मार्गणा अधिकार-गति मार्गणा
मार्गणा का लक्षण
जाहि व जासु व जीवा, मग्गिज्जंते जहा तहा दिट्ठा।
ताओ चोदस जाणे, सुयणाणे मग्गणा होंति।।४४।।
यभिर्वा यासु वा जीवा मृग्यन्ते यथा तथा दृष्टा:।
ताश्चतुर्दश जानीहि श्रुतज्ञाने मार्गणा भवन्ति।।४४।।
अर्थ—प्रवचन में जिस प्रकार से देखे हों उसी प्रकार से जीवादि पदार्थों का जिन भावों के द्वारा अथवा जिन पर्यायों में विचार—अन्वेषण किया जाय उनको मार्गणा कहते हैं, उनके चौदह भेद हैं ऐसा समझना चाहिए।
भावार्थ—मार्गण शब्द का अर्थ होता है—अन्वेषण। अतएव जिन करणरूप परिणामों के द्वारा अथवा जिन अधिकरण रूप पर्यायों में जीव का अन्वेषण किया जा सके उनको कहते हैं मार्गणा। किन्तु ये परिणाम और पर्याय यद्वा-तद्वा कपोलकल्पित युक्तिविरुद्ध आगम द्वारा प्रतिपादित न होकर सर्वज्ञ वीतराग जिनेन्द्र भगवान के उपदिष्ट प्रवचन—श्रुत में जिस तरह से बताये गये हैं उसके अनुसार ही होने चाहिये अन्यथा जीवतत्व का ठीक-ठीक परिज्ञान नहीं हो सकता।
तात्त्पर्य यह है यह मार्गणा महाधिकार या तो जीव के उन असाधारण कारणरूप परिणामों का बोध कराता है जो कि गुणस्थानों की सिद्धि में साधन हैं अथवा अपनी (जीव की) उन अधिकरण रूप पर्यायों—अवस्थाओं को बताता है जिनमें कि विवक्षित गुणस्थानों की सिद्धि शक्य एवं प्राप्ति संभव है। यद्यपि ये परिणाम और पर्याय अशुद्ध जीव के होते हैं फिर भी उसकी शुद्धि में साधन और आधार हैं अतएव अन्वेष्य हैं। किन्तु ध्यान रहे जैनागम में जिस प्रकार से इनका वर्णन किया गया है उसी प्रकार से समझकर और तदनुसार ही उपयोग में लाने पर ये वास्तव में कार्यकारी हो सकते हैं। मुख्यतया इन परिणाम या पर्यायरूप मार्गणाओं के १४ भेद हैं जो कि आगे गिनाये गये हैं।
चौदह मार्गणाओं के नाम
गइइंदियेसु काये, जोगे वेदे कसायणाणे य।
संजमदंसणलेस्सा, भवियासम्मत्तसण्णि आहारे।।४५।।
गतीन्द्रियेषु काये योगे वेदे कषायज्ञाने च।
संयमदर्शनलेश्याभव्यतासम्यक्त्वसंज्ञयाहारे।।४५।।
अर्थ—गति, इंद्रिय, काय, योग, वेद, कषाय, ज्ञान, संयम, दर्शन, लेश्या, भव्यत्व, सम्यक्त्व, संज्ञा और आहार ये चौदह मार्गणा हैं।
भावार्थ—ऊपर मार्गणा का निरुक्त्यर्थ बताते समय करण और अधिकरण इस दो रूप में अर्थ किया गया है। किन्तु इस गाथा में सर्वत्र सप्तमी विभक्ति का निर्देश करके अधिकरण अर्थ ही व्यक्त किया गया है। इससे करणरूप अर्थ का निषेध नहीं समझना चाहिये। यद्यपि अधिकरण अर्थ की यहाँ मुख्यतया विवक्षा है ऐसा सूचित होता है। फिर भी गत्यादि पदों का अर्थ तृतीयान्त एवं सप्तम्यन्त दोनों ही तरह का माना गया है।
गति का लक्षण
गइउदयजपज्जाया, चउगइगमणस्स हेउ वा हु गई।
णारयतिरिक्खमाणुसदेवगई त्ति य हवे चदुधा।।४६।।
गत्युदयजपर्याय: चतुर्गतिगमनस्य हेतुर्वा हि गति:।
नारकर्तिर्यग्मानुषदेवगतिरिति च भवेत् चतुर्धा।।४६।।
अर्थ—गति नाम कर्म के उदय से होने वाली जीव की पर्याय को अथवा चारों गतियों में गमन करने के कारण को गति कहते हैं। उसके चार भेद हैं—नरकगति, तिर्यग्गति, मनुष्यगति, देवगति।
भावार्थ—गति शब्द की निरुक्ति के अनुसार तीन तरह से ही निरुक्ति हो सकती है—गम्यते इति गति:, गमनं वा गति: और गम्यते अनेन सा गति:। इनमें से पहली निरुक्ति के अनुसार जीव को प्राप्त होने वाली किसी भी वस्तु का नाम गति नहीं समझना चाहिए किन्तु गतिनाम कर्म के उदय से प्राप्त होने वाली जीव की पर्याय विशेष को ही गति शब्द से ग्रहण करना उचित है। इसी तरह गमन का अर्थ ग्रामादि के लिए जाना ऐसा न लेकर विवक्षित भव को छोड़कर दूसरे भव का धारण करना—भवांतर रूप में परिणत होना अर्थ ग्रहण करना चाहिए। तीसरी निरुक्ति के अनुसार नाम कर्म की उस प्रकृति को गति कहते हैं जो कि जीव की पर्याय भवान्तररूप परिणमन में कारण है किन्तु इस प्रकरण में कर्म अर्थ ग्रहण करने की मुख्यता नहीं है अर्थात् मार्गणा के इस प्रकरण में जीव की पर्याय अर्थ करना ही मुख्यतया विवक्षित है।
नरक गति का लक्षण
ण रमंति जदो णिच्चं, दव्वे खेत्ते य काल भावे य।
अण्णोण्णेिंह य जम्हा, तम्हा ते णारया भणिया।।४७।।
न रमन्ते यतो नित्यं द्रव्ये क्षेत्रे च कालभावे च।
अन्योन्यैश्च यस्मात्तस्मात्ते नारता भणिता:।।४७।।
