।। दर्शनपाठः।।(पं. बुधजनजी कृत)
।। दर्शनपाठः।।(पं. बुधजनजी कृत)
।। दर्शनपाठः।।(पं. बुधजनजी कृत)
तुम निरखत मुझको मिली, मेरी सम्पति आज।
कहा चक्रवति-संपदा कहा स्वर्ग-साम्राज्य।।
तुम वन्दत जिनदेवजी, नित नव मंगल होय।
विघ्न कोटि ततछिन टरैं, लहहिं सुजस सब लोय।।
तुम जाने बिन नाथजी, एक स्वास के मांहि।
जन्म-मरण अठदस किये, साता पाई नाहिं।।
आप बिना पूजत लहे, दुःख नरक के बीच।
भूख प्यास पशुगति सही, कर्यो निरादर नीच।।
नाम उचारत सुख लहै, दर्शनसों अघ जाय।
पूजत पावै देव पद, ऐसे हैं जिनराय।।
वंदत हूँ जिनराज मैं, धर उर समताभाव।
तनधन जन-जगजालतैं धर विरागता भाव।।
सुनो अरज हे नाथ जी, त्रिभुवन के आधार।
दुष्ट कर्म का नाश-कर, वेगि करो उद्धार।।
जाचत हूँ मैं आपसों, मेरे जियके माहिं।
रागद्वेष की कल्पना, क्यो हू उपजै नाहिं।।
अति अद्भुत प्रभुता लखी, वीतरागता माहिं।
विमुख होहिं ते दुःख लहैं, सन्मुख सुखी लखाहिं।।
कलमल कोटिकनहिं रहैं, सन्मुख सुखी लखाहिं।।
कलमल कोटिक नहिं रहैं, निरखत ही जिनदेव।
ज्यों रवि ऊगत जगत में, हरै तिमिर स्वयमेव।
परमाणु पद्गलतणी, परमातम संजोग।
भई पूज्य सब लोक में, हरै जन्म का रोग।।
कोटि जन्म में कर्म जो, बांधे हुते अनन्त।
ते तुम छबी विलोकते, छिन में हो हैं अन्त।।
आन नृपति किरपा करैं, तब कछु दे धन धान।
तुम प्रभु अपने भक्त को, करल्यो आप समान।।
यंत्र मंत्र मणि औषधी, विषहर राखत प्रान।
त्यो जिनछबि सब भ्रम हरै करैं सर्व परधान।।
त्रिभुवनपति हो ताहि तै, छत्र विराजैं तीन।
सुरपति नाग नरेशपद, रहें चरन आधीन।।
भवि निरखत भव आपने, तुव भामण्डल बीच।
भ्रम मेटैं समता गहै, नाहिं सहै गति नीच।।
दोइ ओर ढोरत अमर, चैंसठ चमर सफेद।
निरखत भविजन का हरैं, भव अनेक का खेद।।
तरु अशोक तुव हरत है, भवि-जीवनका शोक।
आकुलता कुल मेटि कें, करैं निराकुल लोक।।
अन्तर बाहिर परिगहन, त्यागा सकल समाज।
सिंहासन पर रहत हैं, अन्तरीक्ष जिनराज।।
जीत भई रिपु मोहतैं, यश सूचत है तास।
देव दुन्दुभिन के सदा, बाजे बजैं अकाश।।
बिन अक्षर इच्छा रहित, रुचिर दिव्यध्वनि होय।।
सुर नर पशु समझैं सबै, संशय रहै न कोय।।
बरसत सुरतरु के कुसुम, गुंजत अलि चहुँ ओर।
फैलत सुजस सुवासना, हरषत भवि सब ठौर।।
समुद्र बाघ अरु रोग अहि, अर्गल बंध संग्राम।
विघ्न विषम सबही टरैं, सुमरत ही जिननाम।।
शिरीपाल, चंडाल पुनि, अंजन, भीलकुमार।
हाथी हरि अरि सब तरे, आज हमारी बार।।
‘बुधजन’ यह विनती करैं, हाथ जोड़ शिर नाय।
जबलौं शिव नहिं होय तुव-भक्ति हृदय अधिकाय।।
।। इति श्री बुधजन कवि कृत् दर्शनपाठः।।