श्री श्रयांसनाथ जिनपूजा
छन्द रूपमाला तथा गीता
विमल नृप विमला सुअन, श्रेयांसनाथ जिनन्द,
सिंघपुर जनमे सकल हरि, पूजि धरि आनन्द।
भय बन्धध्वंसन हेत लखि मैं, शरन आयो येव,
थापौं जुग उर कमल में, जजन कारन देव।।
ओं ह्रीं श्री श्रेयांसनाथजिनेन्द्र! अत्रावतार अवतर संवौषट् आह्नाननम्।
ओं ह्रीं श्री श्रेयांसनाथजिनेन्द्र! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनम्।
ओं ह्रीं श्री श्रेयांसनाथजिनेन्द्र! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधिकरणम्।
(छन्द गीता तथा हरिगीता, मात्रा 28)
कल धौत वरन उतंग हिम गिरि पदम द्रहतैं आवई।
सुर सरित प्रासुक उदक सों भरि भंृग धार चढ़ावई।।
श्रेयांसनाथ जिनन्द त्रिभुवन वन्द आनन्द कन्द हैं।
दुख दन्द फन्द निकन्द पूरणचंद ज्योति अमन्द हैं।
ओं ह्रीं श्री श्रेयांसनाथजिनेन्द्र जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं नि. स्वाहा।
गोशीर वर करपूर कुंकुम नीर संग घसों सही।
भवताप भंजन हेतु भवदधि सेत चरण जजों सही।। श्रेयांसनाथ.
ओं ह्रीं श्री श्रेयांसनाथजिनेन्द्र भवतापविनाशनाय चन्दनं नि. स्वाहा।
सित शालि शशि दुति शुक्ति सुन्दर मुक्ति को उनगार हैं।
भरि थाल पुंज धरंत पदतर अखयपद करतार हैं। श्रेयांसनाथ.
ओं ह्रीं श्री श्रेयांसनाथजिनेन्द्र अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् नि. स्वाहा।
सद सुमन सुमन समान पावन, मलयतैं अलि झंकरै।
पद कमल तर धरतैं तुरति सौं मदन को मद क्षय करैं।। श्रेयांसनाथ.
ओं ह्रीं श्री श्रेयांसनाथजिनेन्द्र कामबाणविनाशनाय पुष्पं नि. स्वाहा।
यह परम मोदक आदि सरस संवारि सुन्दर चरु लियो।
तुम वेदनी मद हरन लखि, चरचों चरन शुचि कर हियो।। श्रेयांसनाथ.
ओं ह्रीं श्री श्रेयांसनाथजिनेन्द्र क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं नि. स्वाहा।
संशय विमोह विभरम तम भंजन, दिनंद समान हो।
तातैं चरण ढिग दीप जोऊँ, देहु अविचल ज्ञान हो।। श्रेयांसनाथ.
ओं ह्रीं श्री श्रेयांसनाथजिनेन्द्र मोहान्धकारविनाशनाय दीपं नि. स्वाहा।
वर अगर तगर कपूर चूर सुगन्ध भूर बनाइया।
दहि अमर जिह विषैं चरण ढिग करम भरम जराइया।। श्रेयांसनाथ.
ओं ह्रीं श्री श्रेयांसनाथजिनेन्द्र अष्टकर्मदहनाय धूपं नि. स्वाहा।
सुर लोक अरु नर लोक के फल पक्व मधुर हावनें।
लै भगति सहित जजौं चरन शिव परम पावन पावने।। श्रेयांसनाथ.
