2. श्री चन्द्रप्रभ विधान
2. श्री चन्द्रप्रभ विधान
2. श्री चन्द्रप्रभ विधान
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(प्रारंभ)
स्थापना
दोहा
चन्द्रप्रभु का नाम ही, हरे कष्ट सब पाप ।
दर्शन पूजन से मिले, सब कुछ अपने आप ||
( ज्ञानोदय-लय- मेरी भावना)
जो इस जग में स्वयं शुद्ध हैं, सबको शुद्ध बनाते हैं ।
जिनके दर्शन भक्तजनों को, सुख की राह बताते हैं ।
ताराओं से घिरा चाँद भी, जिनके दर्शन को तरसे ।
ऐसे चन्द्रप्रभु को हम तो, आज पूजकर हैं हरषे ॥ 1 ॥
नाथ ! आपके जगह-जगह पर, चमत्कार हैं अतिशय हैं ।
भक्त मुक्ति सुख शांति सम्पदा, पाते कर्मों पर जय हैं ।
यही प्रार्थना यही भावना, धर्मामृत बरसाओ ना ।
बिन माँगे सब कुछ मिल जाता, हृदय हमारे आओ-ना ॥ 2 ॥
ॐ ह्रीं श्री चन्द्रप्रभ जिनेन्द्र ! अत्र अवतर! अवतर! संवौषट् आह्वननं
ॐ ह्रीं श्री चन्द्रप्रभ जिनेन्द्र ! अत्र तिष्ठ! तिष्ठ ! ठः ठः स्थापनं
ॐ ह्रीं श्री चन्द्रप्रभ जिनेन्द्र ! अत्रमम सन्निहितो भव-भव वषट् सन्निधिकरणं
(पुष्पांजलिं)
बचपन खोया खेल खेल में, गयी जवानी भोगों में ।
देख बुढ़ापा फक-फक रोते, जीवन गुजरा रोगों में ।।
रोगों से छुटकारा मिलता, चन्द्रप्रभु की पूजन से
जनम मरण आदिक दुख नशते, प्रामुक जल के अर्पण से ।। 3 ।।
ॐ ह्रीं श्री चन्द्रप्रभ जिनेन्द्राय जन्म जरा मृत्यु विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा ।
चारु चन्द्र की किरणें चंदन, हिमकण जल की शीतलता ।
भव संताप मिटे ना इनसे, मुरझाती है जीव लता ।।
तन-मन भव - संताप दूर हो, चन्द्रप्रभु पूजन से
देह सुगंधित बने मनोहर, शुभ चन्दन के अर्पण से ॥ 4 ॥
ॐ ह्रीं श्री चन्द्रप्रभ जिनेन्द्राय संसार ताप विनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा ।
जग पद पैसा मान प्रतिष्ठा, ये ही संकट विकट रहे ।
रूप दिगम्बर किसे सुहाता, जीव इसी बिन भटक रहे ।
पद आपद हर्त्ता पद मिलता, चन्द्रप्रभु की पूजन से ।
सुख सम्पत्ती अक्षय मिलते, अखण्ड अक्षत अर्पण से ।। 5 ।।
ॐ ह्रीं श्री चन्द्रप्रभ जिनेन्द्राय अक्षय पद प्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा ।
राम लखन सीता आदिक जो, ब्रह्मचर्य धर सुखी रहे।
ब्रह्मचर्य जो धर न सके वो, रावण जैसा दुखी रहे ।
इन्द्रिय जय कर प्रभु बन जाते, चन्द्रप्रभु की पूजन से।
माला जैसे खिलके महको, दिव्य पुष्प के अर्पण से || 6 ||
ॐ ह्रीं श्री चन्द्रप्रभ जिनेन्द्राय कामबाण विध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा ।
जिनकी भूख नींद रूठी वे, महा दुखी इंसान रहे ।
जिनकी भूख नींद मिटती वे, महा पूज्य भगवान रहे ।
भूख नींद आदिक दुख नशते, चन्द्रप्रभु की पूजन से ।
