|| जिनगुण सम्पत्ति विधान 

🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹

समुच्चय-पूजन


-गीता छंद-

जिनगुणमहासंपत्ति के, स्वामी जिनेश्वर को नमूँ।

त्रिभुवनगुरू श्रीसिद्ध को, वन्दन करत भवविष वमूँ।।

त्रयकाल के तीर्थंकरों की, मैं करूँ आराधना।

निज आत्मगुण सम्पत्ति की, इस विध करूँ मैं साधना।।१।।


जिनगुणअतुल सम्पत्ति का, व्रत जो भविक विधिवत् करें।

व्रत पूर्णकर उद्योत हेतू, नाथ गुण अर्चन करें।।

मंगल महोत्सव वाद्य से, जिन यज्ञ उत्सव विधि करें।

संगीत नर्तन भक्ति वर्धन, पुण्य अर्जन, विधि करें।।२।।

-दोहा-

चौबीसों जिनराज को, नितप्रति करूँ प्रणाम।

व्रतउद्योतन अर्चना, करूँ आज इत ठाम।।३।।


ॐ ह्रीं जिनयज्ञ प्रतिज्ञापनाय दिव्य पुष्पांजलिं क्षिपेत्।



-स्थापना (अडिल्लछंद)-

महावीर अतिवीर, महति जिनवीर हैं।

वर्धमान श्री सन्मति, गुण गंभीर हैं।।

गुण मणि भर्ता, तीर्थंकर को नित नमूँ।

जिन गुण संपति अर्चाकर, नहिंभव भ्रमूँ।।


ॐह्रीं जिनगुण सम्पत्ति समूह! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।

ॐह्रीं जिनगुण सम्पत्ति समूह! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।

ॐह्रीं जिनगुण सम्पत्ति समूह! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।



-अथाष्टक-नरेन्द्रछंद-

भागीरथी नदी के शीतल, जल से झारी भरिये।

श्री जिनवर के पादयुगल में, धारा कर दु:ख हरिये।।

जिनगुण सम्पति व्रत उद्योतन, हेतु जजूँ गुण संपद।

परमानंद परमसुख सागर, पाऊँ जिनगुण संपद।।१।।


ॐह्रीं सकलजिनगुणसंपदे जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।



वंâचनद्रवसम१ वुंâकुमचंदन, भवआतप हर लीजे।

श्री जिनवर के पादयुगल में, अर्चन कर सुख लीजे।।

जिनगुण सम्पति व्रत उद्योतन, हेतु जजूँ गुण संपद।

परमानंद परमसुख सागर, पाऊँ जिनगुण संपद।।२।।


ॐह्रीं सकलजिनगुणसंपदे संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।



मुक्ताफलसम उज्ज्वल अक्षत, सुरभित थाल भराऊँ।

श्री जिनवर के सन्मुख सुन्दर, सुखप्रद पुंज रचाऊँ।।

जिनगुण सम्पति व्रत उद्योतन, हेतु जजूँ गुण संपद।

परमानंद परमसुख सागर, पाऊँ जिनगुण संपद।।३।।


ॐह्रीं सकलजिनगुणसंपदे अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।



कमल मालती पारिजात, अरु चंपक पुष्प मंगाऊँ।

भवविजयी जिनवर पदपंकज, पूजत काम नशाऊँ।।

जिनगुण सम्पति व्रत उद्योतन, हेतु जजूँ गुण संपद।

परमानंद परमसुख सागर, पाऊँ जिनगुण संपद।।४।।


ॐह्रीं सकलजिनगुणसंपदे कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।



लड्डू पेड़ा मिष्ट अंदरसा, पेâनी गुझिया लाऊँ।

क्षुधा रोगहर सर्व शक्तिधर, सन्मुख चरू चढ़ाऊँ।।

जिनगुण सम्पति व्रत उद्योतन, हेतु जजूँ गुण संपद।

परमानंद परमसुख सागर, पाऊँ जिनगुण संपद।।५।।


ॐह्रीं सकलजिनगुणसंपदे क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।



मणिमय दीपक गो घृत से भृत, जगमग ज्योति जले है।

लोकालोक प्रकाशी जिनवर, पूजत मोह टले है।।

जिनगुण सम्पति व्रत उद्योतन, हेतु जजूँ गुण संपद।

परमानंद परमसुख सागर, पाऊँ जिनगुण संपद।।६।।

ॐह्रीं सकलजिनगुणसंप


दे मोहांधकार विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।



सुरभित धूप धूपघट में नित, खेवत कर्म जले हैं।

आत्म गुणों की सौरभ दशदिश, पैâले अयश टले हैं।।

जिनगुण सम्पति व्रत उद्योतन, हेतु जजूँ गुण संपद।

परमानंद परमसुख सागर, पाऊँ जिनगुण संपद।।७।।


ॐह्रीं सकलजिनगुणसंपदे अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।



एला केला सेव संतरा, पिस्ता द्राक्ष मंगाऊँ।

अमृतफल के हेतु आपके, सन्मुख आन चढ़ाऊँ।।

जिनगुण सम्पति व्रत उद्योतन, हेतु जजूँ गुण संपद।

परमानंद परमसुख सागर, पाऊँ जिनगुण संपद।।८।।


ॐह्रीं सकलजिनगुणसंपदे मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।



जल गंधाक्षत पुष्प सुनेवज, दीप धूप फल लाऊँ।

रत्नत्रय निधि हेतु आपके, सन्मुख अघ्र्य चढ़ाऊँ।।

जिनगुण सम्पति व्रत उद्योतन, हेतु जजूँ गुण संपद।

परमानंद परमसुख सागर, पाऊँ जिनगुण संपद।।९।।


ॐह्रीं सकलजिनगुणसंपदे अनघ्र्यपदप्राप्तये अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।



--दोहा--

सकल जगत में शांतिकर, शांति धार सुखकार।

जिनपद में धारा करूँ, सकल संघ हितकार।।१०।।


शांतये शांतिधारा।


सुरतरु के सुरभित सुमन, सुमनस चित्त हरंत।

पुष्पांजलि अर्पण करत, मिटता दु:ख तुरंत।।११।।


दिव्य पुष्पांजलि:।


ॐह्रीं सकलजिनगुणसंपद्भ्यो नम:। (१०८ या ९ बार जाप)



जयमाला


-दोहा-

चिन्मयज्योतिस्वरूप जिन, परमानंद निधान।

तिन गुण मणिमाला कहूँ, निजसुखसुधासमान।।१।।


-स्रग्विणीछंद-

जै तुम्हारे गुणों को सदा गावना।

पेâर संसार में ना कभी आवना।।

जै गुणाधार गुण रत्न भंडार हो।

जै महापंच१ संसार से पार हो।।१।।


श्रेष्ठ दर्शनविशुद्ध्यिादि जो भावना।

जो धरें सोलहों तीर्थपद पावना।।

वो सकल विश्व में धर्म नेता बने।

धर्मचक्राधिपति२ सर्ववेत्ता बने।।२।।


पंचकल्याण भर्ता जगत वंद्य हो।

प्रातिहार्यों सुआठों से अभिनंद्य हो।।

जन्म से ही उन्हें दश चमत्कार हों।

केवलज्ञान लक्ष्मी के भरतार हो।।३।।


पूर्ण संज्ञान के दश सुअतिशय कहे।

देवकृत चौदहों अतिशयों को लहें।।

नाथ चौंतीस अतिशय महागुण भरें।

मुख्य त्रेसठ गुणों से महा सुख धरें।।४।।


मैं करूँ भक्ति से नित्य आराधना।

हो मुझे आत्म संपत्ति की साधना।।

पेâर ना हो जनम मृत्यु का धारना।

ज्ञानमति पूर्ण वैâवल्यमय पारना।।५।।


--घत्ता--

जय जय श्रीजिनवर, करम भरमहर, जय शिवसुंदरि के भर्ता।

मैं पूजूँ ध्याऊँ, तुम गुण गाऊँ, निजपद पाऊँ दुख हर्ता।।६।।


ॐह्रीं सकलजिनगुणसंपद्भ्यो जयमाला पूणाघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा ।



-गीताछंद-

जो भव्य श्रद्धा भक्ति से, जिनगुण सुसंपति व्रत करें।

व्रत पूर्णकर प्रद्योत हेतू, यज्ञ उत्सव विधि करें।।

वे विश्व में संपूर्ण सुखकर, इंद्र चक्रीपद धरें।

फिर ‘ज्ञानमति’ से पूर्ण गुणमय, तूर्ण१ शिवलक्ष्मी वरें।।१।।




जिनगुण सम्पत्ति विधान - प्रथम वलय पूजा


अथ स्थापना



--गीताछंद--

दर्शनविशुद्धी आदि सोलह, भावना भवनाशिनी।

जो भावते वे पावते, अति शीघ्र ही शिवकामिनी१।।


हम नित्य श्रद्धा भाव से, इनकी करें आराधना।

पूजा करें वसुद्रव्य२ ले, करके विधीवत् थापना।।१।।


ॐ ह्रीं दर्शनविशुद्ध्यादिषोडशकारणभावनासमूह! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।

ॐ ह्रीं दर्शनविशुद्ध्यादिषोडशकारणभावनासमूह! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।

ॐ ह्रीं दर्शनविशुद्ध्यादिषोडशकारणभावनासमूह! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।



-अथाष्टक-

चाल-चौबीसों श्री जिनचंद.....