अर्थ—जो द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव में स्वयं तथा परस्पर में प्रीति को प्राप्त नहीं होते उनको नारत (नारकी) कहते हैं।
भावार्थ—शरीर और इंद्रियों के विषयों में, उत्पत्ति, शयन, विहार, उठने, बैठने आदि के स्थान में, भोजन आदि के समय में अथवा और भी अनेक अवस्थाओं में जो स्वयं अथवा परस्पर में प्रीति (सुख) को प्राप्त न हों उनको नारत कहते हैं। इस गाथा में जो ‘च’ शब्द पड़ा है उससे इसका दूसरा भी निरुक्ति सिद्ध अर्थ समझना चाहिए अर्थात् जो नरकगति नामकर्म के उदय से हों उनको अथवा नरान्—मनुष्यों को कायन्ति—क्लेश पहुँचावें उनको नारक कहते हैं क्योंकि नीचे सातों ही भूमियों में रहने वाले नारकी निरंतर ही स्वाभाविक, शारीरिक, मानसिक, आगन्तुक तथा क्षेत्रजन्य इन पाँच प्रकार के दु:खों से दुखी रहते हैं।
तिर्यग्गति का स्वरूप
तिरियंति कुडिलभावं, सुविउलसण्णा णिगिट्ठिमण्णाणा।
अच्चंतपावबहुला, तम्हा तेरिच्छया भणिया।।४८।।
तिरोचन्ति कुटिलभावं सुविबृतसंज्ञा निकृष्टमज्ञाना:।
अत्यन्तपापबहुलास्तस्मा त्तैरश्चका भणिता:।।४८।।
अर्थ—जो मन, वचन, काय की कुटिलता को प्राप्त हों अथवा जिनकी आहारादि विषयक संज्ञा दूसरे मनुष्यों को अच्छी तरह प्रकट हो और जो निकृष्ट अज्ञानी हों तथा जिनमें अत्यन्त पाप का बाहुल्य पाया जाय उनको तिर्यंच कहते हैंं।
भावार्थ—जिनमें कुटिलता की प्रधानता हो, क्योंकि प्राय: करके सब ही तिर्यंच जो उनके मन में होता है उसको वचन के द्वारा व्यक्त नहीं कर सकते क्योंकि उनके उस प्रकार की वचन शक्ति ही नहीं है और जो वचन से कहते हैं उसको काय से नहीं करते तथा जिनकी आहारादि संज्ञा प्रकट हो और श्रुत का अभ्यास तथा शुभोपयोगादि के न कर सकने से जिनमें अत्यंत अज्ञानता पाई जाए तथा मनुष्य की तरह महाव्रतादिक को धारण न कर सकने और सम्यग्दर्शन की विशुद्धि आदि के न हो सकने से जिनमें अत्यंत पाप का बाहुल्य पाया जाय उनको तिर्यंच कहते हैं।
तात्पर्य यह है कि निरुक्ति के अनुसार तिर्यंच गति का अर्थ माया की प्रधानता को बताता है। यथा—तिर: तिर्यग्भावं—कुटिलपरिणामं अंचन्ति इति तिर्यंच:। माया प्रधान परिणामों से संचित कर्म के उदय से यह गति-पर्याय प्राप्त होती है। यहाँ पर जो पर्यायाश्रित भाव हुआ करते हैं वे भी मुख्यतया कुटिलता को ही सूचित करते हैं। उनकी भाषा अव्यक्त होने से वे अपने मनोभावों को व्यक्त करने में असमर्थ रहा करते हैं। प्राय: मैथुन संज्ञा आदि मनुष्यों की तरह उनकी गूढ़ नहीं हुआ करती। मनुष्यों के समान इनमें विवेक, हेयोपादेय का भेद ज्ञान, श्रुताभ्यास, शुभोपयोग आदि भी नहीं पाया जाता। प्रभाव, सुख, द्युति, लेश्या आदि की अपेक्षा से भी वे मनुष्यों से निकृष्ट हैं। महाव्रतादि गुणों को वे धारण नहीं कर सकते। इस गति में जिनका प्रमाण सबसे अधिक है उन एकेन्द्रिय जीवों में तथा असंज्ञि पंचेन्द्रिय पर्यन्त त्रस जीवों में भी जिससे सम्यग्दर्शन प्राप्त हो सकता है ऐसी विशुद्धि नहीं पाई जाती अतएव यह पर्याय अत्यन्त पाप बहुल है। सारांश यह है कि जिसके होने पर यह भाव हुआ करते या पाये जाते हैं जीव की उस द्रव्यपर्याय को ही तिर्यग्गति कहते हैं। मनुष्यों की अपेक्षा यह निकृष्ट पर्याय है, ऐसा समझना चाहिए।
मनुष्यगति का स्वरूप
मण्णंति जदो णिच्चं, मणेण णिउणा मणुक्कडा जम्हा।
मण्णुब्भवा य सव्वे, तम्हा ते माणुसा भणिदा।।४९।।
मन्यन्ते यतो नित्यं मनसा निपुणा मनसोत्कटा यस्मात्।
मनूभद्वाश्च सर्वे तस्मात्ते मानुषा भणिता:।।४९।।
अर्थ—जो नित्य ही हेय-उपादेय, तत्व-अतत्व, आप्त-अनाप्त, धर्म-अधर्म आदि का विचार करें और जो मन के द्वारा गुण दोषादि का विचार स्मरण आदि कर सके, जो पूर्वोक्त मन के विषय में उत्कृष्ट हों, शिल्पकला आदि में भी कुशल हों तथा युग की आदि में जो मनुओं से उत्पन्न हों उनको मनुष्य कहते हैं।
भावार्थ—मन का विषय तीव्र होने से गुण दोषादि, विचार, स्मरण आदि जिनमें उत्कृष्ट रूप से पाया जाय, अवधानादि करने में जिनका उपयोग दृढ़ हो तथा कर्मभूमि की आदि में आदीश्वर भगवान् तथा कुलकरों ने जिनको व्यवहार का उपदेश दिया इसलिए जो उन्हीं की—मनुओं की संतान कहे या माने जाते हैं उनको मनुष्य कहते हैं क्योंकि अवबोधनार्थक मनु धातु से मनु शब्द बनता है और जो मनु की संतान हैं उनको कहते हैं मनुष्य। अतएव इस शब्द का यहाँ पर जो अर्थ किया गया है वह निरुक्ति के अनुसार है। लक्षण की अपेक्षा से अल्पारम्भ परिग्रह के परिणामों द्वारा संचित मनुष्य आयु और मनुष्यगति नामकर्म के उदय से जो ढाई द्वीप के क्षेत्र में उत्पन्न होने वाले हैं उनको कहते हैं मनुष्य। ये ज्ञान विज्ञान मन पवित्र संस्कार आदि की अपेक्षा अन्य जीवों से उत्कृष्ट हुआ करते हैं। जैसा कि निरुक्ति के द्वारा बताया गया है।