स्वर्गों का साम्राज्य प्राप्त हो, ये नैवेद्य समर्पण से ॥ 7 ॥
ॐ ह्रीं श्री चन्द्रप्रभ जिनेन्द्राय क्षुधा रोग विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
यदि श्रद्धा विश्वास अटल हो, तो रत्नों के दीप जले ।
राहु-केतु शनि फिर भय खाते, सूर्य चाँद भी पूज चले ॥
मिले दीप यों मोह हरण को, चन्द्रप्रभु की पूजन से ।
काय-कांति भी अद्भुत बढ़ती, दीपक द्वारा अर्चन से ॥ 8 ॥
ॐ ह्रीं श्री चन्द्रप्रभ जिनेन्द्राय महामोहांधकार विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा ।
धुआँ - धुआँ जब चले सूर्य तो, ताप रोशनी मिले नहीं ।
धुआँ - धुआँ जीवन जलता तो, कर्मों का वन जलें नहीं ॥
अष्ट कर्म का भव वन जलता, चन्द्रप्रभु की पूजन से ।
फिर सौभाग्य सूर्य भी चमके, धूप सुगंधी अर्पण से ॥ 9 ॥
ॐ ह्रीं श्री चन्द्रप्रभ जिनेन्द्राय अष्टकर्म दहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा ।
भोग भोगकर धधक रहे हम, भोग हमें ही भोग रहे ।
दुनियाँ के फल-फूल विषैले, गजब कर्म संयोग रहे ।
जहर भोग विषयों के नशते, चन्द्रप्रभु की पूजन से ।
मनोकामना पूरी होती, प्रासुक फल के अर्पण से ॥ 10 ॥
ॐ ह्रीं श्री चन्द्रप्रभ जिनेन्द्राय महामोक्ष फल प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा ।
अष्ट अंग मय नमस्कार कर, अष्ट शुद्धि मय आयें हम ।
अष्ट कर्म को हरने स्वामी, अष्ट द्रव्य भी लाये हम |
अष्टम् वसुधा मिलती, अष्टम चन्द्रप्रभु की पूजन से ।
यश वैभव उत्तमपद मिलते, सविनय अर्घ समर्पण से ॥ 11 ॥
ॐ ह्रीं श्री चन्द्रप्रभ जिनेन्द्राय अनर्धपद प्राप्तये अर्घ निर्वपामीति स्वाहा ।
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पंचकल्याणक अर्ध"
दोहा
कृष्ण पंचमी चैत्र को, वैजयन्त सुर छोड़ ।
लक्षमणा के गर्भ में आये चन्द्र चकोर ॥ "
ॐ ह्रीं श्री चन्द्रप्रभ जिनेन्द्राय चैत्र कृष्ण पंचम्यां गर्भ मंगल मंडिताय अर्थ...
ग्यारस कृष्णा पौप में जन्मे चन्द्र जिनेश ।
महासेन के चन्द्रपुर, उत्सव किये सुरेश ।।
ॐ ह्रीं श्री चन्द्रप्रभ जिनेन्द्राय चैत्र कृष्ण एकादश्यां जन्म मंगल मंडिताय अर्घं...
ग्यारस कृष्णा पौष में, तजे मोह संसार ।
मुनि बनकर तप से सजे, जय जय बारंबार ।।
ॐ ह्रीं श्री चन्द्रप्रभ जिनेन्द्राय पौष कृष्ण एकादश्यां तपो मंगल मंडिताय अर्घ...
सातें फागुन कृष्ण में, बने केवली नाथ ।
चन्द्रपुरी के चन्द्र को, झुके सभी का माथ ॥
ॐ ह्रीं श्री चन्द्रप्रभ जिनेन्द्राय फाल्गुन कृष्ण सप्तम्यां केवलज्ञान मंगल मंडिताय अर्घ...
सम्मेदाचल से गये, मोक्ष महल के धाम ।
सातें फागुन शुक्ल में, सुर नर करें प्रणाम ।
ॐ ह्रीं श्री चन्द्रप्रभ जिनेन्द्राय फाल्गुन शुक्ल सप्तम्यां मोक्ष मंगल मंडिताय अर्घं...