पयसागर३ को जल स्वच्छ, हाटक४ भृंग भरूँ।

जिनपद में धारा देत, कलिमल दोष हरूँ।।

वर सोलह कारण भाय, तीरथनाथ बनें।

जो पूजें मन वच काय, कर्म पिशाच हनें।।१।।


ॐ ह्रीं दर्शनविशुद्ध्यादिषोडशकारणभावना जिनगुणसंपद्भ्यो जन्मजरा-मृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।



मलयज५ चंदन कर्पूर, केशर संग घिसा।

जिनगुण पूजा कर शीघ्र, भव भव दु:ख पिसा।।

वर सोलह कारण भाय, तीरथनाथ बनें।

जो पूजें मन वच काय, कर्म पिशाच हनें।।२।।


ॐ ह्रीं दर्शनविशुद्ध्यादिषोडशकारणभावना जिनगुणसंपद्भ्यो संसारताप-विनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।



उज्ज्वल शशि रश्मि समान, अक्षत धोय लिये।

अक्षय पद पावन हेतु, सन्मुख पुंज दिये।।

वर सोलह कारण भाय, तीरथनाथ बनें।

जो पूजें मन वच काय, कर्म पिशाच हनें।।३।।


ॐ ह्रीं दर्शनविशुद्ध्यादिषोडशकारणभावना जिनगुणसंपद्भ्यो अक्षयपद-प्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।



चंपक सुम१ हरसिंगार, सुरभित भर लीने।

भवविजयी२ जिनपद अग्र, अर्पण कर दीने।।

वर सोलह कारण भाय, तीरथनाथ बनें।

जो पूजें मन वच काय, कर्म पिशाच हनें।।२।।


ॐ ह्रीं दर्शनविशुद्ध्यादिषोडशकारणभावना जिनगुणसंपद्भ्यो कामबाण-विध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।



नानाविध घृत पकवान, अमृत सम लाऊँ।

निज क्षुधा निवारण हेतु, पूजत सुख पाऊँ।।

वर सोलह कारण भाय, तीरथनाथ बनें।

जो पूजें मन वच काय, कर्म पिशाच हनें।।५।।


ॐ ह्रीं दर्शनविशुद्ध्यादिषोडशकारणभावना जिनगुणसंपद्भ्यो क्षुधारोग-विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।



वंâचनदीपक की ज्योति, दशदिश ध्वाँत३ हरे।

जिन पूजा भ्रमतम टार, भेद विज्ञान करे।।

वर सोलह कारण भाय, तीरथनाथ४ बनें।

जो पूजें मन वच काय, कर्म पिशाच हनें।।६।।


ॐ ह्रीं दर्शनविशुद्ध्यादिषोडशकारणभावना जिनगुणसंपद्भ्यो मोहांधकार-विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।



कृष्णागरु धूप सुगंध, खेवत धूम्र उड़े।

निज अनुभव सुख से दुष्ट, कर्मन भस्म उड़े।।

वर सोलह कारण भाय, तीरथनाथ बनें।

जो पूजें मन वच काय, कर्म पिशाच हनें।।७।।


ॐ ह्रीं दर्शनविशुद्ध्यादिषोडशकारणभावना जिनगुणसंपद्भ्यो अष्टकर्म-दहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।



पिस्ता अखरोट बदाम, एला थाल भरे।

जिनपद पूजत तत्काल, सब सुख आन वरें।।

वर सोलह कारण भाय, तीरथनाथ बनें।

जो पूजें मन वच काय, कर्म पिशाच हनें।।८।।


ॐ ह्रीं दर्शनविशुद्ध्यादिषोडशकारणभावना जिनगुणसंपद्भ्यो मोक्षफल-प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।



जल चंदन अक्षत पुष्प, नेवज दीप लिया।

वर धूप फलों से पूर्ण, तुम पद अघ्र्य दिया।।

वर सोलह कारण भाय, तीरथनाथ बनें।

जो पूजें मन वच काय, कर्म पिशाच हनें।।९।।


ॐ ह्रीं दर्शनविशुद्ध्यादिषोडशकारणभावना जिनगुणसंपद्भ्यो अनघ्र्यपद-प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।



-दोहा-

सकल जगत में शांतिकर, शांतिधार सुखकार।

झारी से धारा करूँ, सकल संघ हितकर।।१०।।


शांतये शांतिधारा।


वुंâद कमल बेला वकुल, पुष्प सुगंधित लाय।

जिनगुण हेतू मैं करूँ, पुष्पांजलि सुखदाय।।११।।


दिव्य पुष्पांजलि:।


अथ प्रत्येक अघ्र्य - चाल-मेरी भावना.........

जो पचीस मल दोष विवर्जित, आठ अंग से पूर्ण रहा।

भक्ती आदी आठ गुणों युत, सम्यग्दर्शन शुद्ध कहा।।

जल गंधादिक अष्ट द्रव्य ले, पूजत ही भवसिंधु तिरूँ।

परमानंद सुखामृत पीकर, भवकानन में नाहिं फिरूँ।।१।।


ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा दर्शनविशुद्धिभावनायै जिनगुणसंपदे मुक्तिपद कारणस्वरूपायै नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।



दर्शन ज्ञान चरित्र तथा, उपचार विनय ये चार कहें।

इनसे सहित सदा जिनवचरत, भविजन शिव का द्वार लहें।।

जल गंधादिक अष्ट द्रव्य ले, पूजत ही भवसिंधु तिरूँ।

परमानंद सुखामृत पीकर, भवकानन में नाहिं फिरूँ।।२।।


ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा विनयसंपन्नताभावनायै जिनगुणसंपदे मुक्तिपद कारणस्वरूपायै नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।



शील और व्रत के पालन में, निरतिचार जो रहें सदा।

सहसअठारह शीलपूर्णकर, निजआतमरत रहें सदा।।

जल गंधादिक अष्ट द्रव्य ले, पूजत ही भवसिंधु तिरूँ।

परमानंद सुखामृत पीकर, भवकानन में नाहिं फिरूँ।।३।।


ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा शीलव्रतेष्वनतिचारभावनायै जिनगुणसंपदे मुक्तिपद कारणस्वरूपायै नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।



जो संतत ही चार तरह के, अनुयोगों१ का मनन करें।

पढ़ें पढ़ावें गुणें गुणावें, वे ही श्रुतमय तीर्थ करें।।

जल गंधादिक अष्ट द्रव्य ले, पूजत ही भवसिंधु तिरूँ।

परमानंद सुखामृत पीकर, भवकानन में नाहिं फिरूँ।।४।।


ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा अभीक्ष्णज्ञानोपयोगभावनायै जिनगुणसंपदे मुक्तिपद कारणस्वरूपायै नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।



भवतन भोगविरागी होकर, सत्यधर्म में प्रेम करें।

वे संवेग भावना बल से, स्वात्मसुधारसपान करें।।

जल गंधादिक अष्ट द्रव्य ले, पूजत ही भवसिंधु तिरूँ।

परमानंद सुखामृत पीकर, भवकानन में नाहिं फिरूँ।।५।।


ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा संवेगभावनायै जिनगुणसंपदे मुक्तिपद कारणस्वरूपायै नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।



यथाशक्ति जो चार दान औ, रत्नत्रय का दान करेंं।

वे प्राणी वर त्यागधर्म से, सुखमय केवलज्ञान वरें।।

जल गंधादिक अष्ट द्रव्य ले, पूजत ही भवसिंधु तिरूँ।

परमानंद सुखामृत पीकर, भवकानन में नाहिं फिरूँ।।६।।


ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा शक्तितस्त्यागभावनायै जिनगुणसंपदे मुक्तिपद कारणस्वरूपायै नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।



