श्री महावीर स्वामी विधान
श्री अर्हंत पूजा
Mahaveer Swami Puja
स्थापना—गीता छंद
अरिहंत प्रभु ने घातिया को घात निज सुख पा लिया।
छ्यालीस गुण के नाथ अठरह दोष का सब क्षय किया।।
शत इंद्र नित पूजें उन्हें गणधर मुनी वंदन करें।
हम भी प्रभो! तुम अर्चना के हेतु अभिनन्दन करें।।१।।
ॐ ह्रीं अर्हन् नम: हे अर्हत्परमेष्ठिन्! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं अर्हन् नम: हे अर्हत्परमेष्ठिन्! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं अर्हन् नम: हे अर्हत्परमेष्ठिन्! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
—बसन्ततिलका छंद—
श्रीमज्जिनेंद्र पद में जलधार देऊं।
आतंक पंक जग का सब दूर होवे।।
इच्छानुसार फलदायक कल्पतरू ये।
पूजा जिनेन्द्रप्रभु की त्रय ताप नाशे।।१।।
ॐ ह्रीं अर्हन् नम: परमेष्ठिभ्य: स्वाहा। (जलं निर्वपामीति स्वाहा।)
काश्मीरि केशर सुचंदन को घिसाउँâ।
चर्चूं जिनेन्द्र पदपंकज में रुची से।।
संसार के सकल ताप विनाश करती।
पूजा जिनेन्द्र प्रभु की सब सौख्य देती।।२।।
ॐ ह्रीं अर्हन् नम: परमात्मकेभ्य: चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
जो वुंâदपुष्प कलियों सम दीखते हैं।
धोये सु तंदुल लिये भर थाल में हैं।।
अर्हंत सन्मुख रखूँ बहु पुंज नीके।
पाथेय मोक्षपथ में जन के लिये हो।।३।।
ॐ ह्रीं अर्हन् नम: अनादिनिधनेभ्य: अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
मल्ली गुलाब वर पुष्प सुगंधि करते।
अर्हंत के चरण में रुचि से चढ़ाउँâ।।
पापान्धवूâप मधि डूब रहे जनों को।
उद्धार हेतु जिनपूजन ही जगत् में।।४।।
ॐ ह्रीं अर्हन् नम: सर्वनृसुरा सुर पूजितेभ्य: पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
शालीय ओदन सुगंधित भोज्यवस्तू।
पीयूष तुल्य चरु लेकर थाल भरके।।
अर्हंत सन्मुख चढ़ा क्षुध व्याधि नाशूँ।
तृप्ती अनंत जिनपूजन से मिलेगी।।५।।
ॐ ह्रीं अर्हन् नम: अनंतज्ञानेभ्य: नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो चित्त का तमसमूह विनाश करके।
त्रैलोक्यगेह वर दीपक दीप ज्योति।।
ले दीप आरति करूँ वरज्ञानज्योति।
पाउँâ अनंत निजज्ञान विकास करके।।६।।
ॐ ह्रीं अर्हन् नम: अनंतदर्शनेभ्य: दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
जो धूप सुन्दर सुगंध बिखेरती है।
अग्नी विषे जलत धूम्र उड़ावती है।।
खेउँâ दशांगवर धूप जिनेन्द्र आगे।
संपूर्ण पाप जलते वर सौख्य होगा।।७।।
ॐ ह्रीं अर्हन् नम: अनंत वीर्येभ्य: धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
ये कल्पवृक्ष फल सम अति मिष्ट ताजे।
अमृत समान रस से परिपूर्ण दीखें।।
पूजा करूँ फल चढ़ाकर आपकी मैं।
स्वात्मैक सिद्धि फल प्राप्त करूँ इसी से।।८।।
ॐ ह्रीं अर्हन् नम: अनंत सौख्येभ्य: फलं निर्वपामीति स्वाहा।
नीरादि आठ वर द्रव्य संजोय करके।
घंटा ध्वजा चंवर छत्र सुदर्पणादी।।
अतिशय सुरूप, सुरभित तनु हैं, शुभ लक्षण सहस आठ सोहें।
अतुलित बल प्रियहित वचन प्रभो, ये दश अतिशय जन मन मोहें।।
केवल रवि प्रगटित होते ही, दश अतिशय अद्भुत ही मानों।
चारों दिश इक-इक योजन तक, सुभिक्ष रहे यह सरधानो।।२।।
हो गगन गमन, नहिं प्राणीवध, नहिं भोजन नहिं उपसर्ग तुम्हें।
चउमुख दीखें सब विद्यापति, नहिं छाया नहिं टिमकार तुम्हें।।
नहिं नख औ केश बढ़े प्रभु के, ये दश अतिशय सुखकारी हैं।
सुरकृत चौदह अतिशय मनहर, जो भव्यों को हितकारी हैं।।३।।
सर्वार्ध मागधीया भाषा, सब प्राणी मैत्री भाव धरें।
सब ऋतु के फल औ पूâल खिलें, दर्पणवत् भूरत्नाभ धरें।।
अनुवूâल सुगंधित पवन चले, सब जन मन परमानंद भरें।
रजवंâटक विरहित भूमि स्वच्छ, गंधोदक वृष्टी देव करें।।४।।
प्रभु पद तल कमल खिलें सुन्दर, शाली आदिक बहु धान्य फलें।
निर्मल आकाश दिशा निर्मल, सुरगण मिल जय जयकार करें।।
अरिहंत देव का श्रीविहार, वर धर्मचक्र चलता आगे।
वसु मंगल द्रव्य रहें आगे, यह विभव मिला जग के त्यागे।।५।।
तरुवर अशोक सुरपुष्प वृष्टि, दिव्यध्वनि, चौंसठ चमर कहें।
सिंहासन भामंडल सुरकृत, दुंदुभि छत्रत्रय शोभ रहें।।
ये प्रातिहार्य हैं आठ कहे, औ दर्शन ज्ञान सौख्य वीरज।
ये चार अनंत चतुष्टय हैं, सब मिलकर छ्यालिस गुण कीरत।।६।।
क्षुध तृषा जन्म मरणादि दोष, अठदश विरहित निर्दोष हुए।
चउ घाति घात नवलब्धि पाय, सर्वज्ञ प्रभू सुखपोष हुए।।
द्वादशगण के भवि असंख्यात, तुम धुनि सुन हर्षित होते हैं।
सम्यक्त्व सलिल को पाकर के, भव भव के कलिमल धोते हैं।।७।।
मैं भी भवदु:ख से घबड़ा कर, अब आप शरण में आया हूँ।
सम्यक्त्व रतन नहिं लुट जावे, बस यही प्रार्थना लाया हूँ।।
संयम की हो पूर्ती भगवन्! औ मरण समाधी पूर्वक हो।
हो केवल ‘ज्ञानमती’ सिद्धी, जो सर्व गुणों की पूरक हो।।८।।
ॐ ह्रीं णमो अरिहंताणं अर्हत्परमेष्ठिभ्य: जयमाला महाघ्र्यं....।
शांतये शांतिधारा, पुष्पांजलि:।
-दोहा-
मोह अरी को हन हुए, त्रिभुवन पूजा योग्य।
नमो नमो अरिहंत को, पाऊँ सौख्य मनोज्ञ।।१।।
।। इत्याशीर्वाद:।।
श्री महावीर स्वामी विधान - पूजा नं. २
पूजा नं. २
श्री महावीर जिनपूजा
Mahaveer Swami Puja
(तर्ज-तुमसे लागी लगन......)