जयमाला
दोहा
चन्द्रप्रभु भगवान के, गुण-गण जग विख्यात ।
जयमाला के नाम हम, कहते अपनी बात ॥
( ज्ञानोदय छंद)
महासेन नृप, लक्षमणा के, राज कुँवर चंदा स्वामी ।
चन्द्रपुरी के चन्द्र चकोरे, चित्त चोर अंतरयामी ॥
चाँदी- चाँदी सबकी करते, चाँदी जैसे चमक रहे ।
तभी भक्त चाँदी सोना ले, चन्द्र चरण में चहक रहे ।।
चारु चन्द्र की चमक चाँदनी, चंदन उनको रुचते क्या ।
जिनने दर्शन किए आपके, सूर्य चाँद वे भजते क्या
चकनाचूर हुयी चंचलता, चन्द्रप्रभु की चर्चा से ।
चूर-चूर अभिमान हुआ फिर, नाथ! आपकी अर्चा से ॥
अर्चा करना भूल गये हम, फँसकर दुनियाँ दारी में
तभी हमारी किस्मत फू टी, यारी रिस्तेदारी में ।।
हमने जिसको सगा समझ के, अपना सब कुछ सौंपा है।
दगाबाज बन उस प्राणी ने, छुरा पीठ में धौंपा है।
समझ हितैषी जिस मानव को, भगवन जैसा पूजा है।
मतलब निकला तो उसका मुँह, हमें देखकर सूजा है ।
जिन्हें बात करना सिखलाये, वही हमें फटकार रहे।
जिन्हें पिलाया अमृत हमने, वही जहर दे मार रहे ।
, फूल माल जिनको पहनायी, बने गले का वे फंदा ।
जिनको रत्नों सा चमकाये, वे हमको कहते गंदा ॥
नाथ ! बात हम कहें कहाँ तक अपनी करुण कहानी की ।
हुआ हमारा जीवन ऐसा, ओस बूँद ज्यों पानी की ॥ "
ये नशने से बच जाता है, नाम आपका सुनकर के ।
फिर भी चन्दा ग्रह में बांधे, लोग सोम दिन चुनकर के ॥
समंत भद्र की सुनकर भक्ति, हुए प्रकट तो शोर हुआ ।
जैन धर्म का बिगुल बजा तो, अतिशय चारों ओर हुआ ।
ऐसा अतिशय अब दिखलादो, विघ्न कष्ट दुख नाश करो ।
दुनियाँ मोक्ष महल बन जाये, सबके दिल तुम वास करो ॥
व्यसन बुराई पाप मिटें सब, दया अहिंसा महक उठें। "
सुव्रत" अपना धर्म समझ के, चंदा जैसे चमक उठें ॥
दोहा
छंद शब्द का ज्ञान ना, फिर भी भक्ति अथाह ।
चन्द्रप्रभु को पूज हम, चलें मुक्ति की राह ||
ॐ ह्रीं श्री चन्द्रप्रभ जिनेन्द्राय जयमाला पूर्णार्धं निर्वपामीति स्वाहा ।
शांति शांतिधारा करे, करे शांति चहुँओर ।
पुष्पांजलि से हो रहे, भक्त कमल के भोर ॥
( शांति धारा.. / पुष्पांजलिं......)
श्री चन्द्रप्रभ विधान अर्घावली
॥ जब औरों पर जोर चले ना, तभी क्रोध हम कर बैठे ।
गैर जले या नहीं जले पर, आप स्वयं हम जल बैठे ।।
क्रोध आग को क्षमा नीर दो, क्रूर क्रोध परिणाम हरो ।
हे चन्द्रप्रभ ! अपने जैसे, हमको भी गुणवान करो ॥ 1 ॥
ॐ ह्रीं परस्पर क्रोध, बैर विनाशन समर्थ श्री चन्द्रप्रभ जिनेन्द्राय अर्घ...
गुणियों का सम्मान न करना, यही मान का लक्षण है।
वंश कंश रावण कौरव के, मिटे इसी से तत्क्षण हैं |
मान विजय को विनय सिखाओ, अक्कड़पन अभिमान हरो ।
हे चन्द्रप्रभु ! अपने जैसे, हमको भी गुणवान करो ॥ 2 ॥
ॐ ह्रीं मानसिक रोग मान विनाशन समर्थ श्री चन्द्रप्रभ जिनेन्द्राय अर्घ...
