श्रुतस्कंध पूजा
चौदह पूर्वों की एक शतक, पंचानवे वस्तू होती हैं।
सब प्राभृत संख्या तीन सहस, नव सौ पूर्वों की होती हैं।।1।।
दोहा
इस विध भक्ति राग से, स्तवन करूं श्रुत शास्र।
जिनवर वृषभ मुझे तुरत, देवों श्रुत का लाभ।।11।।
अथ श्रुतस्कंधयज्ञप्रतिज्ञापनाय मंडलस्योपरि पुष्पांजलि क्षिपेत्।
अथ स्थापना
गीता छंद
जिनदेव के मुख से खिरी दिव्या ध्वनी अनअक्षरी।
गणधर ग्रहण कर द्वादशांगी ग्रंथमय रचनाकरी।।
उन अंग पूरब शास्र के ही अंश ये सब शास्र हैं।
उस जैनवाणी को नमूं जो ज्ञान अमृत सार है।।
दोहा
श्रुतस्कंध वर कल्पद्रुम, मुंहमांगा फल देत।
आह्वानन कर मैं जजूं, स्व पर ाान के हेत।।1।।
र्नै्र ह्रीं श्रुतस्कंधकल्पद्रुम ! अत्र अवतर अवतर संवौषटृ हाह्वाननं।
र्नै्र ह्रीं श्रुतस्कंधकल्पद्रुम ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनं।
र्नै्र ह्रीं श्रुतस्कंधकल्पद्रुम ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वष्ज्ञअ् सन्निधकरणं।
अथ अष्टक
चामर छंद
जैन साधु चित्त सम पवित्र नीर ले लिया।
स्वर्ण भृंग में भरा पवित्र भाव मैं किया।।
द्वादशांग जैनवाणी पेजते अद्योत हो।
मोहध्वांत नष्ट हो उदीत ज्ञान ज्योति हो।।1।।
ऊँ ह्रीं श्रुतस्कंधकल्पद्रुमाय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं....।
केशरादि को घिसाय स्वर्ण पात्र में भरी।
पाप ताप शांति हेतु पूजहूँ इसी धरी। द्वादशांग. ।।2।।
ऊँ ह्रीं श्रुतस्कंधकल्पद्रुमाय संसारतापविनाशनाय चंदनं...।
चन्द्ररश्मि के समान धौत स्वच्छ शालि हैं।
पुंज को चढ़ावते भरा सुवर्ण थाल हैं।।द्वादशांग. ।।3।।
ऊँ ह्रीं श्रुतस्कंधकल्पद्रुमाय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं....।
मोगरा गुलाब चंप केतकी चुनाय के।
स्वात्म सौख्य प्रापत होय पुष्प को चढ़ावते।।द्वादशांग.।।4।।
ऊँ ह्रीं श्रुतस्कंधकल्पद्रुमाय कामवाणविध्वंसनाय पुष्पं....।
लड्डुकादि व्यंजनों से थाल को भराय के।
ज्ञानदेवता समीप भक्ति से चढ़ाय के।। द्वादशांग.।।5।।
ऊँ ह्रीं श्रुतस्कंधकल्पद्रुमाय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं....।
दीप में कपूर ज्वाल आरती उतारहूँ।
ज्ञानपूर जैन भारती हृदय में धारहूँ।।द्वादशांग.।।6।।
ऊँ ह्रीं श्रुतस्कंधकल्पद्रुमाय मोहान्धकारविनाशनाय दीपं....।
धूप ले दशांग अग्नि पात्र में हि खेवते।
कर्म भस्म हो उ़े सुगंधि को बिखेरते।।द्वादशांग.।।7।।
ऊँ ह्रीं श्रुतस्कंधकल्पद्रुमाय अष्टकर्मदहनपाय धूपं...।
सेव संतरा अनार द्राक्ष थाल में भरे।
मोक्ष फल के हेतु शास्त्र के समीप ले धरें। द्वादशांग. ।।8।।
ऊँ ह्रीं श्रुतस्कंधकल्पद्रुमाय मोक्षफलप्राप्तये फलं...।
वारि गंध शालि पुष्प चरु सुदीप धूप ले।
सत्फलों समेत अर्घ से श्जजेश्ं सुयश मिले।।द्वादशांग.।।9।।
ऊँ ह्रीं श्रुतस्कंधकल्पद्रुमाय अनर्घ्यपदप्रापतये अर्ध्यं....।
स्वर्ण भंृग नाल से, सुशांति धार देय के।
