वासुपूज्यनाथ भगवान का परिचय




पिछले

भगवान श्रेयांसनाथ

अगले

भगवान विमलनाथ

चिन्ह

भैंसा

पिता

राजा वसुपूज्य

माता

रानी जयावती

वंश

इक्ष्वाकु

वर्ण

क्षत्रिय

अवगाहना

70 धनुष (280 हाथ)[१]

देहवर्ण

लाल

आयु

7,200,000 वर्ष

वृक्ष

कदम्ब वृक्ष

प्रथम आहार

महानगर के राजा सुंदर द्वारा (खीर)

पंचकल्याणक तिथियां


गर्भ

आषा़ढ कृष्ण ६

चम्पापुर

जन्म

फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी

चम्पापुर

दीक्षा

फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी

चम्पापुर

केवलज्ञान

माघ शुक्ला २

मन्दारगिरि चम्पापुर

मोक्ष

भाद्रपद शुक्ला चतुर्दशी

मन्दारगिरि चम्पापुर

समवशरण


गणधर

श्री धर्म आदि 66

मुनि

बहत्तर लाख

गणिनी

आर्यिका सेनार्या

आर्यिका

एक लाख छह हजार

श्रावक

दो लाख

श्राविका

चार लाख

यक्ष

षण्मुख देव

यक्षी

गांधारी देवी

 

वासुपूज्यनाथ भगवान का परिचय

परिचय

पुष्करार्ध द्वीप के पूर्व मेरू की ओर सीता नदी के दक्षिण तट पर वत्सकावती नाम का देश है। उसके अतिशय प्रसिद्ध रत्नपुर नगर में पद्मोत्तर नाम का राजा राज्य करता था। किसी दिन मनोहर नाम के पर्वत पर युगन्धर जिनेन्द्र विराजमान थे। पद्मोत्तर राजा वहाँ जाकर भक्ति, स्तोत्र, पूजा आदि करके अनुपे्रक्षाओं का चिन्तवन करते हुए दीक्षित हो गया। ग्यारह अंगों का अध्ययन करके दर्शनविशुद्धि आदि भावनाओं की सम्पत्ति से तीर्थंकर नामकर्म का बन्ध कर लिया जिससे महाशुक्र विमान में महाशुक्र नामका इन्द्र हुआ।

गर्भ और जन्म

इस जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र में चम्पानगर में ‘अंग’ नाम का देश है जिसका राजा वसुपूज्य था और रानी जयावती थी। आषाढ़ कृष्ण षष्ठी के दिन रानी ने पूर्वोक्त इन्द्र को गर्भ में धारण किया और फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी के दिन पुण्यशाली पुत्र को उत्पन्न किया। इन्द्र ने जन्म उत्सव करके पुत्र का ‘वासुपूज्य‘ नाम रखा। जब कुमार काल के अठारह लाख वर्ष बीत गये, तब संसार से विरक्त होकर भगवान जगत के यथार्थस्वरूप का विचार करने लगे।

तप

तत्क्षण ही देवों के आगमन हो जाने पर देवों द्वारा निर्मित पालकी पर सवार होकर मनोहर नामक उद्यान में गये और फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी के दिन छह सौ छिहत्तर राजाओं के साथ स्वयं दीक्षित हो गये।

छद्मस्थ अवस्था का एक वर्ष बीत जाने पर भगवान ने कदम्ब वृक्ष के नीचे बैठकर माघ शुक्ल द्वितीया के दिन सायंकाल में केवलज्ञान को प्राप्त कर लिया। भगवान बहुत समय तक आर्यखंड में विहार कर चम्पानगरी में आकर एक वर्ष तक रहे। जब आयु में एक माह शेष रह गया, तब योग निरोध कर रजतमालिका नामक नदी के किनारे की भूमि पर वर्तमान चम्पापुरी नगरी में स्थित मन्दारगिरि के शिखर को सुशोभित करने वाले मनोहर उद्यान में पर्यंकासन से स्थित होकर भाद्रपद शुक्ला चतुर्दशी के दिन चौरानवे मुनियों के साथ मुक्ति को प्राप्त हुए।