🍍आगम स्वाध्याय भाग -१४४
शास्त्र:-पद्मनंदीपंञ्चविंशतिका भाग-८९
श्रावकाचारअधिकार-
समर्थोऽपि न यो दद्याद्यतीनां दानमादरात् ।
छिनत्ति स स्वयं मूढ: परत्र सुखमात्मन: ।।३४।।
अर्थ —समर्थ होकर भी जो पुरूष आदर पूर्वक यतीश्वरों को दान नहीं देता वह मूढ़ पुरूष आगामी जन्म में होने वाले अपने सुख को स्वयं नाश करता है।
भावार्थ — जो मनुष्य एक समय भी यतीश्वरों को नवधा भक्ति से दान देता है उसको पर भव में नाना प्रकार के स्वर्गादि सुखों की प्राप्ति होती है किन्तु जो पुरूष समर्थ होकर भी आदरपूर्वक यतीश्वरों को दान नहीं देता वह स्वर्गादि सुख के बदले नाना प्रकार के नरकों के दु:खों को भोगता है इसलिये समर्थ गृहस्थों को तो अवश्य ही दान देना चाहिये।।३४।।
दृषन्नावा समो ज्ञेयो दानहीनो गृहाश्रम: ।
मदारूढ़ो भवाम्भोधौ मज्जत्येव न संशय:।।३५।।
अर्थ — जो गृहस्थाश्रम दान कर रहित है वह पत्थर की नाव के समान है तथा उस गृहस्थाश्रम रूपी पत्थर की नाव में बैठने वाला मनुष्य नियम से संसाररूपी समुद्र में डूबता है।
भावार्थ — जो मनुष्य पाषाण से बनी हुई नाव पर चढकर समुद्र को तरना चाहता है वह जिस प्रकार नियम से समुद्र में डूबता है उसी प्रकार जिस गृहस्थाश्रम में यतीश्वरों के लिये दान नहीं दिया जाता उस गृहस्थाश्रम में रहने वाले गृहस्थ कदापि संसार को नाश कर मोक्ष नहीं पा सकते इसलिये संसार से तरने की अभिलाषा करने वाले भव्य जीवों को अवश्य ही यतीश्वरों को दान देना चाहिये।।३५।।
स्वमतस्थेष वात्सल्यं स्वशक्तया ये न कुर्वते।
वहुपापावृतात्मानस्ते धर्मस्य पराङ् मुखा:।।३६।।
अर्थ — जो मनुष्य साधर्मी सज्जनों में शक्ति के अनुसार प्रीति नहीं करते उन मनुष्यों की आत्मा प्रबल पाप से ढकी हुई है और वे धर्म से पराङ् मुख है अर्थात् धर्म के अभिलाषी नहीं है इसलिये भव्यजीवों को साधर्मी मनुष्यों के साथ अवश्य प्रीति करनी चाहिये।।३६।।
येषां जिनोपदेशेन कारूण्यामृतपूरिते।
चित्ते जीवदया नास्ति तेषां धर्म: कुतोभवेत् ।।३७।।
अर्थ — जिनेन्द्र भगवान के उपदेश से करूणा से पूरित भी जिन मनुष्यों के चित्तों में दया नहीं है उन मनुष्यों के धर्म कदापि नहीं हो सकता।
भावार्थ — समस्तजीवों पर दयाभाव रखना इसीका नाम धर्म है किन्तु जिनेन्द्र भगवान के उपदेश से जिन मनुष्यों के चित्त करूणा से भरे हुए हैं ऐसे मनुष्यों के भी अंतरंग में यदि दया नहीं है तो वे मनुष्य , धर्म के पात्र कदापि नहीं हो सकते इसलिये उत्तम पुरूषों को जीवों पर अवश्य दया करनी चाहिये।।३७।।
मूलं धर्मतरोराद्या व्रतानां धाम सम्पदाम् ।
गुणानां निधिरित्यङ्गिदया कार्या विवेकिभि: ।।३८।।
अर्थ — धर्मरूपी वृक्ष की जड़ तथा समस्त व्रतों में मुख्य और सर्व संपदाओं का स्थान तथा गुणों का खजाना यह दया है इसलिये विवेकी मनुष्यों को यह दया अवश्य करनी चाहिये।
भावार्थ — जिस प्रकार बिना जड़ के वृक्ष नहीं ठहर सकता उसी प्रकार बिना दया के धर्म नहीं हो सकता इस लिये यह दया धर्मरूपी वृक्ष की जड़ है तथा समस्त अणुव्रत तथा महाव्रतों में यह मुख्य है क्योंकि बिना दया के पालन किये हुए अणुव्रत तथा महाव्रत सर्वनिष्फल है और इसी दया से बड़ी—२ इन्द्र चक्रवर्ती आदि की संपदाओं की प्राप्ति होती है इसलिये यह दया संपदाआेंं का स्थान है और इसी दया से समस्त गुणों की प्राप्ति होती है इसलिये यह दया गुणों का खजाना है अत: जो मनुष्य हित तथा अहित जानने वाले हैं उनको ऐसी उत्तम दया प्राणियों में अवश्य करनी चाहिये किंतु दया से पराङ्मुख कदापि नहीं रहना चाहिये।।३८।।
सर्वे जीवदयाधारा गुणास्तिष्ठन्ति मानुषे।
सूत्राधारा: प्रसूनानां हाराणां च सराइव ।।३९।।
अर्थ — जिस प्रकार पूâलों के हारों की लड़ी सूत्रों के आश्रय से रहती हैं उसी प्रकार मनुष्य में समस्तगुण जीव दया के आधार से रहते हैं इसलिये समस्तगुणों की स्थिति के अभिलाषी भव्यजीवों को यह दया अवश्य करनी चाहिये।।३९।।
यतीनां श्रावकाणां च व्रतानि सकलान्यपि ।
एकाऽहिंसाप्रसिध्द्यर्थं कथितानि जिनेश्वरै:।।४०।।
अर्थ —जितने भर मुनियों के व्रत तथा श्रावकों के व्रत सर्वज्ञ देव ने कहे हैं वे सर्व अहिंसा की प्रसिद्धि के लिये ही कहे हैं किन्तु हिंसा का पोषण करने वाला उनमें कोई भी व्रत नहीं कहा गया है इस लिये व्रतीमनुष्यों को समस्त प्राणियों पर दया ही रखनी चाहिये।।४०।।
✋शुभाशीर्वाद