श्री शीतलनाथ विधान
स्थापना
(दोहा)
तीर्थंकर दसवे प्रभो, जिनवर शीतलनाथ ।
उद्यत गुण गाने हुये, सभी भक्त नत माथ ।।
(ज्ञानोदय)
हे शीतलताप्रभु ! हे शीतलताप्रभु!, शीतल-शीतल सदा करो ।
जो भी रटते नाम आपका, उनकी भव-दुख व्यथा हरो ||
कर्मों के संताप आपके नाम मात्र से शीतल हों ।
दशों दिशाएँ पावन होतीं, कण-कण सुरभित मंगल हों ।।
नाथ आपके दर्शन करके, तन-मन पुलकित हो जाता ।
चरण-शरण में भक्त जनों का आक्रन्दन अघ खो जाता ।।
हमें भक्ति का मिला सहारा, तो हम गुण क्यों ना गायें |
सुन लो विनती नाथ ! हमारे, मन मन्दिर में वस जायें ।।
ॐ ह्रीं श्रीशीतलनाथजिनेन्द्र ! अत्र अवतर अवतर संवौषट् इति आह्वानम् ।
ॐ ह्रीं श्रीशीतलनाथजिनेन्द्र ! अत्र तिष्ठ ठः ठः स्थापनम् ।
ॐ ह्रीं श्रीशीतलनाथजिनेन्द्र ! अत्रमम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधिकरणम् |
( पुष्पांजलि.......)
जल जैसा अपना आतम पर, बना अवगुणी दुर्गति से।
शुद्ध और शीतल बन जाता, नाथ आपकी संगति से ।।
प्रासुक जल का लिया सहारा, चेतन पावन हो जाये ।
हे! शीतल जिनवर ! हम तेरी, भक्ति अर्चना को आये ।।
ॐ ह्रीं श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय जन्म-जरा-मृत्युविनाशनाय जलं.....
| चंदन के बस दो गुण समझो, सौरभ दे तन ताप हरे ।
किन्तु आपकी जिनवाणी तो, भव-भव का सन्तावै हरे ||
चंदन का अब लिया सहारा, चेतन शीतल हो जाये ।
हे ! शीतल जिनवर ! हम तेरी, भक्ति अर्चना को आये ।।
ॐ ह्रीं श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय संसारतापविनाशनाय चन्दन..... ।
मुट्ठी बाँधे आते हम सब, हाथ पसारे जाना रे।
किन्तु बीच में पद- लालच में, हाथ रहा पछताना रे ।
तन्दुल का अब लिया सहारा, अक्षय पद को हम ध्याये ।
हे! शीतल जिनवर ! हम तेरी, भक्ति अर्चना को आये ।।
ॐ ह्रीं श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान्..... ।
आकर्षक हे खिला महकता, फूल नीम का कटुक रहा ।
ऐसे ही है काम सुगन्धी, जिसका फल जग भुगत रहा ।
पुष्प चढ़ा के शील-पुष्प से, मन की बगिया खिल जाये ।
हे! शीतल जिनवर ! हम तेरी, भक्ति अर्चना को आये ।।
ॐ ह्रीं श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं .... |
भूख मिटी ना भोग मिटे ना, मिट मिट गये सदा हम ही ।
फिर भी भोगों को ना त्याग, पायें इच्छा से कम ही ।।
चढ़ा-चढ़ा नैवेद्य आपको, ज्ञानामृत पर ललचाये ।
हे! शीतल जिनवर ! हम तेरी, भक्ति अर्चना को आये ।।
ॐ ह्रीं श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं..... ।
अंधों को दिन रात बराबर, मोही को यह जग वैसे ।
नाथ ! आपके ज्ञान दीप बिन, मिटे मोह का तम कैसे ?
नेत्रों का पूरा उन्मीलन, करवा दो तम खो जाये ।
हे! शीतल जिनवर ! हम तेरी, भक्ति अर्चना को आये ।।
ॐ ह्रीं श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय मोहांधकारविनाशनाय दीपं.... |
धूप जले तो मंदिर महके, किन्तु सभी जग ना महके।
किन्तु आपके नाम मात्र से, भक्त जगत् आतम महके ।।
धूप चढ़ा के कर्म जलाने, आतम महकाने आये हे!
शीतल जिनवर ! हम तेरी, भक्ति अर्चना को आये ।।
ॐ ह्रीं श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूपं.... |
पुण्य कार्य करना ना चाहें, किन्तु पुण्य फल सब चाहें ।
पाप कार्य करते हैं पर, पापों के फल ना चाहें ।।
पाप त्यागकर पुण्य प्राप्ति को, थाल - थाल भर फल लाये ।
हे! शीतल जिनवर ! हम तेरी, भक्ति अर्चना को आये ।।
ॐ ह्रीं श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फलं..... ।
वसु द्रव्यों का लिया सहारा, गुण गाने की आशा से ।
भाव भक्ति तो दिखा न सकते, टूटी-फूटी भाषा से ।।
अर्ध्य भावमय छोटा सा पर, अनर्घ पद मन में भाये।
हे! शीतल जिनवर ! हम तेरी, भक्ति अर्चना को आये ।।
ॐ ह्रीं श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं ..... ।
श्री पंचकल्याणक अर्घ्य आरण नामक स्वर्ग लोक तज, चैत्र अष्टमी कृष्ण रही ।
गर्भ सुनन्दा माँ का पाया, पूज्य गर्भ कल्याण यही । ।
गर्भो कष्टों का सहना, नाथ ! हमारा मिट जाये ।
पर्व गर्भ कल्याणक सो हम, आज मनाने का आये ।
ॐ ह्रीं चैत्रकृष्ण अष्टम्यांगर्भमङ्गलमण्डिताय श्रीशीतलनाथ जिनेन्द्राय अर्घ्यं
माघ कृष्ण बारस जब आई, और नगर भद्रपुर जन्म लिया ।
दृढ़रथमहाराज का आँगन, और जगत् सब धन्य किया ||
जन्मों के कष्टों का सहना, नाथ ! हमारा मिट जाये ।
पर्व जन्म कल्याणक सो हम, आज मनाने को आये ।।
ॐ ह्रीं माघकृष्णद्वादश्यांजन्ममङ्गलमण्डिताय श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं.... ।
माघ कृष्ण बारस को त्यागा, सकल परिग्रह दीक्षा ली |
तप कल्याणक पर्व मनाकर, सबने शिव की शिक्षा ली ।।
अटकन भटकन का दुख सहना, नाथ! हमारा मिट जाये ।
तप कल्याणक मंगलमय सो, आज मनाने को आये ।।
ॐ ह्रीं माघकृष्णद्वादश्यांतपोमङ्गलमण्डिताय श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं... |
पौष कृष्ण चौदस की तिथि को, घाति कर्म नशा दिये।
केवलज्ञान राज्य पाया सो, सुर-नर सब मिल पर्व किये ||
अघ अज्ञान जनित दुख सहना, नाथ ! हमारा मिट जाये ।
पर्व ज्ञानकल्याणक सो हम, आज मनाने को आये ।।
ॐ ह्रीं पौषकृष्णचतुर्दरश्यां ज्ञानमङ्गलमण्डिताय श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं.....
