पंचकल्याणक समूह पूजा
दोहा
चौबीसों जिनराज श्री, तीर्थंकर कहलाय।
पंच कल्याणक देवगण, अर्षित होय मनाय।।
आह्वानन हम कर रहे तिष्ठो तिष्ठो आप।
तीन योग से मैं जपूँ नशने भव संताप।
र्नै्र ह्रीं श्री वृषभादि वर्द्धमान पर्यन्त चतुर्विशति जिन समूह पंचकल्याणक प्राप्त
अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननम्।
र्नै्र ह्रीं श्री वृषभादि वर्द्धमान पर्यन्त चतुर्विशति जिन समूह पंचकल्याणक प्राप्त
अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनम्।
र्नै्र ह्रीं श्री वृषभादि वर्द्धमान पर्यन्त चतुर्विशति जिन समूह पंचकल्याणक प्राप्त
अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधिकरणं।
(राग-भुजंग प्रयात.... नशे घातिया कर्म...)
सिन्धु नदी नीर प्रासुक भराया,
करूँ तीन धारा मैं बहु दुख पाया।
चौबीस जिनवर के पंच कल्याणक,
पूजा रचाऊँ मिले मुक्ति का थानक।।
र्नै्र ह्रीं श्री वृषभादि वर्द्धमान पर्यन्त चतुर्विशति तीर्थंकर जिन समूह
पंचकल्याणकेभ्यः जन्म-जरा-मृत्यु विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
मलयागिरि गंध चन्दन सु प्यारा,
भवाताप मेटो दो मुक्ति का द्वारा।
चौबीस जिनवर के पंच कल्याणक,
पूजा रचाऊँ मिले मुक्ति का थानक।।
र्नै्र ह्रीं श्री वृषभादि वर्द्धमान पर्यन्त चतुर्विशति जिन समूह पंचकल्याणकेभ्यः
संसार ताप विनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
शरद पूर्णिमा सम सफेदी है प्यारी,
मैं अक्षत चढ़ाऊँ धरूँ पुंज ढेरी।
चौबीस जिनवर के पंचकल्याणक,
पूजा रचाऊँ मिले मुक्ति का थानक।।
र्नै्र ह्रीं श्री वृषभादि वर्द्धमान पर्यन्त चतुर्विशति जिन समूह
पंचकल्याणकेभ्यः अक्षय पद प्राप्ताय अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
रतिनाथ मेटो, शरण में मैं आया,
चढ़ाऊँ मै। सुमनों को, अति हर्ष पाया।
चौबीस जिनवर के पंचकल्याणक,
पूजा रचाऊँ मिले मुक्ति का थानक।।
र्नै्र ह्रीं श्री वृषभादि वर्द्धमान पर्यन्त चतुर्विशति जिन समूह
पंचकल्याणकेभ्यः कामबाण विनाशनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहां
पुआ पूरी घेवर और हलुवा बनाया,
क्षुधा डाकिनी मेटो चरणों में आया।
चौबीस जिनवर के पंचकल्याणक,
पूजा रचाऊँ मिले मुक्ति का थानक।।
र्नै्र ह्रीं श्री वृषभादि वर्द्धमान पर्यन्त चतुर्विशति जिन समूह
पंचकल्याणकेभ्यः क्षुधा रोग विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
गोघृत की ज्योति और कर्पूर डाला,
करूँ आरती मम नशे मोह ज्वाला।
चौबीस जिनवर के पंचकल्याणक,
पूजा रचाऊँ मिले मुक्ति का थानक।।
र्नै्र ह्रीं श्री वृषभादि वर्द्धमान पर्यन्त चतुर्विशति जिन समूह
पंचकल्याणकेभ्यः मोहान्धकार विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
धूप दशांगी मैं खेऊँ हुतासन,
नशे कर्म मेरे मिले मुक्ति आसन।
चौबीस जिनवर के पंचकल्याणक,
पूजा रचाऊँ मिले मुक्ति का थानक।।
र्नै्र ह्रीं श्री वृषभादि वर्द्धमान पर्यन्त चतुर्विशति जिन समूह
पंचकल्याणकेभ्यः अष्ट कर्म दहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
अमरूद अंगूर नींबू फलादि,
चढ़ाऊँ चरण में मिटे आधि-व्याधि।
चौबीस जिनवर के पंचकल्याणक,
पूजा रचाऊँ मिले मुक्ति का थानक।।
र्नै्र ह्रीं श्री वृषभादि वर्द्धमान पर्यन्त चतुर्विशति जिन समूह
पंचकल्याणकेभ्यः मोक्ष फल प्राप्ताय फलं निर्वपामीति स्वाहा।
नीरादि आठों मैं द्रव्य मिलाया,
महा मोक्ष पाऊँ मैं चरणन चढ़ाया।
चौबीस जिनवर के पंचकल्याणक,
पूजा रचाऊँ मिले मुक्ति का थानक।।
र्नै्र ह्रीं श्री वृषभादि वर्द्धमान पर्यन्त चतुर्विशति जिन समूह
पंचकल्याणकेभ्यः अनर्घ पद प्राप्ताय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
दोहा
पाँचों कल्याणक नमूँ, होवे मम कल्याण।
शांति धारा मैं करूँ, होवें शांति दान।।
शान्तये शांतिधारा....