इस गाथा में एक ‘यत:’ शब्द है और दूसरा ‘यस्मात्’ शब्द है। अर्थ दोनों शब्दों का एक ही होता है। अतएव इनमें एक शब्द व्यर्थ पड़ता है। वह व्यर्थ पड़कर विशिष्ट अर्थ का ज्ञापन करता है कि यद्यपि लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्यों में यह विशेष स्वरूप—निरुक्त्यर्थ घटित नहीं होता फिर भी उनको मनुष्यगति नामकर्म और मनुष्य आयु के उदय रूप लक्षण मात्र की अपेक्षा से मनुष्य कहते हैं, ऐसा समझना चाहिए।
देवगति का स्वरूप
दीव्वंति जदो णिच्चं, गुणेहिं अट्ठेहिं दिव्वभावेहिं।
भासंतदिव्वकाया, तम्हा ते वण्णिया देवा।।५०।।
दीव्यन्ति यतो नित्यं गुणैरष्टाभिर्दिव्यभावै:।
भासमानदिव्यकाया: तस्मात्ते वर्णिता देवा:।।५०।।
अर्थ—जो देवगति में होेने वाले या पाये जाने वाले परिणामों—परिणमनों से सदा सुखी रहते हैं और जो अणिमा, महिमा आदि आठ गुणों (ऋद्धियों) के द्वारा सदा अप्रतिहत (निर्बाध) रूप से विहार करते हैं और जिनका रूप लावण्य, यौवन आदि सदा प्रकाशमान रहता है, उनको परमागम में देव कहा है।
भावार्थ—देव शब्द दिव् धातु से बनता है जिसके कि क्रीड़ा, विजिगीषा, व्यवहार, द्युति, स्तुति, मोह, मद आदि अनेक अर्थ होते हैं। अतएव निरुक्ति के अनुसार जो मनुष्यों में न पाये जा सकने वाले प्रभाव से युक्त हैं तथा कुलाचलों पर वनों में या महासमुद्रों में सपरिवार विहार—क्रीड़ा किया करते हैं, बलवानों को भी जीतने का भाव रखते हैं, पंचपरमेष्ठियों या अकृत्रिम चैत्य, चैत्यालयों आदि की स्तुति वंदना किया करते हैं, सदा पंचेन्द्रियों से संबंधित विषयों के भोगों से मुद्रित रहा करते हैं, जो विशिष्ट दीप्ति के धारण करने वाले हैं, जिनका शरीर धातुमल दोष रहित एवं अविच्छिन्न रूप लावण्य से युक्त सदा यौवन अवस्था में रहा करता है और जो अणिमा आदि आठ प्रकार की ऋद्धियों को धारण करने वाले हैं उनको देव कहते हैं। यह देवपर्याय के स्वरूप मात्र का निदर्शन है। लक्षण के अनुसार जो अपने कारणों से संचित देवायु और देवगति नाम कर्म के उदय से प्राप्त पर्याय को धारण करने वाले संसारी जीव हैं वे सब देव हैं।
सिद्धगति का स्वरूप
जाइजरामरणभया, संजोगविजोगदुक्खसण्णाओ।
रोगादिगा य जिस्से, ण संति सा होदि सिद्ध गई।।५१।।
जातिजरामरणभया, संयोगवियोगदु:खसंज्ञा:।
रोगादिकाश्च यस्यां न संति सा भवति सिद्धगति:।।५१।।
अर्थ—एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक पाँच प्रकार की जाति, बुढ़ापा, मरण, भय, अनिष्ट संयोग, इष्ट वियोग, इनसे होने वाले दु:ख, आहारादि विषयक संज्ञाएँ—वांछाएं और रोग आदि की व्याधि इत्यादि विरुद्ध विषय जिस गति में नहीं पाये जाते उसको सिद्धगति कहते हैं।
भावार्थ—जाति नामकर्म के उदय से प्राप्त होने वाली एकेन्द्रियादिक जीव की पाँच अवस्थाएँ, आयुकर्म के विपाक आदि कारणों से शरीर के शिथिल होने पर जरा, नवीन आयु के बंधपूर्वक भुज्यमान आयु के अभाव से होने वाले प्राणों के त्याग रूप मरण, अनर्थ की आशंका करके अपकारक वस्तु से दूर रहने या भागने की इच्छारूप भय, क्लेश के कारणभूत अनिष्ट पदार्थ की प्राप्ति रूप संयोग, सुख के कारणभूत अभीष्ट पदार्थ के दूर हो जाने रूप वियोग, इनसे होने वाले अन्य भी अनेक प्रकार के दु:ख तथा आहार आदि विषयक तीन प्रकार की संज्ञाएँ, शरीर की अस्वस्थता रूप अनेक प्रकार की व्याधि तथा आदि शब्द में मानभंग-वध-बंधन आदि दु:ख जिस गति में अपने-अपने कारणभूत कर्मों का अभाव हो जाने से नहीं पाये जाते उसको सिद्धगति कहते हैं।
गति मार्गणा के चार ही भेद हैं क्योंकि वह उस नाम कर्म विशेष के उदय की अपेक्षा रखता है जो कि गति नाम से ही कहा गया है और जिसके चार ही भेद हैं किन्तु जीव की जिस गति—द्रव्यपर्याय विशेष को यहाँ बताया गया है वह मार्गणातीत है। वह किसी कर्म के उदय से नहीं किन्तु समस्त कर्मों के क्षय से प्रादुर्भूत हुआ करती है। अतएव चारों गतियों के अनंतर इसका पृथक् वर्णन किया गया है और सम्पूर्ण कर्मजन्य विकारी भावों से रहित इसको बताया गया है। इस अवस्था में आत्मद्रव्य के सभी स्वाभाविक गुणों का जो सद्भाव रहता है।