अश्विन शुक्ल अष्टमी संध्या, पद्मासन से कर्म नशा ।
मोक्ष गये सम्मेदशिखर से, हम पायें सब यही दशा ।।
अष्टकर्म का अन्धन सहना, नाथ! हमारा मिट जाये ।
पर्व मोक्षकल्याणक सो हम, आज मनाने को आये ।।
ॐ ह्रीं अश्विनशुक्ल अष्टम्यां मोक्षमङ्गलमण्डिताय श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं .....। -
जयमाला
(दोहा)
जग में क्या शीतल रहा, यही समझने बात ।
जयमाला के नाम हम, ध्यायें शीतलनाथ ।।
(ज्ञानोदय)
दृढ़रथ पिता सुनन्दा माँ के, शीतलनाथ पुत्र प्यारे ।
धर्म-कर्म विच्छेद हुआ तो, स्वर्ग लोक से अवतारे ।।
नब्बे धनुष उच्च कंचन सा, तीर्थंकर तन प्राप्त किया ।
अनुपम सुखदा पूज्य पिता का, पद पाकर के राज्य किया ॥
वन विहार को कभी गये तो, हिम-पाला देखा वन में ।
किन्तु क्षणिक वह नष्ट हुआ तो जल्दी वैरागे मन में ।।
क्षण-क्षण नश्वर देख जगत् को, मोह बंध तजने मचले ।
राग-द्वेष आदिक दोषों को शीघ्र त्यागने को निकले । ॥ 2 ॥
दुखी और दुख, दुख के कारण, समझ इन्हें अब तजना है।
सुखी और सुख, सुख के कारण, समझ इन्हें अब भजना है ||
विषय और भोग में यदि सुख होता, तो मैं सबसे बड़ा सुखी ।
किन्तु मुझे संतोष तनिक ना, इनसे तो मैं हुआ दुखी ।। 3 ।।
विषय भोग से जो सुख माने, वह सुख मिथ्या है भ्राता ।
ये ही सुखाभास चेतन को, भव गलियों में भटकता ।।
देह जेल में यथा बँधे ज्यों, पिंजड़े में पक्षी तोता ।
बँधा हुआ खम्भे हाथी, रोता सदा दुखी होता ।। 4 ।।
उदासीन जग से होना ही, साँचा सुख वह कहलाता ।
मोह त्याग बिन वह साँचा सुख, कौन तपस्या बिन पाता ।।
राज्य भोग सब मोह त्यागकर, जल्दी दीक्षा ले डाली ।
केवलज्ञान प्राप्त करने को, घाति कर्म रज हर डाली ॥5॥
दोष अठारह नशा दिये तो, समवसरण में शोभित हो ।
भक्तों के तारक तीर्थंकर, त्रय लोकों में पूजित हो ।।
हे जिन सूरज ! शीतलस्वामी, हमें भक्ति फल बस यह दो |
सम्यक् श्रद्धा रहे आपमें, 'सुव्रत' को संबल यह दो || 6 ||
(दोहा)
भक्ति वन्दना से खिले, शिव अंकुर वैराग्य |
हे जिन शीतल छाँव में, पले बढ़े सौभाग्य ।।
शीतल प्रभु को पूजकर, होते भक्त निहाल ।
सही गलत को जानकर, छोड़ें जग जंजाल ।।
ॐ ह्रीं श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय जयमालापूर्णा..... |
शीतलजिन! शीतल करें, विश्व शांति कल्याण |
प्रासुक जल की धार दे, हम पूजत भगवान्
( शांतये शांतिधारा.... )
कल्पवृक्ष के पुष्प सम, पुष्पांजलि पद लाय ।
भव दुःखों को मेंट दो, हे ! शीतल जिनराय ।।
( पुष्पांजलिं.... )
प्रथम वलय पूजन
स्थापना
तीर्थंकर दसवें प्रभो, जिनवर शीतलनाथ ।
उद्यत गुण गाने हुये, सभी भक्त नत माथ ।।
हे शीतलप्रभु! हे शीतलप्रभु !, शीतल - शीतल सदा करो ।
जो भी रटते नाम आपका, उनकी भव-दुख व्यथा हरो ।।
कर्मों के संताप आपके नाम मात्र से शीतल हों ।
दशों दिशाएँ पावन होतीं, कण-कण सुरभित मंगल हों ।।
नाथ! आपके दर्शन करके, तन-मन पुलकित हो जाता ।
चरण-शरण में भक्त जनों का आक्रन्दन अघ खो जाता ।।
हमें भक्ति का मिला सहारा, तो हम गुण क्यों ना गायें ।
सुन लो विनती नाथ ! हमारे मन मन्दिर में वस जायें ।।
ॐ ह्रीं चतुर्गतिसम्बन्धिनः संसारचक्रविमुक्त श्रीशीतलनाथजिनेन्द्र ! अत्र अवतर अवतर... । "
ॐ ह्रीं चतुर्गतिसम्बन्धिनः संसारचक्रविमुक्त श्रीशीतलनाथजिनेन्द्र! अत्र तिष्ट
तिष्ट ठः ठः... ।
ॐ ह्रीं चतुर्गतिसम्बन्धिनः संसारचक्रविमुक्त श्रीशीतलनाथजिनेन्द्र ! अत्र मम सन्निहितो..... ।
( पुष्पांजलि.......)
अपने स्वरूप को जल पाता, कृपा किसी की पा जैसे ।
अगर आपकी कृपा रही तो, हम पायें आतम वैसे
चढ़ा-चढ़ा इस प्रासुक जल को, हमको भी पावन बनना ।
कृपा करो हे शीतल स्वामी!, मिले पाँचवी गति गहना ।।
ॐ ह्रीं चतुर्गतिसम्बन्धिनः संसारचक्रविमुक्त श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय जन्म- जरा मृत्युविचनाशनाय जलं..... ।
आग पेट की भोजन हरता, क्रोध आग की क्षमा हरे ।
धाँय - धाँय भोगों की ज्वाला, सम्यक् संयम शांत करे ।।
चढ़ा-चढ़ा सुरभित चंदन को, हमको भी शीतल बनना ।
कृपा करो हे शीतल स्वामी!, मिले पाँचवी गति गहना ।
ॐ ह्रीं चतुर्गतिसम्बन्धिनः संसारचक्रविमुक्त श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय संसारतापविनाशनाय चन्दनं..... ।
जड़ जोरू जमीन के खातिर, धर्म भूलते हम अपना ।
ख्याति पूजा लाभ प्राप्ति को, गैरों को देते दफना ।।
चढ़ा-चढ़ा उज्ज्वल अक्षत् को, हमको भी अक्षय बनना ।
कृपा करो हे शीतल स्वामी!, मिले पाँचवी गति गहना ।।
ॐ ह्रीं चतुर्गतिसम्बन्धिनः संसारचक्रविमुक्त श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान्..... ।
जब तक माला गूँथी जाती, तब तक खुशबू उड़ जाती ।
जीवन की बगिया सद्गुण के, सौरभ से ना भर पाती ।।
पुष्प चढ़ा के काम नशा के, हमको भी सुरभित बनना ।
कृपा करो हे शीतल स्वामी!, मिले पाँचवी गति गहना ।।
ॐ ह्रीं चतुर्गतिसम्बन्धिनः संसारचक्रविमुक्त श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय कामबाण - विध्वंसनाय पुष्पं..... ।
अब तक हमने सब कुछ खाया, किन्तु गम ना खाया ।
इसीलिये तो गम का सागर, भरा लबालब लहराया ||
चढ़ा-चढ़ा नैवेद्य आपको, क्षुधा रोग हमको हरना ।
कृपा करो हे शीतल स्वामी!, मिले पाँचवी गति गहना ।।
ॐ ह्रीं चतुर्गतिसम्बन्धिनः संसारचक्रविमुक्त श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं.... ।
सबसे सुन्दर जीवन मंदिर, किन्तु मोह का अंध भरा ।
ज्ञान रोशनी भर जाये तो, चमक उठेगा रूप खरा ।।
करें आरती दीपक से हम, हमको भी उज्ज्वल बनना
कृपा करो हे शीतल स्वामी!, मिले पाँचवी गति गहना । ।
ॐ ह्रीं चतुर्गतिसम्बन्धिनः संसारचक्रविमुक्त श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय मोहान्धकार- विनाशनाय दीपं.... |
सब हो जाता मजा किरकिरा, मिले खीर में धूल जहाँ ।
आतम का हो रहा किरकिरा, मिले कर्म की धूल जहाँ ।।
चढ़ा-चढ़ा के धूप सुगंधी, कर्म धूल हमको हरना ।
कृपा करो हे शीतल स्वामी!, मिले पाँचवी गति गहना ।
ॐ ह्रीं चतुर्गतिसम्बन्धिनः संसारचक्रविमुक्त श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूपं..... ।
लोग परीक्षा से डर जाते, किन्तु चाहते फल अच्छे ।
बिना परीक्षा किसने पाये, मधुर फलों के दल गुच्छे ।।
चढ़ा-चढ़ा प्रासुक फल को, हमको भी शिवफल वरना ।
कृपा करो हे शीतल स्वामी!, मिले पाँचवी गति गहना ।।
ॐ ह्रीं चतुर्गतिसम्बन्धिनः संसारचक्रविमुक्त श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फलं..... ।
आठों द्रव्यों के मिलने पर, अर्घ्य बना यह मनहारी ।
अगर मिले प्रभु भक्ति सहारा, मिले मुक्ति की झट गाड़ी ||
चढ़ा-चढ़ा यह अर्ध्य आपको, हमको भी अनर्घ बनना ।
कृपा करो हे शीतल स्वामी!, मिले पाँचवी गति गहना ।।
ॐ ह्रीं चतुर्गतिसम्बन्धिनः संसारचक्रविमुक्त श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय अनर्घपदप्राप्तये अर्घ्यं..... ।
प्रथम वलय अर्ध्यावली
( चतुर्गति वर्णन)
हिंसा चोरी निंदा करना, कुशील या लालच करना ।
बात बात पर शोक मनाना, कटुक झूठ भाषण करना ||
बहु आरंभ परिग्रह ज्यादा, क्रोध मान माया करना ।
दुर्बुद्धिक आदिक जीवों को, परकों में जा दुख सहना ।।
जीव नारकी शारीरिक दुख, क्षेत्र मानसिक दुख सहते ।
उन्हें असुरकुमार लड़वाते, और परस्पर भी लड़ते ।।
सात प्रकारी नरकों के दुख, नाथ! कभी ना हम पायें
| इसीलिये हे ! शीतल जिनवर, भक्त आपके गुण गायें । 1 ॥
ॐ ह्रीं नरक गतिसम्बन्धिदुःखनिवारणाय श्रीशीतलनाथजिनेन्द्रायअर्घ्यं ..... |
धर्म कथन में प्रचार करना, मिला - मिला मिथ्यावाणी |
अन्य जनों के दोष खोजना, आर्त्त ध्यान के जो ध्यानी ||
लेश्यायें कापोत नील हों, शील रहित जीवन जीना ।
कुटिल भाव मायाचारी से, पशुगति में जा दुख पीना ||
तिर्यंचों में पाँचों इन्द्री वध-बंधन दुख घोर सहें ।
छेदन-भेदन ताड़न पीसन, भूखे प्यासे मार सहें ।।
दुखदायक तिर्यंच योनि के, कष्ट कभी ना हम पायें |
इसीलिये हे! शीतल जिनवर, भक्त आपके गुण गायें ।। 2 ।।
ॐ ह्रीं तिर्यंचगतिसम्बन्धिदुःखनिवारणाय श्रीशीतलनाथजिनेन्द्रायअर्घ्यं....।
विनीत बनना सरल स्वभावी, अल्प कषायों का होना ।
अल्पारंभ परिग्रह कम हो, मरण समय में ना रोना ।।
भद्ररूप व्यवहारवान हों, मृदुता के हों आचारी ।
इन भावों वाले जो प्राणी, मानव बनते संसारी ।।
मनुष्यगति में सम्मूर्च्छन दुख, गर्भों में सिकुड़न सहना ।
जनम मरण की पीड़ा सहना, योग वियोगों को सहना ।।
रोग शोक मय मानव गति के, योग कभी ना हम पायें |
इसीलिये हे! शीतल जिनवर, भक्त आपके गुण गायें | 3 ||
ॐ ह्रीं मनुष्यगतिसम्बन्धिदुःखनिवारणाय श्रीशीतलनाथजिनेन्द्रायअर्घ्यं.....।
। सरागसंयम पालन करना तथा संयमासंयम भी
कहा बालतप कुटिल भाव से, व्यर्थ व्रतों का पालन ही ।।
वही अकाम निर्जरा समझो, जो परवश व्रत पालन हो ।
इन कारण से मिले देवगति, जहाँ प्राणियों को दुख हो ।।
विषय- भोगसुख देवलोक में, दुख के कारण बन जाते ।
मिले मानसिक तीव्र वेदना, असमय में ना मर पाते ।।
दुख संताप देवगति वाले, नाथ! कभी ना हम पायें ।
इसीलिये हे ! शीतल जिनवर, भक्त आपके गुण पायें | 4 |
ॐ ह्रीं देवगतिसम्बन्धिदुःखनिवारणाय श्रीशीतलनाथजिनेन्द्रायअर्घ्यं....।
प्रथमवलय जयमाला
सबकी गोद निगोद मानिए, जनम मरण के कष्ट जहाँ ।
पृथ्वी जल तरु आग पवन ये, हमको बनना इष्ट कहाँ ?
