गुरु विद्यासागर चालीसा
(दोहा)
पंच परम परमेष्ठि को, पूजूं मन वच काय।
परमोत्तम पद पा सकूं, पाप पंक मिट जाय ।।1।।
जिनवाणी जिनदेवजी, और गुरु महाराज।
इनको बन्दूं विनय से, बनूं मुक्ति सरताज ।।2।।
(चौपाई)
जय गुरुवर विद्या के सागर, रत्नत्रय के तुम रत्नाकर ।
मन्द मधुर मुस्कान तुम्हारी, लगती है अति प्यारी प्यारी ।
गांव सदलगा कर्नाटक में, ख्यात हुआ है भारत भर में।
रात शरद-पूनम की भारी, जनम लियो तुम जन हितकारी ।
श्रीमतिजी है तुमारी माता पिता मलप्पा धन के दाता ।
भ्रात बहन अरू मात पिताजी, बने सभी मुनि अरु माताजी ।
धन्य धन्य परिवार आपका, काट रहा जंजीर पाप का।
बीस साल में तुम घर छोड़ा, मुक्ति रमा से नाता जोड़ा।
दक्षिण से अजमेर को आये, ज्ञान गुरु को तुम अपनाये ।
गुरुवर तेरे ज्ञान सु सागर, ज्ञान-ध्यान के सच्चे आगर ।
हिन्दी, संस्कृत, न्याय पढ़ाया, एक साल में मुनि बनाया।
विद्याधर से विद्यासागर, साधु बने तुम नग्न दिगम्बर ।
आचार्य पद दिया आपको, दीन-हीन के हित करने को।
उत्तम गुण से मण्डित हो तुम, ज्ञान विशारद पण्डित हो तुम।
सब शास्त्रों के तुम हो ज्ञाता, ज्ञान-निधि की तुम हो दाता ।
स्याद्वाद तुमरी वाणी, सुनते हैं नित लाखों प्राणी।
करते हो तुम लेखन चिन्तन, जिनवाणी का करके मंथन |
सोते हो तुम बिना चटाई, ना मेवा ना खाय मिठाई |
फल या फल का रस नहिं पीते, मीठा नमकीन कुकुछछ नहिं खाते।
चौमासा तुम जहां कर लेते, जंगल में मंगल कर देते ।
ज्ञान- सिन्धु के तुम हो मोती, देते सबको सम्यक् ज्योति ।
दश शतकों के तुम निर्माता, समयसार की जैसी गाथा।
मूक माटी महाकाव्य बनाया, जैन धर्म का सारं बताया।
महावीर के तुम लघु भ्राता, जन जन के हो प्राण प्रदाता ।
जिनवाणी के लाल तुम्ही हो, जैन धर्म की ढाल तुम्हीं हो ।
मोक्ष मार्ग के तुम हो नेता, काम क्रोध अरु अक्ष विजेता।
समयसार के तुम हो अर्चन, मूलाचार के तुम हो दर्पण।
मंत्र तंत्र से सदा दूर हो, विद्यामृत के महापूर हो । -
बिन मांगे तुम सब कुछ देते, बदले में कुछ नहीं लेते।
ब्रह्मा विष्णु तुम शिव शंकर, सकल विश्व के तुम्ही हितकर |
चरण आपके जहां पड़े हैं, वहां धर्म की ध्वजा गड़े हैं।
भव दावानल महा दुखदाई, तुमने सच्ची राह दिखाई।
वैद्यों में तुम वैद्य-राज हो, भवदुख का करते इलाज हो ।
ब्राह्मी विद्या आश्रम खोला, जन-जन ने जयकारा बोला।
सुर-नर किन्नर मुनिगण सारे, गाते हैं गुण-गान तुम्हारे ।
तुम्हें देखकर हर अभिमानी, हो जाते हैं पानी-पानी।
संघ आपका जग में भारी, सारा संघ सु बालब्रह्मचारी |
सुर-नर किन्नर मुनिगण सारे, गाते हैं गुण-गाान तुम्हारे ।
तेरे गुणहम गाते गाते, निश्चित भव सागर तर जाते ।
हम बच्चे हैं छोटे बिन्दू, हमें बना दो अपार सिन्धु ।
जिसे मिला आशीष तुम्हारा, संयम पद को उसने धारा ।
उत्तम मुनि' चालीसा गावे, 'विद्या गुरु' को शीश नवावे ।
दोहा
गुरु चालीसा को पढे, जो नित चालीस बार।
विद्यासागर पद लहे, भवदद्धि करके पार।।
मैं बालक अल्पज्ञ हूं, अल्पज्ञ हं हं मैं मति का मंद |
ज्ञानी सुधार के पढे, गुरु चालीसा छन्द।।