ठाणजुदाण अधम्मो, पुग्गलजीवाण ठाणसहयारी।
छाया जह पहियाणं, गच्छंता णेव सो धरई।।१८।।
पुद्गल औ जीव ठहरते हैं, उनको जो होता सहकारी।
वह द्रव्य अधर्म कहलाता है, नहिं बल से ठहराता भारी।।
जैसे चलते पथिकों को, तरु-छाया नहिं रोके बलपूर्वक।
रुकते को मात्र सहायक है, वैसे यह द्रव्य सहायक बस।।१८।।
अर्थ - ठहरते हुए पुद्गल और जीवों को ठहरने में जो सहकारी है वह अधर्म द्रव्य है जैसे छाया पथिकों को ठहरने में सहायक है किन्तु यह द्रव्य चलते हुए को रोकता नहीं है।
प्रश्न - अधर्म द्रव्य किसे कहते हैं?
उत्तर - जो जीव और पुद्गलों को ठहरने में सहायक होता है उसे अधर्म द्रव्य कहते हैं।
प्रश्न - धर्म द्रव्य और अधर्म द्रव्य दोनों कहाँ रहते हैं?
उत्तर - ये दोनों द्रव्य सम्पूर्ण लोकाकाश में रहते हैं।
प्रश्न - अधर्म द्रव्य मूत्र्तिक है या अमूत्र्तिक ?
उत्तर - अधर्म द्रव्य अमूत्र्तिक है-मूत्र्तिक नहीं।
प्रश्न - धर्म और अधर्म द्रव्य में समान शक्ति है-या न्यूनाधिक ?
उत्तर - दोनों में समान शक्ति है। दोनों में समान शक्ति होते हुए भी परस्पर एक-दूसरे के विरोधी नहीं हैं।