पर्याप्त मनुष्यों की संख्या
तलली नमधुगविमलंधूमसिलागाविचोरभयमेरू।
तटहरिखझसा होंति हु, माणुसपज्जत्तसंखंका।।५२।।
तलली नमधुगविमलंधूमसिलागाविचोरभयमेरू।
तटहरिखझसा भवन्ति हि मानुषपर्याप्तसंख्यांका:।।५२।।
अर्थ—तकार से लेकर सकारपर्यन्त जितने अक्षर इस गाथा में बताये हैं, उतने ही अंकप्रमाण पर्याप्त मनुष्यों की संख्या है।
भावार्थ—इस गाथा में तकारादि अक्षरों के अंकों का ग्रहण करना चाहिये, परन्तु किस अक्षर से किस अंक का ग्रहण चाहिए इसके लिये ‘कटपयपुरस्थवर्णैर्नवनवपंचाष्टकल्पितै: क्रमश:। स्वरञनशून्यं संख्यामात्रोपरि-माक्षरं त्याज्यम्’’ यह गाथा उपयोगी है। अर्थात् क से लेकर आगे के झ तक के नव अक्षरों से क्रम से एक दो आदि नव अंक समझने चाहिए। इस प्रकार ट से लेकर नव अंक और प से लेकर पाँच अंक तथा य से लेकर आठ अक्षरों से आठ अंक एवं सोलह स्वर और न इनसे शून्य (०) समझना चाहिए। किन्तु मात्रा और उपरिम अक्षर, इससे कोई भी अंक ग्रहण नहीं करना चाहिए। इस नियम से और ‘‘अंकों की विपरीतगति होती है’’ इस नियम के अनुसार इस गाथा में कहे हुए अक्षरों से पर्याप्त मनुष्यों की संख्या ७९२२८१६२५१४२६४३३७५९३५४३९५०३३६ निकलती है।
गतिमार्गणासार
मार्गणा—जिनके द्वारा अथवा जिनमें जीवों का मार्गण्—अन्वेषण किया जाता है उन्हें मार्गणा कहते हैं। मार्गणा के १४ भेद हैं। गति, इंद्रिय, काय, योग, वेद, कषाय, ज्ञान, संयम, दर्शन, लेश्या, भव्यत्व, सम्यक्त्व, संज्ञा और आहार ये चौदह मार्गणा हैं। मार्गणा के दो भेद भी हैं—सान्तर और निरंतर। उपर्युक्त चौदह मार्गणायें निरंतर मार्गणा कहलाती हैं जिनमें अंतर—विच्छेद नहीं पड़ता उनको निरंतर मार्गणा कहते हैं। संसारी जीवों के उपर्युक्त १४ मार्गणाओं में से किसी का विच्छेद नहीं पड़ता वे सभी जीवों के और सदा ही पाई जाती है इसलिए निरंतर मार्गणा कही जाती हैं और जिनमें अंतर—विच्छेद पड़ जाता है उन्हें सान्तर मार्गणा कहते हैं अर्थात् कुछ मार्गणा ऐसी भी हैं कि जिनमें समय के एक नियत प्रमाण तक विच्छेद पाया जाता है। उन्हीं को सांतर मार्गणा कहते हैं।
ये सांतर मार्गणाएँ आठ हैं—उपशम सम्यक्त्व, सूक्ष्मसांपराय संयम, आहारककाय योग, आहारक मिश्र योग, वैक्रियक मिश्र काययोग, लब्ध्यपर्याप्त मनुष्य, सासादन सम्यक्त्व और मिश्र ये आठ सांतर मार्गणाएँ हैं। उपशम सम्यक्त्व का उत्कृष्ट विरह काल ७ दिन का है। सूक्ष्म सांपराय का महीना, आहारक योग का पृथक्त्व वर्ष, आहारक मिश्र का पृथक्त्व वर्ष, वैक्रियक मिश्र का १२ मुहूर्त, अपर्याप्त मनुष्य का पल्य से असंख्यातवें भाग, सासादन सम्यक्त्व और मिश्र का पल्य के असंख्यातवें भाग है और सबका जघन्य अंतर काल एक समय है। मतलब यह है कि यदि तीन लोक में कोई भी उपशम सम्यग्दृष्टि न रहे तो ऐसा अंतर सात दिन के लिए पड़ सकता है। उसके बाद कोई न कोई उपशम सम्यग्दृष्टि अवश्य ही होता है।
गति मार्गणा'
—गति नामकर्म के उदय से होने वाली जीव की पर्याय विशेष को अथवा चारों गतियों में गमन करने के कारण को गति कहते हैं। गति शब्द के निरुक्ति के अनुसार तीन तरह के अर्थ संभव हैं। गम्यते इति गति:, गमनं वा गति: और गम्यते अनेन सा गति:। इन निरुक्ति अर्थों में गतिनाम कर्म के उदय से होने वाली जीव की नर, नारक आदि पर्याय विशेष को ही ग्रहण करना चाहिए। गति के चार भेद हैं—नरकगति, तिर्यग्गति, मनुष्यगति, देवगति।
नरक गति
—जो द्रव्य क्षेत्र काल भाव में स्वयं तथा परस्पर में प्रीति को प्राप्त नहीं होते हैं उनको ‘नारत’ कहते है अर्थात् जो किसी भी अवस्था में स्वयं या परस्पर में प्रीति को प्राप्त न हों वे नारत—नारकी कहलाते हैं अथवा जो ‘नरान् कायंति’ मनुष्यों को क्लेश पहुँचावें उनको नारक कहते हैं क्योंकि नीचे सातों ही भूमियों में रहने वाले नारकी निरंतर ही स्वाभाविक, शारीरिक, मानसिक, आगंतुक तथा क्षेत्रजन्य इन पाँच प्रकार के दु:खों से दु:खी रहते हैं। नरकगति नामकर्म के उदय से जीव नरक में आयु पर्यंत महान् कष्टों का अनुभव करते रहते हैं। न रमन्ते इति नारता—नारका—इस व्युत्पत्ति के अनुसार नारकी आपस में कभी भी प्रेम नहीं करते हैं।