वेद पुराणों शास्त्रों के यदि, ज्ञानी बनकर कुपथ चले।
पढ़े लिखे वे मूरख जैसे करें ज्ञानमद फूल चले ॥
भले रहें अज्ञानी लेकिन हमें भक्ति का दान करो ।
हे चन्द्रप्रभु ! अपने जैसे, हमको भी गुणवान करो ॥ 3 ॥
ॐ हीं बुद्धि विकार ज्ञान मद विनाशन समर्थ श्री चन्द्रप्रभ जिनेन्द्राय अर्थ...
अपनी जय जय कार प्रशंसा, मान प्रतिष्ठा पूजाएँ।
सुनकर फूले भरे जोश से, पूजा मद वो कहलाएँ ।
पूजा मद को जीत सकें हम, अपयश मद अपमान हरो ।
हे चन्द्रप्रभु ! अपने जैसे, हमको भी गुणवान करो ।। 4 ।।
ॐ ह्रीं अपयश पूजा-मद विनाशन समर्थ श्री चन्द्रप्रभ जिनेन्द्राय अर्घ...
वंश पिता दादा का वैभव, बढ़ा चढ़ा जो कुल पाना ।
सुना-सुना कर उसकी बातें, अहंकार से भर जाना ॥
यही जीतने कुल-मद हमको, जिन - कुल का वरदान करो ।
हे चन्द्रप्रभु ! अपने जैसे, हमको भी गुणवान करो ॥ 5 ॥
ॐ ह्रीं क्लेश दायक कुल-मद विनाशन समर्थ श्री चन्द्रप्रभ जिनेन्द्राय अर्घं...
नाना, मामा, माँ का कुल जो, उच्च जाति को पा फूले ।
मोक्ष मार्ग में नहीं लगा के दर्प भरे मद में झूले ।
यही जाति मद जीत सकें हम, ऐसा सम्यक्ज्ञान भरो ।
हे चन्द्रप्रभु ! अपने जैसे, हमको भी गुणवान करो ॥ 6 ॥
ॐ हीं भेद-भाव जनक जाति-मद विनाशन समर्थ श्री चन्द्रप्रभ जिनेन्द्राय अर्घ...
शौर्य पराक्रम ऐसा जिससे, कर्म शैल भी हर सकते ।
पर उससे आतंक किया तो, नरक सैर भी कर सकते ।
नश्वर ऐसा बल - मद तजने, आत्मशक्ति का दान करो ।
हे चन्द्रप्रभु ! अपने जैसे, हमको भी गुणवान करो ॥ 7 ॥
ॐ ह्रीं शक्तिहारक बल - मद विनाशन समर्थ श्री चन्द्रप्रभ जिनेन्द्राय अर्घ... -
कठिन साधना तूफानी कर, ऋद्धि प्राप्त कर मद करना ।
तंत्र मंत्र जादू टोना कर, पाखंडी शिव पथ करना ॥
यही ऋद्धि-मद त्याग सकें हम, मोक्ष मार्ग का दान करो ।
हे चन्द्रप्रभु ! अपने जैसे, हमको भी गुणवान करो ॥ 8 ॥
ॐ ह्रीं मंत्र प्रभाव हारक ऋद्धि-मद विनाशन समर्थ श्री चन्द्रप्रभ जिनेन्द्राय अर्घ...
घोर तपस्या भाँति-भाँति की, करके खुद को बड़े कहें ।
मुझ जैसा है कौन तपस्वी, तन शोषण कर खड़े रहें ।
पतन द्वार ये तप मद हरने, हमरा भी कुछ ध्यान धरो ।
हे चन्द्रप्रभु ! अपने जैसे, हमको भी गुणवान करो ॥ 9 ॥
ॐ ह्रीं पतन द्वार तप-मद विनाशन समर्थ श्री चन्द्रप्रभ जिनेन्द्राय अर्घ...
