ध्यान कब होता है?

उत्तर — जब साधु विषयकषायों से विमुख होकर अरहन्तादि का ध्यान करते हुए आत्म-चिन्तन में लीन हो जाते हैं, तब उनके निश्चय ध्यान होता है।

प्रश्न — निश्चय ध्यान किसे कहते हैं?

उत्तर — पर से भिन्न स्व आत्मा में लीनता निश्चय ध्यान है।

प्रश्न — ध्यान करने वाला क्या कहलाता है?

उत्तर — ध्यान करने वाला ‘ध्याता’ कहलाता है।

प्रश्न — जिसका ध्यान किया जाता है, उसे क्या कहते हैं?

उत्तर — जिसका ध्यान किया जाता है, उसे ‘ध्येय’ कहते हैं।

प्रश्न — चित्त की एकाग्रता को क्या कहते हैं?

उत्तर — चित्त की एकाग्रता को ‘ध्यान’ कहते हैं।

प्रश्न - धर्म और शुक्लध्यान का ध्याता कौन होता है ?

उत्तर - पृथक्त्ववितर्व वीचार और एकत्ववितर्कवीचार शुक्लध्यान के ध्याता चौदह पूर्व के ज्ञाता भावश्रुतकेवली होते हैं। सूक्ष्म क्रिया प्रतिपाति शुक्लध्यान के ध्याता सयोग केवली और व्युपरत क्रियानिवृत्ति शुक्लध्यान के ध्याता अयोगकेवली होते हैं। धर्मध्यान के दो भेद हैं-सविकल्प और निर्विकल्प। निर्विकल्प धर्मध्यान के ध्याता दिगम्बर मुनि ही होते हैं इसलिए इस गाथा में निर्विकल्प ध्यान का ध्याता साधु को कहा है, सविकल्प ध्यान के ध्याता मुख्यत: मुनिराज होते हैं और गौणत: सम्यग्दृष्टी श्रावक भी होता है।

प्रश्न - ध्येय किसे कहते हैं ?

उत्तर - जिस आत्मस्वरूप का या णमोकार मंत्र, देव-शास्त्र-गुरु, सात तत्व आदि का चिंतन किया जाता है, वह ध्येय कहलाता है।

परमध्यान का लक्षण

मा चिठ्ठह माजंपह, मा चिंतह विंवि जेण होइ थिरो।

अप्पा अप्पम्मि रओ, इणमेव परं हवे झाणं।।५६।।

तुम कुछ भी तन की चेष्टा को, मत करो वचन भी मत बोलो।

मन से भी चिंतन कुछ न करो, जैसे होवे स्थिर हो लो।।

इस विधि जब आत्मा आत्मा में, स्वयमेव लीन हो जाता है।

तुम समझो जग में यही ध्यान, बस सबसे श्रेष्ठ कहाता है।।५६।।

अर्थ — कुछ भी चेष्टा मत करो, मत बोलो और मत विचारो जिससे कि स्थिर होता हुआ आत्मा आत्मा में ही रत हो जाता है और यही उत्कृष्ट ध्यान होता है।

भावार्थ — काय, वचन और मन की सभी क्रियाओं को रोककर तथा मन को स्थिर करके जो आत्मा अपने आप में लीन हो जाता है उस समय ही उसका ध्यान निर्विकल्प परम ध्यान कहलाता है।

प्रश्न — परम ध्यान किसे कहते हैं?

उत्तर — मानसिक, वाचनिक और कायिक व्यापार को छोड़कर आत्मा का आत्मा में लीन हो जाना परम-उत्कृष्ट ध्यान कहलाता है।

प्रश्न — परम ध्यान की सिद्धि किसे होती है?

उत्तर — वीतरागी, निर्र्ग्रन्थ, दिगम्बर मुनिराज को ही परम ध्यान की सिद्धि होती है।

ध्यान का कारण

तवसुदवदवं चेदा, झाणरह-धुरंधरो हवे जम्हा।

तम्हा तत्तियणिरदा, तल्लद्धीए सदा होई।।५७।।

जिस कारण से तप श्रुत औ व्रत, इनका धारक जो आत्मा है।

वह ध्यानमयी रथ की धुर का, धारक हो ध्यान धुरन्धर है।।

अतएव ध्यान प्राप्ती हेतू, इन तीनों में नित रत होवो।

तप श्रुत औ व्रत बिन ध्यान सिद्धि, नहिं होती अत: व्रतिक होवो।।५७।।

अर्थ — जिस हेतु से तप, श्रुत और व्रतों का धारक आत्मा ध्यानरूपी रथ की धुरी को धारण करने वाला हो जाता है, अत: उस ध्यान की प्राप्ति के लिए तप, शास्त्र और व्रत इन तीनों में सदा लीन हो जाओ।