अनशन आदी बाह्यतपों को, यथाशक्ति रुचि सहित करें।

प्रायश्चित्त विनय वैयावृत, आदिक से मन शुद्ध करें।।

जल गंधादिक अष्ट द्रव्य ले, पूजत ही भवसिंधु तिरूँ।

परमानंद सुखामृत पीकर, भवकानन में नाहिं फिरूँ।।७।।


ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा शक्तितस्तपोभावनायै जिनगुणसंपदे मुक्तिपद कारणस्वरूपायै नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।



साधूजन मन समाधान कर, धर्म-शुक्ल में अचल करें।

साधुसमाधी पालन करके, तीर्थंकर पद अमल करें।।

जल गंधादिक अष्ट द्रव्य ले, पूजत ही भवसिंधु तिरूँ।

परमानंद सुखामृत पीकर, भवकानन में नाहिं फिरूँ।।८।।


ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा साधुसमाधिभावनायै जिनगुणसंपदे मुक्तिपद कारणस्वरूपायै नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।



प्रासुक औषधि आदि वस्तु से, मुनि की वैयावृत्य करें।

संयम साधक, मन को रुचिकर, सेवा कर बहुपुण्य भरें।।

जल गंधादिक अष्ट द्रव्य ले, पूजत ही भवसिंधु तिरूँ।

परमानंद सुखामृत पीकर, भवकानन में नाहिं फिरूँ।।९।।


ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा वैयावृत्यकरणभावनायै जिनगुणसंपदे मुक्तिपद कारणस्वरूपायै नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।



छ्यालिस गुण धर दोष अठारह, शून्य प्रभू अर्हंत कहे।।

समवसरण में राजित जिनवर, उनकी भक्ती नित्य रहे।।

जल गंधादिक अष्ट द्रव्य ले, पूजत ही भवसिंधु तिरूँ।

परमानंद सुखामृत पीकर, भवकानन में नाहिं फिरूँ।।१०।।


ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा अर्हद्भक्तिभावनायै जिनगुणसंपदे मुक्तिपद कारणस्वरूपायै नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।



पंचाचार स्वयं पालें नित, शिष्यों को भी पलवावें।

शिक्षा दीक्षा प्रायश्चित दे, सूरी सबके मन भावें।।

जल गंधादिक अष्ट द्रव्य ले, पूजत ही भवसिंधु तिरूँ।

परमानंद सुखामृत पीकर, भवकानन में नाहिं फिरूँ।।११।।


ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा आचार्यभक्तिभावनायै जिनगुणसंपदे मुक्तिपद कारणस्वरूपायै नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।



द्वादशांगमय श्रुत के ज्ञाता, श्रुतपारंगत गुरू कहें।

अथवा तत्कालिक१ पूरण श्रुत, जाने बहुश्रुत गुरू रहें।।

जल गंधादिक अष्ट द्रव्य ले, पूजत ही भवसिंधु तिरूँ।

परमानंद सुखामृत पीकर, भवकानन में नाहिं फिरूँ।।१२।।


ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा बहुश्रुतभक्तिभावनायै जिनगुणसंपदे मुक्तिपद कारणस्वरूपायै नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।



जिनवर भाषित प्रवचन में रत, प्रवचन भक्ति धरें मन में।

अथवा चतु:संघ२ भक्ती में, रत जो उन पद पूजूँ मैं।।

जल गंधादिक अष्ट द्रव्य ले, पूजत ही भवसिंधु तिरूँ।

परमानंद सुखामृत पीकर, भवकानन में नाहिं फिरूँ।।१३।।

ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा प्रवचनभक्तिभावनायै जिनगुणसंपदे मुक्तिपद कारणस्वरूपायै नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।



आवश्यक३ की हानि न करते, समय-समय निज क्रिया करें।

षट् आवश्यक के बल निश्चय, आवश्यक को पूर्ण करें।।

जल गंधादिक अष्ट द्रव्य ले, पूजत ही भवसिंधु तिरूँ।

परमानंद सुखामृत पीकर, भवकानन में नाहिं फिरूँ।।१४।।


ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा आवश्यकापरिहाणिभावनायै जिनगुणसंपदे मुक्तिपद कारणस्वरूपायै नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।



शिवपुर मार्ग प्रभावन करते, विद्या, तप दानादिक से।

मार्गप्रभावन भावना भाकर, निज आतम पावन करते।।

जल गंधादिक अष्ट द्रव्य ले, पूजत ही भवसिंधु तिरूँ।

परमानंद सुखामृत पीकर, भवकानन में नाहिं फिरूँ।।१५।।


ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा मार्गप्रभावनाभावनायै जिनगुणसंपदे मुक्तिपद कारणस्वरूपायै नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।



प्रवचन में वत्सलता धारें, जिनवच रत में प्रीति धरें।

चार संघ में गाय वत्सवत्, सहज प्रेम भव भीति हरे।।

जल गंधादिक अष्ट द्रव्य ले, पूजत ही भवसिंधु तिरूँ।

परमानंद सुखामृत पीकर, भवकानन में नाहिं फिरूँ।।१६।।


ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा प्रवचनवत्सलत्वभावनायै जिनगुणसंपदे मुक्तिपद कारणस्वरूपायै नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।



-पूर्णाघ्र्य-

सोलह कारण भावन जग में, पुण्य सातिशय की जननी।

तीर्थंकर पद की कारण हैं, निश्चित भवसागर तरणी।।

जल गंधादिक अष्ट द्रव्य ले, पूजत ही भवसिंधु तिरूँ।

परमानंद सुखामृत पीकर, भवकानन में नाहिं फिरूँ।।१७।।


ॐ दर्शनविशुद्ध्यादिषोडशकारणभावनाभ्यो जिनगुणसंपद्भ्यो मुक्तिपदकारणस्वरूपाभ्य: पूर्णाघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।



शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।


जयमाला


दोहा-

स्वातम रस पीयूष से, तृप्त हुए जिनराज।

सोलह कारण भावना, भाय हुये सिरताज।।१।।


--सोमवल्लरी छंद (चामर छंद)--

दर्श की विशुद्धि जो पचीस दोष शून्य है।

आठ अंग से प्रपूर्ण सप्त१ भीति शून्य है।।

सत्य ज्ञान आदि तीन रत्न में विनीत जो।

साधुओं में नम्रवृत्ति धारता प्रवीण वो।।१।।


शील में व्रतादि में सदोषवृत्ति२ ना धरेंं।

विदूर३ अतीचार से तृतीय भावना धरें।।

ज्ञान के अभ्यास में सदैव लीनता धरें।

भावना अभीक्ष्ण ज्ञान मोहध्वांत को हरें।।२।।


देह मानसादि दु:ख से सदैव भीरुता।

भावना संवेग से समस्त मोह जीतता।।

चार संघ को चतु: प्रकार दान जो करें।

सर्व दु:ख से छुटें सुज्ञान संपदा भरें।।३।।


शुद्ध तप करें समस्त कर्म को सुखावते।

साधु की समाधि में समस्त विघ्न टारते।।

रोग कष्ट आदि में गुरूजनों कि सेव जो।

प्रासुकादि औषधी सुदेत पुण्यहेतु जो।।४।।


भक्ति अरीहंत, सूरि, बहुश्रुतों१ की भी करें।

प्रवचनों की भक्ति भावना से भवदधी तरें।।

छै क्रिया अवश्य करण योग्य काल में करें।

मार्ग२ की प्रभावना सुधर्म द्योत३ को करें।।५।।


वत्सलत्व४ प्रवचनों में धर्म वात्सल्य है।

रत्नत्रयधरों में सहज प्रीति धर्म सार है।।

सोलहों सुभावना पुनीत भव्य को करें।

तीर्थनाथ संपदा सुदेय मुक्ति भी करें।।६।।


वंदना करूँ पुन: पुन: करूँ उपासना।

अर्चना करूँ पुन: पुन: करूँ सुसाधना।।

मैं अनंत दु:ख से बचा चहूँ प्रभो! सदा।

ज्ञानमती संपदा मिले अनंत सौख्यदा।।७।।

-दोहा-

तीर्थंकर पद हेतु ये, सोलह भावन सिद्ध।

जो जन पूजें भाव से, लहें अनूपम सिद्धि।।८।।

ॐ ह्रीं दर्शनविशुद्ध््यादिषोडशकारणभावनाभ्यो जयमाला पूणाघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।