तिर्यग्गति
—जो मन वचन काय की कुटिलता को प्राप्त हों अथवा जिनकी आहारादि संज्ञायें दूसरों को स्पष्ट दिखें और जो निकृष्ट अज्ञानी हों, जिनमें पाप की बहुलता हो वे तिर्यंच कहलाते हैं। निरुक्ति के अनुसार ‘तिर: तिर्यग्भावं-कुटिल परिणामं अन्वति इति तिर्यंच’ जो कुटिल-मायाचार परिणामों को प्राप्त करें वे तिर्यंच कहलाते हैं। इससे तिर्यंचगति में मायाचार की बहुलता जानी जाती है।
मनुष्यगति
—जो नित्य ही तत्व-अतत्व, आप्त-अनाप्त आदि का विचार करें, जो मन के द्वारा गुण-दोषादि का विचार स्मरण आदि कर सके, जो मन के विषय में उत्कृष्ट हों, शिल्प कलादि में कुशल हों तथा युग की आदि में मनुओं से उत्पन्न हुये हों वे मनुष्य कहलाते हैं। ‘मनु अवबोधने’ मनु धातु से मनु शब्द बनता है और जो मनु की संतान हैं उसे मनुष्य कहते हैं। यहाँ निरुक्ति के अनुसार अर्थ किया गया है।
देवगति
—जो देवगति में होने वाली अणिमा, महिमा आदि आठ ऋद्धियों से सुखी होें, सदा रूप यौवन आदि में दीप्ति को प्राप्त हों वे देव कहलाते हैं। ‘दीव्यंति इति देव:’ दिव् धातु क्रीड़ा, विजिगीषा, दीप्ति, मोद आदि अर्थ में है उससे देव शब्द निष्पन्न हुआ है। इन चारों गतियों के अर्थ में निरुक्ति अर्थ प्रधान है किन्तु यह सर्वथा लागू नहीं होता है। मुख्यत: जो उन-उन गति नामकर्म के उदय से उस-उस भव को प्राप्त करते हैं। वे उस गति वाले कहलाते हैं।
सिद्धगति
—एकेन्द्रिय आदि जाति, वृद्धावस्था, मरण, भय, अनिष्ट संयोग, इष्ट वियोग, इनसे होने वाले दु:ख, आहारादि वाञ्छायें, रोग आदि जिस गति में नहीं पाये जायें वह ‘सिद्धगति’ कहलाती है। इसे पंचम गति भी कहते हैं। यह सिद्धगति मार्गणातीत है, सभी कर्मों के क्षय से प्रकट होती है। विशेष—तिर्यंचों के पाँच भेद हैं—सामान्य तिर्यंच, पंचेन्द्रिय तिर्यंच, पर्याप्त तिर्यंच, योनिमती (भावस्त्री वेदी) तिर्यंच और अपर्याप्त तिर्यंच। मनुष्यों के चार भेद हैं—सामान्य मनुष्य, पर्याप्त मनुष्य, योनिमती (भावस्त्री वेदी) मनुष्य और लब्ध्यपर्याप्त मनुष्य। इनमें पंचेन्द्रिय भेद इसलिये पृथक नहीं हैं कि मनुष्यों में पंचेन्द्रिय मनुष्य ही होते हैं एकेन्द्रिय आदि नहीं होते हैं। पर्याप्त मनुष्यों की संख्या—७ ९ २ २ ८ १ ६ २ ५ १ ४ २ ६ ४ ३ ३ ७ ५ ९ ३ ५ ४ ३ ९ ५ ० ३ ३ ६ ।
इन चारों गतियों में एक मनुष्यगति ही ऐसी गति है कि जिसमें आठों कर्मों का नाश कर यह जीव सिद्धपद को प्राप्त कर सकता है अतएव इस दुर्लभ मनुष्य पर्याय को प्राप्त करके संयम को धारण करके संसार परम्परा को समाप्त करना चाहिये।
इन्द्रिय मार्गणा
(सप्तम अधिकार)
इंद्रिय का स्वरूप
अहमिंदा जह देवा, अविसेसं अहमहंति मण्णंता।
ईसंति एक्कमेक्कं, इंदा इव इन्दिये जाण।।५३।।
अहमिन्द्रा यथा देवा अविशेषमहमहमिति मन्यमाना:।
ईशते एवैकमिन्द्रा इव इन्द्रियाणि जानीहि।।५३।।
अर्थ—जिस प्रकार अहमिन्द्र देवों में दूसरे की अपेक्षा न रखकर प्रत्येक अपने-अपने को स्वामी मानते हैं, उसी प्रकार इंद्रियाँ भी हैं।
'भावार्थ—इंद्र के समान जो हो उसको इंद्रिय कहते हैंं। इसलिए जिस प्रकार नव ग्रैवेयकादिवासी अपने-अपने विषयों में दूसरों की अपेक्षा न रखने से अर्थात् इंद्र, सामानिक आदि भेदों तथा स्वामी, भृत्य आदि विशेष भेदों से रहित होने के कारण किसी की आज्ञा के वशवर्ती नहीं हैं अतएव स्वतंत्र होने से वे सब ही अपने-अपने को इंद्र मानते हैं। उसी प्रकार स्पर्शन आदि इंद्रियाँ भी अपने-अपने स्पर्शादिक विषयों में दूसरी रसना आदि की अपेक्षा न रखकर स्वतंत्र हैं। यही कारण है कि इनको इंद्रों-अहमिन्द्रों के समान होने से इंद्रिय कहते हैं, क्योंकि निरुक्ति के अनुसार यह अर्थ सिद्ध है। इन्द्रिय की अपेक्षा से जीवों के भेद कहते हैं-
फासरसगंधरूवे, सद्दे णाणं च चिण्हयं जेसिं।
इगिबितिचदुपंचिंदिय, जीवा णियभेयभिण्णाओ।।५४।।
स्पर्शरसगंधरूपे शब्दे ज्ञानं च चिन्हकं येषाम्।
एकद्वित्रिचतु:पंचेन्द्रियजीवा निजभेदभिन्ना ओ।।५४।।
अर्थ—जिन जीवों के बाह्य चिन्ह (द्रव्येन्द्रिय) और उसके द्वारा होने वाला स्पर्श, रस, गंध, रूप, शब्द इन विषयों का ज्ञान हो उनको क्रम से एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय जीव कहते हैं और इनके भी अनेक अवान्तर भेद हैं।
