श्रीभूति पुरोहित की कथा ( चोरी पाप का फल )
श्रीभूति पुरोहित की कथा ( चोरी पाप का फल )
ब) श्रीभूति पुरोहित की कथा ( चोरी पाप का फल )
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किसी समय सिंहपुर नामक नगर में राजा सिंहसेन राज्य करते थे, उनकी रानी का नाम रामदत्ता था । राजा धर्मपरायण और बुद्धिमान थे । रानी भी चतुर थी । राजा के राजपुरोहित का नाम श्रीभूति था, वह था तो लोभी और लोगों को ठगने वाला, परंतु मायचारी से उसने अपना नाम सत्यघोष 1 प्रसिद्ध करवा रखा था और इसी कारण चारों ओर उसकी ख्याति थी कि वह कभी झूठ नहीं बोलता । लोग इसकी बातों पर विश्वास करते थे
एक बार उसकी ख्याति को सुनकर पद्मखंडपुर निवासी एक व्यापारी समुद्रदत्त ने इसे अपने अत्यंत पांच कीमती रत्न रखने को दिए तथा स्वयं व्यापार करने के लिए विदेश चला गया । वापिस आते समय समुद्रदत्त का जहाज पानी में डूब गया परंतु समुद्रदत्त किसी तरह बचकर • वापिस आ गया और उसने श्रीभूति से अपने पांच रत्न वापिस मांगे । श्रीभूति
के मन में उन रत्नों को लेकर पहले ही लोभ उत्पन्न हो चुका था। उसने समुद्रदत्त को यह कहकर रत्न देने से मना कर दिया कि उसने उसके पास कोई रत्न नहीं रखवाये थे और वह असत्य बोल रहा है। नगर जनों ने भी श्रीभूति की बातों पर विश्वास किया । श्रीभूति ने संपूर्ण नगर में यह प्रचारित करवा दिया कि जहाज डूब जाने व दरिद्रता के कारण समुद्रदत्त पागल हो
गया है और पागलपन में वह कुछ भी चिल्लाता रहता है। समुद्रदत्त सारे नगर में घूम-घूमकर एक ही बात कहता था कि श्रीभूति ने मेरे पांच रत्न ले ● लिए हैं, परंतु कोई उसकी बातों पर विश्वास नहीं करता था, वह रोज रात को राजा के महल के पीछे स्थित पेड़ पर बैठकर सारी रात यह बात चिल्लाता रहता था ।
भर भी न खा सका, तब उसने मल्ल के मुक्के खाना स्वीकार किया, परंतु बारह मुक्के पड़ते ही वह अचेत हो गया और उसके प्राण पखेरू उड़ गए । तीव्र आर्तध्यान पूर्वक मरण को प्राप्त होकर वह राजा के कोषालय में ही आगन्धन नामक महाविषधर सर्प हुआ, उसके पश्चात मर कर वह दुर्गति में चला गया । उसे अपनी करनी का पल मिला ।
शिक्षा- कभी भी न तो किसी की वस्तु चोरी करने का भाव करना चाहिए और न ही असत्य बोलने का परिणाम रखना चाहिए । इन दोनों ही पापों का फल अत्यंत खोटा होता है ।