-गीताछंद-

जो भव्य श्रद्धा भक्ति से, जिनगुण सुसंपति व्रत करें।

व्रत पूर्ण कर प्रद्योत हेतू, यज्ञ उत्सव विधि करें।।

वे विश्व में संपूर्ण सुखकर, इन्द्र चक्री पद धरें।

फिर ज्ञानमति से पूर्ण गुणमय, तूर्ण शिवलक्ष्मी वरें।।१।।


जिनगुण सम्पत्ति विधान - द्वितीय वलय पूजा

अथ स्थापना



--गीताछंद--

वरपंच कल्याणक जगत् में, सर्वजन से वंद्य हैं।

त्रैलोक्य में अति क्षोभ कर, सुर इन्द्रगण अभिनंद्य हैं।।

मैं पंचमी१ गति प्राप्ति हेतू, पंच कल्याणक जजूँ।

आह्वाननादी विधि करूँ, संपूर्ण कल्याणक भजूँ।।१।।


ॐ ह्रीं पंचमहाकल्याणकसमूह! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।

ॐ ह्रीं पंचमहाकल्याणकसमूह! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।

ॐ ह्रीं पंचमहाकल्याणकसमूह! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।



-अथाष्टक (भुजंग प्रयात छंद)-

पयोसिंधु को नीर झारी भराऊँ।

प्रभो आपके पाद धारा कराऊँ।।

महापंचकल्याणकों को जजूँ मैं।

महापंचसंसार दुख से बचूँ मैं।।१।।


ॐ ह्रीं पंचमहाकल्याणकेभ्यो जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।



सुगंधीत चंदन कपूरादि वासा।

चढ़ाते तुम्हें सर्व संताप नाशा।।

महापंचकल्याणकों को जजूँ मैं।

महापंचसंसार दुख से बचूँ मैं।।२।।


ॐ ह्रीं पंचमहाकल्याणकेभ्यो संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।



पयोराशि२ के पेâन सम तंदुलों को।

चढ़ाऊँ तुम्हें सौख्य अक्षय मिले जो।।

महापंचकल्याणकों को जजूँ मैं।

महापंचसंसार दुख से बचूँ मैं।।३।।


ॐ ह्रीं पंचमहाकल्याणकेभ्यो अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।



जुही केवड़ा चंपकादी सुमन हैं।

तुम्हें पूजते काम व्याधी शमन है।।

महापंचकल्याणकों को जजूँ मैं।

महापंचसंसार दुख से बचूँ मैं।।४।।


ॐ ह्रीं पंचमहाकल्याणकेभ्यो कामवाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।



कलावंâद लाडू भरा थाल लाऊँ।

क्षुधा डाकिनी नाश हेतू चढ़ाऊँ।।

महापंचकल्याणकों को जजूँ मैं।

महापंचसंसार दुख से बचूँ मैं।।५।।


ॐ ह्रीं पंचमहाकल्याणकेभ्यो क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।



मणीदीप ज्योती भुवन को प्रकाशे।

करूँ आरती मोह अंधेर नाशे।।

महापंचकल्याणकों को जजूँ मैं।

महापंचसंसार दुख से बचूँ मैं।।६।।


ॐ ह्रीं पंचमहाकल्याणकेभ्यो मोहांधकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।



अगनि पात्र में धूप खेऊं दशांगी।

करम धूम्र पैâले चहुँदिक सुगंधी।।

महापंचकल्याणकों को जजूँ मैं।

महापंचसंसार दुख से बचूँ मैं।।७।।


ॐ ह्रीं पंचमहाकल्याणकेभ्यो अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।



नरंगी मुसम्बी अनंनास लाऊँ।

महामोक्षफल हेतु आगे चढ़ाऊँ।।

महापंचकल्याणकों को जजूँ मैं।

महापंचसंसार दुख से बचूँ मैं।।८।।


ॐ ह्रीं पंचमहाकल्याणकेभ्यो मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।



जलादी वसूद्रव्य से थाल भरके।

चढ़ाऊँ तुम्हें अघ्र्य संसार उर के।।

महापंचकल्याणकों को जजूँ मैं।

महापंचसंसार दुख से बचूँ मैं।।९।।


ॐ ह्रीं पंचमहाकल्याणकेभ्यो अनघ्र्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।



-दोहा-

सकल जगत में शांतिकर, शांतिधार सुखकार।

जिनपद में धारा करूँ, सकल संघ हितकार।।१०।।


शांतये शांतिधारा।


सुरतरु के सुरभित सुमन, सुमनस चित्त हरंत।

पुष्पांजलि अर्पण करत, मिटता दु:ख तुरंत।।११।।


दिव्य पुष्पांजलि:।


अथ प्रत्येक अघ्र्य

-गीताछंद-

छह मास पहले गर्भ आगम१, से रतन बरसें यहाँ।

छप्पन कुमारी देवियाँ, जिनमात को अर्चें यहाँ।।

सोलह सुपन से गर्भ मंगल, सूचना होती यहाँ।

हम गर्भ कल्याणक जजें, वसु अघ्र्य ले कर में यहाँ।।१।।


ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा स्वर्गावतरणगर्भकल्याणकजिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।



जिन जन्म से सुरलोक में, घंटादि बाजे बज उठें।

जिन जन्म उत्सव के लिए, इन्द्रादि आसन वँâप उठें।।

सुरशैल२ पर अभिषेक कर, प्रभु को पुन: लाते यहाँ।

हम जन्म कल्याणक जजें, वसु अघ्र्य ले कर में यहाँ।।२।।


ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा जन्माभिषेककल्याणकजिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।



भव भोग तनु से हो विरत, द्वादश अनुप्रेक्षा करें।

लौकांतिकों का संस्तवन, सुन नाथ फिर दीक्षा धरें।।

इन्द्रादि सुरगण कर रहे, दीक्षा महोत्सव विधि यहाँ।

हम निष्क्रमण१ कल्याण पूजें, अघ्र्य ले कर में यहाँ।।३।।


ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा परिनिष्क्रमणकल्याणकजिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।



प्रभु शुक्ल ध्यानानल२ जला, सब घातिया को ज्वालते।

वैâवल्य लक्ष्मी पाय के, द्वादश गणों में राजते।।

निज दिव्य ध्वनि पीयूष से, भवि खेत को सींचें यहाँ।

हम ज्ञानकल्याणक जजें, वसु अघ्र्य ले कर में यहाँ।।४।।


ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा केवलज्ञानकल्याणकजिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।



यमराज३ को जड़मूल से, संहार कर शिवपति बने।

स्वात्मोत्थ४ परमाल्हाद सुख, संतृप्त त्रिभुवनपति बने।।

निर्वाण कल्याणक महोत्सव, सुर तभी करते यहाँ।

हम मोक्षकल्याणक जजें, वसु अघ्र्य ले कर में यहाँ।।५।।


ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा निर्वाणकल्याणकजिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।



-दोहा-

गर्भ जन्म तप ज्ञान अरू, कल्याणक निर्वाण।

पाँचों को पूर्णाघ्र्य ले, पूजूँ हो कल्याण।।६।।


ॐ ह्रीं पंचमहाकल्याणकेभ्य: पूर्णाघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।



शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।


जयमाला


-सोरठा-

परम पुण्यमय तीर्थ, तीर्थंकर तिहुँलोक में।

शरण गही धर प्रीति, कर्म पंक प्रक्षालने।।१।।


-रोला छंद-

छह महिने ही पूर्व, पृथ्वी पर आने से।

अतिशय पुण्य प्रभाव, दिव से च्युति पाने से।।

रत्न बरसते नित्य, नभ से पंद्रह मासा।

श्री ह्री देवी आदि, सेव करें जिनमाता।।१।।


सोलह स्वप्न प्रदर्श, मात गरभ जब बसते।

इन्द्रादिक सुर आय, गर्भ महोत्सव करते।।

मति श्रुत अवधि सुज्ञान, तुमको नित्य रहे हैं।

गर्भ विषे भी आप, सुख से तिष्ठ रहे हैं।।२।।

जन्म समय तत्काल, इन्द्रन आसन वंâपे।

नमन करें तत्काल, सुरगण तुम गुण जंपे।।

जिनशिशु सद्योजात१ मेरु शिखर ले जाके।

इन्द्र करें अभिषेक, उत्सव अधिक रचाके।।३।।

स्वर्गों के ही वस्त्र, भोजन आदि सुखन में।

बाल्य समय सुरसंग, खेलें मात अंगन में।।

जब होवे वैराग्य, लौकांतिक सुर आते।

जिनगुणमंगलकीर्ति, गाकर पुण्य कमाते।।४।।

पुन: इन्द्रगण आय, परिनिष्क्रमण२ मनावें।

महामहोत्सव साज, करके पुण्य बढ़ावें।।

प्रभू महाव्रतधार, आतम ध्यान धरे हैं।

कर्म घातिया चूर, केवलज्ञान वरे हैं।।५।।

समवसरण रच देव, ज्ञान कल्याणक पूजें।

जब जिन करत विहार, जनमनपावन हूजें।।

भव्य अनंतानंत, धर्मामृत को पीते।

जन्म मरण की व्याधि, नाश करमरिपु जीतें।।६।।


जिनवर योग निरोध, करके कर्म जलावें।

तत्क्षण शिवतिय संग, लोक शिखर पर जावें।।

सकलसुरासुर आय, मोक्षकल्याणक पूजें।

जिनपद पंकज पूज, भविजन अघरिपु१ धूजें।।७।।


इसविध पंचकल्याण, जिनगुण नित्य जजूँ मैं।

पंचभ्रमण२ चकचूर३, सर्वकल्याण भजूँ मैं।।

परमसुखास्पद४ धाम, परमानंदस्वरूपी।

‘ज्ञानमती’ से पूर्ण, पाऊँ मैं चिद्रूपी।।८।।


-दोहा-

पंच महाकल्याणमय, जिनगुणसंपद जान।

जो जन पूजें भाव से, लहें सौख्य निर्वाण।।९।।


ॐ ह्रीं पंचमहाकल्याणक जिनगुणसंपद्भ्यो जयमाला पूर्णाघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।