विश्व शांति हो तुरन्त, इष्ट सौख्य देय के।।द्वादशांग.।।10।।
शांतये शांतिधारा।
गंध से समस्तदिक्, सुगंध कर रहे सदा।
पुष्प को समर्पिते न दुुःख व्याधि हो कदा। द्वादशांग.।।11।।
दिव्य पुष्पांजलिः।
जम्बुद्वीप की पण्णत्ति इस द्वीप को दिखाती।
मेरु कुलाचलादिक सब वस्तु को बताती।
इसके पठन से जम्बूद्वीपादि को समझ लो।
भक्ती से अर्घ्ज्ञ करके, निजलोक भी समझ लो।।62
ऊँ ह्रीं पूर्वाचार्यमुखकमलविनिर्गतजंबूद्वीपप्रज्ञप्तिग्रन्थाय अर्घ्यें....।
पंचास्तिकाय, प्रवचन सारादि समयसारा।
चौरासि पाहुड़ादी, अरु ग्रन्थ नियम सारा।
इन सबको अर्घं लेके पूजूँ निजात्म रुचि से।
अज्ञान भाव हटकर निज ज्ञान ज्योति चमके।।63।।
ऊँ ह्रीं पूर्वाचार्यमुखकमलविनिर्गतपंचास्तिकायप्रवचनसारसमयसार नियमसार
चतुरशीतिप्राभृतग्रन्थेभ्यः अर्घ्यं....।
आचारसार मूलाचारादि शास्त्र मुनि के।
जो रत्नकरंडादी श्रावक क्रियादि कहते।।
आचार शास्त्र पूजा दानादि को बखाने।
उनको जजूँ रुचि से वे सर्वदुःख हाने।।64।।
ऊँ ह्रीं पूर्वाचार्यमुखकमलविनिर्गतमूलाचाराचारसाररत्नकरण्डश्रावकाचारादिशास्रेभ्यः
अर्ध्य....।
जो हैं पुराणआदी बहु शास्त्र मान्य जग में।
हरिवंश पुराणदि अरु पद्म चरित इनमें।।
तीर्थंकरों व चक्री नारायणादिकों का।
वर्णे चरित्र सुंदर उनको जजूँ सुनीका।।65।।
ऊँ ह्रीं पूर्वाचार्यमुखकमलविनिर्गतमहापुराणउत्तरपुराणहरिवंशपुराणपद्मपुराणा-
दिग्रन्थेभ्यः अर्घ्यं.....।
तत्त्वार्थ सूत्र तत्त्वों को वर्णता है सुन्दर।
गुरु गुद्धपिच्छ इसमें भर दीना श्रुत समुंदर।।
सर्वार्थसिद्धि आदिक टीका इसी पे बहुती।
हैं आप्तमीमांसादि रचना जजूँ सुभक्ती।।66।।
ऊँ ह्रीं पूर्वाचार्यमुखकमलविनिर्गततत्त्वार्थसूत्रग्रन्थतट्टीकासर्वार्थसिद्धितत्त्वार्थरा-
जवार्तिकश्लोवार्तिकगंधहस्तिमहाभाष्यःआप्तमीमांसाअष्टशती अष्टसहस्त्रीआदि-
तत्संबंधितसर्वग्रन्थेभ्यः अर्घ्यं.....।
गोमट्टसार जीवकांड कर्मकांड श्रुत।
त्रिलोक सार लब्धि सार क्षपण सार श्रुत।।
ये पंच संग्रहादि ग्रन्थ अर्थ पूर्ण हैं।
इनको जजूँ इन्हीं से अनेकांत पूर्ण हैं।।67।।
ऊँ ह्रीं पूर्वाचार्यमुखकमलविनिर्गतकोमट्टसारजीवकांडकर्मकांडत्रिलोकसारलब्ध्सिार
क्षपणसारपंचसंग्रहनामग्रन्थेभ्यः अर्घ्यं.....।
शंभुछंद
जितने जिनश्रुत उपलब्ध आज, जिनमंदिर मठ ग्रन्थालय में।
गुरुपरंपरा से प्राप्त लिखा, भवभीरु महाव्रती मुनिजन ने।।
सर्व अंग पूर्व के अंश-अंश, जिनवर की वाणी मानी है।
मैं पूजूँ अर्घ चढ़ज्ञकर के, ये स्वात्म सुधारस दानी है।।68।।
ऊँ ह्रीं पूर्वाचार्यमुखकमलविनिर्गतगुरुपरंपरागतजिमंदिरमठग्रन्थालयस्थितसर्वजिन
शास्त्रेभ्यः पूर्णार्घ्यं....।
शांतये शांतिधारा। दिव्यपुष्पांजलिः।
जाप्य ऊँ ह्रीं श्री वद वद वाग्वादिनि भगवति सरस्वति ह्रीं नमः।
जयमाला
दोहा
द्वादशांग है वाङ्मय! श्रुतज्ञानामृतसिंधु।
गाऊँ तुम जयमालिेका, तरूँ शीघ्र भवसिंधु।।1।।
शंभुछन्द
जय जय जिनवर की दिव्यध्वनी, जो अनक्षरी ही खिरती है।