भावार्थ — तपश्चरण, शास्त्र ज्ञान और व्रत इन तीनों के बिना ध्यान की सिद्धि असम्भव है अत: इन तीनो में तत्पर हो जाना चाहिए।

प्रश्न — ध्याता कैसा होना चाहिए?

उत्तर — बारह तप, पाँच महाव्रतों का पालन करने वाला एवं शास्त्रों का मनन करने वाला तपवान, श्रुतवान और व्रतवान आत्मा ही योग्य ध्याता हो सकता है।

प्रश्न — क्यों?

उत्तर — क्योंकि वही ध्यानरूपी रथ की धुरा को धारण करने में समर्थ होता है।

प्रश्न — ध्यानी आत्मा का वाहन क्या होता है?

उत्तर — ध्यानरूपी ‘रथ’ ध्यानी का वाहन कहलाता है।

प्रश्न — ध्यानरूपी रथ में यात्रा करने वाला किस नगर में प्रवेश करता है?

उत्तर — ध्यानरूपी रथ में बैठकर यात्रा करने वाला महापुरुष ‘मोक्षनगर’ में प्रवेश करता है।

प्रश्न — ध्यान की सिद्धि के लिए आवश्यक सामग्री क्या है?

उत्तर — ध्यान की सिद्धि के लिए-तप, श्रुत और व्रतों का परिपालन करना आवश्यक है। अत: यही उसकी आवश्यक सामग्री है।

ग्रन्थकर्ता का लघुता प्रकाशन

दव्वसंगहमिणं मुणिणाहा, दोससंचयचुदा सुदपुण्णा।

सोधयंतु तणुसुत्तधरेण, णेमिचंदमुणिणा भणियं जं।।५८।।

श्री नेमिचंद्र मुनि अल्प सूत्र-ज्ञाता जो मैंने कहा सही।

यह ग्रंथ ‘द्रव्य-संग्रह’ नामा जो सार्थक नामा रचा सही।।

जो राग द्वेष दोषादि रहित श्रुत में परिपूर्ण मुनीश्वर हैं।

वे इसका संशोधन कर लें, जो मुझसे श्रेष्ठ ज्ञानधर हैं।।५८।।

अर्थ — मुझ अल्पज्ञानी नेमिचंद्र मुनिराज ने जो यह ‘द्रव्य-संग्रह’ कहा है इसको दोष समूह से रहित और श्रुुत में पूर्ण-श्रुत केवली ऐसे मुनियों के नाथ-महामुनि संशोधन करें।

भावार्थ — श्री नेमिचंद्र सिद्धान्त चक्रवर्ती महामुनिराज अपनी लघुता प्रदर्शित करते हुए कहते हैं कि मैं अल्पसूत्रों का जानने वाला हूँ अत: पूर्ण श्रुत केवली और रागादि दोषों से रहित मुनि प्रधान इस मेरी कृति का संशोधन करें।

प्रश्न — ‘द्रव्यसंग्रह’ के रचयिता कौन हैं?

उत्तर — आचार्यश्री १०८ नेमिचन्द्र महामुनि ने द्रव्यसंग्रह ग्रंथ रचा है।

प्रश्न — अल्पज्ञानी शब्द किस बात का सूचक है?

उत्तर — अल्पज्ञानी शब्द आचार्य देव की लघुता प्रदर्शन एवं विनयगुण का प्रतीक है।

प्रश्न — यहाँ नेमिचन्द्र मुनिराज ने शास्त्र शुद्धि करने का अधिकार किसे दिया है?

उत्तर — यहाँ श्री नेमिचन्द्राचार्य का अभिप्राय है कि निर्दोष मुनिराज जो कि समस्त शास्त्रों के ज्ञाता हैं वे मुनिराज ही शास्त्र शुद्ध करने के अधिकारी हैं। अर्थात् हम और आप जैसे अल्पज्ञानी मनुष्य इसमें कोई संशोधन नहीं कर सकते हैं।