नहीं नहीं दो तीन चार या, पंचेन्द्रीय तिर्यंच बनें
नहीं नारकी देव बनें ना, धरम बिना ना मनुज बनें ।। 1 ।।
द्रव्य क्षेत्र भव काल भाव ये, पाँचों परिवर्तन सहके।
फिरे हमारा आतम भव-भव, सदा मिले दुख के झटके
देव शास्त्र गुरुओं को पाकर, मानव भव ना धन्य किया ।
केवल अपना स्वारथ साधा, ना ही उत्तम दान दिया || 2 ||
रत्नत्रय के बिना जगत् की, सारी बाधायें झेलीं ।
और कषायों के वश होकर, पापों की होली खेलीं ।।
कृपा आपकी नाथ ! मिली तो, भाग्य हमारा जाग गया।
भक्ति अर्चना करके स्वामी, मन का कल्मष भाग गया ।।3।।
भक्ति आपकी करके हमको, इतना है विश्वास विभो ।।
चउ गतियों का दुख छूटेगा, भटकेगा ना दास प्रभो ।।
बनकर हम भी आप सरीखे, पंचम गति को पायेंगे ।
किंतु मिले जब तक ना शिव सुख, भजन आपके आयेंगे ||4||
(दोहा)
चारों गति के दुख मिटें, पंचमगति हो प्राप्त ।
मात्र लक्ष्य यह पूर्ण हो, हे शीतलजिन! आप्त ।।
ॐ ह्रीं चतुर्गतिसम्बन्धिदु: खनिवारणाय सिद्धगतिप्राप्तये श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय जयमालापूर्णा .... |
शीतल जिन! शीतल करें, विश्वशांति कल्याण |
प्रासुक जल की धार दे, हम पूजत भगवान् ।।
( शांतये शांतिधारा.... )
कल्पवृक्ष के पुष्प सम, पुष्पांजलि पद लाय ।
भव दुःखों को मेंट दो, हे ! शीतल जिनराय ।।
( पुष्पांजलिं..... )
द्वितीय वलय पूजन
स्थापना
तीर्थंकर दसवें प्रभो, जिनवर शीतलनाथ ।
उद्यत गुण गाने हुये, सभी भक्त नत माथ ||
( ज्ञानोदय)
हे शीतलप्रभु ! हे शीतलप्रभु !, शीतल - शीतल सदा करो ।
जो भी रटते नाम आपका, उनकी भव- दुःख व्यथा हरो ||
कर्मों के संताप आपके नाम मात्र से शीतल हों ।
दशों दिशाएँ पावन होतीं, कण-कण सुरभित संगल हों ।।
नाथ! आपके दर्शन करके, तन-मन पुलकित हो जाता ।
चरण-शरण में भक्त जनों का आक्रंदन अद्य खो जाता ।। ?
हमें भक्ति का मिला सहारा, तो हम गुण क्यों ना गायें ।
सुन लो विनती नाथ ! हमारे मन मंदिर में वस जायें ।।
ॐ ह्रीं परमशुद्धदशाप्राप्त श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय ! अत्र अवतरअवतर..... ।
ॐ ह्रीं परमशुद्धदशाप्राप्त श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय ! अत्र तिष्ट तिष्ट ठः ठः.....।
ॐ ह्रीं परमशुद्धदशाप्राप्त श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय ! अत्र मम सन्निहितो..... ।
( पुष्पांजलि..........)
तन के इस मन्दिर में देखो, रोग विराजे बन स्वामी ।
लगी आतमा को बीमारी, जनम-मरण की दुखदानी ।।
रत्नत्रय औषध दो हमको, शीतल प्रभु करुणाधारी ।
प्रासुक जल से पूज आपको, स्वस्थ बनें हम संसारी ।।
ॐ ह्रीं परमशुद्धदशाप्राप्त श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय ! जन्म- जरामृत्युविनाशनाय जलं..... ।
नाम आपका शीतल - शीतल, काम धाम सब शीतल हैं ।
भक्त आपको याद करें जो, वे हो जाते शीतल हैं ।।
भव-संताप हमारा हर लो, शीतल प्रभु करुणाधारी ।
चंदन द्वारा पूज आपको, स्वस्थ बनें हम संसारी ।।
ॐ ह्रीं परमशुद्धदशाप्राप्त श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय ! संसारतापविनाशनाय चंदन..... ।
बना आपको जिसने स्वामी, अपने उर में धार लिया ।
उसने जग - वैभव को तज के, भव सागर को पार किया ||
अक्षय पद हमको दिलवा दो, शीतलप्रभु करुणाधारी ।
तन्दुल द्वारा पूज आपको, स्वस्थ बनें हम संसारी ।।
ॐ ह्रीं परमशुद्धदशाप्राप्त श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय ! अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान्..... ।
फूल मसलने वालों को भी, वही फूल सुरभित करते ।
किन्तु नाथ ! उपकारों को भी, निन्दित - निन्दित हम करते ।।
दो चारित्र सुगंधी हमको, शीतलप्रभु करुणाधारी ।
मन सुमनों से पूज आपको, स्वस्थ बनें हम संसारी ।।
ॐ ह्रीं परमशुद्ध दशाप्राप्त श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय ! कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं..... ।
आशा गर्त कभी ना भरता, नहीं दिखे इन आँखों से ।
तन की भूख तनिक सी लेकिन नहीं मिटे इन फाँकों से ||
क्षुधारोग का दुख हर लीजे, शीतलप्रभु करुणाधारी।
नैवेद्यों से पूज आपको, स्वस्थ बनें हम संसारी ।।
ॐ ह्रीं परमशुद्धदशाप्राप्त श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय ! क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं..... ।
दीया तले अँधेरा वाला, खूब हमें उपदेश मिला ।
स्व पर प्रकाशी ज्ञान दीप बिन, नहीं किसी का हुआ भला ।।
महामोह अँधयारा हर लो, शीतलप्रभु करुणाधारी
। दीपक द्वारा पूज आपको, स्वस्थ बनें हम संसारी ।।
ॐ ह्रीं परमशुद्ध दशाप्राप्त श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय ! मोहांधकारविनाशनाय दीपं..... ।
ठोस हथौड़ों की मारों से, हीरे का कुछ ना बिगड़े।
किन्तु आग से राख बनें पर, कर्मों का कुछ ना बिगड़े ||
चूर-चूर सब कर्म करा दो, शीतलप्रभु करुणाधारी ।
धूप गंध से पूज आपको, स्वस्थ बनें हम संसारी ।।
ॐ ह्रीं परमशुद्धदशाप्राप्त श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय ! अष्टकर्मदहनाय धूपं.... ।
कटक विषैले बीजों को बो, सरस मधुर फल सब चाहें ।
जो बोयेगा वो काटेगा, तथ्य भूल भरते आहें ।।
शक्ति कर्म फल सहने को दो, शीतलप्रभु करुणाधारी ।
प्रासुक फल से पूज आपको, स्वस्थ बनें हम संसारी ।।
ॐ ह्रीं परमशुद्धदशाप्राप्त श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय ! मोक्षफलप्राप्तये फलं..... ।
नीरादिक आठों द्रव्यों का, मिला रूप ही अर्घ्य कहा ।
छोटा दिखता पर अनर्घ पद, दिलवाने में दक्ष रहा ।।
अनर्घ पद हमको दिलवा दो, शीतलप्रभु करुणाधारी ।
अहो ! अर्ध्य से पूज आपको, स्वस्थ बनें हम संसारी ।।
ॐ ह्रीं परमशुद्धदशाप्राप्त श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय ! अनर्घपद प्राप्तये अर्घ्यं..... ।
द्वितीय वलय अर्ध्यावली ( आठ शुद्धियाँ)
राग-द्वेष आदिक दोषों बिन, आत्म भाव जो शुद्ध रहे ।
भाव-शुद्धि या मनो शुद्धि, ज्ञानी संत प्रबुद्ध कहे ।।
भाव- शुद्धि सुख शांति द्वार वह, भक्त आपके हम पायें |
भाव-शुद्धि सुख शांति द्वार वह, शीश झुका हम गुण गायें | ॥ ॥
ॐ ह्रीं श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय मनोविकारनाशक भावशुद्धिप्राप्तये अर्घ्यं..... ।
भाव शुद्धि होने पर काया, यथाजात को अविकारी
प्रशांत मूरत काय शुद्धि वह, अभय कहे गुरु अनगारी
काय शुद्धि मय रत्नत्रय वह, भक्त आपके हम पायें ।
जय हो ! जय हो ! जिनवर, शीश झुका हम गुण गायें ।। 2 ।।
ॐ ह्रीं श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय कायविकारनाशक कायशुद्धिप्राप्तये अर्घ्यं..... ।
देव-शास्त्र - गुरुओं के गुण में, जो अनुराग रहा साँचा ।
भाव भक्ति ही विनय शुद्धि वह, नर भूषण प्रभु ने वाँचा ।।
विनय शुद्धि गुरु आज्ञा पालन, भक्त आपके हम पायें |
जय हो! जय हो ! शीतल जिनवर, शीश झुका हम गुण गायें | 3 ||
ॐ ह्रीं श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय मदविकारनाशक विनयशुद्धिप्राप्तये अर्घ्यं..... ।
सूर्य प्रकाशित चार हाथ भू, देख-देख विधिवत् चलना ।
मुनि ईर्यापथ शुद्धि उसी से, झरे अहिंसा का झरना ||
वह ईर्यापथ शुद्धि पालना, भक्त आपके हम पायें ।
जय हो! जय हो ! शीतल जिनवर, शीश झुका हम गुण गायें | 4 ||
ॐ ह्रीं श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय हिंसाविकारनाशक ईर्यापथशुद्धिप्राप्तये अर्घ्यं..... ।
आगम के अनुसार जानकर, भोजन करना समता से ।
निर्मल भिक्षा शुद्धि पाँच विध, बतलाती सज्जनता से ।।
चरित संपदा भैक्ष्य शुद्धि वह, भक्त आपके हम पायें |
जय हो! जय हो ! शीतल जिनवर, शीश झुका हम गुण गायें || 5 ||
ॐ ह्रीं श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय रोगविकारनाशक भैक्ष्यशुद्धिप्राप्तये अर्घ्यं..... ।
देश काल को जान देह के, मल मूत्रादिक तज देना ।
वह उत्सर्ग शुद्धि है सुखकर, जीवों को ना दुख देना ।।
वह उत्सर्ग शुद्धि का पालन, भक्त आपके हम पायें |
जय हो! जय हो ! शीतल जिनवर, शीश झुका हम गुण गायें | 16 ॥
ॐ ह्रीं श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय लाञ्छ नविकार नाशक प्रतिष्ठापनशुद्धिप्राप्तये अर्घ्यं..... ।
यतन और आगममय वसना, सोना और खड़े रहना ।
वही शुद्धि शयनासन होती, जिससे पड़े न दुख सहना ।।
महाशुद्धि शयनासन सौरभ, भक्त आपके हम पायें।
जय हो ! जय हो ! शीतल जिनवर, शीश झुका हम गुण गायें । ॥ 7 ॥
ॐ ह्रीं श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय निद्रावासनाविकारनाशक शयनासनशुद्धिप्राप्तये अर्घ्यं .... ।
बिन पानी सोड़ा धोबी के कपड़े ना चमकें जैसे ।
वैसे नाथ! आपकी थुति बिन, चेतन गुण चमकें कैसे ?
