पंच बालयति तीर्थंकर पूजा
श्रीजिन पंच अनंगजित, वासुपूज्य मलि नेम।
पारसनाथ सुवीर अति, पूजूँ चित धरि प्रेम।।
ओं ह्रीं पंच बालयति तीर्थंकरा! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्नाननम्।
ओं ह्रीं पंच बालयति तीर्थंकरा! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थानम्।
ओं ह्रीं पंच बालयति तीर्थंकरा! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधिकरणम्।
अथाष्टक
शुचि शीतल सुरभि सुनीर, लायो भर झारी।
दुख जामन मरन गहीर, याको परिहारी।।
श्री वासुपूज्य मलि नेमि, पारस वीर अति।
नमूँ मन वच तन धरि प्रेम, पांचों बालयति।।
ओं ह्रीं श्री वासुपूज्य-मल्लिनाथ-नेमिनाथ-पाश्र्वनाथ-महावीरस्वामी पंच बालयति तीर्थंकरेभ्यो जन्मजरामृत्यु विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
चन्दन केशर करपूर, जल में घसि आनो।
भव तप भंजन सुखपूर, तुमको मैं जानो।। श्री.
ओं ह्रीं श्री वासुपूज्य-मल्लिनाथ-नेमिनाथ-पाश्र्वनाथ-महावीरस्वामी पंच बालयति तीर्थंकरेभ्यो जन्मजरामृत्यु विनाशनाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा।
वर अक्षत विमल बनाय, सुवरण थाल भरे।
वह देश देश के लाय, तुमरी भेंट धरे।। श्री.
ओं ह्रीं श्री वासुपूज्य-मल्लिनाथ-नेमिनाथ-पाश्र्वनाथ-महावीरस्वामी पंच बालयति तीर्थंकरेभ्यो जन्मजरामृत्यु विनाशनाय अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा।
यह काम सुभट अति सूर, मन में क्षोभ करो।
मैं लायो सुमन हजूर, या को वेग हरो।। श्री.
ओं ह्रीं श्री वासुपूज्य-मल्लिनाथ-नेमिनाथ-पाश्र्वनाथ-महावीरस्वामी पंच बालयति तीर्थंकरेभ्यो जन्मजरामृत्यु विनाशनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
षट्रस पूरित नैवेद्यं, रसना सुखकारी।
द्वय करम वेदनी छेद, आनन्द व्है भारी।। श्री.
ओं ह्रीं श्री वासुपूज्य-मल्लिनाथ-नेमिनाथ-पाश्र्वनाथ-महावीरस्वामी पंच बालयति तीर्थंकरेभ्यो जन्मजरामृत्यु विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
धरि दीपक जगमग ज्योति, तुम चरणन आगे।
मम मोह तिमिर क्षय होत, आतम गुण जागे।। श्री.
ओं ह्रीं श्री वासुपूज्य-मल्लिनाथ-नेमिनाथ-पाश्र्वनाथ-महावीरस्वामी पंच बालयति तीर्थंकरेभ्यो जन्मजरामृत्यु विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
ले दशविधि धूप अनूप, खेऊँ गन्धमयी।
दशगंध दहन जिन भूप, तुम हो कर्मजयी।। श्री.
ओं ह्रीं श्री वासुपूज्य-मल्लिनाथ-नेमिनाथ-पाश्र्वनाथ-महावीरस्वामी पंच बालयति तीर्थंकरेभ्यो जन्मजरामृत्यु विनाशनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
पिस्ता अरु दाख बदाम, श्रीफल लेय घने।
तुम चरण जजूं गुणधाम, द्यौ सुख मोक्ष तने।। श्री.
ओं ह्रीं श्री वासुपूज्य-मल्लिनाथ-नेमिनाथ-पाश्र्वनाथ-महावीरस्वामी पंच बालयति तीर्थंकरेभ्यो जन्मजरामृत्यु विनाशनाय फलं निर्वपामीति स्वाहा।
सजि वसुविधि द्रव्य मनोज्ञ, अरघ बनावत हैं।
वसुकर्म अनादि संयोग, ताहि नशावत हैं।।
श्री वासुपूज्य मलि नेमि, पारस वीर अति।
नमूँ मन वच तन धरि प्रेम, पांचों बालयति।।
ओं ह्रीं श्री वासुपूज्य-मल्लिनाथ-नेमिनाथ-पाश्र्वनाथ-महावीरस्वामी पंच बालयति तीर्थंकरेभ्यो जन्मजरामृत्यु विनाशनाय अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अथ जयमाला
बाल ब्रह्मचारी भये, पांचों श्री जिनराज।
तिनकी अब जयमालिका, कहूँ स्वपर हितकाज।।
पद्धरा छन्द
जय जय जय जय श्रीवासुपूज्य, तुम सम जग में नहीं और दूज।
तुम महा शुक्र सुरलोक छार, जब मात गर्भ माहीं पधार।।
