अनंत व्रत पूजा


चौपाई सेवत अनंत व्रत सुहावनो, सुरनर पशु धारत पावनो।

पूजा चतुर्दश सो सुख पावनो, स्थापित कारूंत्रय बार सुहावनो।।


                                      ऊँ ह्रीं अनंतव्रत उद्यापने श्री अनंत जिनेन्द्र। अत्र अवतरत अवतरत संवौषट्। 

                                     ऊँ ह्रीं अनंतव्रत उद्यापने श्री अनंत जिनेन्द्र। अत्र तिष्ठत तिष्ठत तिष्ठत ठः ठः स्थापनं। 

                                     ऊँ ह्रीं अनंतव्रत उद्यापने श्री अनंत जिनेन्द्र। अत्र मम सन्न्हिितो भवत भवत वषट् स्वाहा।।

(अथाष्टकं राग-सोरठा)

अमृत सम जल लाय, श्री जिन चरण चढाय के (हों)।

हरो तृषा दुखदाय, अनंतनाथ जिन राज को।।

ऊँ ह्रीं अनंतव्रतोद्यापने अनन्तनाथाय जन्मजरोरोग विनाशनाय जलं निर्वा. स्वाहा।।1।।


चंदन केशर गाल, श्री जिनचरण चढ़ाय हूं।

मिथ्या ताप नशाय, पूजू अनंतनाथ जिनवर कूं।।

ऊँ ह्रीं अनंत व्रतोद्यापने श्री अनंत जिनाय संसार ताप विनाशनाय चंदनं।।2।।


अक्षत मोती समान, ढैर करो सो चरण तट।

शिव नगरि पहुंचान, पूजो अनंत जिनवर कूं।।

ऊँ ह्रीं अनंत व्रतोद्यापने श्री अनंत जिनाय अख्ज्ञय पर प्राप्ताय अक्षतं नि. स्वाहा।।3।।


कुसुम अली गुंजार, अरचत हूं आनन्द से।

रति पति को निरवार, पूजो अनंत जिनवर कौ।

ऊँ ह्रीं व्रतोद्यापने श्री अनंतनाथ जिनेन्द्राय कामबाण वि. पुष्पं.।


वेदनी दुखदायि अपरंपार, चरु से पूजो भविक नर।

हम पूजत अविकार, पूजू अनंत जिननाथ कूं।।

ऊँ ह्रीं अनंत अनंत जिनाय क्षुधा रोग वि. चरुं नि. स्वाहा।।5।।


दीपक ज्योति अखंड, घट  पट परकाशी महा।

क्षय होवे मोह प्रचंड, पूजू अनंत जिनवर को।।

ऊँ ह्रीं अनंत. अनंत जिनाय मोह महांधकाराय वि. दीपं नि. स्वाहा।।6।।


धूप दशांगी खेवाय, धन अंबर ज्यों छा रह्यो।

कर्म शत्रु को खिपाय, पूजू अनंत जिन व्रत कौ।।

ऊँ ह्रीं अनंत.त्र अनंत जिनेन्द्राय दुष्टाष्ट कर्मै वि. धूपं नि. स्वाहा।।7।।


एला लोंग बादाम, फल पावन अर्चित करो।

दीजै मुक्त का धाम, पूजो अनंत व्रत कौ।।

ऊँ ह्रीं अनंतवत्र अनंत जिनाय मोक्षफल प्राप्ताय फलं. नि. स्वाहा।।8।।


जल फलादि शुद्ध कर लाय, पूजो प्रीति लगाय के।

अनर्घ पद को पाय, पूजू अनंत जिन व्रत कूं।।

ऊँ ह्रीं अनंत व्रतोद्यापने अनंत जिनाथाय अनर्घ्ज्ञ पद प्राप्ताय अर्घ्ज्ञं।।।


जयमाला

दोहा

अनंत व्रत सुहावनो, बांधवध्याारो, धर प्रीति।

चौदह भैद सु भावनो, गाऊं समुच्चय गीत।।


पद्धरिछंद-वषति काल यति योग धारं थिर थान बैठ, अहिडग व्रत धार।

षट्काय जीव उपजै अपार, तिस काल विषै भादव विचार।।1 ।।


ग्यारस, बारस, तेरस एकाहार, चौदश पौषध निर्जल विचार।

शत आठ जाप परिग्रह निवार, सजि शील, शयन भूमि निःसार।।2 ।।


सचित्त त्याग, अंतरायपाल, अनंत व्रत, भवि करेा उदार।

मर्यादास चतुर्दश वर्ष सार, उद्यापनकरो भवि हर्ष धार।।3।।


नहीं शक्ति होय व्रत दुगुनधार, चौदा-चा?ैदा गुण करो सार।

चउदश जिनवर आदि विशल कुलकर सरिता चक्री रत्नमाल।।4 ।।


सुरकृत अतिशय पूर्व तास, गुणथान मार्गणा जीव समाजस।

राजू स्वर तिथि चउदा मिलाय एक सों छयान्वे गुन पूर्ण रास।।5।।


द्विजवर्ण दरिदा्रे व्रत घार, रिद्धि चक्रे , सब लीनो अपार।

दुःख कर्म, भ्रम, सब गकये नशाय, नरनारी करो व्रत हर्ष  लाय।।6।।


अरि जीत जिनेश्वर धीर-वीर, नित सदाजपे मुनिराज धीर।

अब मो पर कृपा नजरमांड, जग जाल परयो हूं वेग काडू।।7।।


प्रभु जाहित-अजाति गिनी न कोय, तिर्यंच कुकर्मी रटे जो कोय।

लोहा कनक होय पार्श्व संग, जपि धन्य जीव पावे शिवंग।।8।।


तुम दरश दियो ये कालमाय, सो धन्य धडी, धथ्न्य चक्षु पाय।

भवि जीवन के तमुम तात मात, तुम ही तै सब आनंद पात।।9।।


तुम गुण अनंत, अपार भारी, सुरपति, गणपिति, नहीं कहत ेपारी।

परमातम पूर अतीत रूप, वचनातीन सेव लगे भूप।।10।।


वंदन स्तवन, पुस्तक सुनाय, शुभोपयोग से गुण हर्ष गाय।

नय तै आतम वस्तु एक, व्यवहार तनी भई अनेक।।11।।


सब भोगे भोगे अनेक बार, तुम जानत हो मैं कहूं लगाहरस्।

‘‘पाडचंद्र‘‘ परयो प्रभुशर्ण आय, निज संग देहु शिवपुर मझार।।

अनंत व्रत, गुन अपार, मेरी बुद्धि समान विचारा।

वंशथल भूमि मझारा, तुम गुण अंकुर खूब संभारा।।

ऊँ ह्रीं अनंतव्रतोद्यपने समुच्चय पूजायां अनंतनाथ जिनाय पूणार्सर्घं नि. सवाहा।


मंगरल रूप, बरषत सुख पायो, सुगुन हम ध्यावें, सुगुन हम ध्यावे

हहरो मिथ्यात्व सदा दुःख दायी,   सुगुन हम ध्यावें, सुगुन हम ध्यावे

कुदेव धर्म गुरु को तजो भविरायी, सुगुन हम ध्यावें, सुगुन हम ध्यावे

सम्यग् रत्न गहो हरषाई, सुगुन हम ध्यावें, सुगुन हम ध्यावे

(इत्यादि आशीर्वाद)