बाहर का जब निमित्त पाता, तो कपड़ा निज मैल हरे ।
देव-शास्त्र - गुरुओं की पद रज, त्यों आतम को शुद्ध करे || 3 ||
करो कृपा हे शीतलस्वामी, पुण्य उदय हो भक्तों का ।
मिले शुद्धियों का साधन फिर पाप विलय को भव्यों का ||
शीतलधाम हमारा होवे, शीतल जिनवर के हम हों ।
तभी चेतना शुद्ध बनेगी, मनमाने जब भ्रम कम हों । ॥ 4 ॥
परम शुद्ध आतम बने, नशें भरम के मैल |
करुणा शीतलनाथ की, दे मंजिल शिव गैल ||
ॐ ह्रीं श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय शुद्धात्मदशाप्राप्तये जयमालापूर्णार्ध्यं.... ।
शीतलजिन! शीतल करें, विश्वशांति कल्याण |
प्रासुक जल की धार दे, हम पूजत भगवान् ।
( शांतये शांतिधारा..... )
कल्पवृक्ष के पुष्प सम, पुष्पांजलि पद लाय |
भव दुःखों को मेंट दो, हे ! शीतल जिनराय ||
( पुष्पांजलि..... )
तृतीय वलय पूजन
स्थापना
तीर्थंकर दसवें प्रभो, जिनवर शीतलनाथ
उद्यत गुण गाने हुये, सभी भक्त नत माथ ।।
(ज्ञानोदय)
हे शीतलप्रभु! हे शीतलप्रभु !, शीतल-शीतल सदा करो ।
जो भी रटते नाम आपका, उनकी भव- दुःख व्यथा हरो ।।
कर्मों के संताप आपके नाम मात्र से शीतल हों । ।
दशों दिशाएँ पावन होतीं, कण-कण सुरभित संगल हों ।।
नाथ! आपके दर्शन करके, तन-मन पुलकित हो जाता।
चरण-शरण में भक्त जनों का, आक्रंदन अद्य खो जाता ।।
हमें भक्ति का मिला सहारा, तो हम गुण क्यों ना गायें ।
सुन लो विनती नाथ ! हमारे मन मंदिर में वस जायें ।।
ॐ ह्रीं ध्यानातीतावस्थाप्राप्त श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय ! अत्र अवतर" - अवतर..... ।
ॐ ह्रीं ध्यानातीतावस्थाप्राप्त श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय ! अत्र तिष्ट तिष्ट ठः ठः..... ।
ॐ ह्रीं ध्यानातीतावस्थाप्राप्त श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय ! अत्र मम सन्निहितो..... ।
( पुष्पांजलि.........)
कष्ट जनम का सहते क्यों हम, दुखी बुढ़ापा होता क्यों?
केवल नाम मौत का सुनकर, मरने से जग रोता क्यों ?
बीज वृक्ष की परम्परा की, पीर-नीर से हनन करें ।
शीतल प्रभु के पद पंकज को, ध्यान लगाकर नमन करें ।।
ॐ ह्रीं ध्यानातीतावस्थाप्राप्त श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय ! जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं.... । -
सब अपना सौरभ खोते जब, समता का चंदन महके।
भक्ति-भाव के सुंदर वन से, चंदन लाये हम चुपके | ॥
विश्व ताप समता चंदन से, भक्त आपके हनन करें।
शीतलप्रभु के पद पंकज को, ध्यान लगाकर नमन करें ।।
ॐ ह्रीं ध्यानातीतावस्थाप्राप्त श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय ! संसारतापविनाशनाय चन्दनं..... ।
जो कुछ हमने पाया उससे, हम संतुष्ट नहीं होते ।
आधी छोड़ झपटते पूरी, दोनों खोकर फिर रोते ।।
जो कुछ मिले खुशी से उसको, अक्षय बनने वरण करें।
शीतल प्रभु के पद पंकज को, ध्यान लगाकर नमन करें ।।
ॐ ह्रीं ध्यानातीतावस्थाप्राप्त श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय ! अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान्..... ।
जिसे भोगकर यह जग सारा, पुष्प सरीखा फूल रहा ।
कथा कहानी पल भर की पर, काम रोग दुख मूल रहा ||
काम रोग की ये बीमारी, पुष्प चढ़ा हम हरण करें।
शीतल प्रभु के पद पंकज का, ध्यान लगाकर नमन करें
ॐ ह्रीं ध्यानातीतावस्थाप्राप्त श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय ! कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं.....।
साँचे प्रभु का सुधा पिया ना, दुर्देवों का जहर पिया |
इसीलिये तो महाभयंकर, रूप घिनौना बना जिया ||
क्षुधा रोग नैवेद्य चढ़ाकर, ज्ञानामृत से शमन करें।
शीतलप्रभु के पद पंकज को, ध्यान लगाकर नमन करें ।।
ॐ ह्रीं ध्यानातीतावस्थाप्राप्त श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय ! क्षुधारोगविनायनाय नैवेद्यं..... । -
जैसे-जैसे दीप जलाये, वैसे-वैसे अंध बढ़ा।
जैसे-जैसे मोह घटाया, वैसे-वैसे द्वन्द्व बढ़ा ||
ज्ञान ज्योति दो हमको भगवान्, हम अघ तम का भरम हरें ।
शीतलप्रभु के पद पंकज को, ध्यान लगाकर नमन करें ।
ॐ ह्रीं ध्यानातीतावस्थाप्राप्त श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय ! मोहांधकारविनायनाय दीपं..... ।
हम निमित्त पर ऐसे टुटें, श्वान दण्ड पर ज्यों टूटे ।
द्रव्य भाव नो कर्मों द्वारा, भाग्य हमारे हैं फूटे ।।
धूप चढ़ाकर शेर सरीखे, अष्ट दुष्ट सब करम हरें
शीतलप्रभु के पद पंकज को, ध्यान लगाकर नमन करें ।।
ॐ ह्रीं ध्यानातीतावस्थाप्राप्त श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय ! अष्टकर्मदहनाय धूपं..... ।
जग संकल्प विकल्पों द्वारा, पापों का व्यापार करें।
जिसका फल आकुल व्याकुल हो, आतम का संसार बढ़े ||
चिदानंद फल शांत निराकुल, पूजा का फल धरम धरें ।
शीतलप्रभु के पद पंकज को, ध्यान लगाकर नमन करें ।
ॐ ह्रीं ध्यानातीतावस्थाप्राप्त श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय ! मोक्षफलप्राप्तये फलं..... ।
पूजन में भी आठ द्रव्य हैं, और कर्म भी आठ रहे ।
पूज्य बनो या पूजन कर लो, तो ही जग में ठाठ रहे ।।
पूजक ही पद पूज्य प्राप्त कर, मुक्ति रमा का वरण करें।
शीतलप्रभु के पद पंकज को, ध्यान लगाकर नमन करें ।।
ॐ ह्रीं ध्यानातीतावस्थाप्राप्त श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय! अनर्घपदप्राप्तये अर्घ्यं..... ।
तृतीय वलय अर्ध्यावली
( 16 ध्यान वर्णन)
इष्ट वस्तु जन के बिछुड़न से, जो दुख का अनुभव होता ।
उसको पाने बार-बार चित, आकुल- व्याकुल हो रोता ।।
इष्ट वियोगज आर्त्तध्यान वह, दुःखों का कारण तजता ।
इसीलिये मन मन्दिर में, शीतलप्रभु के पद भजना ।। 1 ।।