भावार्थ-जिन जीवों के स्पर्शविषयक ज्ञान और उसका अवलम्बनरूप द्रव्येन्द्रिय मौजूद हो, उनको एकेन्द्रिय जीव कहते हैं। इसी प्रकार अपने-अपने अवलम्बनरूप द्रव्येन्द्रिय के साथ-साथ जिन जीवों के रसविषयक ज्ञान हो उनको द्वीन्द्रिय और गंधविषयक ज्ञान वालों को त्रीन्द्रिय तथा रूपविषयक ज्ञान वालों को चतुरिन्द्रिय और शब्दविषयक ज्ञान वालों को पंचेन्द्रिय जीव कहते हैं। इन एकेन्द्रियादि जीवों के भी अनेक अवान्तर भेद हैं तथा आगे-आगे की इन्द्रिय वालों के पूर्व-पूर्व की इन्द्रिय अवश्य होती है। जैसे रसनेन्द्रिय वालों के स्पर्शनेन्द्रिय अवश्य होगी और घ्राणेन्द्रिय वालों के स्पर्शन और रसना अवश्य होगी। इत्यादि पंचेन्द्रिय पर्यन्त ऐसा ही समझना।
इस प्रकार एकेन्द्रियादि जीवों के इन्द्रियों के विषय की वृद्धि का क्रम बताकर अब इन्द्रिय वृद्धि का क्रम बताते हैं-
एइंदियस्स फुसणं, एक्कं वि य होदि सेसजीवाणं।
होंति कमउड्ढियाइं, जिब्भाघाणच्छिसोत्ताइं।।५५।।
एकेन्द्रियस्य स्पर्शनमेकमपि च भवति शेषजीवानाम्।
भवन्ति क्रमवर्द्धितानि जिह्वाघ्राणाक्षिश्रोत्राणि।।५५।।
अर्थ—एकेन्द्रिय जीव के एक स्पर्शनेन्द्रिय ही होती है। शेष जीवों के क्रम से जिह्वा, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र बढ़ जाते हैं।
भावार्थ-एकेन्द्रिय जीव के केवल स्पर्शनेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय के स्पर्शन, रसना (जिह्वा), त्रीन्द्रिय के स्पर्शन, रसना, घ्राण (नासिका), चतुरिन्द्रिय के स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और पंचेन्द्रिय के स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु, श्रोत्र होते हैं।
इंद्रियों का आकार
चक्खूसोदं घाणं, जिब्भायारं मसूरजवणाली।
अतिमुत्तखुरप्पसमं, फासं तु अणेयसंठाणं।।५६।।
चक्षु: श्रोत्रघ्राणजिह्वाकारं मसूरयवनाल्य:।
अतिमुक्तक्षुरप्रसमं स्पर्शनं तु अनेक संस्थानम्।।५६।।
अर्थ—मसूर के समान चक्षु का, जव की नली के समान श्रोत्र का, तिल के फूल के समान घ्राण का तथा खुरपा के समान जिह्वा का आकार है और स्पर्शनेन्द्रिय के अनेक आकार हैं।
भावार्थ—पूर्व में भावनेन्द्रियों के स्वरूप विषय क्रम वृद्धि विषय क्षेत्र का वर्णन हो चुका है किन्तु द्रव्येन्द्रियों का वर्णन बाकी है अतएव अब उसी का स्वरूप बताने की दृष्टि से इस गाथा में इंद्रियों की बाह्य निर्वृत्ति का स्वरूप बताया है। अपने-अपने स्थान पर नोकर्म रूप पुद्गल वर्गणाओं का जो आकार बनता है उसी को बाह्य निर्वृत्ति कहते हैं। चक्षु, श्रोत्र, घ्राण और जिह्वा इन चार इंद्रियों का आकार नियत है, जैसा कि इस गाथा में बताया गया है। परन्तु स्पर्शन इंद्रिय का आकार नियत नहीं है क्योंकि वह सम्पूर्ण शरीर के साथ व्याप्त है और शरीरों के आकार विभिन्न प्रकार के हुआ करते हैं।
तत्तत् इंद्रिय के स्थान पर अपने-अपने आवरण कर्म के क्षयोपशमरूप कार्मण पुद्गल स्कन्ध से युक्त आत्मा के प्रदेशों का जो आकार बनता है उसको आभ्यंतर निर्वृत्ति कहते हैं। स्पर्शनेन्द्रिय की यह आभ्यंतर निर्वृत्ति भी भिन्न-भिन्न प्रकार की हुआ करती है।
गाथा में जो तु शब्द है वह उपलक्षण होेने से सूचित करता है कि आभ्यंतर निर्वृत्ति तथा बाह्याभ्यंतर उपकरणों का भी स्वरूप यहाँ आगमानुसार समझ लेना चाहिए।
इस प्रकार इन्द्रियज्ञान वाले संसारी जीवों का वर्णन करके अतीन्द्रिय ज्ञान वाले जीवों का निरूपण करते हैं-
ण वि इंदियकरणजुदा, अवग्गहादीहि गाहया अत्थे।
णेव य इंदियसोक्खा, अणिंदियाणंतणाणसुहा।।५७।।
नापि इन्द्रियकरणयुता अवग्रहादिभिग्र्राहका अर्थे।
नैव च इन्द्रियसौख्या अनिन्द्रियानन्तज्ञानसुखा:।।५७।।
अर्थ—जीवन्मुक्त तथा परम मुक्त जीव इन्द्रियों की क्रिया से युक्त नहीं हैं तथा वे अवग्रहादिक क्षायोपशमिक ज्ञान के द्वारा पदार्थ का ग्रहण नहीं करते। इसी तरह वे इन्द्रियजन्य सुख से भी युक्त नहीं हैं, क्योंकि उन दोनों ही प्रकार के जीवों का अनन्त ज्ञान और अनन्त सुख अनिन्द्रिय है।