आपके श्रीचरण, हम करें नित नमन, शरण दीजे।
नाथ! मुझपे कृपा दृष्टि कीजे।।टेक.।।
वीर सन्मति महावीर भगवन् !
बालयति हे अतिवीर! श्रीमन्!
आप पूजा करें, शुद्ध समकित धरें, शक्ति दीजे।
नाथ! मुझपे कृपा दृष्टि कीजे।।१।।
ॐ ह्रीं श्री महावीर तीर्थंकर! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं श्री महावीर तीर्थंकर! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनं।
ॐ ह्रीं श्री महावीर तीर्थंकर! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
-अष्टक-
(तर्ज-चंदन सा बदन.......)
-शंभु छंद-
त्रिशलानंदन, शत शत वंदन, शत शत वंदन तव चरणों में।
हम भक्तिभाव से अंजलि कर, प्रभु शीश झुकाते चरणों में।।
गंगानदि का शुचि जल लेकर, तुम चरण चढ़ाने आये हैं।
भव भव का कलिमल धोने को,श्रद्धा से अति हरषाये हैं।।
हे वीरप्रभो! महावीर प्रभो! त्रयधारा दें तव चरणों में।।
त्रिशलानंदन..........।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीमहावीरतीर्थंकराय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
त्रिशलानंदन, शत शत वंदन, शत शत वंदन तव चरणों में।
हम भक्तिभाव से अंजलि कर, प्रभु शीश झुकाते चरणों में।।
हरिचंदन वुंâकुम गंध लिये, जिनचरण चढ़ाने आये हैं।
मोहारिताप संतप्त हृदय, प्रभु शीतल करने आये हैं।।
हे वीरप्रभो! चंदन लेकर, चर्चन करते तव चरणों में।।
त्रिशलानंदन.........।।२।।
ॐ ह्रीं श्रीमहावीर तीर्थंकराय संसार ताप विनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
त्रिशलानंदन, शत शत वंदन, शत शत वंदन तव चरणों में।
हम भक्तिभाव से अंजलि कर, प्रभु शीश झुकाते चरणों में।।
क्षीराम्बुधि पेâन सदृश उज्ज्वल, अक्षत धोकर ले आये हैं।
क्षय विरहित अक्षय सुख हेतू, प्रभु पुंज चढ़ाने आये हैं।
हे वीरप्रभो! हम पुंज चढ़ा, अर्चन करते तव चरणों में।।
त्रिशलानंदन..........।।३।।
ॐ ह्रीं श्रीमहावीर तीर्थंकराय अक्षय पद प्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
त्रिशलानंदन, शत शत वंदन, शत शत वंदन तव चरणों में।
हम भक्तिभाव से अंजलि कर, प्रभु शीश झुकाते चरणों में।।
बेला चंपक अरविंद कुमुद, सुरभित पुष्पों को लाये हैं।
मदनारिजयी तव चरणों में, हम अर्पण करने आये हैं।।
हे वीरप्रभो! पुष्पों को ले, पूजा करते तव चरणों में।।
त्रिशलानंदन..........।।४।।
ॐ ह्रीं श्रीमहावीर तीर्थंकराय काम बाण विध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
त्रिशलानंदन, शत शत वंदन, शत शत वंदन तव चरणों में।
हम भक्तिभाव से अंजलि कर, प्रभु शीश झुकाते चरणों में।।
पूरणपोली खाजा गूझा, मोदक आदिक बहु लाये हैं।
निज आतम अनुभव अमृत हित, नैवेद्य चढ़ाने आये हैं।
हे वीरप्रभो! चरु अर्पण कर, हम नमन करें तव चरणों में।।
त्रिशलानंदन..........।।५।।
ॐ ह्रीं श्रीमहावीर तीर्थंकराय क्षुधा रोग विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
त्रिशलानंदन, शत शत वंदन, शत शत वंदन तव चरणों में।
हम भक्तिभाव से अंजलि कर, प्रभु शीश झुकाते चरणों मेंं।।
मणिमय दीपक में ज्योति जले, सब अंधकार क्षण में नाशे।
दीपक से पूजा करते ही, सज्ज्ञानज्योति निज में भासे।।
हे वीरप्रभो! तुम आरति कर, हम नमन करें तव चरणों में।।
त्रिशलानंदन..........।।६।।
ॐ ह्रीं श्रीमहावीर तीर्थंकराय मोहांधकार विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
त्रिशलानंदन, शत शत वंदन, शत शत वंदन तव चरणों में।
हम भक्तिभाव से अंजलि कर, प्रभु शीश झुकाते चरणों में।।
दशगंध विमिश्रित धूप सुरभि, धूपायन में खेते क्षण ही।
कटु कर्म दहन हो जाते हैं, मिलता समरस सुख तत्क्षण ही।।
हे वीर प्रभो! हम धूप जला, अर्चन करते तव चरणों में।।
त्रिशलानंदन..........।।७।।
ॐ ह्रीं श्रीमहावीर तीर्थंकराय अष्ट कर्म दहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
त्रिशलानंदन, शत शत वंदन, शत शत वंदन तव चरणों में।
हम भक्तिभाव से अंजलि कर, प्रभु शीश झुकाते चरणों में।।
एला केला अंगूरों के, गुच्छे अति सरस मधुर लाये।
परमानंदामृत चखने हित, फल से पूजन कर हर्षाये।।
हे वीर प्रभो! महावीर प्रभो! हम नमन करें तव चरणों में।।
त्रिशलानंदन..........।।८।।
ॐ ह्रीं श्रीमहावीर तीर्थंकराय मोक्ष फल प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
त्रिशलानंदन, शत शत वंदन, शत शत वंदन तव चरणों में।
हम भक्तिभाव से अंजलि कर, प्रभु शीश झुकाते चरणों में।।
जल चंदन अक्षत पुष्प चरू, वर दीप धूप फल लाये हैं।
निजगुण अनंत की प्राप्ति हेतु, प्रभु अघ्र्य चढ़ाने आये हैं।।
‘‘सज्ज्ञानमती’’ सिद्धी देकर, हम नमन करें तव चरणों में।।
त्रिशलानंदन..........।।९।।
ॐ ह्रीं श्रीमहावीर तीर्थंकराय अनघ्र्य पद प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-उपेंद्रवङ्काा छंद-