अतिशय सुन्दर कामदेव सा, तन पाकर अभिमान करें । ।
हँसी उड़ाएँ कुरूप जन की, खुद को श्रेष्ठ महान कहें ॥
यही रूप मद त्याग सकें यों, दान भेद विज्ञान करो ।
हे चन्द्रप्रभु ! अपने जैसे, हमको भी गुणवान करो ॥ 10 ॥
ॐ ह्रीं भेद विज्ञान हारक रूप मद विनाशन समर्थ श्री चन्द्रप्रभ जिनेन्द्राय अर्घ...
कपट करें विश्वास त्याग कर, कथनी करनी एक नहीं ।
तन के उजले मन के काले, बगुला भक्ति नेक नहीं ॥
मुँह में राम बगल में छुरी, जग माया के काम हरो ।
हे चन्द्रप्रभु ! अपने जैसे, हमको भी गुणवान करो ॥ 11 ॥
ॐ ह्रीं कलंक माया विनाशन समर्थ श्री चन्द्रप्रभ जिनेन्द्राय अर्धं...
तज संतोष, लोभ लालच में, जीवन कितने गवाँ दिए ।
लोभ पाप का बाप रहा ये, गुरु की वाणी भुला दिए ।
तृष्णा तृप्त हुई ना अपनी, संतोषामृत दान करो ।
हे चन्द्रप्रभु ! अपने जैसे, हमको भी गुणवान करो ॥ 12 ॥
ॐ ह्रीं शांति हारक लोभ विनाशन समर्थ श्री चन्द्रप्रभ जिनेन्द्राय अर्घ...
पृथ्वी कायिक जीवों को, हम रोज रात दिन सता रहे ।
सोना चाँदी हीरा पत्थर, इनसे खुद को सजा रहे ।
इनको हमसे कष्ट न हो यों, संयम दे उद्धार करो ।
हे चन्द्रप्रभु ! नाव हमारी भव सागर से पार करो ॥ 13 ॥
ॐ ह्रीं पृथ्वी सम्बन्धी दुःख विनाशन समर्थ श्री चन्द्रप्रभ जिनेन्द्राय अर्घं...
ओस बर्फ जल-ओला कुहरा, इन्हें मारकर हम जीते ।
जल जीवन है ऐसा कहके, इन्हें कष्ट दे जल पीते ॥
इनको हमसे कष्ट न हो यों, संयम दे उद्धार करो ।
हे चन्द्रप्रभु ! नाव हमारी भव सागर से पार करो ॥ 14 ॥
ॐ ह्रीं जल सम्बन्धी समस्या विनाशन समर्थ श्री चन्द्रप्रभ जिनेन्द्राय अर्घ...
दीप ज्योति ज्वाला अंगारे, आग- अग्नि कायिक हैं जो ।
स्वार्थ सिद्धि को इन्हें मारते, निर्वल दीन हीन हैं वो ।
इनको हमसे कष्ट न हो यों, संयम दे उद्धार करो ।
हे चन्द्रप्रभु ! नाव हमारी, भव सागर से पार करो ॥ 15 ॥
ॐ ह्रीं अग्नि सम्बन्धी समस्या विनाशन समर्थ श्री चन्द्रप्रभ जिनेन्द्राय अर्घ...
पवन हवा कूलर पंखे से, मरें वायु कायिक सारे ।
श्वासों को लेने वाले सब, इन पर चला रहे आरे ।।
इनको हमसे कष्ट न हो यों, संयम दे उद्धार करो ।
हे चन्द्रप्रभु ! नाव हमारी, भव सागर से पार करो ॥ 16 ॥
ॐ ह्रीं वायु सम्बन्धी समस्या विनाशन समर्थ श्री चन्द्रप्रभ जिनेन्द्राय अर्घ...