भावार्थ-उन जीवों का अनन्त ज्ञान और अनन्त सुख अपनी प्रवृत्ति में इन्द्रिय व्यापार की अपेक्षा नहीं रखता, क्योंकि वह निरावरण है। जो सावरण हुआ करता है उसको अपनी प्रवृत्ति में दूसरे की सहायता की अपेक्षा हुआ करती है। जो अपना कार्य करने में स्वयं ही समर्थ है उसको दूसरे की अपेक्षा नहीं हुआ करती और न आवश्यकता ही है। इसीलिए ये दोनों ही प्रकार के जीव-जीवन्मुक्त-सयोगकेवली और अयोगकेवली अर्थात् सिद्ध परमात्मा इन्द्रिय व्यापार से रहित हैं। वे त्रिकालवर्ती तीन लोक के समस्त पदार्थों को अनन्त ज्ञान के द्वारा युगपत् प्रत्यक्ष ग्रहण करते हैं। अवग्रह, ईहा, अवाय, धारणा, स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान आदि क्षायोपशमिक ज्ञानों के द्वारा वे क्रम से योग्य विषयों का ही ग्रहण नहीं किया करते। इसी प्रकार उनका सुख भी इन्द्रियजन्य नहीं है क्योंकि उसके कारणभूत सभी प्रतिपक्षी कर्मों का सर्वथा अभाव हो चुका है।
जीवप्रबोधिनी तथा मंदप्रबोधिनी दोनों ही टीकाओं में इस गाथा का अर्थ सिद्ध पर्याय में घटित किया है और वह नि:संदेह ठीक है क्योंकि सिद्धों में किसी भी अपेक्षा से इन्द्रियवत्ता नहीं पाई जाती, जबकि जीवन्मुक्त सकल परमात्माओं में द्रव्य की अपेक्षा से इन्द्रियों का अस्तित्व पाया जाता है। फिर भी यहाँ तथा अन्यत्र भी परमागम में जो भावरूप अर्थ को मुख्य मानकर इन्द्रियों का वर्णन किया गया है उसको दृष्टि में रखकर इस गाथा के चारों ही वाक्यों का अर्थ तेरहवें और चौदहवें गुणस्थानवर्ती सयोगकेवली तथा अयोगकेवली में भी घटित होता है क्योंकि द्रव्येन्द्रियों के रहते हुए भी वे उनके करण रूप नहीं हैं क्योंकि उनका ज्ञान और सुख क्षायिक होने से अतीन्द्रिय है। क्षायोपशमिक ज्ञान एवं सुख को ही करण-अवलम्बनरूप सहकारी कारण इन्द्रियों आदि की अपेक्षा हुआ करती है। अतएव इस गाथा का अर्थ जीवन्मुक्त अरिहन्तों में भी घटित नहीं होता है, क्योंकि उनका ज्ञान क्षायिक है अतएव उनके ज्ञान में इन्द्रियाँ करणरूप नहीं हुआ करतीं। जिस प्रकार अवग्रहादि के द्वारा पदार्थों का ज्ञान क्रम से हुआ करता है उस प्रकार उनका ज्ञान क्रमवर्ती नहीं है। इसी प्रकार यद्यपि पुण्योदय से उनको सर्वोत्कृष्ट भोगोपभोग की सामग्री प्राप्त है फिर भी वे उनका भोगोपभोग नहीं करते। उनका अनन्त ज्ञान और अनंत सुख सब अनिन्द्रिय ही है। इस प्रकार प्रकरणगत भावरूप इन्द्रियों की अपेक्षा से सभी प्रत्यक्ष केवली अनिन्द्रिय ही हैं फिर भी द्रव्येन्द्रियों के अस्तित्व की अपेक्षा से अरिहंतों को पंचेन्द्रियों में परिगणित किया है। जैसा कि सत्प्ररूपणा के सूत्र नं. ३७ से विदित होता है परन्तु उस सूत्र का आशय क्या है यह बात आगम के निम्नलिखित वाक्यों से भले प्रकार जानी जा सकती है-
‘‘इन्द्रियत्वादिति चेन्नार्षार्थानवबोधात्’’, स्यादेतत्, एवमागम: प्रवृत्त: ‘‘पंचेन्द्रिया असंज्ञिपंचेन्द्रियादारभ्य या अयोगकेवलिन:’’ इति। अत इन्द्रियत्वा-त्तत्कार्येणापि ज्ञानेन भवितव्यम् इति। तन्न, किं कारणम् ? आर्षार्थानवबोधात्। आर्षे हि सयोग्ययोगिकेवलिनो: पंचेन्द्रियत्वं द्रव्येन्द्रियं प्रत्युक्तम् न भावेन्द्रियं प्रति। यदि हि भावेन्द्रियं प्रत्यभविष्यत् अपि तु तर्हि असंक्षीणसकलावरणत्वात् सर्वज्ञतैवास्य न्यवर्तिष्यत्। राजवार्तिक १-३०-९।
तथा- पक्खीणजादिकम्मो, अणंतरववीरिओ अधिकतेजो।
जादो अणिंदिओ सो, णाणं सोक्खं च परिणमदि।।१९।।
सीक्खं वा पुण दुक्खं केवलणाणिस्स णत्थि देहगदं।
जम्हा अणिंदियत्तं जादं तम्हा दु तं णेयं।।२१।। (प्रवचनसार)
एकेन्द्रिय आदि जीवों की संख्या
थावरसंखपिपीलिय, भमरमणुस्सादिगा सभेदा जे।
जुगवारमसंखेज्जा, णंताणंता णिगोदभवा।।५८।।
स्थावरशंखपिपीलिका भ्रमरमनुष्यादिका: सभेदा ये।
युगवारमसंख्येया अनंतानंता निगोदभवा:।।५८।।
अर्थ—स्थावर एकेन्द्रिय जीव, शंख आदिक द्वीन्द्रिय, चींटी आदि त्रीन्द्रिय, भ्रमर आदि चतुरिन्द्रिय, मनुष्यादिक पंचेन्द्रिय जीव अपने-अपने अंतर्भेदों से युक्त असंख्यातासंख्यात हैं और निगोदिया जीव अनंतानंत हैं।
भावार्थ—त्रस, प्रत्येक वनस्पति, पृथिवी, जल, अग्नि, वायु इनको छोड़कर बाकी संसारी जीवों का (साधारण जीवों का) प्रमाण अनंतानंत है और साधारण को छोड़कर बाकी एकेन्द्रिय स्थावर तथा द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय इनमें प्रत्येक का प्रमाण असंख्यात लोकमात्र असंख्यातासंख्यात है।
इंद्रिय मार्गणा सार