त्रैलोक्य शांती कर शांतिधारा, श्री सन्मती के पदवंâज धारा।
निज स्वांत शांतीहित शांतिधारा, करते मिले है भवदधि किनारा।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
सुरकल्पतरु के वर पुष्प लाऊँ, पुष्पांजलि कर निज सौख्य पाऊँ।
संपूर्ण व्याधी भय को भगाऊँ, शोकादि हर के सब सिद्धि पाऊँ।।११।।
।। दिव्य पुष्पांजलि: ।।
श्री महावीर स्वामी विधान - पंचकल्याणक अर्घ्यं
पंचकल्याणक अर्घ्यं
-गीता छंद-
सिद्धार्थ नृप कुण्डलपुरी में, राज्य संचालन करें।
त्रिशला महारानी प्रिया सह, पुण्य संपादन करें।।
आषाढ़ शुक्ला छठ तिथी, प्रभु गर्भ मंगल सुर करें।
हम पूजते वसु अघ्र्य ले, हर विघ्न सब मंगल भरें।।१।।
ॐ ह्रीं आषाढ़शुक्लाषष्ठ्यां श्रीमहावीरतीर्थंकरगर्भकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सित चैत्र तेरस के प्रभू, अवतीर्ण भूतल पर हुए।
घंटादि बाजे बज उठे, सुरपति मुकुट भी झुक गये।।
सुरशैल पर प्रभु जन्म उत्सव, हेतु सुरगण चल पड़े।
हम पूजते वसु अघ्र्य ले, fिनजकर्म धूली झड़ पड़े।।२।।
ॐ ह्रीं चैत्रशुक्लात्रयोदश्यां श्रीमहावीरतीर्थंकरजन्मकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मगसिर वदी दशमी तिथी, भवभोग से निःस्पृह हुए।
लौकांतिकादी आनकर, संस्तुति करें प्रमुदित हुए।।
सुरपति प्रभू की निष्क्रमण, विधि में महा उत्सव करें।
हम पूजते वसु अघ्र्य ले, संसार सागर से तरें।।३।।
ॐ ह्रीं मार्गशीर्षकृष्णादशम्यां श्रीमहावीरतीर्थंकरदीक्षाकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ने प्रथम आहार राजा, वूâल के घर में लिया।
वैशाख सुदि दशमी तिथी, केवलरमा परिणय किया।।
श्रावण वदी एकम तिथी, गौतम मुनी गणधर बनें।
तब दिव्यध्वनि प्रभु की खिरी, हम पूजते हर्षित तुम्हें।।४।।
ॐ ह्रीं वैशाखशुक्लादशम्यां श्रीमहावीरतीर्थंकरकेवलज्ञानकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कार्तिक अमावस पुण्य तिथि, प्रत्यूष बेला में प्रभो।
पावापुरी उद्यान सरवर, बीच में तिष्ठे विभो।।
निर्वाणलक्ष्मी वरण कर, लोकाग्र में जाके बसे।
हम पूजते वसु अघ्र्य ले, तुम पास में आके बसें।।५।।
ॐ ह्रीं कार्तिककृष्णा-अमावस्यायां श्रीमहावीरतीर्थंकरनिर्वाणकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-दोहा-
महावीर सन्मति प्रभो! शिवसुखफल दातार।
पूर्ण अघ्र्य अर्पण करूँ, नमूँ अनंतों बार।।६।।
ॐ ह्रीं श्रीमहावीरतीर्थंकरपंचकल्याणकाय पूर्णाघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलि:।
श्री महावीर स्वामी विधान - अथ १०८ अघ्र्य
-दोहा-
महावीर प्रभु बालयति, नमूं नमूं शत बार।
पुष्पांजलि से पूजते, पाऊं सौख्य अपार।।१।।
।।अथ मंडलस्योपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्।।
‘श्रीवृक्षलक्षण’ प्रभो! तरु अशोक से सिद्ध।
शोक हरण हे वीर जिन! नमत मिले नव निद्धि।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीवृक्षलक्षणाय श्रीमहावीरतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अनंत लक्ष्मी से तुम्हीं, आलिंगित हो ‘श्लक्षण’।
गुण अनंत मेरे सभी, मिलते नाथ! प्रसन्न।।२।।
ॐ ह्रीं श्लक्षणाय श्रीमहावीरतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आठ महा व्याकरण में, साधु कुशल लक्षण्य।
वाङ्मय विद्या प्राप्त हो, नमत जन्म हो धन्य।।३।।
ॐ ह्रीं लक्षण्याय श्रीमहावीरतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
एक हजार सुआठ हैं, लक्षण श्रुत में मान्य।
‘शुभलक्षण’ इनसे सहित, नमत मिले गुण साम्य।।४।।
ॐ ह्रीं शुभलक्षणाय श्रीमहावीरतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
इन्द्रिय सुख अरु ज्ञान से, रहित ‘निरक्ष’ जिनेश।
सौख्य अतीन्द्रिय हेतु मैं, नमत हरूँ भव क्लेश।।५।।
ॐ ह्रीं निरक्षाय श्रीमहावीरतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कमल सदृश वर नेत्र हैं, अत: ‘पुण्डरीकाक्ष’।
पूजत मन पंकज खिले, वीर! भक्ति है साक्षि।।६।।
ॐ ह्रीं पुण्डरीकाक्षाय श्रीमहावीरतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
स्वात्म गुणों की पुष्टि से, ‘पुष्कल’ पूर्ण महान्।
नमत मिले सुख वीर जिन, भक्त बनें भगवान्।।७।।
ॐ ह्रीं पुष्कलाय श्रीमहावीरतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
खिले सुरोरुह नेत्र हैं, करिये दृष्टि प्रसन्न।
नमूँ ‘पुष्करेक्षण’ तुम्हें, मुझ मन होय प्रसन्न।।८।।
ॐ ह्रीं पुष्करेक्षणाय श्रीमहावीरतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
स्वात्मा की उपलब्धि हो, तुम भक्ती से नाथ!।
वंदूूं ‘सिद्धिद’ वीर को, भव भव में हो नाथ।।९।।
ॐ ह्रीं सिद्धिदाय श्रीमहावीरतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सिद्धोऽहं संकल्प से, तुम्हीं ‘सिद्धसंकल्प’।
तुम अर्चा से दूर हों, सब संकल्प विकल्प।।१०।।