ॐ ह्रीं श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय इष्टवियोगजनामा आर्त्तध्याननिवारणाय अर्घ्यं..... ।
अनिष्टका संयोग हुआ तो, उससे जो होती पीड़ा ।
उसको दूर हटाने प्राणी, नानाविध करता क्रीड़ा ||
अनिष्ट संयोगज नामा वह, आर्त्तध्यान भव-विष तजता ।
इसीलिये मन मन्दिर में शीतलप्रभु के पद भजना || 2 ||
ॐ ह्रीं श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय अनिष्टसंयोगजनामा आर्त्तध्याननिवारणाय अर्घ्यं..... ।
तन में अगर रोग उपजें तो, होता कष्ट उसी से जो ।
उसे दूर करने को रोगी, बार-बार कुछ सोचे जो ||
पीड़ा चिन्तन आर्त्तध्यान वह, खारा गम सागर तजता ।
इसीलिये मन मन्दिर में, शीतलप्रभु के पद भजना ।। 3 ।।
ॐ ह्रीं श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय पीड़ाचिन्तननामा आर्त्तध्याननिवारणाय अर्घ्यं..... ।
सांसारिक भोगों की इच्छा हो आगामी कालों में ।
करते उथल-पुथल वो पाने, भोगी ही हर हालों में ।।
निदान नामा आर्त्तध्यान वह, पवन द्वार हमको तजता
इसीलिये मन मन्दिर में, शीतलप्रभु के पद भजना ॥ 4 ॥
ॐ ह्रीं श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय निदाननामा आर्त्तध्याननिवारणाय अर्घ्यं
मार पीट आतंक मचाना, छेद भेद ताण्डव करना
हिंसा में आनंद मनाना, क्रूर भाव मन में धरना
हिंसा नाम दुखदायी, रौद्र ध्यान हमको तजता ।
इसीलिये मनं मन्दिर में, शीतलप्रभु के पद भजना || 5 ||
ॐह्रीं श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय हिंसानन्दनामा रौद्रध्याननिवारणाय अर्घ्यं..... ।
झूठ बोलकर या बुलवाकर, या कर वाह ! वाह ! उनकी ।
पथ भ्रम कर आनन्द मनाना, गाँठ बाँधना अवगुण की ।।
रौद्र असत्यानंद ध्यान या, मृषानंद हमको तजना ।
इसीलिये मन मन्दिर में, शीतलप्रभु के पद भजना । ॥ 6 ॥
ॐ ह्रीं श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय मृषानन्दनामा रौद्रध्याननिवारणाय अर्घ्य ..... ।
चोरी करना या करवाना, या चोरों के गुण गाना |
चोरी में आनंद मनाना, भाव भयंकर उर लाना ।।
चौर्यानन्द नाम पीड़ा का, रौद्र ध्यान हमको तजना ।
इसीलिये मन मन्दिर में, शीतलप्रभु के पद भजना ॥ ॥ 7 ॥
ॐ ह्रीं श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय चौर्यानन्दनामा रौद्रध्याननिवारणाय अर्घ्यं..... ।
वस्तु परिग्रह के संचय में, या संचित के रक्षण में ।
संग्रह में आनंद मनाना, मार कुण्डली क्षण-क्षण में ||
परिग्रहनन्द रौद्र ध्यान वह, शांति विनाशक पद तजना
इसीलिये मन मन्दिर में, शीतलप्रभु के पद भजना ।।8।।
ॐ ह्रीं श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय परिग्रहानन्दनामा रौद्रध्याननिवारणाय अर्घ्यं ..... ।
जीव कर्म या बंध मोक्ष जो, आँखों से ना दिखे कभी ।
इन विषयों पर जिन आज्ञा से, श्रद्धा निश्चय करें सभी ।।
ऐसा चिन्तन धर्मध्यान वह, आज्ञा विचय हृदय धरना ।
इसीलिये मन मन्दिर में, शीतलप्रभु के पद भजना ।।9 ।।
ॐ ह्रीं श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय आज्ञाविचयनामा रौद्रध्याननिवारणाय अर्घ्यं..... ।
मिथ्यादर्शन मिथ्याचारित, मिथ्याज्ञान भरे प्राणी |
कैसे इनका दुःख दूर हो, कैसे पायें जिनवाणी ||
ऐसा चिंतन धर्मध्यान वह, अपाय विचय प्रेम झरना |
इसीलिये मन मन्दिर में, शीतलप्रभु के पद भजना ।।10 ॥
ॐ ह्रीं श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय अपायविचयनामा धर्मध्याननिवारणाय अर्घ्यं..... ।
अपने-अपने कर्मोदय से, सुख-सुख दुनियाँ भोग रही ।
जैसी करनी वैसी भरनी, जो बोय वो काट रही ।।
ऐसा चिंतन धर्मध्यान वह, विपाक विचय रहा शरण ।
इसीलिये मन मन्दिर में, शीतलप्रभु के पद भजना।॥11॥
ॐ ह्रीं श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय विपाकविचयनामा धर्मध्याननिवारणाय अर्घ्यं..... ।
किस विध कैसे तीन लोक हैं, क्या-क्या भरा हुआ इसमें ।
क्या आकार रूप क्या इसका, भटके क्यों प्राणी इसमें ।।
ऐस चिंतन धर्मध्यान वह, है संस्थान विचय गहना ।
इसीलिये मन मन्दिर में, शीतलप्रभु के पद भजना ।।12।।
ॐ ह्रीं श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय संस्थानविचयनामा धर्मध्याननिवारणाय अर्घ्यं..... ।
श्रुतज्ञान में अर्थ वचन की, तथा योग संक्रांती जो ।
निरोध चिन्ता का होने पर, हरता मन की भ्रांति जो ॥
शुक्ल ध्यान वह पहला समझो, उसको पाने जग तजता ।
इसीलिये मन मन्दिर में, शीतलप्रभु के पद भजना ।।13।।
ॐ ह्रीं श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय पृथक्त्ववितर्कवीचारनामा प्रथमशुक्लध्यान ( प्राप्तये अर्घ्यं .... |
शुक्लध्यान त्रय रोगों में से किसी एक के साथ हुआ ।
जो सक्रांती रहित रहा है, उससे चेतन साफ हुआ ||
शुक्लध्यान वहदूजा समझो, उसको पाने जग तजता ।
इसीलिये मन मन्दिर में, शीतलप्रभु के पद भजना | ॥14 ॥
ॐ ह्रीं श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय एकत्ववितर्क - अवीचारनामा द्वितीयशुक्लध्यान प्राप्तये अर्घ्यं.....
आयु कर्म जब सयोगि प्रभु का, अन्तर्मुहूर्त शेष रहा ।
मन वच बादर काय योग तज, सूक्ष्म काय का योग रहा ||
शुक्ल ध्यान वह तीजा समझो, उसको पाने जग तजता
इसीलिये मन मन्दिर में, शीतलप्रभु के पद भजना ||15 ॥
ॐ ह्रीं श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय सूक्ष्मकि याप्रतिपातिनामा तृतीयशुक्लध्यान प्राप्तये अर्घ्यं ..... ।
ध्यान अवस्था योग रहित जो, अयोग केवलि प्रभु पाते ।
पंच ह्रस्व वर्णोच्चारण का, अल्प समय वह बतलाते ।।
शुक्ल ध्यान चौथा ज्यों छूटे, मिले मुक्ति रानी ललना ।
इसीलिये मन मन्दिर में, शीतलप्रभु के पद भजना ।।16।।
ॐ ह्रीं श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय व्युपरतक्रियाप्रतिपातिनामा चतुर्थशुक्लध्यान प्राप्तये अर्घ्यं.....
