🔸णमोकारमन्त्र के पाँच पदों में दो पद ऐसे हैं,
जिनमें व्याकरण के कारण पाठभेद/उच्चारण भेद) निर्मित हुए हैं। वस्तुतः वे केवल
व्याकरणकृत/व्याकरण के द्वारा किया हुआ)भेद हैं, स्वरूपगत भेद नहीं। ङ्गिर भी
उन पर विचार करना आवश्यक है। णमोकारमन्त्र के पहले पद विषयक णमो अरिहंताणं,
णमो अरहंताणं और णमो अरुहंताणं ये तीन पाठ पाये जाते हैं। 🔻संस्कृतभाषा में
अर्ह् धातु पूजार्थक है। अर्ह् धातु के साथ अच् प्रत्यय का संयोग करने पर अर्ह
शब्द निर्मित होता है। अर्ह शब्द का अर्थ है-पूजनीय, आदरणीय अथवा योग्य। जब भी
किसी शब्द के साथ शतृ प्रत्यय किया जाता है, तब शतृ प्रत्यय का केवल त्
अविशष्ट रह जाता है। अर्ह शब्द के साथ शतृ प्रत्यय/जो शब्द मुख्य शब्द कइ बाद
लगता हैं) करने पर अर्हत् शब्द बना। अर्हत् शब्द का चतुर्थी विभक्ति का बहुवचन
अर्हद्भयः बनता है। 🔺प्राकृतभाषा में शतृ प्रत्यय के स्थान पर न्त आदेश हो
जाता है। श्वेताम्बराचार्यश्री हेमचन्द्र जी महाराज ने लिखा है - शत्रानशः।
(प्राकृत व्याकरणम् = 3/181) अर्थात् ः- शतृ और आनश् प्रत्यय के क्रम से न्त
और माण आदेश होते हैं। अतः शतृ प्रत्यय का संयोग करने पर अर्हद्भयः इस संस्कृत
शब्द का प्राकृत में परिवर्तन करते समय अर्हत् और अर्हन्त ये दो रूप बनेंगे।
र्हश्रीर्हीकृत्स्नक्रियादिष्ठ्यास्वितः(प्राकृत व्याकरणम्) अर्थात् ः- र्ह,
श्री, हृी, कृत्स्न, क्रिया और दृष्ट इन शब्दों में इ का आगम होता है। इस
सूत्र के अनुसार अर्हन्त शब्द में इ का आगम करने पर अरिहन्त शब्द बना। नमः
शब्द के योग में चतुर्थी विभक्ति का प्रयोग होता है, किन्तु चतुर्थ्याः षष्ठी।
( प्राकृत व्याकरणम् = ३/१३१) चतुर्थी विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का
प्रयोग होता है-इस नियमानुसार चतुर्थी विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति १ का
प्रयोग किया गया। ऐसा करने पर णमो अरिहंताणं इस शब्द की निर्मिति/निर्माण
हुयी। उच्चार्हति ( प्राकृत व्याकरणम् = 2/111)🔻अर्थात् ः- अर्हत् शब्द के
हकार से पूर्व रकार का विकल्प से उकार अथवा अकार होता है। इस सूत्र का प्रयोग
करने पर णमो अरहंताणं और णमो अरुहंताणं ये वैकल्पिक रूप बनते हैं। णमो
अरिहंताणं इस पद के अन्य तीन पाठभेद भी सम्भव हैं। पूर्व में शतृ प्रत्यय का
न्त प्रत्यय किया था। न्त करके की गयी क्रिया विकल्पात्मक/हो अथवा न हों) है।
यदि न्तरूप क्रिया नहीं की जाती है तो अन्त्य व्यञ्जनस्य ( प्राकृत व्याकरण् =
1/11) अर्थात् ः- अन्त्य व्यंजन का लोप हो जाता है। इस सूत्र से अर्हत् शब्द
के त् का लोप/नहीं दिखना) हो जाता है।
🔸तदुपरान्त र्हश्रीहृी-कृत्स्नक्रियादिष्ठ्यास्वितः, चतुर्थ्याः षष्ठी,
उच्चार्हति, अन्त्य व्यञ्जनस्य इन चार सूत्रों का प्रयोग करने से णमो अरिहाणं,
णमो अरुहाणं और णमो अरहाणं ये तीन रूप बनते हैं।
🔺प्रमुख ग्रन्थों में पहले सिद्ध किये गये तीन पाठभेद तो पाये जाते हैं,
किन्तु दूसरे प्रकार से सिद्ध किये गये पाठभेदों का प्रयोग कहीं देखने में
नहीं आया। णमोकारमन्त्र को पैंतीस अक्षरी रखने के लिये ही सम्भवतः उन प्रयोगों
को प्रयत्नपूर्वक टाला गया होगा। हाँ, स्तुतियों में और भक्तियों में ये रूप
🔻जैसे कि आचार्यश्री कुन्दकुन्द जी महाराज ने पंच परमेष्ठी भक्ति में
अरुहासिद्धाइरिया उवज्झाया साहु पंच परमेट्ठी ऐसा लिखा है।
🔸 णमोकारमन्त्र के तीसरे पदविषयक णमो आयरियाणं और णमो आइरियाणं ये दो पाठ
पाये जाते हैं। इवर्ण का उच्चारण करने पर कभी-कभी यकाररूप ध्वनि सुनायी पड़ती
है। अतः यः श्रुतिः इस सूत्र के अनुसार इकार और यकार ये दो पाठ प्राकृतभाषा
में स्वीकार किये गये हैं।
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