ॐ ह्रीं सिद्धसंकल्पाय श्रीमहावीरतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘सिद्धात्मा’ भगवान को, नमते जो त्रयकाल।
स्वयं सिद्ध बन वे पुरुष, बनते जग प्रतिपाल।।११।।
ॐ ह्रीं सिद्धात्मने श्रीमहावीरतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आप ‘सिद्धसाधन’ प्रभो! भव्य मुक्ति के हेतु।
निश्चय रत्नत्रय निमित, मिलें आप भवसेतु।।१२।।
ॐ ह्रीं सिद्धसाधनाय श्रीमहावीरतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘बुद्धबोध्य’ भगवंत तुम नमूँ नमूँ धर प्रीति।
ज्ञान जानने योग्य ही, प्राप्त किया जग मीत।।१३।।
ॐ ह्रीं बुद्धबोध्याय श्रीमहावीरतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
महाबोधि’ वैराग्य है, अरु रत्नत्रय प्राप्ति।
अति दुर्लभ इस विश्व में, नमत मुझे हो प्राप्ति।।१४।।
ॐ ह्रीं महाबोधये श्रीमहावीरतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘वर्धमान’ विज्ञान से, वृद्धिंगत भगवंत।
ज्ञानपूर्ण मेरा करो, नमॅूँ तुम्हें शिवकांत।।१५।।
ॐ ह्रीं वर्धमानाय श्रीमहावीरतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अतिशय ऋद्धि समेत प्रभु, नाम ‘महद्र्धिक’ सिद्ध।
सर्व ऋद्धि सिद्धी मिले, यश भी जगत प्रसिद्ध।।१६।।
शिक्षा कल्प व व्याकरण, निरुक्त ज्योतिष छन्द।
वेद अंगमय को नमूँ, शिव उपाय ‘वेदांग’।।१७।।
आत्मा पृथक््â शरीर से, यही भेद विज्ञान।
नमूँ ‘वेदवित्’ आपसे, मिले मुझे सज्ज्ञान।।१८।।
नाथ ‘वेद्य’ मुनिगम्य तुम, केवलज्ञान धरंत।
स्वसंवेद्य अनुभव मिले, नमूँ वीर भगवंत।।१९।।
‘जातरूप’ जिनदेव तुम, निर्विकार निग्र्रंथ।
नग्न दिगम्बर वेषयुत, नमत मिले शिवपंथ।।२०।।
चउ ज्ञानी विद्वन् मुनी, उनमें श्रेष्ठ जिनेंद्र।
नाम ‘विदांवर’ मैं नमँॅू, मिले ध्यान का केन्द्र।।२१।
‘वेदवेद्य’ प्रभु आप ही, द्वादशांग के ईश।
पूर्ण ज्ञान दीजे मुझे, नमूँ नमाकर शीश।।२२।।
निज आत्मा से ज्ञेय तुम, ‘स्वसंवेद्य’ भगवान्।
निज समरस सुख हेतु मैं, नमूँ नमूँ गुणखान।।२३।।
वेद चार तुमसे हुये, अरु विशिष्ट ज्ञानैक।
नमूँ ‘विवेद’ जिनेन्द्र को, पाऊँ निज सुख एक।।२४।।
तार्विâकजन में श्रेष्ठ तुम, ‘वदताम्वर’ जिनराज।
न्याय तर्वâ विद्या निपुण, बनूँ सरें सब काज।।२५।।
नाथ! ‘अनादी निधन’ हो, जन्म मरण से शून्य।
श्री अनंत शाश्वत धरो, नमत बनूँ दुख शून्य।।२६।।
अर्थ प्रगट करते प्रभो! केवलज्ञान से आप।
‘व्यक्त’ नाम तुमको नमूँ, दूर करूँ यम ताप।।२७।।
ॐ ह्रीं व्यक्ताय श्रीमहावीरतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अठरह महभाषा लघू, सात शतक सुस्पष्ट।
दिव्यध्वनी खिरती नमूँ, ‘व्यक्तवाक्’ तुम इष्ट।।२८।।
नमूँ ‘व्यक्तशासन’ विमल, मत विरोध से हीन।
सब प्रमाण से प्रगट है, इससे हो दुख क्षीण।।२९।।
ॐ ह्रीं व्यक्तशासनाय श्रीमहावीरतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘युगादिकृत’ आपने, धर्मसृष्टि उपदेश।
जग को संरक्षण दिया, नमत न हो दुख लेश।।३०।।
ॐ ह्रीं युगादिकृते श्रीमहावीरतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
श्रावण कृष्णा प्रतिपदा, दिव्यध्वनि के नाथ।
‘युगाधार’ तुमको नमूँ, धर्मतीर्थ से सार्थ।।३१।।
ॐ ह्रीं युगाधाराय श्रीमहावीरतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘युगादि’ कृतयुग का प्रथम, धर्म वही उपदेश।
शिवपथ दिखलाया अभी, सिद्ध नमूँ सुख हेतु।।३२।।
ॐ ह्रीं युगादये श्रीमहावीरतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘जगदादिज’ जग में प्रभो! तीर्थंकर अवतार।
मोक्षमार्ग के हेतु मैं, नमॅूँ अनंतों बार।।३३।।
ॐ ह्रीं जगदादिजाय श्रीमहावीरतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अतिशय स्वामी इन्द्र से, बढ़कर आप ‘अतीन्द्र’।
शत इन्द्रों से वंद्य प्रभु, नमत बनूँ ज्ञानीन्द्र।।३४।।
ॐ ह्रीं अतीन्द्राय श्रीमहावीरतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
इन्द्रिय ज्ञान व सुख रहित, आप ‘अतीन्द्रिय’ नाम।
स्वात्म अतीन्द्रिय सौख्य हित, कोटि कोटि प्रणाम।।३५।
ॐ ह्रीं अतीन्द्रियाय श्रीमहावीरतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘धीन्द्र’ सुकेवलज्ञान से, परमात्मा अभिराम।
नमूँ भक्ति से शीघ्र मुझ, मिले स्वात्म विश्राम।।३६।।
ॐ ह्रीं धीन्द्राय श्रीमहावीरतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
परमैश्वर्य समेत प्रभु, नाम ‘महेन्द्र’ धरंत।
पूजूँ श्रद्धा से तुम्हें, अनुपम सुख विलसंत।।३७।।
ॐ ह्रीं महेन्द्राय श्रीमहावीरतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सूक्ष्म अंतरित दूर की, वस्तु अतीन्द्रिय सर्व।
‘अतीन्द्रियार्थदृक्’ देखते, नमत मिले गुण सर्व।।३८।।
ॐ ह्रीं अतीन्द्रियार्थदृशे श्रीमहावीरतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पांचों इन्द्रिय से रहित, आप ‘अनिन्द्रिय’ मान।