[14/10, 9:35 pm] Gurumaa: जिनगुण सम्पत्ति विधान - तृतीय वलय पूजा

अथ स्थापना



--गीताछंद--

शुभ प्रातिहार्य सुआठ जिनगुण-संपदा सूचित करें।

तीनों जगत की ऋद्धियाँ, इस भांति से प्रभु को वरें।।

आनंदवंâद महान परमानंद अमृत विस्तरें।

जो भव्यजन उन पूजते, वे स्वात्मरस अमृत भरें।।१।।


ॐ ह्रीं अष्टमहाप्रातिहार्यजिनगुणसंपत् समूह! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।



ॐ ह्रीं अष्टमहाप्रातिहार्यजिनगुणसंपत् समूह! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।

ॐ ह्रीं अष्टमहाप्रातिहार्यजिनगुणसंपत् समूह! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।

-अथाष्टक (अडिल्लछंद)-

सुरगंगा१ को नीर कनक झारी भरूँ।

श्री जिनवर पद पूज, व्यथा सारी हरूँ।।

प्रातिहार्य वर आठ सु जिनगुण संपदा।

जो अर्चें धर प्रीति लहें सुख संपदा।।१।।


ॐ ह्रीं अष्टमहाप्रातिहार्य जिनगुणसंपद्भ्य: जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।



अष्टगंध वर सुरभित चंदन लाइया।

सकल तापहर जिनवर चरण चढ़ाइया।।

प्रातिहार्य वर आठ सु जिनगुण संपदा।

जो अर्चें धर प्रीति लहें सुख संपदा।।२।।


ॐ ह्रीं अष्टमहाप्रातिहार्य जिनगुणसंपद्भ्य: संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।



उत्तम अक्षत धोय अखंडित लाइया।

कर्म पुंज क्षय हेतू पुंज रचाइया।।

प्रातिहार्य वर आठ सु जिनगुण संपदा।

जो अर्चें धर प्रीति लहें सुख संपदा।।३।।


ॐ ह्रीं अष्टमहाप्रातिहार्य जिनगुणसंपद्भ्य: अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।



मौलसिरी औ पारिजात सुम लायके।

पूजूं श्री जिनपादपद्म हरषाय के।।

प्रातिहार्य वर आठ सु जिनगुण संपदा।

जो अर्चें धर प्रीति लहें सुख संपदा।।४।।


ॐ ह्रीं अष्टमहाप्रातिहार्य जिनगुणसंपद्भ्य: कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।



घेवर पेâनी बरफी मोदक१ आदि ले।

स्वातम अनुभव हेतु जजूँ तुम पद भले।।

प्रातिहार्य वर आठ सु जिनगुण संपदा।

जो अर्चें धर प्रीति लहें सुख संपदा।।५।।


ॐ ह्रीं अष्टमहाप्रातिहार्य जिनगुणसंपद्भ्य: क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।


कनक पात्र में दीप जलाकर लाइया।

अंतर ज्योती हेतु जिनेश्वर ध्याइया।।

प्रातिहार्य वर आठ सु जिनगुण संपदा।

जो अर्चें धर प्रीति लहें सुख संपदा।।६।।


ॐ ह्रीं अष्टमहाप्रातिहार्य जिनगुणसंपद्भ्य: मोहांधकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।



धूप सुगंधित अग्नि पात्र में खेवते।

कर्म शत्रु को नाश करूँ तुम सेवते।।

प्रातिहार्य वर आठ सु जिनगुण संपदा।

जो अर्चें धर प्रीति लहें सुख संपदा।।७।।


ॐ ह्रीं अष्टमहाप्रातिहार्य जिनगुणसंपद्भ्य: अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।



केला एला दाडिम आदिक फल लिये।

मोक्ष महाफल हेतु नाथ पद अर्चिये।।

प्रातिहार्य वर आठ सु जिनगुण संपदा।

जो अर्चें धर प्रीति लहें सुख संपदा।।८।।


ॐ ह्रीं अष्टमहाप्रातिहार्य जिनगुणसंपद्भ्य: मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।



जल गंधादिक अघ्र्य मिलाकर थाल में।

तीर्थंकर पदपद्म जजूँ त्रयकाल मैं।।

प्रातिहार्य वर आठ सु जिनगुण संपदा।

जो अर्चें धर प्रीति लहें सुख संपदा।।९।।


ॐ ह्रीं अष्टमहाप्रातिहार्य जिनगुणसंपद्भ्य: अनघ्र्यपदप्राप्तये अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।



-दोहा-

सकल जगत में शांतिकर, शांतिधार सुखकार।

जिनपद में धारा करूँ, सकलसंघ हितकार।।

शांतये शांतिधारा।


सुरतरु१ के सुरभित सुमन, सुमनस चित्त हरंत।

पुष्पांजलि अर्पण करत, मिटता दु:ख तुरंत।।

दिव्य पुष्पांजलि:।


अथ प्रत्येक अघ्र्य



-शंभु छंद-

विकसित२ पुष्पों के गुच्छों से, तरुवर अशोक है शोभ रहा।

रत्नों की अनुपम कांती से, जन-जन के मन को मोह रहा।।

भविजन के मन का शोक हरे, यह प्रातिहार्य महिमाशाली।

हम पूजें अघ्र्य चढ़ा करके, जिनगुण संपत्ती मणिमाली।।१।।


ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौ ह्र: असिआउसा अशोकवृक्षमहाप्रातिहार्यजिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम: अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।



सुर द्वारा नभ१ से वर्षाये, ये खिले कुसुम मानों हँसते।

श्री जिनवर का शुभ उज्ज्वल यश, मानों प्रमुदित वर्णन करते।।

भविजन के मन को विकसाता, यह प्रातिहार्य महिमाशाली।

हम पूजें अघ्र्य चढ़ा करके, जिनगुण संपत्ती मणिमाली।।२।।


ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौ ह्र: असिआउसा सुरपुष्पवृष्टिमहाप्रातिहार्यजिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम: अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।



जो सात शतक औ अट्ठारह, भाषामय जिनवर की वाणी।

जो स्याद्वाद पीयूष भरी, दिव्यध्वनि त्रिभुवन कल्याणी।।

नित भविजन के भवरोग हरे, यह प्रातिहार्य महिमाशाली।

हम पूजें अघ्र्य चढ़ा करके, जिनगुण संपत्ती मणिमाली।।३।।

।।


ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौ ह्र: असिआउसा दिव्यध्वनिमहाप्रातिहार्यजिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम: अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।



यक्षों द्वारा ढोरे जाते, ये चौंसठ चमर बताते हैं।

जो श्री जिन आश्रय लेते हैं, वे निश्चित ऊपर जाते हैं।।

भविजन को ऊध्र्वगतीकारी यह प्रातिहार्य महिमाशाली।

हम पूजें अघ्र्य चढ़ा करके, जिनगुण संपत्ती मणिमाली।।४।।


ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौ ह्र: असिआउसा चतु:षष्टि चामर महाप्रातिहार्यजिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम: अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।



नाना रत्नों से जड़ा हुआ, सिंहासन सुर नर मन मोहे।

प्रभु के तन की कांती से वह, शतगुणित चमकता नित सोहे।।

अनुपम वैभव को प्रगट करे, यह प्रातिहार्य महिमाशाली।।

हम पूजें अघ्र्य चढ़ा करके, जिनगुण संपत्ती मणिमाली।।५।।


ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौ ह्र: असिआउसा सिंहासनमहाप्रातिहार्यजिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम: अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।



प्रभु के तन की द्युति ही मानो, भामंउल बन कर प्रागट हुई।

जन उसमें अपने सात भवों, को देख रहे हैं सही सही।।

भविजन वैराग्य बढ़ाने को, यह प्रातिहार्य महिमाशाली।

हम पूजें अघ्र्य चढ़ा करके, जिनगुण संपत्ती मणिमाली।।६।।


ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौ ह्र: असिआउसा भामंडलमहाप्रातिहार्यजिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम: अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।



