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दोहा
करम शुभाशुभ कटुक को, हेय पदारथ जान।
ताहि त्याग शिवपुर बसे, 'लाल' धरे उर ध्यान ।
चैतन्य प्राप्त होते तुरत, विकलप सब मिट जाय।
परमानन्द दशा प्रगट, उस जन को हो जाय ॥१॥
चिदानन्द निज तत्व का, आदर करो बनाय ।
उसी ओर उन्मुख रहो, पर संगति तजि भाय ॥ २ ॥
स्वरूप स्थिरता करे चिन्तन बन्द कराय।
विचलत होते ही तुरत, निजका चिन्तन लाय॥३॥
नदी पार करते समय, मटका ले चिपटाय।
उसी भांति निज भाव को, निज में वास कराया ॥४॥
निज स्वभाव को भूलकर भुगते दुःख अनेक ।
एक बार निज को निरखि, सुख पावो घरि एक ॥ ५ ॥
निज के सुख को भूलकर, पर में सुख की चाय ।
विष सम जो परभाव है, उसमें सुख नहिं पाय॥ ६ ॥
राग द्वेष से भिन्न हो, आतम सुख पा जाय ।
ज्ञानधार उसकी तुरत, निज में ही रम जाय ॥७॥
अन्तर्वृत्ति सुख से भरी, बहिर्वृत्ति दुख खान ।
ऐसा भेद जमा जिसे, राग प्रीति छुटकान ॥ ८ ॥
ज्ञानानन्द स्वरूप हूं, राग न मुझको भाय।
अभिप्राय जम जाय सों, भेद ज्ञान कहलाय ॥ ९ ॥
चिंदानन्द का प्रेम हो, राग प्रेम नश जाय।
भेद ज्ञान समझो वही, अपूर्व धर्म कहलाय ॥ १० ॥
अज्ञानी को राग का, आदर रहे हमेश।
निज की महिमा ना जगी, सहता रहे कलेश ॥ ११ ॥
निशंक अनुभव है वही, बिन इन्द्री जो होय |
जड़ उखड़ी संसार की, मोक्ष तुरत ही होय ॥ १२ ॥
जो अज्ञानी ज्ञान की बातें करै विशेष |
ज्ञान परिणमन ना करै, भुगते दुःख हमेश ॥ १३ ॥
भेदज्ञान एक क्षणिक का, आनन्द अनुभव देय।
अल्पकाल में प्राप्त वो, प्राणी शिव सुख लेय ॥१४॥
ततपन को छोड़े नहीं, अतत रूप नहिं होय ।
करम नाशि शिवपुर वसै, निरमल आतम होय ॥ १५ ॥
समदृष्टी परतीत भी, गणधर सम ही होय ।
इसमें संशय है नहीं, निश्चय समझो सोय ॥१६॥
ज्ञानी करता ज्ञान का, अज्ञानी पर भाव ।
जड़ क्रिया जड़ ही करै, कहिं करता जी राव ॥ १७॥
अन्तरमुख अवलोकतां, स्व- पर बोध हो जाय।
राग प्रीति छूटे तुरत, आनन्द अनुभव आय ॥ १८ ॥
पंडित कौन ?
भेद ज्ञान किसने किया, पण्डित सांचा वोय।
शास्त्र बाचि उपदेश दे, सो पंडित नहिं होय ॥ १९ ॥
मोक्ष का कारण क्या ?
परम भाव शुद्ध योग से, संवर निर्जर होय।
कारण समझो मोक्ष का, इस बिन मुकति न होय ॥ २० ॥
मोक्ष का मार्ग कैसा है ?
मोक्ष मार्ग सुख रस भरा, दुख उसमें नहिं होय ।
तन सुखाय दुख पायकर, मोक्ष न पावे कोय ॥ २१ ॥
कर्म कैसा है ?
करम अचेतन जड़ समझि, उनको ज्ञान न होय ।
क्या बिगाड़ वो कर सके, जो ज्ञानी जन होय ॥ २२ ॥
मोक्ष मार्ग में काहे का निषेध है ?
राग द्वेष दो शत्रु हैं, आगल समझो सोय ।
जब तक ये छूटे नहीं, मोक्ष प्राप्त नहिं होय ॥ २३ ॥
शुभ राग के आश्रय से मोक्ष मार्ग क्यों नहीं होता ?
शुभ करमों के करन से, बन्धन निश्चय होय ।
इसीलिये शुभ राग से, मोक्ष मार्ग नहिं होय ॥ २४ ॥
मिथ्या दृष्टि जीव कैसा है ?
मिथ्या दृष्टी जीव को, निज पर बोध न होय ।
राग द्वेष छोड़े नहीं, जीव विकारी होय ॥ २५ ॥
सच्चा जीवन कौन जीता है ?
ज्ञानी जन का ही सदा, सांचा जीवन होय ।
मोक्ष मार्ग पर जो जो चले, अनुक्रम से शिव होय ॥ २६ ॥
मोक्षार्थी को क्या करना योग्य है ?
निज से निज में रमण कर, निज में रहते सोय।
मोक्षार्थी उस जीव को करना कछू न होय ॥ २७॥
ज्ञानमय परिणमन का प्रारम्भ कब होता है ?
चौथे गुण थानक सिरू, ज्ञान परिणमन होय ।
करम नाश होने लगा, 'लाल' मुक्ति रहा गोय॥ २८ ॥
रे ! चेतन कुछ शरम कर क्यों बन रहा अजान ।
निज महिमा को भूल कर, पर का करत गुमान ॥ २९॥
रे ! जीयरा तुझको कहूं, तेरे हित की बात।
पर संगति को छोड़ तू, जो काहे कुशलात ॥ ३० ॥
मूरख बन मत बावरे, पर को निज मति जान ।
तेरी महिमा अतुल है, उसको तू पहिचान॥३१॥
क्यों भटके तू बावरे, होकर के अज्ञान |
अपनी महिमा जानिकर, क्यों न करै कल्यान ॥ ३२ ॥
रे ! चेतन निज रूप को, तूने जाना नाय |
मनुष जनम के पान का, तो फल पाया नाय ॥३३॥
सुर नारक तिर्यंच भी कर सकते निज भान।
मानुष हो क्यों ना करे, निज आतम का ज्ञान ॥ ३४॥
भनभनाट निज भाव की, जो सुनते धरि ध्यान ।
सुख पाते वो जन तुरत, राग द्वेष विसरान॥३५॥
पर से मुखड़ा मोड़कर, निज को लेउ निहार ।
उसी ओर उन्मुख रहो, तजकर सब व्यवहार ॥ ३६॥
अनुभव रूपी दामिनी, दमकैगी ततकाल ।
उस क्षण जो सुख होयगा, करदे तुझे निहाल ॥३७॥
गहरी डुबकी मारिकर, निज में जाय समाय।
विसरे तो सुख होयगा, बिन बिसरें सुख पाय | ॥ ३८ ॥
सम्यक दरशन होत ही, आतम अनुभव होय।
अवलम्बन जो राग का, उसको फिर नहिं होय ॥ ३९ ॥
विकलप से तू पार हो, चेतन का धरि व्यान।
सम्यक दर्शन प्राप्त कर 'लाल' करो कल्यान ॥४०॥
समाप्तः
'लाल' तनी यह वीनती, ज्ञानी जन सुनि लेउ ।
भूल चूक कछु होय तो, आप शुद्ध कर लेउ ||