अशरीरी महावीर को, नमत मिले सुख साम्य।।३९।।
ॐ ह्रीं अनिन्द्रियाय श्रीमहावीरतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अहिंमद्रों से पूज्य हो, ‘अहमिन्द्राच्र्य’ जिनेश।
स्वात्म सौख्य संपति मिले, शीघ्र मिटे भव क्लेश।।४०।।
ॐ ह्रीं अहमिन्द्राच्यार्य श्रीमहावीरतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
बत्तिस इन्द्रों से महित, नाम ‘महेन्द्रमहीत’।
मैं भी पूजूँ प्रीतिधर, मिले स्वात्म नवनीत।।४१।।
ॐ ह्रीं महेन्द्रमहिताय श्रीमहावीरतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु पूजा के योग्य तुम, जग में श्रेष्ठ ‘महान्’।
महाव्रतों की प्राप्ति हो, अत: नमूूँ भगवान्।।४२।।
ॐ ह्रीं महते श्रीमहावीरतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘उद्भव’ भव उत्कृष्ट तुम, या जग में उत्कृष्ट।
पूजन से सब भक्त के, मिट जाते सब कष्ट।।४३।।
ॐ ह्रीं उद्भवाय श्रीमहावीरतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
धर्मसृष्टि के बीज हो, ‘कारण’ नाम धरंत।
धर्मनिधी मुझको मिले, आतम सुख विलसंत।।४४।।
ॐ ह्रीं कारणाय श्रीमहावीरतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
चौथे काल के अंत में, उपदेशा षट्कर्म।
‘कर्ता’ कहलाये प्रभो! नमत मिटे भव भर्म।।४५।।
ॐ ह्रीं कत्र्रे श्रीमहावीरतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पंचमहा संसार से, पार हुये भगवंत।
‘पारग’ तुमको मुनि कहें, तारो मुझे तुरंत।।४६।।
ॐ ह्रीं पारगाय श्रीमहावीरतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
चतुर्गती भव दु:ख से, तारक नाव समान।
‘भवतारक’ की शरण ले, तिरते भव्य प्रधान।।४७।।
ॐ ह्रीं भवतारकाय श्रीमहावीरतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
गुण अनंत का पार नहिं, पा सकते गणईश।
नमूँ ‘अगाह्य’ प्रभो तुम्हें, नित्य नमाकर शीश।।४८।।
ॐ ह्रीं अगाह्याय श्रीमहावीरतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
योगीजन से भी ‘गहन’, आप अलक्ष्यस्वरूप।
स्वात्म गुणों के हित नमूँ, प्राप्त करूँ निज रूप।।४९।।
ॐ ह्रीं गहनाय श्रीमहावीरतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
योगगम्य योगीश के, ‘गुह्य’ आपका नाम।
मुक्ति रहस्य मिले मुझे, नमूँ नमूँ शिवधाम।।५०।।
ॐ ह्रीं गुह्याय श्रीमहावीरतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-रमणी छंद-
भगवन्! ‘पराघ्र्य’ सुख ऋद्धि धरा।
मुझको सुख दो, कर जोड़ नमूँ।।५१।।
ॐ ह्रीं पराघ्र्याय श्रीमहावीरतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘परमेश्वर’ हो, शिव श्रीपति हो।
नमते मुझको, परमामृत दो।।५२।।
ॐ ह्रीं परमेश्वराय श्रीमहावीरतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु आप ‘अनंतद्र्धी’ जग में।
मुझमें अनंत गुण ऋद्धि भरो।।५३।।
ॐ ह्रीं अनंतद्र्धये श्रीमहावीरतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नहिं माप ‘अमेयद्र्धी’ गुण तुम।
सुख ज्ञान भरो, मुझमें जजहूँ।।५४।।
ॐ ह्रीं अमेयद्र्धये श्रीमहावीरतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु आप ‘अचिन्त्यद्र्धी’ नत मैं।
नहिं चिंतन कर सकते मुनि भी।।५५।।
ॐ ह्रीं अचिन्त्यद्र्धये श्रीमहावीरतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रणमूं ‘समग्रधी’ केवल धी।
जजते मिलती, निज सौख्य निधी।।५६।।
ॐ ह्रीं समग्रधिये श्रीमहावीरतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘प्राग्र्य’ नमूूँ, जग मुख्य तुम्हीं।
मुझ जन्म जरा, मरणादि हरो।।५७।।
ॐ ह्रीं प्राग्र्याय श्रीमहावीरतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘प्राग्रहरा’, सब मंगल कृत।
नमते मुझको, निज संपति दो।।५८।।
ॐ ह्रीं प्राग्रहराय श्रीमहावीरतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘अभ्यग्र’ तुम्हीं, शिव सन्मुख हो।
त्रयलोक उपरि, निवसो प्रणमूँ।।५९।।
ॐ ह्रीं अभ्यग्राय श्रीमहावीरतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘प्रत्यग्र’ विलक्षण हो जग में।
नत हूँ नित मैं, चरणांबुज में।।६०।।
ॐ ह्रीं प्रत्यग्राय श्रीमहावीरतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सब में प्रमुखा, प्रभु ‘अग्र्य’ तुम्हीं।
तुमको जजते, शत इन्द्र सदा।।६१।।
ॐ ह्रीं अग्र्याय श्रीमहावीरतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सब में अग्रेसर ‘अग्रिम’ हो।
प्रभु अंत समाधी, दो मुझको।।६२।।
ॐ ह्रीं अग्रिमाय श्रीमहावीरतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
—उपजाति छंद—
हो ज्येष्ठ सबमें, ‘अग्रज’ कहाते।
त्रैलोक्य में नाथ, तुम्हीं बड़े हो।।
पूजूँ तुम्हें नाम सुमंत्र गाऊँ।
स्वात्मैक सिद्धी प्रभु शीघ्र पाऊँ।।६३।।