देवों की दुंदुभि बाज रही, मानो भविजन आह्वान करें।

आवो आवो हे भव्य जीव, जिनदर्शन कर निज भान करें।।

श्री जिन का गौरव प्रगट करे, यह प्रातिहार्य महिमाशाली।

हम पूजें अघ्र्य चढ़ा करके, जिनगुण संपत्ती मणिमाली।।७।।


ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौ ह्र: असिआउसा देवदुंदुभिमहाप्रातिहार्यजिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम: अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा


ये तीन छत्र शशि मंडल१ सम, उनमें मुक्ता फल लटक रहे।

जिन देव देव के त्रिभुवन की, प्रभुता को मानो प्रगट कहें।।

भविजन का तीन२ ताप शामक३, यह प्रातिहार्य महिमाशाली।

हम पूजें अघ्र्य चढ़ा करके, जिनगुण संपत्ती मणिमाली।।८।।


ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौ ह्र: असिआउसा छत्रत्रयमहाप्रातिहार्यजिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम: अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।



-पूर्णाघ्र्य (दोहा)-

तीर्थंकर के आठ ये, प्रातिहार्य जग सिद्ध।

पूजूँ पूरण अघ्र्य ले, पाऊँ जिनगुणरिद्ध।।९।।


ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा अष्टमहाप्रातिहार्यजिनगुणसंपदे पूर्णाघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।



शांतये शांतिधारा।


दिव्य पुष्पांजलि:।


जयमाला


-दोहा-

परमशुद्ध परमात्मा, परमपुण्य की खान।

तुम गुणमणि माला कहूँ, स्वात्म सौख्य हित जान।।१।।


-अशोक पुष्प मंजरी छंद-

नाथ आप को निहार चर्म नेत्र से तथापि, हर्ष हो महान् तीन लोक में न मावता।

ज्ञान नेत्र से यदी विलोक१ लूं जिनेश आप, तो पुन: कियंत२ हर्ष हो न पार पावता।।

आप ही अनंत सौख्य राशि तेज पुंज देव, आप ही त्रिलोक में अपूर्व कांतिमान हो।

योगिवृंद चित्तपद्म३ के विकास हेतु सूर्य, भव्यस्वांत४ कौमुदी विकास हेतु चांद हो।।१।।


आपकी अनक्षरी५ ध्वनी सुनें अनंत भव्य, चित्त में धरें सदैव जन्म रोग टारते।

आप नाम मात्र को जपें यदी स्वचित्त में, अनंत दु:ख वार्धि से निजात्म को उबारते।।

आप ज्ञान हैं महान् तीन लोक के समान, हों असंख्य लोक तो भी एक कोण में रहें।

सत्य में अनंत औ अनंत मान अभ्र६ भी, निलीन७ आप ज्ञान में विशालता किती कहे।।२।।


आप भक्त के समीप सर्व सौख्य आय के, अहं प्रथम८ अहं प्रथम कि बुद्धि से हि धावते,

कल्पवृक्ष कामधेनु चिंतितार्थ दायिरत्न९, आपकी अचिन्त्य शक्ति देख के लजावते।।

सर्व सिद्धि दायिनी जिनेन्द्र भक्ति एक ली, समस्त दु:ख चूरणी धरा१ विषे प्रसिद्ध है।

साधु वृंद के अनेक चित्त के विकल्प को, क्षणेक में निवारणे अमोघ२ शस्त्र सिद्ध है।।३।।


आप कीर्ति बार बार शास्त्र में सुनी अत:, जिनेन्द्रदेव! आज आप शर्ण३ आन के लिया।

तारिये न तारिये जंचे प्रभो सुकीजिये, प्रमाण आप ही मुझे स्वचित्त में दृढ़ी किया।।

आज जो दयानिधान! भक्त पे दयाद्र्रभाव, कीजिये उबारिये अनंत दु:ख सिंधु से।

ज्ञान दर्श सौख्य वीर्य संपदा निजात्म की जु, मोहशत्रु से अभी दिलाय दीजिए मुझे।।४।।


-दोहा-

प्रातिहार्य गुण के धनी, सिद्धि वधू के कांत।

‘ज्ञानमती’ सुख पूर्ण कर, करिये पूर्ण प्रशांत।।५।।


ॐ ह्रीं अर्हं अष्टमहाप्रातिहार्य जिनगुणसंपद्भ्यो जयमाला अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।



शांतये शांतिधारा।


दिव्य पुष्पांजलि:।


-गीताछंद-

जो भव्य श्रद्धा भक्ति से जिनगुणसुसंपति व्रत करें।

व्रत पूर्ण कर प्रद्योत हेतू यज्ञ उत्सव विधि करें।।

वे विश्व में संपूर्ण सुखकर इंद्रचक्री पद धरें।

फिर ‘ज्ञानमति’ से पूर्ण गुणमय तूर्ण शिवलक्ष्मी वरें



जिनगुण सम्पत्ति विधान - चतुर्थ वलय की पूजा

अथ स्थापना



--गीताछंद--

जिन जन्म के अतिशय सहज१ दश विश्व में विख्यात हैं।

जो तीर्थकर्ता के अपूरब, पुण्य के फल ख्यात हैं।।

मैं नित्य जिनगुण संपदा को, पूजहूँ अति चाव से।

आह्वान करके अर्चना विधि, मैं करूँ अति भाव से।।१।।


ॐ ह्रीं अर्हं दशसहजातिशयजिनगुणसंपत् समूह!



अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।

ॐ ह्रीं अर्हं दशसहजातिशयजिनगुणसंपत् समूह!

अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।

ॐ ह्रीं अर्हं दशसहजातिशयजिनगुणसंपत् समूह!

अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।


-अथाष्टवंâ-


-गीताछंद-

गंगानदी का नीर निरमल, बाह्य मल शोधन करे।

जिनपाद पंकज२ धार देते, कर्ममल तत्क्षण हरे।।

तीर्थेश के दश जन्म के, सहजातिशय जो पूजते।

निज आत्म सहजानंद३ अनुभव, पाय दुख से छूटते।।१।।


ॐ ह्रीं दश सहजातिशयजिनगुणसंपद्भ्य: जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।



वर अष्टगंध सुगंध शील, ताप सब तन की हरे।

जिनपाद पंकज पूजते, भव ताप को भी परिहरे।।

तीर्थेश के दश जन्म के, सहजातिशय जो पूजते।

निज आत्म सहजानंद अनुभव, पाय दुख से छूटते।।२।।


ॐ ह्रीं दश सहजातिशयजिनगुणसंपद्भ्य: संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।



उज्ज्वल अखंडित शालि सुरभित, पुंज तुम आगे धरूँ।

निजज्ञान सुख गुण पुंज हेतू, नाथ पद अर्चन करूँ।।

तीर्थेश के दश जन्म के, सहजातिशय जो पूजते।

निज आत्म सहजानंद अनुभव, पाय दुख से छूटते।।३।।


ॐ ह्रीं दश सहजातिशयजिनगुणसंपद्भ्य: अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।



बेला चमेली वुंâद जूही, सर्वदिव्â सुरभित करें।

मदनारि१ जेता जिनचरण, पूजत सुमन सुमनस२ करें।।

तीर्थेश के दश जन्म के, सहजातिशय जो पूजते।

निज आत्म सहजानंद अनुभव, पाय दुख से छूटते।।४।।


ॐ ह्रीं दश सहजातिशयजिनगुणसंपद्भ्य: कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।



अमृत सदृश पकवान नाना, भांति के भर थाल में।

गुण सिंधु जिन पद पूजते, स्वात्मानुभव हो हाल में।।

तीर्थेश के दश जन्म के, सहजातिशय जो पूजते।

निज आत्म सहजानंद अनुभव, पाय दुख से छूटते।।५।।


ॐ ह्रीं दश सहजातिशयजिनगुणसंपद्भ्य: क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।



घृत दीप और कपूर ज्योती, बाह्य तम को परिहरे।

वैâवल्य ज्योती पूजते, निजज्ञान ज्योती अघ हरे।।

तीर्थेश के दश जन्म के, सहजातिशय जो पूजते।

निज आत्म सहजानंद अनुभव, पाय दुख से छूटते।।६।।


ॐ ह्रीं दश सहजातिशयजिनगुणसंपद्भ्य: मोहांधकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।