ओं ह्रीं श्री श्रेयांसनाथजिनेन्द्र मोक्षफलप्राप्तये फलं नि. स्वाहा।
जल मलय तंदुल सुमन चरु अरु दीप धूप फलावली।
करि अर्घ चरचों शरण जुग प्रभु मोहि तार उतावली।।
श्रेयांसनाथ जिनन्द त्रिभुवन वन्द आनन्द कन्द हैं।
दुख दन्द फन्द निकन्द पूरणचंद जोति अमन्द हैं।।
ओं ह्रीं श्री श्रेयांसनाथजिनेन्द्र अनघ्र्यपदप्राप्तये अघ्र्य नि. स्वाहा।
पंचकल्याणक
छन्द आर्या
पुष्पोत्तर तजि आये, विमला उर जेठ कृष्ण आठैं को।
सुर नर मंगल गाये, मैं पूजों नासि कर्म काठैं को।।
ओं ह्रीं ज्येष्ठकृष्णाष्टम्यां गर्भमंगलमंडिताय श्री श्रेयांसनाथ-जिनेन्द्राय अघ्र्य निर्वपामीति स्वाहा।
जनमें फागुन कारी, एकादशि तीन ज्ञान दुगधारी।
इक्ष्वाकु वंशा तारी, मैं पूजों घोर विघ्न सुख टारी।।
ओं ह्रीं फाल्गुनकृष्णैकादश्यां जन्ममंगलमंडिताय श्री श्रेयांसनाथ-जिनेन्द्राय अघ्र्य निर्वपामीति स्वाहा।
भव तन भोग असारा, लख त्यागो धीर शुद्ध तप धारा।
फागुन वदि इग्यारा, मैं पूजों पाद अष्ट प्रकारा।।
ओं ह्रीं फाल्गुनकृष्णैकादश्यां निःक्रमणमहोत्सवमंडिताय श्री श्रेयांसनाथ-जिनेन्द्राय अघ्र्य निर्वपामीति स्वाहा।
केवलज्ञान सु जानन, माघ वदी पूर्ण तिथि को देवा।
चतुरानन भव भानन, वंदौ ध्यावौं करों सुपद सेवा।।
आंें ह्रीं माघकृष्णामालवस्यायां केवलज्ञानमंगलमंडिताय श्री श्रेयांसनाथ-जिनेन्द्राय अघ्र्य निर्वपामीति स्वाहा।
गिरि समेदतैं पायो, शिव थल तिथि पूर्णमासी सावन को।
कुलिशायुध गुन गायो, मैं पूजों आप निकट आवन को।।
ओं ह्रीं श्रावणशुक्लापूर्णिमायां मोक्षमंगलमंडिताय श्री श्रेयांसनाथ-जिनेन्द्राय अघ्र्य निर्वपामीति स्वाहा।
जाप मंत्र (पुष्प से 9, 27 या 108 बार निम्न दो मंत्रों में से किसी एक मंत्र का जाप करें)
1. ओं ह्रीं सरस्वती, लक्ष्मी, सर्वाण्यहयक्ष, सनत्कुमारयक्ष, अष्टप्रातिहार्य, अष्टमंगलद्रव्य, कुमारयक्ष, गौरीयक्षी, पंचदशतिथिदेवता, नवग्रहदेवता, पंचक्षेत्रपालादि सचित्ताचित्तमिश्र परिकरसहिताय शतेन्द्र पूजिताय श्री श्रेयांसनाथ जिनेन्द्राय नमः मम ऋद्धिं वृद्धिं सौख्यं कुरु कुरु स्वाहा।
2. ओं ह्रीं कुमारयक्ष, गौरीयक्षी आदि सचित्त अचित्त मिश्र परिकरसहिताय श्रीश्रेयांसनाथजिनेन्द्राय नमः मम ऋद्धिं वृद्धिं सौख्यं कुरु कुरु स्वाहा।
जयमाला
(छन्द लोलतरंग, वर्ण 12)
शोभित तुंग शरीर सु जानो, पांच असी शुभलच्छन मानों।
कंचन वर्ण अनुपम सोहै, देखत रूप सुरासुर मोहै।।
पद्धरी छन्द
जै जै श्रेयांस जिन गुण गरिष्ठ, तुम पद जुग दायक इष्ट मिष्ट।
जै शिष्ट शिरोमणि जगतपाल, जै भवि सरोज गन प्रातकाल।।
जै पंच महाव्रत गज सवार, लै त्याग भाव दल बल सु लार।
जै धीरज को दलपति बनाय, सत्ता छिति महँ रण को मचाय।।
धरि रतन तीन तिहुं शक्ति हाथ, दश धरम कवच तप टोप माथ।
जै शुकल ध्यान कर खड़ग धार, ललकारे आठों अरि प्रचार।।
तामैं सब को पति मोह चंड, ताको तत छिन करि सहस खंड।