ॐ ह्रीं अग्रजाय श्रीमहावीरतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘महातपा’ घोर सुतप किया है।
बारह तपों को मुझको भि देवो।।पूजूँ.।।६४।।
ॐ ह्रीं महातपसे श्रीमहावीरतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तेजोमयी पुण्य प्रभो! धरे हो।
‘महासुतेजा’ तुम तेज पैâला।।पूजूँ.।।६५।।
ॐ ह्रीं महातेजसे श्रीमहावीरतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! ‘महोदर्वâ’ तुम्हें कहे हैं।
महान तप का फल श्रेष्ठ पाया।।पूजूँ.।।६६।।
ॐ ह्रीं महोदर्काय श्रीमहावीरतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ऐश्वर्य भारी प्रभु आपका है।
अत: ‘महोदय’ जग में तुम्हीं होे।।पूजूँ.।।६७।।
ॐ ह्रीं महोदयाय श्रीमहावीरतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कीर्ती चहूँदिश प्रभु की सुपैâली।
‘महायशा’ नाम कहा इसी से।।पूजूँ.।।६८।।
ॐ ह्रीं महायशसे श्रीमहावीरतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! ‘महाधाम’ तुम्हीं कहाते।
विशाल ज्ञानी सुप्रताप धारीे।।पूजूँ.।।६९।।
ॐ ह्रीं महाधाम्ने श्रीमहावीरतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! ‘महासत्त्व’ अपार शक्ती।
हे नाथ! मुझको निज शक्ति देवोे।।पूजूँ.।।७०।।
ॐ ह्रीं महासत्त्वाय श्रीमहावीरतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘महाधृती’ धैर्य असीम धारी।
आपत्ति में धैर्य रहे मुझे भी।।पूजूँ.।।७१।।
ॐ ह्रीं महाधृतये श्रीमहावीरतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! ‘महाधैर्य’ त्रिलोक में भी।
महान तेजोबल वीर्यशाली।।पूजूँ.।।७२।।
ॐ ह्रीं महाधैर्याय श्रीमहावीरतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! ‘महावीर्य’ अनंतशक्ती।
महान तेजोबल वीर्यशाली।।पूजूँ.।।७३।।
ॐ ह्रीं महावीर्याय श्रीमहावीरतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! ‘महासंपत्’ सर्वसंपत्।
समोसरण में तुम पास शोभे।।पूजूँ.।।७४।।
ॐ ह्रीं महासंपदे श्रीमहावीरतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो!‘महाबल’ तनु शक्ति भारी।
ऐसी जगत् में नहिं अन्य के हो।।पूजँ.।।७५।।
ॐ ह्रीं महाबलाय श्रीमहावीरतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
—प्रमाणिक छंद—
‘महानशक्ति’ धारते, त्रिलोक के गुरू तुम्हीं।
नमूँ अनंत शक्ति हेतु, आपको सदा यहीं।।७६।।
ॐ ह्रीं महाशक्तये श्रीमहावीरतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘महान ज्योति’ नाथ हो, अनंत ज्ञान रूप हो।
सुज्ञान ज्योति दीजिये, जजूँ तुम्हें सुप्रीति से।।७७।।
ॐ ह्रीं महाज्योतिषे श्रीमहावीरतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
महाविभूति तीन लोक की अनंत संपदा।
तथापि हो अधर तुम्हीं, नमूँ निजात्म सौख्य दो।।७८।।
ॐ ह्रीं महाविभूतये श्रीमहावीरतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘महाद्युती’ असंख्य रत्नकांति से भि कांत हो।
जजूँ तुम्हें स्वकांति से मुझे प्रकाश दीजिये।।७९।।
ॐ ह्रीं महाद्युतये श्रीमहावीरतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘महामती’ महान पूर्ण बुद्धि से त्रिलोक को।
जिनेन्द्र! एक साथ आप जानते नमॅूँ तुम्हें।।८०।।
ॐ ह्रीं महामतये श्रीमहावीरतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘महाननीति’ न्याय आप सर्व भव्य का करें।
समस्त दुष्ट कर्म से छुड़ाइये जजूँ तुम्हें।।८१।।
ॐ ह्रीं महानीतये श्रीमहावीरतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘महान क्षांति’ शत्रु पे क्षमा किया क्षमामयी।
मुझे भि शक्ति दीजिये क्षमास्वरूप मैं बनूँ।।८२।।
ॐ ह्रीं महाक्षांतये श्रीमहावीरतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘महादयो’ समस्त जीव पे दया किया तुम्हीं।
दया करूँ निजात्म पे यही कृपा करो नमूँ।।८३।।
ॐ ह्रीं महादयाय श्रीमहावीरतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
महानप्राज्ञ’ नाथ केवली अनंतज्ञान से।
सुभेदज्ञान दीजिये तिरूँ भवोदधी अबे।।८४।।
ॐ ह्रीं महाप्राज्ञाय श्रीमहावीरतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘महान भाग’ सर्व सौख्य पूर्ण हो त्रिलोक में।
सुरेन्द्र पूजते तुम्हें नमंत श्रेष्ठ भाग्य हो।।८५।।
ॐ ह्रीं महाभागाय श्रीमहावीरतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘महाअनंद’ स्वात्मजन्य सौख्य में निमग्न हो।
मुझे निजात्म सौख्य दीजिये नमूँ नमूँ तुम्हें।।८६।।
ॐ ह्रीं महानन्दाय श्रीमहावीरतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘महाकवी’ समस्त सौख्यदायि आपके वचन।
नमॅूँ कृपा करो सुवाक्य सिद्धि प्राप्त हो मुझे।।८७।।
ॐ ह्रीं महाकवये श्रीमहावीरतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘महामहान्’ देव इंद्र आप अर्चना करेंं।
महान तेज धारते नमूँ सुज्ञान तेज दो।।८८।।