तृतीय वलय जयमाला
चार प्रकारी ध्यान जगत् में, संसारी प्राणी ध्याते ।
आर्त्त- रौद्र तो भव के कारण, धर्म शुक्ल से शिव पाते ।।
तभी हमें जिन-सुत बताते, आर्त्त - रौद्र का त्याग करो ।
धर्म ध्यान को ध्याकर बंदे, शुक्लध्यान से राग करो ।। 1 ।।
ध्यान लगाना नहीं सीखना, ध्यान तोड़ना गर सीखे ।
आर्त्त ध्यान को छोड़ दिया तो, धर्म शुक्ल होंगे नीके ।।
ध्यान शिविर जो खूब लगाये, शास्त्र पठन भी खूब हुआ ।
किन्तु रूप स्वरूप ना समझा, तो सअ प्रक्रम व्यर्थ हुआ | 2 ||
चर्चा त्यागो बहुत हो गयी, क्रमबद्ध पर्यायों की ।
प्रभु अर्चा कर चर्चा कीजे, क्रमबद्ध स्वाध्यायों की ||
बिना आचरण शास्त्र ज्ञान सब, भार बना प्राणी ढोते ।
अल्पज्ञान गर चरित सहित तो, मोक्षमहल में भवि होते ॥3॥
शीतलप्रभु का गीत गान कर, आर्त्त रौद्र दुर्ध्यान तजें ।
चरण-शरण में धर्म ध्यान कर, शुक्ल ध्यानमय ज्ञान भेजें ||
उपादेय क्या और हेय क्या?, जान सकें करके पूजा ।
ध्यानातीत दशा पाने को, सदा मिले प्रभु जिनपूजा ॥4॥
शीतलप्रभु के गीत गा, मिले सदा सम्मान |
धर्म शुक्ल का धन मिले, नश जायें दुर्ध्यान ।।
ॐ ह्रीं श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय ध्यानातीतदशाप्राप्तये जयमालापूर्णार्घ्यं .... । -
शीतलजिन! शीतल करें, विश्वशांति कल्याण |
प्रासुक जल की धार दे, हम पूजत भगवान् ॥
( शांतये शांतिधारा..... )
कल्पवृक्ष के पुष्प सम, पुष्पांजलि पद लाय ।
भव दुःखों को मेंट दो, हे ! शीतल जिनराय ।।
( पुष्पांजलि..... )
चतुर्थ वलय पूजन
स्थापना
तीर्थंकर दसवें प्रभो, जिनवर शीतलनाथ |
उद्यत गुण गाने हुये, सभी भक्त नत माथ ||
हे शीतलप्रभु ! हे शीतलप्रभु!, शीतल - शीतल सदा करो ।
जो भी रटते नाम आपका, उनकी भव- दुःख व्यथा हरो ।।
कर्मों के संताप आपके नाम मात्र से शीतल हों ।
दशों दिशाएँ पावन होतीं, कण-कण सुरभित संगल हों ।।
नाथ! आपके दर्शन करके, तन-मन पुलकित हो जाता ।
चरण-शरण में भक्त जनों का आक्रंदन अद्य खो जाता ||
हमें भक्ति का मिला सहारा, तो हम गुण क्यों ना गायें |
सुन लो विनती नाथ ! हमारे, मन मंदिर में वस जायें ।।
ॐ ह्रीं महोभयवैभवसम्पन्न श्रीशीतलनाथजिनेन्द्र ! अत्र अवतर- अवतर... ।
ॐ ह्रीं महोभयवैभवसम्पन्न श्रीशीतलनाथजिनेन्द्र ! अत्र तिष्ट तिष्ट ठः ठः... | ।
ॐ ह्रीं महोभयवैभवसम्पन्न श्रीशीतलनाथजिनेन्द्र ! अत्र मम सन्निहितो... ।
( पुष्पांजलि..........)
प्रासुक जल यह अर्पण करके, दर्पण सम चेतन होते
शीतल प्रभु के पूजक जग में, रोग शोक अपने खोते ।।
ॐ ह्रीं महोभयवैभवसम्पन्न श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं....
सुरभित चंदन से वंदन कर, वंदन योग्य भक्त होते ।
शीतल प्रभु के पुजक जग में, भवाताप अपने खोते ।।
ॐ ह्रीं महोभयवैभवसम्पन्न श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय संसारतापविनाशनाय चन्दनं..... ।
अक्षत तंदुल अर्पण करके, अक्षय पद चेतन होते ।
शीतलप्रभु के पूजक जग में, क्षणभंगुर वैभव खोते ।।
ॐ ह्रीं महोभयवैभवसम्पन्न श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान्..... ।
शुद्ध पुष्प से अर्पण करके, पुष्प समा चेतन होते ।
शीतलप्रभु के पूजक जग में, काम बाण अपने खोते ।।
ॐ ह्रीं महोभयवैभवसम्पन्न श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं.....।
'ये नैवेद्य समर्पण करके, अमृत सम चेतन होते ।
शीतलप्रभु के पूजक जग में, क्षुधा रोग अपने खोते ।।
ॐ ह्रीं महोभयवैभवसम्पन्न श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं..... ।
दीप ज्योति से आरति करके, ज्ञान-सूर्य चेतन होते ।
शीतलप्रभु के पूजक जग में, अघ अज्ञान तिमिर खोते ।।
ॐ ह्रीं महोभयवैभवसम्पन्न श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय मोहांधकारदीपं......।
धूप सुगंधी अर्पण करके चरितवान् चेतन होते।
शीतलप्रभु के पूजक जग में, कर्म धूल अपनी खोते ।। ।
ॐ ह्रीं महोभयवैभवसम्पन्न श्रीशीतलनाथ जिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूप..... ।
प्रासुक फल थे अर्पण करके, मंगलमय चेतन होते।
शीतलप्रभु के पूजक जग में, दल-दल कर्मों का खोते ।।
ॐ ह्रीं महोभयवैभवसम्पन्न श्रीशीतलनाथ जिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फल..... ।
प्रासुक अर्ध्य समर्पण करके, जगत् पूज्य चेतन होते।
शीतलप्रभु के पूजक जग में, जगत्-चक्र अपना खोते ।।
ॐ ह्रीं महोभयवैभवसम्पन्न श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय अनर्धपदप्राप्तये अयं..... ।
चतुर्थ वलय अर्ध्यावली
(अनंतचतुष्टय वर्णन)
दर्शन आवरणी के कारण, दिखे नहीं सब सच्चाई।
दृष्टि मिली पर भटक रहे हम, सम्यक् राह नहीं पायी ।।
आप दर्शनावरणी हरकर, अनंतदर्शन गुण पाये ।
लोकालोक दिखाने वाला, गुण पाने हम ललचाये ।। 1 ।।
ॐ ह्रीं अनन्तदर्शनमण्डित श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय अर्ध्यं ..... |
ज्ञानावाणी यों ढाके ज्यों, मेघों से सूरज ढकता ।
तभी हिताहित ज्ञान न पाके, जीव बावला सा दिखता ।।
ज्ञानावरणी कर्म नष्ट कर आप अनंतज्ञान पाये ।
लोकालोक दिखाने वाला, गुण पाने हम ललचाये || 2 ||
ॐ ह्रीं अनन्तज्ञानमण्डित श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय अ... ।
मोह कर्म से यों गाफिल ज्यों, मदिरा पर बानर होते ।
अनन्त सुख के स्वामी हैं पर, सांसारिक दुख पा रोते ।। '
मोहनीय का दर्प नशा तुम, क्षायिक सम्यक् गुण पाये
अनंतसुख दिलवाने वाला, गुण पाने हम ललचाये ।।3।।
ॐ ह्रीं क्षायिकसम्यक्त्वमण्डित श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय अर्ध्यं..... ।
अंतराय कर्मों से हम सब, दीन हीन कमजोर हुये ।
अनंत बल हमने पाया पर, परवश हो चकचूर हुये ||
अंतराय की शक्ति हरण कर, अनंतवीरज गुण पाये ।
अनंतवीर्य दिलाने वाला, गुण पाने हम ललचाये ॥4॥
ॐ ह्रीं अनन्तवीर्यमण्डित श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय अर्ध्यं..... ।
(अष्टप्रातिहार्य वर्णन)
रत्नों का देवों से निर्मित आकर्षक जो चमक रहा।
हरा-हरा है अशोक तरुवर, ताप शोक उपशमक रहा ।।
समवसरण में अशोक तरुतल, आप जिनेश्वर शोभ रहे ।
किन्तु भक्त हम शीतलप्रभु को, देख-देख सुख भोग रहे । ॥5॥
ॐ ह्रीं अशोकतरुसत्प्रातिहार्यमण्डित श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय अर्ध्य..... ।
पुष्प आलौकिक स्वर्गों वाले, रंग-बिरंगे वरस रहे ।
दिव्य गंध को तितली भौंरे, सूँघ - सूँघ सब हरस रहे ।।
समवसरण में पुष्पवृष्टि से, शीतलप्रभु का यश महके ।
नाँच - नाँच मन मोर हमारा, झूम-झूम पद में चहके ।।6।।
ॐ ह्रीं पुष्पवृष्टिसत्प्रातिहार्यमण्डित श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय अर्ध्यार्थ्य..... ।
सजे धजे आभरणों से सुर, चौंसठ चमर दुराते हैं ।
दोष रहित सर्वज्ञ देव की महिमा खूब दिपाते हैं ।।
समवसरण में चमर हमारे, भव-भव के संताप हरें ।
तभी पूज्य शीतल जिनवर, भक्त सदा सज्जाप करें 17 ||
ॐ ह्रीं चमरसत्प्रातिहार्यमण्डित श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय अर्ध्य
सूरज से ज्यादा तेजस्वी, भामण्डल सब चमकता ।
दिवस रात का भेद दिखे ना, फिर भी आँखों को भाता ।।
समवसरण में भामण्डल जो, सात-सात भव झलकता ।
सोने से जो बना सुनाता, शीतलप्रभु की गुण गाथा ।। 8 ।।
ॐ ह्रीं भामण्डलसत्प्रातिहार्यमण्डित श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय अर्ध्या.... |
जहाँ जिनेश्वर थम जाते हैं, वहाँ सदा
त्यौहार हुये ।
साढ़े बारह करोड़ बाजे, बज बज योजन पार हुये ।।
समवसरण में दुन्दुभि बाजा, आक्रंदन सब का खोता ।
फिर भी शोर नहीं होता पर, शीतलप्रभु का यश होता ।।9 ।।
ॐ ह्रीं दुन्दुभिसत्प्रातिहार्यमण्डित श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय अर्ध्या ..... |
गुरु लघु लघुतम क्रमशः नभ में, प्रभु के सिर के ऊपर हैं।
तीन चन्द्र सम सुर-रत्नोंमय, त्रिभुवनपति के अनुचर हैं ।
समवसरण में छत्र-त्रय जो, तप्त जनों को सुख छाते ।
शीतलनाथ! विधाता जग के, गीत आपके हम गाते ।।10 ॥
ॐ ह्रीं छत्र - त्रयसत्प्रातिहार्यमण्डित श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय अर्ध्य......
श्री अर्हन्त देव की वाणी, खिरती जो ओंकारमयी ।
सुन सकते योजन तक जिसको, सब भाषा कल्याणमयी ||
दिव्य-दिव्य ध्वनि समवसरण में, भव भव का कल्मष धोती ।
शीमलप्रभु के चरण शरण में, जैन धर्म की जय होती | ॥1॥
ॐ ह्रीं दिव्यध्वनिसत्प्रातिहार्यमण्डित श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं......