षोडश सपने देखे सुमात, बल अवधि जान तुम जन्म तात।
अति हर्ष धार दम्पति सुजान, बहु दान दियो जाचक जनान।।
छप्पन कुमारिका कियो आन, तुम मात सेव बहु भक्ति ठान।
छः मास अगाऊ गर्भ आय, धनपति सुवरन नगरी रचाय।।
तुम तात महल आंगन मंझार, तिहुँ काल रतन धारा अपार।
वरषाये षट् नव मास सार, धनि जिन पुरुषन नयनन निहार।।
जय मल्लिनाथ देवन सुदेव, शत इन्द्र करत तुम चरण सेव।
तुम जन्मत ही त्रय ज्ञान धार, आनन्द भयो तिहुँ जग अपार।।
तब ही ले चहुं विधि देव संग, सौधर्म इन्द्र आयो उमंग।
सजि गज ले तुम हरि गोद आप, वन पाण्डुक शिल ऊपर सुथाप।।
क्षीरोदधि तैं बहु देव जाय, भरि जल घट हाथों हाथ लाय।
करि न्हवन वस्त्र भूषण सजाय, दे मात नृत्य तांडव कराय।।
पुनि हर्ष धार हिरदय अपार, सब निर्जर तब जय जय उचार।
तिस अवसर आनन्द हे जिनेश, हम किहवै समरथ नहीं लेश।।
जय जादोपति श्री नेमिनाथ, हम नमत सदा जुग जोर हाथ।
तुम ब्याह समय पशुवन पुकार, सुन तुरत छुड़ाये दया धार।।
कर कंकण अरु सिर मौर बन्द, सो तोड़ भये छिन में स्वछन्द।
तब ही लौकान्तिक देव आय, वैराग्य वर्द्धनी थुति कराय।।
तत्क्षण शिविका लायो सुरेन्द्र, आरूढ़ भये तापर जिनेन्द्र।
सो शिविका निज कन्धन उठाय, सुरनरखग मिल तपवन ठराय।।
कचलौंच वस्त्र भूषण उतार, भये जती नगन मुद्रा सुधार।
हरि केश लेय रतनन पिटार, सो क्षीर उदधि माहीं पधार।।
जय पारसनाथ अनाथ नाथ, सुर असुर नमत तुम चरण माथ।
जुग नाग जरत कीनो सुरक्ष, यह बात सकल जग में प्रत्यक्ष।।
तुम सुरधनु सम लखि जग असार, तप तपत भये तन ममत छांड।
शठ कमठ कियो उपसर्ग आय, तुम मन सुमेरु नहिं डगमगाय।।
तुम शुक्ल ध्यान गहि खड़ग हाथ, अरि चार घातिया कर सुघात।
उपजायो केवलज्ञान भानु, आयो कुबेर हरि बच प्रमाण।।
की समोसरण रचना विचित्र, तहां खिरत भई वाणी पवित्र।
मुनि सुरनर खग तिर्यंच आय, सुन निज निज भाषा बोध पाय।।
जय वर्द्धमान अन्तिम जिनेश, पायो न अन्त तुम गुण गणेश।
तुम चार अघातीकर महान, लियो मोक्ष स्वयं सुख अचल थान।।
तब ही सुरपति बल अवधि जान, सब देवन युत बहु हर्ष ठान।
सजि निज वाहन आयो सुतीर, जहँ परमौदारिक तुम शरीर।।
निर्वाण महोत्सव कियो भूर, ले मलयागिर चन्दन कपूर।
बहु द्रव्य सुगन्धित सरस सार, तामें श्री जिनवर वपु पधार।।
निज अगनिकुमारिन मुकुट नाय, तिहँ रतननि शुचिज्वाला उठाय।
तिस सिर मांही दीनी लगाय, सो भस्म सबन मस्तक चढ़ाय।।
अति हर्ष थकी रचि दीपमाल, शुभ रतनमयी दश दिश उजाल।
पुनि गीत नृत्य बाजे बजाय, गुण गाय ध्याय सुरपति सिधाय।।
सो नाथ अबै जग में प्रत्यक्ष, नित होत दीपमाला सुलक्ष।
हे जिन तुम गुण महिमा अपार, वसु सम्यग्ज्ञानादिक सुसार।।
तुम ज्ञान मांहि तिहुँ लोक दर्व, प्रतिबिम्बत हैं चर अचर्र सर्व।
लहि आतम अनुभव परम ऋद्धि, भये वीतराग जग में प्रसिद्ध।।
है बालयती तुम सबन एम, अचरज शिव कांता वरी केम।
तुम परम शान्ति मुद्रा सु धार, किय अष्टकर्म रिपु को प्रहार।।
हम करत बीनती बार बार, कर जोर स्व मस्तक धार धार।
तुम भये भवोदधि पार पार, मोको सुवेग ही तार तार।।
अरदास दास ये पूर पूर, वसु कर्म शैल चक चूर चूर।
दुख सहन करन अब शक्ति नाहिं, गहि चरण शरण कीजै निबाह।।
पांचों बालयति तीर्थेश, तिनकी यह जयमाल विशेष।
मनवचकाय त्रियोग सम्हार, जे गावत गावत भवपार।।
ओं ह्रीं श्री पंच बालयति तीर्थंकर जिनेन्द्रभ्यो पूर्णाघ्र्य नि. स्वाहा।
ब्रह्मचर्य सो नेह धरि, रचियो पूजन ठाठा।
पांचों बाल यतीन का, कीजै नित प्रति पाठ।।
इति आशीर्वादः- शांतये त्रय शांतिधारा - परिपुष्पांजलिं क्षिपेत्
।। इति पंच बालयति तीर्थंकर पूजा समाप्तम्।।