ॐ ह्रीं महामहाय श्रीमहावीरतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘महानकीर्ति’ से समस्त लोक में सुव्याप्त हो।
पदाब्ज को जजूँ निजात्म कीर्ति व्याप्त हो यहाँ।।८९।।
ॐ ह्रीं महाकीर्तये श्रीमहावीरतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘महान कांति’ से अपूर्व कांतिमान हो तुम्हीं।
समस्त आधि व्याधि नाश स्वस्थ कीजिये जजूूँ।।९०।।
ॐ ह्रीं महाकान्तये श्रीमहावीरतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘महावपू’ असंख्य भी, प्रदेश व्याप्त लोक में।
सुकेवली समुद्सुघात से तुम्हें नमूँ यहीं।।९१।।
ॐ ह्रीं महावपुषे श्रीमहावीरतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘महान दान’ अभय दान सर्वप्राणि को दिया।
प्रभो हमें उबारिये कृपालु रक्षिये जजूँ।।९२।।
ॐ ह्रीं महादानाय श्रीमहावीरतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
महान ज्ञान’ से अलोक लोक जानते सदा।
सुज्ञान की कली खिले जजूँ इसीलिये तुम्हें।।९३।।
ॐ ह्रीं महाज्ञानाय श्रीमहावीरतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘महान योग’ नाम है स्वशुद्ध आत्मध्यान से।
अनंत धाम पा लिया नमूँ निजात्म ध्यान दो।।९४।।
ॐ ह्रीं महायोगाय श्रीमहावीरतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘महागुणी’ अनंत गुण समेत इन्द्रवंद्य हो।
गुणों की राशि दीजिये समस्त दोष दूर हों।।९५।।
ॐ ह्रीं महागुणाय श्रीमहावीरतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सुमेरु पे न्हवन करें सुरेंद्र वंद्य भक्ति से।
‘महान महपती’ नमूँ दरिद्र दुख दूर हो।।९६।।
ॐ ह्रीं महामहपतये श्रीमहावीरतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘सुप्राप्त महापंचकल्याणक’ सुरेन्द्र वृंद से।
जिनेन्द्र एक ही कल्याण दीजिये नमूँ तुम्हें।।९७।।
ॐ ह्रीं प्राप्तमहापंचकल्याणकाय श्रीमहावीरतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘महाप्रभु’ समस्त जीव के अपूर्व नाथ हो।
निवारिये समस्त मोह दु:खदायि मैं जजूँ।।९८।।
ॐ ह्रीं महाप्रभवे श्रीमहावीरतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘महान प्रातिहार्य के अधीश’ छत्र आदि से।
शतेन्द्र वंद्य आपको नमूँ अपूर्व सौख्य दो।।९९।।
ॐ ह्रीं महाप्रातिहार्याधीशाय श्रीमहावीरतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘महेश्वरा’ त्रिलोक के अधीश्वरा जिनेश्वरा।
सुभक्ति से नमूँ तुम्हें महान संपदा मिले।।१००।।
ॐ ह्रीं महेश्वराय श्रीमहावीरतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
—स्रग्विणी छन्द—
भो ‘महाक्लेशअंकुश’ परीषहजयी।
क्लेश के नाशने वीर मृत्युंजयी।।
आपके नाम के मंत्र को मैं जजूं।
ज्ञान आनंद पीयूष को मैं चखूं।।१०१।।
ॐ ह्रीं महाक्लेशांकुशाय श्रीमहावीरतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शूर’ हो कर्मक्षय दक्ष हो लोक में।
नाथ! मेरे हरो कर्म आनंद हो।।आप.।।१०२।।
ॐ ह्रीं शूराय श्रीमहावीरतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हे ‘महाभूतपति’ गणधराधीश हो।
वीर! रक्षा करो आप जगदीश हो।।आप.।।१०३।।
ॐ ह्रीं महाभूतपतये श्रीमहावीरतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आप ही हो ‘गुरू’ धर्म उपदेश दो।
तीन जग में तुम्हीं श्रेष्ठ हो सौख्य दो।।आप.।।१०४।।
ॐ ह्रीं गुरवे श्रीमहावीरतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
वीर ही हो ‘महापराक्रम’ के धनी।
केवलज्ञान से सर्ववस्तू भणी।।आप.।।१०५।।
ॐ ह्रीं महापराक्रमाय श्रीमहावीरतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हो ‘अनंत’ आपका अंत ना हो कभी।
वीर! दीजे अनंतों गुणों को अभी।।आप.।।१०६।।
ॐ ह्रीं अनन्ताय श्रीमहावीरतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हे ‘महाक्रोधरिपु’ क्रोध शत्रू हना।
सर्व दोषारि नाशा सुमृत्यू हना।।आप.।।१०७।।
ॐ ह्रीं महाक्रोधरिपवे श्रीमहावीरतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
वीर इंद्रिय ‘वशी’ लोक तुम वश्य में।
आत्मवश मैं बनूँ चित्त को रोक के।।आप.।।१०८।।
ॐ ह्रीं वशिने श्रीमहावीरतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
—पूर्णाघ्र्य—दोहा—
वर्धमान सन्मति प्रभो, महावीर भगवान।
पूर्ण अघ्र्य से मैं जजूँ, बालयती गुणखान।।१।।
ॐ ह्रीं अष्टोत्तरशतगुणसमन्विताय श्रीमहावीरतीर्थंकराय पूर्णाघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
जाप्य- ॐ ह्रीं श्रीमहावीरतीर्थंकराय नम:।
(सुगंधित पुष्पों से, लवंग से या पीले चावलों से १०८ बार, २७ बार या ९ बार जाप्य करें।)
जयमाला
-दोहा-
चिन्मूरति चिंतामणि, चिंतित फलदातार।
तुम गुणमणिमाला कहूँ, सुखसंपति साकार।।१।।
-(चाल-श्रीपति जिनवर करुणा......)-
जय जय श्री सन्मति रत्नाकर! महावीर! वीर! अतिवीर! प्रभो!