इन्द्रधनुष सा चमके सुखकर, मणिमय किरणों वाला जो
उत्तम सिंह पीठ पर जिसको, धारें महा निराला जो ।।
समवसरण में सिंहासन पर, उच्च कमल पर गरिमावान् ।
मन उपवन को जिन सौरभ से, महकते शीतल भगवान् | 12 ॥
ॐ ह्रीं सिंहासनसत्प्रातिहार्यमण्डित श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं....।
( अष्टमंगलद्रव्य वर्णन)
- श्री अरहुत देव जिनवर जी, मनोरथों से पूर्ण हुये।
पूजित केवल प्राप्त कर, हुये हुये सम्पूर्ण हुये ||
उसका प्रतीक द्रव्य सुमंगल, पूर्ण कलश चम चम चमके ।
शीतलप्रभु के समवसरण में, शोभित होने आ धमके ।।13 ॥
ॐ ह्रीं मनोकामनापूरकमङ्गलद्रव्यपूर्णकलशमण्डित श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं....।
भव्य जनों आश्रय दाता, श्री अरहुत छत्र रूपी ।
भवाताप हरने में सक्षम, सिद्धालय का भी रूपी ।।
उसका प्रतीक द्रव्य सुमंगल, श्वेत छत्र चम चम चमके । शीतलप्रभु के समवसरण में, शोभित होने आ धमके ।।14 ॥ श्रीं मनोकामनापूरकमङ्गलद्रव्यपूर्णकलशमण्डित श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय अर्ध्य..... ।
अर्हत् प्रभु के दिव्य ज्ञान में, लोकालोक झलकते यों । दूर-पास के पदार्थ सारे, दर्पण मांहि झलकते ज्यों ।।
उसका प्रतीक द्रव्य सुमंगल, शुचि दर्पण चम चम चमके ।
शीतलप्रभु के समवसरण में, शोभित होने आ धमके ।।15 ॥
ॐ ह्रीं सदाचारप्रदायमङ्गलद्रव्यपूर्णकलशमण्डित श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय अर्ध्यं..... ।
कर्म शत्रुओं को जीता तो, तीन लोक के नाथ बने ।
तथा मोक्ष को पाया है सो, भक्त आपके दास बने ।
उसका प्रतीक द्रव्य सुमंगल, श्रेष्ठ चरम दुर दुर ढुरके ।
शीतलप्रभु के समवसरण में, शोभित होने आ धमके ।।16।।
ॐह्रीं आकुलतानाशकमङ्गलद्रव्यपूर्णकलशमण्डित श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय अर्ध्यं....।
ज्यों झारी में बहुत नीर पर, अल्प- अल्प निकले क्रमशः ।
त्यों प्रभु अनंत जानें देखें, किन्तु अलप कहते क्रमशः ।।
उसका प्रतीक द्रव्य सुमंगल, भरी भरी झारी झलके ।
शीतलप्रभु के समवसरण में, शोभित होने आ धमके ।।17 ।।
ॐ ह्रीं तृप्तिकारकमङ्गलद्रव्यपूर्णकलशमण्डित श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय अर्ध्यं..... ।
समवसरण में कमलसन से, चउ अंगुल ऊपर नभ में ।
अर्हत् प्रभु ऊँचे भक्तों से, हुये प्रतिष्ठित आतम में ।।
उसका प्रतीक द्रव्य सुमंगल, उज्वल ठोना थिर जमके ।
शीतलप्रभु के समवसरण में, शोभित होने आ धमके ।।18 ।।
ॐ ह्रीं स्थिरतादायकमङ्गलद्रव्यपूर्णकलशमण्डित श्रीशीतलनाथ● जनेन्द्राय अर्ध्यं ..... | ।
- जिसके नीचे वैर भाव तज, प्राणी जन हिल-मिल रहते ।
विश्वशांति यश दया प्रेम की, धर्म ध्वजा उसको कहते ।।
उसका प्रतीक द्रव्य सुमंगल, ध्वाजा उड़े फर-फर करके ।
शीतलप्रभु के समवसरण में, शोभित होने आ धमके ।।19 ।।
ॐ ह्रीं यशकीर्तिविकासकमङ्गलद्रव्यपूर्णकलशमण्डित श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय अर्ध्यं....।
तीन लोक में कुशल क्षेम हो, शक्ति मिले तम पाप गले ।
जीव मात्र का कल्याणक जो, शरणभूत जिनदेव भले ।
उसका प्रतीक द्रव्य सुमंगल, स्वस्तिक या विजना चमके । शीतलप्रभु के समवसरण में, शोभित होने आ धमके ।।20।
ॐ ह्रीं अपशकुननाशकमङ्गलद्रव्यपूर्णकलशमण्डित श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय अर्ध्यं .....।
( समवसरण की बारह सभाओं का वर्णन )
प्रथम सभा में ऋषि धारकर, गणधर आदिक महाव्रती ।
महा तपोधन हुये विराजित, गुण गाने की लिए मति ।।
समवसरण में शीतलप्रभु जी, भव्य - बंधु दैदीप्य हुये ।
जीवमात्र प्रभु अर्चन करके, ऋद्धि-सिद्ध से युक्त हुये ॥ 1 ॥
ॐ ह्रीं मुनिसमूह-अर्चितसमवसरणस्थ श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय संसारचक्रनाशक बोधिसमाधि प्राप्तये अर्ध्यं..... ।
कल्पवासिनी - सुर ललनाएँ, प्रभु दर्शन को अकुलाएँ ।
बैठें दूजी सभ्य सभा में, भाव-भक्ति से गुण गाएँ ।
समवसरण में शीतलप्रभु जी, भव्य-बन्धु देदीप्य हुये ।
जीवमात्र प्रभु अर्चन करके, ऋद्धि-सिद्ध से युक्त हुये। 22 ॥
ॐ ह्रीं कल्पवासिनीदेवीसमूह अर्चितसमवसरणस्थ श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय आधि-व्याधि-उपाधिनाशक-परमौदारिकशरीरप्राप्तये
अर्घ्यं..... ।
तीजी सभा सुशीला जैसी, जहाँ आर्यिकाएँ भातीं । -
तथा वहीं पर अन्य नारियाँ, राज- रानियाँ गुण गातीं ।।
समवसरण में शीतलप्रभु जी, भव्य बन्धु देदीप्य हुये ।
जीवमात्र प्रभु अर्चन करके, ऋद्धि-सिद्ध से युक्त हुये | 23 ||
ॐ ह्रीं आर्यिकाएवंसामान्यमनुष्यनीसमूह अर्चितसमवसरणस्थ श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय विकारीभावनाशक-परमशुक्ललेश्याप्राप्तये अर्ध्यं..... । ।
चौथी सभा चमकती जिसमें, ज्योतिष सुर की सुन्दरियाँ |
लगा-लगा टकटकी निरखतीं, प्रभु चरणों की पगतलियाँ |
समवसरण में शीतलप्रभु जी, भव्य-बन्धु देदीप्य हुये ।
जीवमात्र प्रभु अर्चन करके, ऋद्धि-सिद्ध से युक्त हुये | 24 ॥
ॐ ह्रीं ज्योतिषीदेवीसमूह अर्चितसमवसरणस्थ श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय विरोध-प्रतिशोधनाशक आत्मानुशासनप्राप्तये अर्ध्यं ..... ।
पंचम शांत सभा में आकर, पूर्ण यौवना झलक रहीं ।
व्यंतर देवों की वनिताएँ, प्रभु दर्शन कर थिरक रहीं ।।
समवसरण में शीतलप्रभु जी, भव्य-बन्धु देदीप्य हुये ।
जीवमात्र प्रभु अर्चन करके, ऋद्धि-सिद्ध से युक्त हुये | 25 ॥
|ॐ ह्रीं व्यंतरदेवीसमूह अर्चितसमवसरणस्थ श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय समस्तद्वन्द्व '
नाश्क अष्टादोषरहितदशाप्राप्तये अर्ध्यं ..... ।
छठी सभा में छटीं-छटीं सीं, देवीं भवनवासियों कीं ।
प्रभु - दर्शन से विस्मित होकर, चुप्पी हो सुरनटियों कीं ।।
समवसरण में शीतलप्रभु जी, भव्य-बन्धु दैदीप्य हुये ।
जीवमात्र प्रभु अर्चन करके, ऋद्धि-सिद्ध से युक्त हुये। 26 ॥
ॐ ह्रीं भवनवासीदेवीअर्चितसमवसरणस्थ श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय समस्त विघ्नविनाशक-परमकरुणाप्राप्तये अर्ध्यं ..... ।
सभा सातवी भरें खचाखच देव भवनवासी आ के ।
छोड़ कुमारों सी लीलाएँ, सुशान्त हों प्रभु गुण गा के ||
समवसरण में शीतलप्रभु जी, भव्य-बन्धु देदीप्य हुये ।
जीवमात्र प्रभु अर्चन करके, ऋद्धि-सिद्ध से युक्त हुये | 27 ॥
ॐ ह्रीं भवनवासीसमूह अर्चितसमवसरणस्थ श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय सर्वविधमारी - नाशक उभयसम्पदादायकपरमतीर्थप्राप्तये अर्ध्यं .... |
व्यंतर देव सभा अष्टम में, विचरण तज आसन थामें ।
दिल की धड़कन रोक-रोककर, प्रभु से चरण शरण माँगें ।।
समवसरण में शीतलप्रभु जी, भव्य-बन्धु दैदीप्य हुये ।
जीवमात्र प्रभु अर्चन करके, ऋद्धि-सिद्ध से युक्त हुये। 28 ॥