पाँच रंग के फल से, पुष्पांजलि कराय।
कामारि जय पद प्राप्त हो, यही भावना भाय।।
दिव्य पुष्पांजलि.....
जाप्य:- र्नैं ह्रीं पंचकल्याणक सहित चतुर्विशति तीर्थकरेभ्यो नमः।
(108 या 9 बार लवंग या पुष्प से जाप्य करें।)
जयमाला
दोहा
चौबीसों जिनवर नमूँ, पंचकल्याणक हेत।
जयमाला उसकी कहूँ, पाने शिवपुर खेत।।
(राग-नरेन्द्र छन्द)
जय हो जिनवर जिनपति प्यारे जय हो श्री जिनराजा,
जन्म जरा मृत नाश किये तुम किया पूर्ण सब काजा।
तुमको सुरपति नरपति वन्दें योगी शीश झुकाते,
तेरी महिमा का वर्णन जो गणधर भी नहीं पाते।।1।।
जम्न आपका हुआ जिनेश्वर उसके छः माह पहले,
धनपति ने रत्नों की वर्षा आकर कर दी पहले।
श्री ह्री आदि सारी देवी मात की सेवा करती,
अद्भुत भाव भरे सब देवी चरणों में शिर धरती।।2।।
गर्भवास जब हुआ आपका सुरपति भक्ति गाया,
गर्भ कल्याणक उउत्सव करके मातपिता शिर नाया।
जिनपति जन्म हुआ जब भू पर सुरपति सुर संग आया,
इन्द्रासन भी कम्पे सारे आश्चर्य सबके मन आये।।3।।
अपने आप झुके थे सारे इन्द्रों के मुकुट महाना,
देवों ने फिर पुष्प वृष्टि कर पाया फिर पुण्य महाना।
सौधर्म इन्द्र भी सिंह पीठ से उतर पड़ा तत्काला,
सात पैर फिर आगे चलकर नमस्कार कर आ।।4।।
इन्द्र राज फिर आकर के जिनराज ला पाण्डु बन लाया,
सुरगण मिलकर करें महोत्सव ताल मदंग बजाय।
निमित्त मिला वैराग्य हुआ फिर दीक्षा तुमने धारी,
सभी परिग्रह त्यागा तुमने बन गये फिर अवकारी।।5।।
दीक्षा लेकर कर्म नशाये चार घातिया मारे,
चार चतुष्टय पाकर फिर तुम बने जगत उजियारे।
इन्द्र ने आकर समवशरण की बारह सभा लगाई,
दिव्य देशना देकर तुमने जग की पीर मिटाई।।6।।
चार अघाति नाश किये तुम मृत्युंजय कहलाये,
मुक्ति कान्ता वरी आपने सिद्ध प्रभु पद पाये।
निर्वाण महोत्सव इन्द्र ने आकर सबने खूब मनाया,
सिद्ध भूमि को नमन किया और अपने धाम सिधाया।।7।।
पंचकल्याणक ये हैं सारे सभी पाप को धोते,
इससे पुण्य कमाकर भविजन सारे कल्मष खोतै।
ऐसी महिमा आप निराली सभी ग्रन्थ ने गाया,
इसी हेतु मैं हे जिनवर जी शरण् ाआपकी आया।।8।।
पंचकल्याणक पूजा से सब पंचकल्याणक पाते,
अतुलित पुण्य कमाकर के वे जग में फिर नहीं आते।
पंचकल्याणक हुए आपके, मेरा हो कल्याणा,
‘योगी‘ की है यही प्रार्थना मेरा भी कुछ ध्यान हो।।9।।
दोहा
पाँच कल्याणक आपके, हुए जिनेश्वर नाथ।
एक बार कल्याण मम, कर दीजे जिन नाथ।।
र्नै्र ह्रीं श्री वृषभादि वर्द्धमान पर्यन्त चतुर्विशति तीर्थंकर जिन समूह
पंचकल्याणकेभ्यःजयमाला जल-फलादि पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(राग-मेरी भवना, जिसने राग-द्वेष...)
पंचकल्याणक पूजा करके जो अतिशय पुण्य कमाते हैं।,
पंच लब्धियाँ उनको मिलती कर्म रहित हो जाते हैं।
पंचकल्याणक उनका होता प्रपंच सभी मिट जाते हैं,
‘योगी‘ बनकर योग्य पुरुष हो मुक्ति कान्ता पाते हैं।।