जय जय गुणसागर वर्धमान! जय त्रिशलानंदन! धीर प्रभो!।।
जय नाथवंश अवतंस नाथ! जय काश्यपगोत्र शिखामणि हो।
जय जय सिद्धार्थतनुज फिर भी, तुम त्रिभुवन के चूड़ामणि हो।।२।।
जिस वन में ध्यान धरा तुमने, उस वन की शोभा अति न्यारी।
सब ऋतु के पूâल खिलें सुन्दर, सब पूâल रहीं क्यारी क्यारी।।
जहँ शीतल मंद पवन चलती, जल भरे सरोवर लहरायें।
सब जात विरोधी जन्तूगण, आपस में मिलकर हरषायें।।३।।
चहुँ ओर सुभिक्ष सुखद शांती, दुर्भिक्ष रोग का नाम नहीं।
सब ऋतु के फल फल रहे मधुर, सब जन मन हर्ष अपार सही।।
वंâचन छवि देह दिपे सुंदर, दर्शन से तृप्ति नहीं होती।
सुरपति भी नेत्र हजार करे, निरखे पर तृप्ति नहीं होती।।४।।
श्री इन्द्रभूति आदिक ग्यारह, गणधर सातों ऋद्धीयुत थे।
चौदह हजार मुनि अवधिज्ञानि, आदिक सब सात भेदयुत थे।।
चंदना प्रमुख छत्तीस सहस, संयतिकायें सुरनर नुत थीं।
श्रावक इक लाख श्राविकाएँ, त्रय लाख चतुःसंघ संख्या थी।।५।।
प्रभु सात हाथ, उत्तुंग आप, मृगपति लांछन से जग जाने।
आयू बाहत्तर वर्ष कही, तुम लोकालोक सकल जाने।।
भविजन खेती को धर्मामृत, वर्षा से सिंचित कर करके।
तुम मोक्षमार्ग अक्षुण्ण किया, यति श्रावक धर्म बता करके।।६।।
मैं भी अब आप शरण आया, करुणाकर जी करुणा कीजे।
निज आत्म सुधारस पान करा, सम्यक्त्व निधी पूर्णा कीजे।।
रत्नत्रयनिधि की पूर्ती कर, अपने ही पास बुला लीजे।
‘‘सज्ज्ञानमती’’ निर्वाणश्री, साम्राज्य मुझे दिलवा दीजे।।७।।
--घत्ता--
जय जय श्रीसन्मति, मुक्ति रमापति, जय जिनगुणसंपति दाता।
तुम पूजूँ ध्याऊँ, भक्ति बढ़ाऊँ, पाऊँ निजगुण विख्याता।।८।।
ॐ ह्रीं श्रीमहावीरतीर्थंकराय जयमाला महाघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
-शंभु छंद-
श्रीमहावीर स्वामी विधान, जो भव्य भक्ति से करते हैं।
जिनशासनपति त्रैलोक्यगुरू, की श्रद्धा चित में धरते हैं।।
वे दुषमकाल में भी रत्नत्रय, निधि पाकर सुरवैभव लभते हैं।
फिर परंपरा से ज्ञानमती, वैâवल्य करें शिव लभते हैं।।१।।
।। इत्याशीर्वाद: ।।
।। प्रशस्ति: ।।
-दोहा-
वृषभदेव से वीर तक, श्री चौबीस जिनेश।
नमूँ नमूँ उनको सदा, मिटे सकल भव क्लेश।।१।।
मूल संघ आचार्य श्री, वुंâदवुंâद गुरुदेव।
इनके अन्वय में हुआ, नंदिसंघ दु:ख छेव।।२।।
बलात्कार गण भारती, गच्छ प्रसिद्ध महान।
इसमें सूरीश्वर हुए शांतिसिंधु गुणखान।।३।।
वीरसागराचार्य थे, उनके पट्टाधीश।
र्आियका दीक्षा दिया, किया कृतार्थ मुनीश।।४।।
शांति वुंâथु अरनाथ की, जन्म भूमि जगतीर्थ।
कुरुजांगल शुभ देश में, हस्तिनागपुर तीर्थ।।५।।
पच्चीस सौ चालिस कहा, वीर अब्द शुभ मान।
माघ शुक्ल पंचमि तिथी, रचना पूरण जान।।६।।
जो भव्य नित पूजा करें, पढ़ें सुनें एकाग्र।
इंद्र चक्रि सुख भोग के, वे पहुँचे लोकाग्र।।७।।
यावत् जग में मेरु हैं, महावीर जिनधर्म।
तावत् गणिनी ज्ञानमती, कृति देवे शिववत्र्म।।८।।
।इति श्रीमहावीरस्वामिविधानं संपूर्णम्।
।। इति शं भूयात् ।।