पेड़ लता फल पत्ते पौधे, यही वनस्पति कायिक है ।
अपने-सुख आसक्त इन्हीं के, बेदर्दी से मारक है ।
इनको हमसे कष्ट न हो यों, संयम दे उद्धार करो ।
हे चन्द्रप्रभु ! नाव हमारी, भव सागर से पार करो ॥ 17 ॥
ॐ ह्रीं वनस्पति सम्बन्धी समस्या विनाशन समर्थ श्री चन्द्रप्रभ जिनेन्द्राय अर्घं
जो होते दो-तीन-चार या, पंचेन्द्री को त्रस कहते ।
गैरों की खातिर ये प्राणी, पग-पग पल-पल दुख सहते ॥
इनको हमसे कष्ट न हो यों, यों, संयम दे उद्धार करो ।
हे चन्द्रप्रभु ! नाव हमारी, भव सागर से पार करो ॥ 18 ॥
ॐ हीं प्राणी मात्र सम्बन्धी समस्या विनाशन समर्थ श्री चन्द्रप्रभ जिनेन्द्राय अर्घ...
एक परस इन्द्री में फैसकर, हाथी प्राण गँवाने हैं।
यश सम्मान इसी से घटते, जय करके मुख पाते हैं।
आठ तरह परसन जीते यों, संयम दे उद्धार करो।
हे चन्द्रप्रभु ! नाव हमारी, भव सागर से पार करो ॥ 19 ॥
ॐ ह्रीं स्पर्शन-दोष विनाशन समर्थ श्री चन्द्रप्रभ जिनेन्द्राय अर्थ.
पाँच तरह के भोजन के रस, सरगम के रस चखे सदा।
लाज नशाये युद्ध कराये, मछली इसमें फँसे सदा ॥
ऐसी रसना विजय करें यों, संयम दे उद्धार करो ।
हे चन्द्रप्रभु ! नाव हमारी, भव सागर से पार करो ॥ 20 ॥
ॐ ह्रीं रसना-दोष विनाशन समर्थ श्री चन्द्रप्रभ जिनेन्द्राय अर्घ...
जो दुर्गंध सुगंध को सूँघे, वही घ्राण इन्द्री होती ।
इसमें जो आसक्त हुये तो, भौरे जैसी गति होती ।।
ऐसी इन्द्री घ्राण विजय को, संयम दे उद्धार करो ।
हे चन्द्रप्रभु ! नाव हमारी, भव सागर से पार करो ॥ 21 ॥
ॐ ह्रीं नासिका दोष विनाशन समर्थ श्री चन्द्रप्रभ जिनेन्द्राय अर्घ...
नीला पीला श्याम श्वेत या, लाल रंग जो बतलाती ।
मरे पतंगा जिससे वो ही, चक्षू इन्द्री कहलाती ॥
ऐसी इन्द्री चक्षू जय को, संयम दे उद्धार करो ।
हे चन्द्रप्रभु ! नाव हमारी, भव सागर से पार करो ॥ 22 ॥
ॐ ह्रीं दृष्टि दोष विनाशन समर्थ श्री चन्द्रप्रभ जिनेन्द्राय अर्घ... -
सा, रे, गा, मा, पा, धा, नी, जो, सुने सात सुर कान वहीं ।
सॉप, हिरण इसमें फंस मरते, आत्म गीत का ज्ञान नहीं ।
ऐसी इन्द्री श्रोत्र विजय को, संयम दे उद्धार करो ।
हे चन्द्रप्रभु ! नाव हमारी, भव सागर से पार करो ॥ 23 ॥
ॐ ह्रीं श्रुत दोष विनाशन समर्थ श्री चन्द्रप्रभ जिनेन्द्राय अर्घ...
सीधी सादी सभी इन्द्रियाँ, ढेड़े मेढ़े मन-दादा |
राग द्वेष कर जग भटकाते, करते दुखी बहुत ज्यादा ॥
करें नपुंसक मन पर जय यों, संयम दे उद्धार करो ।
हे चन्द्रप्रभु ! नाव हमारी, भव सागर से पार करो ॥ 24 ॥
ॐ ह्रीं समस्त हृदय रोग विनाशन समर्थ श्री चन्द्रप्रभ जिनेन्द्राय अर्घ...