ॐ ह्रीं व्यन्तरदेवसमूह अर्चितसमवसरणस्थ श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय दुःखदारिद्र्य - उपद्रवनाशक परमसमताप्राप्तये अर्ध्यं ..... । -
नवी सभा में देव ज्योतिषी, चमक-धमक को तजकर के।
अपलक प्रभु का तेज निहारें, हृदय कमल विकसित करके ।।
समवसरण में शीतलप्रभु जी, भव्य-बन्धु दैदीप्य हुये ।
जीवमात्र प्रभु अर्चन करके, ऋद्धि-सिद्ध से युक्त हुये | 29 ॥
ॐ ह्रीं ज्योतिषीदेवसमूह अर्चितसमवसरणस्थ श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय वाद-विवाद - दुर्घटनानाशक परमविवेकजाग्रताय अर्ध्यं ..... ।
दसवी सभा कल्पनाओं के पार मनोहर रही ।
जहाँ कल्पवासी देवों ने, प्रभु की जय-जयकार कही । ।
समवसरण में शीतलप्रभु जी, भव्य-बन्धु दैदीप्य हुये |
जीवमात्र प्रभु अर्चन करके, ऋद्धि-सिद्ध से युक्त हुये | ॥30॥
ॐ ह्रीं कल्पवासीदेवसमूह अर्चितसमवसरणस्थ श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय सकल- अपवादनाशक यशः कीर्तिप्रदायकसम्यक्श्रद्धाप्राप्तये अर्ध्यं..... ।
सभा सुसौम्या ग्यारहवी में, नर चक्री जो पुरुष महा ।
प्रभु की पूजन अर्चन करने, हुये इकट्ठे भाव बना ||
समवसरण में शीतलप्रभु जी, भव्य-बन्धु दैदीप्य हुये ।
जीवमात्र प्रभु अर्चन करके, ऋद्धि-सिद्ध से युक्त हुये | ॥31॥ "
ॐ ह्रीं नरचक्रीसमूह अर्चितसमवसरणस्थ श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय विस्मय - खेद-नाशक आत्मसंपदाप्राप्तये अर्ध्यं..... ।
बाहरवी जो वसुन्धरा सी, महा सभा में पशु आते ।
प्रभु को श्रद्धा सुमन चढ़ाकर, बैर भाव तज गुण गाते ।।
समवसरण में शीतलप्रभु जी, भव्य-बन्धु दैदीप्य हुये ।
जीवमात्र प्रभु अर्चन करके, ऋद्धि-सिद्ध से युक्त हुये। 32 ||
ॐ ह्रीं पशुसमूह अर्चितसमवसरणस्थ श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय समस्तविध - परतन्त्रतानाशक - स्वतन्त्रतादायक - यज्ञाख्यातचारित्रप्राप्तये अर्ध्य.....।
चतुर्थ वलय जयमाला
जो संसार देह भोगों से, डरकर बनते वैरागी ।
मोक्ष- महल के प्रथम चरण के, बन जाते वे अनुरागी ||
सोलह पूज्य भावनाओं को, सम्यग्दर्शन के धारी ।
भा-भाकर तीर्थंकर पद के, योग्य बनें शिव अधिकारी ।। 1 ।।
घातिकर्म ज्यों नष्ट हुये तो, नन्तचतुष्टय गुण उभरे।
तब ही तीर्थंकर प्रकृति का, उदय हुआ तो जग सुधरे ।।
और लगा जब समवसरण तो, आठों मंगल द्रव्य सजें ।
सभी सभायें बारह जय जय, धरा गगन प्रभु चरण भेजें | ॥
समवसरण की शीतलप्रभु की महिमा अद्भुत योग रही।
उसका पूर्ण कथन करने में सुरपति की मति योग्य नहीं ।।
ऐसा दुर्लभ वैभव देखो, जिन पूजा से प्राप्त हुआ।
जिसके कारण भक्त जनों का, क्रंदन कष्ट समाप्त हुआ | 3 ||
जिन पूजा को हेय बताना, खुद को पर को दुखदानी ।
ठेस लगे ना भव्य जनों की श्रद्धा को ओ! विज्ञानी ।।
शीतल धाम हृदय में धरकर, शीतल प्रभु के भक्त बनो।
ओढ़ चुनरिया अब केशरिया, भावभक्ति शिव पंथ चुनो || 4 || समवसरण में सूर्य से, हुये नाथ दैदीप्य ।
और हमारी भक्ति यों, ज्यों सूरज को दीप ।।
ॐ ह्रीं लोकत्रय अर्चितसमवसरणस्थ श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय भूतभविष्यत् वर्तमानसम्बन्धिसकलचिन्तासाम्राज्यनाशक आत्मसंतुष्टि प्राप्तये जयमालापूर्णा..... |
शीतलजिन! शीतल करें, विश्वशांति कल्याण |
प्रासुक जल की धार दे, हम पूजत भगवान् ।।
( शांतये शांतिधारा..... )
कल्पवृक्ष के पुष्प सम, पुष्पांजलि पद लाय ।
भव दुःखों को मेंट दो, हे शीतल ! जिनराय |
| पुष्पांजलि...... )
जाप्यमंत्र: नृ ह्रीं णमो अरिहंताणं श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय नमो नमः ।
( अथवा )
जाप्यमंत्र: नमो नमः । ह्रीं विश्वसंतापहराय श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय नमो नमः
समुच्चय जयमाला
मनमानी मन ना करे, तजने मनस तरंग
जयमाला से गीत का ,शीतल बनें अनंग
( लय : बड़ी बारह भावनावत् )
पद्म गुल्म जो वत्स देश का, न्यायी राज्य नरेश ।
बसन्त ऋतु का हुआ समागम, तो क्रीड़ी देश ||
किन्तु कहीं ऋतु विला गयी तो, व्याकुल दुखी अपार ।
राजा को वैराग्य हुआ तब, दिया पुत्र को भार ।। 1 ।।
पद्मगुल्म आनंद नाम के, मुनि के जाकर पास।
सकल परिग्रह त्याग देह ये, विमुख धरे संन्यास ||
रत्नत्रयमय ज्ञान ध्यान तक, सोलहकारण भाव।
तीर्थंकर के नामकर्म का किया बंध सद्भाव | ॥2॥
तथा आयु के अन्त समय में, समाधि-मरण संभाल।
आरण नामक स्वर्ग भोग को, भोगे इंद्र विशाल ।।
आयु इंद्र की पूर्ण भोग कर, लिया भद्रपुर जन्म ।
भद्दलपुर या नगर विदिशा, हुआ आज का धन्य | ॥ 3 ॥
गर्भ जन्म तप और ज्ञान के, चार हुये कल्याण |
नेमिनाथ का समवसरण भी, लगा यहीं पर आन ||
इसी विदिशा की धरती पर, पावन वर्षायोग ।
महावीर प्रभु किये तभी जो, कण-कण वंदन योग्य ||4||
गुरुवर समंतभद्र यहीं परी, बजा गये जिन ढोल ।
लिये समाधि इसी धरा पर, भट्टारक अनमोल ।।
यहीं उदयगिरि जहाँ गुफाएँ, चरण चिह्न अवशेष।
जहाँ एक मन्दिर में शोभित, पारसनाथ जिनेश ।॥5॥
शिलालेख भी वहीं गुफा में दिये पुरातन ज्ञान |
तपश्चरण के योग्य धरा यह, कण-कण में भगवान्
तभी दिये विद्यागुरुवर जी, भक्तों को आशीष ।
समवसरण की अद्भुत रचना, जिसके शीतल ईश | ॥ 6 ॥
चौथा काल यहाँ पर था तब, किये सुरों ने पर्व ।
गुरु-कुपा से अब भक्तों ने, उत्सव पाये सर्व ||
क्योंकि यहाँ शीतल भगवन् ने की थी क्रीड़ा बाल ।
अर्थ- काम पुरुषार्थ साधकर, त्यागे जग जंजाल || 7 ||
धर्म-मोक्ष पुरुषार्थ साधकर, धारा था वैराग्य ।
वाह! वाह ! क्या राज्य त्यागना केशलौंच सौभाग्य |
| यथाजात बन बने निरम्बर, तीर्थंकर जिनरूप ।
समवसरण को छोड़ मोक्ष को पा बैठे चिद्रूप ॥ 8 ॥
नाथ! आपकी महिमा गाने, सुरपति नहीं समर्थ ।
सुर- -छंदों के ज्ञान बिना हम किये भक्ति बिन शर्त ||
हमें भक्ति फल इतना दे दो, सदा रहे प्रभु ध्यान ।
पद चिह्नों पर चलकर होवे, 'सुव्रत' का कल्याण | ॥ 9 ॥
जयमाला के नाम से गाये प्रभु के गीत ।
समवसरण सा दुख मिले, यही भक्ति की रीत ।।
ॐ ह्रीं श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय समुच्चयजयमालापूर्णार्घ्यं ..... ।
शीतलजिन! शीतल करें, विश्वशांति कल्याण |
प्रासुक जल की धार करें, हम पूजत भगवान् ।।
( शांतये शांतिधारा.....)
कल्पवृक्ष के पुष्प सम, पुष्पांजलि पद लाय ।
भव दुःखों को मेंट दो, हे! शीतल जिनराय || (
पुष्पांजलि.... )
।। इति श्री शीतलनाथविधान सम्पूर्णम् ||
प्रशस्ति
पार्श्वनाथ पदधाम में, 'सिलवानी' के ग्राम
शीतलनाथ विधान का, शुरू किया शुभ काम
शांतिनाथ की छाँव में, 'विद्यागुरु' वरदान |
'रामटेक' में पूर्ण यह, 'सुव्रत' लिखे विधान ||
मंगल पाँच अगस्त को, दो हजार सन आठ ।
पूर्ण हुआ कर्तव्य यह, बढ़े धर्म का ठाठ || ॥
इति शभम् भूयात् ॥