फिर ज्ञान दरश प्रत्यूह हान, नित गुण गढ़ लीनौं अचल थान।।
शुचि ज्ञान दरश सुख वीर्य सार, हुई समवसरण रचना अपार।
तित भाषे तत्त्व अनेक धार, जाको सुनि भव्य हिये विचार।।
निज रूप लह्यो आनन्दकार, जाको भ्रम दूर करन को अति उदार।
पुनि नय प्रमाण निक्षेप सार, दरसायो करि संशय प्रहार।।
तामैं प्रमान जुग भेद एवं परतच्छ परोछ रजै सुमेव।
तामैं प्रतच्छ के भेद दोय, पहिलो है संविवहार सोय।।
ताके जुग भेद विराजमान, मति श्रुति सोहैं सुन्दर महान।
है परमारथ दुतियो प्रतच्छ, है भेद जुगम तामाहिं दच्छ।।
इक एकदेश इक सर्व देश, इकदेश उभै विधि सहित देश।
वर अवधि सु मनपरजै विचार, है सकल देश केवल अपार।।
चर अचर लखत जुगपत प्रतच्छ, निरद्वन्द्व रहित परपंच पक्ष।
पुनि है परोच्छ मह पंचभेद, स्मृति अरु प्रत्यभिज्ञान वेद।।
पुनि तरक और अनुमान मान, आगमजुत पन अब नय बखान।
नैगम संग्रह व्यवहार गूढ़, ऋजुसूत्र शब्द अरु समभिरूढ़ं।।
पुनि एवंभूत सु सप्त एव, नय कहे जिनेसुर गुन जु तेव।
पुनि द्रव्य क्षेत्र अर काल भाव, निच्छेप चार विधि इमि जनाव।।
इनको समस्त भाष्यो विशेष, जा समुझत भ्रम नहिं रहत लेश।
निज ज्ञान हेत ये मूल मंत्र, तुम भाषे श्री जिनवर सु तंत्र।।
इत्यादि तत्त्व उपदेश देय, हनि शेष करम निर्वाण लेय।
निरवान जजत वसु दरब ईश, ‘वृन्दावन’ नित प्रति नमत शीश।।
घत्ता
श्रेयांस जिनेशा सुगुन महेशा, वज्र धरेशा ध्यावत हैं।
हम निशिदिन वंदै, पाप निकन्दैं, ज्यों सहजानन्द पावत हैं।।
ओं ह्रीं श्री श्रेयांसनाथजिनेन्द्राय पूर्णाघ्र्य निर्वपामीति स्वाहा।
सोरठा
जो पूजैं मन लाय, श्रेयनाथ पदपù को।
पावैं इष्ट अघाय, अनुक्रमसों शिवतिय वरे।।
।। इत्याशीर्वाद:- शांतये त्रय शांतिधारा - परिपुष्पांजिलं क्षिपेत्।।
कुमारयक्ष का अर्घ
श्रेयांसप्रभु के शासन, रक्षक श्री कुमार आह्नानन है।
आओ तिष्ठो पास हमारे, करते यही निवेदन है।
स्वीकारो स्वीकारो मेरा अर्घ देव तुम स्वीकारो।
जिनवर के मुझ श्रद्धानी को ले अपने संग में तारो।।
ओं आं क्रौं ह्रीं कुमारयक्षेभ्यो जलादि अघ्र्य समर्पयामीति स्वाहा।
गौरी यक्षी का अर्घ
श्रेयांसप्रभु की शासन देवी गौरी को आह्नानन है।
आओ तिष्ठो पास हमारे, करते यही निवेदन है।
स्वीकारो स्वीकारो मेरा अर्घ देव तुम स्वीकारो।
जिनवर के मुझ श्रद्धानी को ले अपने संग में तारो।।
ओं आं क्रौं ह्रीं गौरीयक्षिदेव्यैं जलादि अघ्र्य समर्पयामीति स्वाहा।
क्षेत्रपालजी का अर्घ
श्रेयांसप्रभु के क्षेत्रपालजी सुनो सुनो आह्नानन है।
आओ तिष्ठो पास हमारे, करते यही निवेदन है।
स्वीकारो स्वीकारो मेरा अर्घ देव तुम स्वीकारो।
जिनवर के मुझ श्रद्धानी को ले अपने संग में तारो।।
ओं आं क्रौं ह्रीं अत्रस्थ श्रेयांसजिनस्य क्षेत्रपाल, भूमिपाल आदि सचित्त अचित्त मिश्र देवतेभ्यो जलादि अघ्र्य समर्पयामीति स्वाहा।
।। इत्याशीर्वादः परिपुष्पांजलिं क्षिपेत्।।