(पूर्णार्ध)
नाथ आप सब कुछ जानो पर, तुम्हें कोई न जान सके ।
सबके रक्षक पालन कर्त्ता, तुम्हें कौन पहचान सके ।
फिर भी उत्तम वे बनते जो, शीश झुका सम्मान करें ।
पूज्य गुणों के गौरव बनते, जो तेरा गुणगान करें ॥
दोहा
चन्द्रपुरी के चन्द्र को, सविनय टेकें शीश ।
अर्घ समर्पण हम करें, मिले शांति आशीष ॥
ॐ ह्रीं श्री चन्द्रप्रभ जिनेन्द्राय पूर्णार्घं निर्वपामीति स्वाहा |
( जाप्य मंत्र )
ॐ ह्रीं णमो अरहंताणं श्री चन्द्रप्रभ जिनेन्द्राय नमो नमः ।
समुच्चय जयमाला
दोहा अंध-बंध मय लोक को, दिये दृष्टि जिनराज ।
ऐसे चन्द्र जिनेश जी, करिए दिल पर राज |
(ज्ञानोदय )
अष्टम तीर्थंकर जो जग में, चन्द्रप्रभु भगवान रहे ।
अष्ट कर्म को हरने वाले, भक्तों की वे शान रहे ।।
अतिशय - कारी अतिशय - धारी, उनकी महिमा हम गायें ।
स्वर्ग सुखों में क्या रक्खा है, मोक्ष धर्म हम अपनाएँ ॥ 1 ॥
पहले भव में श्री वर्मा जो, चार स्वप्न दे जन्म लिए ।
जो जिनवर से तत्त्व ज्ञान ले, दीक्षा ले भव धन्य किए |
फिर संयास मरण अपना के पहले स्वर्ग सुरेश हुए।
स्वर्ग त्याग फिर आठ स्वप्न दे, अजित सेन चक्रेश हुए ॥ 2 ॥
फिर चक्री तप धार मरणकर, सोलहवे सुर रूप हुए ।
सपना दे फिर स्वर्ग त्याग कर, पद्म-नाभ सुत भूप हुए |
पद्मनाभ वैराग्य धार कर, चउ आराधन संग लिये ।
सोलहकारण भाय भावना, तीर्थंकर पद बंध किये ॥ 3 ॥
अन्त समय कर मरण समाधी, वैजयन्त सुर इन्द्र हुए।
फिर सोलह सपने देकर के, चन्द्रपुरी के चन्द्र हुए ||
शुक्ल वर्ण में शुक्ल भाव में, बनकर राजा राज्य किया ।
सब कुछ नश्वर जान समझ के, मोक्ष मार्ग वैराग्य लिया ॥ 4 ॥
घाति कर्म हर हुए केवली, अष्टकर्म हर सिद्ध बने ।
ताराओं के बीच चाँद - ज्यों, ऐसे जगत प्रसिद्ध बने ।
नाथ आप ने सात-सात भव, कठिन तपस्या धारण की ।
तब जाके सब कर्म नाश कर, मोक्ष सम्पदा वारण की ॥ 5 ॥
हमें तपस्या से डर लगता, मोक्ष मार्ग ना धर्म रुचे ।
फिर कैसे भव तीर मिलेगा, कैसे जग में लाज बचे ॥
भाग्य हमारा बिगड़ न जावे, ऐसी ज्योति जला दीजे ।
सागर की लहरों जैसे ही, हमको भी अपना लीजे ॥ 6
सब पर तुम करुणा बरसाते, हम पर भी बरसाओ ना।
सूर्य चाँद जो कर न सकें वो, ज्ञान प्रकाश दिलाओ ना ॥
चाँद राहु से होता दागी, किन्तु ! आप बेदाग रहे ।
सुव्रत" की अब अर्जी सुन लो जो शिव सुख को माँग रहे ॥ 7 ॥
दोहा
सार्थक चन्दा नाम है, हमको करो निहाल ।
सादर हम सब गा रहे, चरणों की जय माल ॥
स्वार्थ रहित है प्रार्थना, आश रहित गुणगान
मनोकामना पूर्ण हो, मिले यही वरदान |
ॐ ह्रीं श्री चन्द्रप्रभ जिनेन्द्राय समुच्चय जयमाला पूर्णाघ निर्वपामीति स्वाहा |
( शांति धारा.. / पुष्पांजलिं......)