कृष्णागरू वरधूप सुरभित, खेवते जिन पास में।

सब दुरितशत्रू दूर भागें, पुण्य सागर पास में।।

तीर्थेश के दश जन्म के, सहजातिशय जो पूजते।

निज आत्म सहजानंद अनुभव, पाय दुख से छूटते।।७।।


ॐ ह्रीं दश सहजातिशयजिनगुणसंपद्भ्य: अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।



अंगूर दाडिम आम्र अमरख, सरस फल अर्पण करूँ।

निज आत्म गुण की प्राप्ति हेतू, आप पद अर्चन करूँ।।

तीर्थेश के दश जन्म के, सहजातिशय जो पूजते।

निज आत्म सहजानंद अनुभव, पाय दुख से छूटते।।८।।


ॐ ह्रीं दश सहजातिशयजिनगुणसंपद्भ्य: मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।



जल गंध तंदुल पुष्प नेवज, दीप धूप फलाघ्र्य ले।

त्रैलोक्यपति के पादसरसिज, पूजते शिवफल मिले।।

तीर्थेश के दश जन्म के, सहजातिशय जो पूजते।

निज आत्म सहजानंद अनुभव, पाय दुख से छूटते।।९।।

ॐ ह्रीं दश सहजातिशयजिनगुणसंपद्भ्य: अनघ्र्यपदप्राप्तये अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।



-दोहा-

सकल जगत में शाँतिकर, शांतिधार सुखकार।

जिनपद में धारा करूँ, सकल संघ हितकार।।

शांतये शांतिधारा।


सुरतरु के सुरभित सुमन, सुमनस चित्त हरंत।

पुष्पांजलि अर्पण करत, मिटता दु:ख तुरंत।।

दिव्य पुष्पांजलि:।


अथ प्रत्येक अघ्र्य



-नरेन्द्र छंद-

तीर्थंकर के जन्म काल से, स्वेद१ न तन में जानो।

मातु उदर से जन्में फिर भी, जन्म अपूरब मानो।।

अघ्र्य चढ़ाकर जिन गुण अतिशय, पूजूँ भक्ति बढ़ाके।

रोग शोक दुख संकट तत्क्षण, नाशूं जिनगुण गाके।।१।।


ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा नि:स्वेदत्व सहजातिशय जिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम: अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।



तीर्थंकर के निर्मल तन में, मल-मूत्रादि न होवें।

प्रभु के गुण का नाम मंत्र भी, भव भव का मल धोवे।।

अघ्र्य चढ़ाकर जिन गुण अतिशय, पूजूँ भक्ति बढ़ाके।

रोग शोक दुख संकट तत्क्षण, नाशूं जिनगुण गाके।।२।।


ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा निर्मलत्व सहजातिशय जिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम: अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।



तीर्थंकर के जन्म समय से, तन में रुधिर१ नहीं है।

दुग्ध सदृश है धवल रुधिर जो, अतिशय सहज सही है।।

अघ्र्य चढ़ाकर जिन गुण अतिशय, पूजूँ भक्ति बढ़ाके।

रोग शोक दुख संकट तत्क्षण, नाशूं जिनगुण गाके।।३।।


ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा क्षीरगौररुधिरत्व सहजातिशय जिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम: अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।



प्रभु के तन की सुन्दर आकृति२, समचतुरस्र बखानी।

नाम कर्म ब्रह्मा ने सचमुच, अनुपम रचना ठानी।।

अघ्र्य चढ़ाकर जिन गुण अतिशय, पूजूँ भक्ति बढ़ाके।

रोग शोक दुख संकट तत्क्षण, नाशूं जिनगुण गाके।।४।।


ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा समचतुरस्रसंस्थान सहजातिशय जिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम: अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।

वङ्कावृषभनाराच संहनन, उत्तम प्रभु का जानो।

परमपुण्यमय अद्भुत तन को, गुण गाकर भव हानो।।

अघ्र्य चढ़ाकर जिन गुण अतिशय, पूजूँ भक्ति बढ़ाके।

रोग शोक दुख संकट तत्क्षण, नाशूं जिनगुण गाके।।५।।


ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा वङ्कावृषभनाराचसंहनन सहजातिशय जिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम: अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।



अतिशय सुन्दर रूप मनोहर, उपमा रहित सुहाता।

इन्द्र हजार नेत्र कर निरखे, तो भी तृप्ति न पाता।।

अघ्र्य चढ़ाकर जिन गुण अतिशय, पूजूँ भक्ति बढ़ाके।

रोग शोक दुख संकट तत्क्षण, नाशूं जिनगुण गाके।।६।।


ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा सौरूप्य सहजातिशय जिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम: अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।



तीर्थंकर के अनुपम तन में, अति सौगंध्य सुहावे।

इस गुण का अर्चन करके जन, यश सुरभी महकावें।।

अघ्र्य चढ़ाकर जिन गुण अतिशय, पूजूँ भक्ति बढ़ाके।

रोग शोक दुख संकट तत्क्षण, नाशूं जिनगुण गाके।।७।।


ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा सौगन्ध्य सहजातिशय जिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम: अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।



एक हजार आठ लक्षण शुभ, प्रभु के तन में भासें।

एक एक लक्षण की पूजा, जिन लक्षण परकाशे।।

अघ्र्य चढ़ाकर जिन गुण अतिशय, पूजूँ भक्ति बढ़ाके।

रोग शोक दुख संकट तत्क्षण, नाशूं जिनगुण गाके।।८।।


ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा सौलक्षण्य सहजातिशय जिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम: अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।



बल अतुल्य तीर्थंकर तन का, तुलना नहीं जगत में।

इस गुण की पूजा करने से, आतम बल हो क्षण में।।

अघ्र्य चढ़ाकर जिन गुण अतिशय, पूजूँ भक्ति बढ़ाके।

रोग शोक दुख संकट तत्क्षण, नाशूं जिनगुण गाके।।९।।

ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा अप्रमितवीर्य सहजातिशय जिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम: अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।


प्रियहित वचन प्रभू के अनुपम, अमृतसम सुखदायी।

सरस्वती ने मुक्तवंâठ से, जिनगुण महिमा गायी।।

अघ्र्य चढ़ाकर जिन गुण अतिशय, पूजूँ भक्ति बढ़ाके।

रोग शोक दुख संकट तत्क्षण, नाशूं जिनगुण गाके।।१०।।

ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा प्रियहितवादित्व सहजातिशय जिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम: अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।



-पूर्णाघ्र्य (दोहा)-

तीर्थंकर शिशु के सहज, दश अतिशय अभिराम।

पूरण अघ्र्य चढ़ाय मैं, पूजूँ विश्वललाम।।११।।


ॐ ह्रीं दश सहजातिशय जिनगुणसंपद्भ्य: पूर्णाघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा। शांतये शांतिधारा।



दिव्य पुष्पांजलि:।


जयमाला


-दोहा-

त्रिभुवन जन उद्धार की, करुण भावना चित्त।

तीर्थंकर पद पावते, गाऊँ तिन गुण नित्त।।१।।


चाल-हे दीनबंधु..............

जैवंत तीर्थमंत अतुल गुणनिधी भरें।

जैवंत देहमंत दश अतिशय सहज धरें।।

जो नाथ के इन अतिशयों की अर्चना करें।

लोकातिशायि१ पुण्य की उपार्जना करें।।२।।


तन में न पसीना-नहीं मल मूत्र हो कभी।

पयसम२ रुधिर हो समचतुष्क३ सौम्य आकृती।।

होता है वङ्का वृषभमय नाराच संहनन।

महिमानरूप तनसुगंध सहज सुलक्षण।।३।।


परिमाण१ रहित वीर्य हो प्रियहितकरी वाणी।

भविजन के जन्म रोग नाश हेतु कल्याणी।।

दश जन्म के अतिशय त्रिलोक पूज्य कहाते।

मुक्त्यंगना का आप में आकर्ष बढ़ाते।।४।।


सब लोक औ अलोक का साम्राज्य दिलाते।

फिर अंत में त्रैलोक्य के मस्तक पे बिठाते।।

सद्गुण अनंतानंत से भण्डार भराते।

आनन्त्य काल सौख्य सुधा२ पान कराते।।५।।


मैं भक्ति भाव से गुणों की अर्चना करूँ।

अपने गुणों की प्राप्ति हेतु वंदना करूँ।।

हे नाथ! तुम प्रसाद से अब जन्म ना धरूँ।

बस ‘ज्ञानमती’ पूरिये अभ्यर्थना करूँ।।६।।


-घत्ता-

तीर्थंकर गुणगण, अनुपम निधि मणि, जो भविजन निजवंâठ धरें।

सो शिवरमणी वर, अनुपमसुखकर, जिनगुणसंपति शीघ्र वरें।।७।।


ॐ ह्रीं जन्मसंबंधि दशसहजातिशय जिनगुणसंपद्भ्यो जयमाला पूर्णाघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।