जो इंद्र के समान हों उसे इंद्रिय कहते हैं। जिस प्रकार नव ग्रैवेयक आदि में रहने वाले इंद्र, सामानिक, त्रायिंस्त्रश आदि भेदों तथा स्वामी, भृत्य आदि विशेष भेदों से रहित होने के कारण किसी के वशवर्ती नहीं हैं, स्वतंत्र हैं उसी प्रकार स्पर्शन आदि इंद्रियाँ भी अपने-अपने स्पर्श आदि विषयों में दूसरी रसना आदि की अपेक्षा रखकर स्वतंत्र हैं। यही कारण है कि इनको इंद्रों-अहिमन्द्रों के समान होने से इंद्रिय कहते हैं। इंद्रियों के दो भेद—भावेन्द्रिय और द्रव्येन्द्रिय।
भावेन्द्रियों के दो भेद—लब्धि और उपयोग। मतिज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से प्रकट हुई अर्थ ग्रहण की शक्ति रूप विशुद्धि को ‘लब्धि’ कहते हैं और उसके होने पर अर्थ—विषय के ग्रहण करने रूप जो व्यापार होता है। उसे ‘उपयोग’ कहते हैं।
द्रव्येन्द्रिय के दो भेद—निर्वृत्ति और उपकरण। आत्म प्रदेशों तथा आत्म सम्बद्ध शरीर प्रदेशों की रचना को निर्वृत्ति कहते हैं। निर्वृत्ति आदि की रक्षा में सहायकों को उपकरण कहते हैं।
जिन जीवों के बाह्य चिन्ह और उनके द्वारा होने वाला स्पर्श, रस, गंध, रूप और शब्द इन पाँच विषयों का ज्ञान हो उनको क्रम से एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय जीव कहते हैं। इनके भी अवान्तर भेद अनेक हैं।
एकेन्द्रिय जीव के केवल एक स्पर्शनेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय के स्पर्शन, रसना, त्रीन्द्रिय के स्पर्शन, रसना, घ्राण, चतुरिन्द्रिय के स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और पंचेन्द्रिय के स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र।
इंद्रियों का विषय
—एकेन्द्रिय के स्पर्शनेन्द्रिय का उत्कृष्ट विषय क्षेत्र चार सौ धनुष है और द्वीन्द्रिय आदि के वह दूना-दूना है। सभी इंद्रियों का उत्कृष्ट विषय क्षेत्र आगे चार्ट में दिखलाया गया है।
चक्षु इंद्रिय के उत्कृष्ट विषय में विशेषता—सूर्य का भ्रमण क्षेत्र योजन चौड़ा है। यह पृथ्वी तल से ८०० योजन ऊपर जाकर है। वह इस जम्बूद्वीप के भीतर १८० योजन एवं लवण समुद्र में ३३०-४८/६१ योजन है अर्थात् समस्त गमन क्षेत्र ५१०-४८/६१ योजन या २०, ४३, १४७-१३/६१ मील है। इतने प्रमाण गमन क्षेत्र में सूर्य की १८४ गलियाँ हैं। इन गलियों में सूर्य क्रमश: एक-एक गली में संचार करते हैं। इस प्रकार जम्बूद्वीप में दो सूर्य तथा दो चंद्रमा हैं।
चक्रवर्ती के चक्षुरिन्द्रिय का उत्कृष्ट विषय—जब सूर्य पहली गली में आता है तब अयोध्या नगरी के भीतर अपने भवन के ऊपर स्थित चक्रवर्ती सूर्य विमान में स्थित जिनबिम्ब का दर्शन करते हैं। इस समय सूर्य अभ्यंतर गली की ३,१५,०८९ योजन परिधि को ६० मुहूर्त में पूरा करता है। इस गली में सूर्य निषध पर्वत पर उदित होता है, वहाँ से उसे अयोध्या नगरी के ऊपर आने में ९ मुहूर्त लगते हैं। जब जब वह ३,१५,०८९ योजन प्रमाण उस वीथी को ६० मुहूर्त में पूर्ण करता है तब वह ९ मुहूर्त में कितने क्षेत्र को पूरा करेगा इस प्रकार त्रैराशिक करने पर योजन अर्थात् १,८९,०५,३४,००० मील होता है।
तात्पर्य यह हुआ कि चक्रवर्ती की दृष्टि का विषय ४७,२६३-७/२० योजन प्रमाण है यह चक्षुरिन्द्रिय का उत्कृष्ट विषय क्षेत्र है। इंद्रियाँ
इंद्रियों का आकार—मसूर के समान चक्षु का, जव की नली के समान श्रोत्र का, तिल के फूल के समान घ्राण का तथा खुरपा के समान जिह्वा का आकार है। स्पर्शनेन्द्रिय के अनेक आकार हैं।
एकेन्द्रियादि जीवों का प्रमाण—स्थावर एकेन्द्रिय जीव असंख्यातासंख्यात हैं, शंख आदि द्वीन्द्रिय जीव असंख्यातासंख्यात हैं, चिंउटी आदि त्रींद्रिय जीव असंख्यातासंख्यात हैं, भ्रमर आदि चतुिंरद्रिय जीव असंख्यातासंख्यात हैं, मनुष्य आदि पंचेन्द्रिय जीव असंख्यातासंख्यात हैं और निगोदिया जीव अनंतानंत हैं अर्थात् पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, प्रत्येक वनस्पति ये पाँच स्थावर और त्रस जीव असंख्यातासंख्यात हैं और जो वनस्पति के भेदों का दूसरा भेद साधारण है, वे साधारण वनस्पति जीव अनंतानंत प्रमाण हैं।
इंद्रियातीत—अर्हंत और सिद्ध जीव इंद्रियों के व्यापार से युक्त नहीं हैं, अवग्रह, ईहा आदि क्षयोपशम ज्ञान से रहित, इंद्रिय सुखों से रहित अतीन्द्रिय ज्ञान और अनंत सुख से युक्त हैं। इंद्रियों के बिना भी आत्मोत्थ निराकुल सुख का अनुभव करने से वे पूर्णतया सुखी हैं।