जय जय जिनवाणी श्रोताओं, को सब भाषा में मिलती है।।
जय जय अठरह महाभाषायें, लघु सातशतक भाषायें हैं।
फिर भी संख्यातों भाषा में, सब समझें जिन महिमा ये हैं।।2।।
जिन दिव्यध्वनी को सुनकर के, गणधर गूंथे द्वादश अंग में।
बारहवें अंग के पांच भेद, चौथे में चौदह पूर्व भणें।।
पद इक सौ बारह कोटि तिरासी, लाख अठावन सहस पांच।
मैं इनका वंदन करता हूँ, मेरा श्रुत में हो पूरणांक।।3।।
इक पद सोलह सौ चौंतीस कोटि ओर तिरासी लाख तथा।
है सात हजार आठ सौ अट्ठासी अक्षर जिन शास्त्र कथा।।
इतने अक्षर का इक पद तब, सब अक्षर के जिेतने पद हैं।
उनमें से शेष बचें अक्षर वह, अंगबाह्य श्रुत नाम लहे।।4।।
जो आठ कोटि एक लाख आठ, इज्जार एक सौ पचहत्तर।
चौदह प्रकीर्णमय अंगबाह्य, के इतने ही माने अक्षर।।
यह शब्द रूप अ$ ग्रन्थ रूप, सब द्रव्यश्रुत कहलाता है।
जो ज्ञानरूप है आत्म में, वह कहा भावश्रुत जाता है।।5।।
जिनको केवलज्ञानी जाने, पर वच से नहिं कह सकते हैं।
ऐसे पदार्थ सु अनंतानंत, जो तीन भुवन में रहते हैं।।
उनसे भि अनन्तवें भाग प्रमित, वचनों से वर्णित हों पदार्थ।
इन प्रज्ञापनीय से भि अनन्तवें, भाग कथित श्रुत में पदार्थ।।6।।
फिर भी यह श्रुत सब द्वादशांग, सरसों सम इसका आज अंश।
उनमें से भी लवमात्र ज्ञान, हो जावे जो भी जन्म धन्य।।
यह जिन आगम की भक्ती ही, निज पर का भान कराती है।
यह भक्ती ही श्रुतज्ञान पूर्णकर, श्रतुकेवली बनाती है।।7।।
श्रुतज्ञान व केवलज्ञान उभय, ज्ञानापेक्षा हैं सदृश कहे।
श्रुतज्ञान परोक्ष लखे सब कुछ, बस केवलज्ञान प्रत्यक्ष लहे।।
अंतर इतना हि तुम जानो, इसलिए जिनागम आराधो।
स्वाध्याय मनन चिंतन करके, निजआत्म सुधारस को चाखो।।8।।
इन ढाईद्वीप में कर्मभूमि, में इक सौ सत्तर जिन होते हैं।
उन सबकी ध्वनि जिन आगम है, इससे जन अघमल धोते हैं।।
जिनवचपूजा जिनपूजा सम, यह केवल ज्ञान प्रदाता है।
नित पूजूँ ध्याऊँ, यह भव्यों को सुखदाता है।।9।।
है नाम भारती सरस्वती, शारदा हंसवाहिनी तथा।
विदुषी वागीश्वरी और कमारी, ब्रह्मचारिणी सर्वमता।।
विद्वान जगन्माता कहते, ब्राह्मिणी व ब्रह्माणी वरदा।
वाणी भाषा श्रुतदेवी गौ, ये सोलह हनाम सर्व सुखदा।।10।।
हे सरस्वति ! अमृतझरिणी, मेरा मन निर्मल शांत करो।
स्वाद्वाद सुधारस वर्षाकर, सब दाह हरो मन तृत्प करो।।
हे जिनवाणी माता मुझ, अज्ञानी की नित रक्षा करिये।
दे केवल ‘‘ज्ञानमती‘‘ मुझको, फिर भले उपेक्षा ही करिये।।11।।
दोहा
भूत भविष्यत् संप्रति, त्रैकालिक जिनशास्त्र।
श्रुतस्कंध है कल्पद्रुम, नमत, सिद्धि सर्वार्थ।।
ऊँ ह्रीं श्रुतस्कंधकल्पद्रृमाय जयमाला पूर्णार्घ्यं ....।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलिः।
शेर छन्द
जो भव्य श्रुतस्कंध कल्पद्रुम को यजेंगे।
वे सर्व मनोवांछित को प्राप्त करें।।
श्रुतज्ञान दृक से स्वात्मतत्त्व को विलोकेंगे।
फिर केवल ‘‘ज्ञानमती‘‘ दृक् से लोक लोकेंगे1।।1।।
।।इत्याशीर्वादः।।