शांतये शांतिधारा।


दिव्य पुष्पांजलि:।


-गीता छंद-

जो भव्य श्रद्धा भक्ति से, जिनगुणसुसंपति व्रत करें।

व्रतपूर्णकर प्रद्योत हेतू, यज्ञ उत्सव विधि करें।।

वे विश्व में संपूर्ण सुखकर, इंद्र चक्रीपद धरें।

फिर ‘ज्ञानमति’ से पूर्ण गुणमय, तूर्ण शिव लक्ष्मी वरें।।१।।

[14/10, 9:35 pm] Gurumaa: श्री महावीर स्वामी विधान

जिनगुण सम्पत्ति विधान - अथ पंचमवलय पूजा

अथ स्थापना



-नरेन्द्र छंद-

केवल ज्योति प्रगट होते ही, दश अतिशय प्रगटे हैं।

अखिल१ विश्व में शांती हेतू, अद्भुत गुण चमके हैं।।

तीर्थंकर के इन अतिशय को, पूजूँ मन वच मन से।

गुणरत्नाकर२ में अवगाहन३ कर छूटूँ भव वन से।।१।।


ॐ ह्रीं घातिक्षयजातिशयजिनगुणसंपत् समूह!

अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।

ॐ ह्रीं घातिक्षयजातिशयजिनगुणसंपत् समूह!

अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।

ॐ ह्रीं घातिक्षयजातिशयजिनगुणसंपत् समूह!

अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।

-अथाष्टवंâ -



चाल-नंदीश्वर पूजा की...........

क्षीरांबुधि जल अति स्वच्छ, प्रासुक भृंग४ भरूँ।

जिनगुण की पूजन हेतु, धारा तीन करूँ।।

घातीक्षय५ से उत्पन्न, अतिशय नित्य जजूँ।

निजघाति करम क्षय हेतु, जिनपद पद्म भजूँ।।१।।


ॐ ह्रीं घातिक्षयजातिशयजिनगुणसंपद्भ्य: जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।



मलयज चंदन कर्पूर, केशर मिश्र करूँ।

निज आतम गुण सौगंध्य, हेतू अर्च करूँ।।

घातीक्षय से उत्पन्न, अतिशय नित्य जजूँ।

निजघाति करम क्षय हेतु, जिनपद पद्म भजूँ।।२।।


ॐ ह्रीं घातिक्षयजातिशयजिनगुणसंपद्भ्य: संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।



मुक्तासम अक्षत श्वेत, जिनगुण सम सोहें।

मैं पुंज चढ़ाऊँ नित्य, अनुपम सुख हो हैं।।

घातीक्षय से उत्पन्न, अतिशय नित्य जजूँ।

निजघाति करम क्षय हेतु, जिनपद पद्म भजूँ।।३।।


ॐ ह्रीं घातिक्षयजातिशयजिनगुणसंपद्भ्य: अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।



सुरतरु१ के सुरभित पुष्प, नाना वर्ण लिये।

सौगंधित जिनपद पद्म, रुचि से भेंट किये।।

घातीक्षय से उत्पन्न, अतिशय नित्य जजूँ।

निजघाति करम क्षय हेतु, जिनपद पद्म भजूँ।।४।।


ॐ ह्रीं घातिक्षयजातिशयजिनगुणसंपद्भ्य: कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।



बरफी पेड़ा पकवान, पायस२ थाल भरे।

क्षुध रोग निवारण हेतु, तुम ढिंग भेंट करें।।

घातीक्षय से उत्पन्न, अतिशय नित्य जजूँ।

निजघाति करम क्षय हेतु, जिनपद पद्म भजूँ।।५।।


ॐ ह्रीं घातिक्षयजातिशयजिनगुणसंपद्भ्य: क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।



दीपक की ज्योति उद्योत३, भ्रम तम दूर करे।

जिनगुण का अर्चन शीघ्र, भेद विज्ञान करे।।

घातीक्षय से उत्पन्न, अतिशय नित्य जजूँ।

निजघाति करम क्षय हेतु, जिनपद पद्म भजूँ।।६।।


ॐ ह्रीं घातिक्षयजातिशयजिनगुणसंपद्भ्य: मोहांधकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।



दश गंध सुगंधित धूप, खेऊँ तुम आगे।

निज आतम अनुभव होय, कर्म अरी भागें।।

घातीक्षय से उत्पन्न, अतिशय नित्य जजूँ।

निजघाति करम क्षय हेतु, जिनपद पद्म भजूँ।।७।।


ॐ ह्रीं घातिक्षयजातिशयजिनगुणसंपद्भ्य: अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।



पिस्ता अखरोट बदाम, आम अनार लिये।

जिनगुण को अर्चूं नित्य, पाऊँ सौख्य हिये।।

घातीक्षय से उत्पन्न, अतिशय नित्य जजूँ।

निजघाति करम क्षय हेतु, जिनपद पद्म भजूँ।।८।।


ॐ ह्रीं घातिक्षयजातिशयजिनगुणसंपद्भ्य: मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।



जल चंदन आदि मिलाय, उत्तम अघ्र्य करूँ।

जिनवर पद पद्म चढ़ाय, सम्यक् रत्न भरूँ।।

घातीक्षय से उत्पन्न, अतिशय नित्य जजूँ।

निजघाति करम क्षय हेतु, जिनपद पद्म भजूँ।।९।।


ॐ ह्रीं घातिक्षयजातिशयजिनगुणसंपद्भ्य: अनघ्र्यपदप्राप्तये अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।



-दोहा-

सकल जगत में शांतिकर, शांतिधार सुखकार।

जिनपद में धारा करूँ, सकल संघ हितकार।।

शांतये शांतिधारा।

सुरतरु के सुरभित सुमन, सुमनस चित्त हरंत।

पुष्पांजलि अर्पण करत, मिटता दु:ख तुरंत।।

दिव्य पुष्पांजलि:।

अथ प्रत्येक अघ्र्य


-शंभु छंद-

प्रभु घाति कर्म का क्षय करते, चउ शत कोसों दुर्भिक्ष टले।

जन-जन सुखकारी हो सुभिक्ष, यह अतिशय होता प्रगट भले।।

मैं वसुविध१ अघ्र्य बना करके, जिनगुण की नित अर्चना करूँ।

अतिशय गुणराशी प्राप्ति हेतु, श्रद्धा से नित वंदना करूँ।।१।।

ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा गव्यूतिशतचतुष्टयसुभिक्षत्व घातिक्षयजातिशयजिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम: अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।



प्रभु घाति चतुष्टय क्षय करके, गगनांगण में ही गमन करें।

वे बीस हजार हाथ ऊँचे, शुभ समवसरण में अधर रहें।।

मैं वसुविध अघ्र्य बना करके, जिनगुण की नित अर्चना करूँ।

अतिशय गुणराशी प्राप्ति हेतु, श्रद्धा से नित वंदना करूँ।।२।।


ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा गगनगमनत्व घातिक्षयजातिशय-जिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम: अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।



प्रभु के शरीर औ गमन आदि से, प्राणीवध नहिं हो सकता।

करुणारत्नाकर स्वामी का यह, अतिशय पूर्ण अभय करता।।

मैं वसुविध अघ्र्य बना करके, जिनगुण की नित अर्चना करूँ।

अतिशय गुणराशी प्राप्ति हेतु, श्रद्धा से नित वंदना करूँ।।३।।


ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा अप्राणिवधत्व घातिक्षयजातिशय-जिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम: अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।



केवलि२ के कवलाहार३ नहीं, क्षुध आदि अठारह दोष नहीं।

परमानंदामृत आस्वादी, प्रभु के सुख तृप्ती पूर्ण कही।।

मैं वसुविध अघ्र्य बना करके, जिनगुण की नित अर्चना करूँ।

अतिशय गुणराशी प्राप्ति हेतु, श्रद्धा से नित वंदना करूँ।।४।।


ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा भुक्त्यभाव घातिक्षयजातिशयजिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम: अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।



केवलि जिन के उपसर्ग नहीं, हो सके कदाचित यह जानो।

बस कर्म असाता साता में, संक्रमण करे यह सरधानो।।

मैं वसुविध अघ्र्य बना करके, जिनगुण की नित अर्चना करूँ।

अतिशय गुणराशी प्राप्ति हेतु, श्रद्धा से नित वंदना करूँ।।५।।


ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा उपसर्गाभाव घातिक्षयजातिशयजिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम: अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।



प्रभु का मुख एक तरफ रहता, फिर भी चउ दिश में दीख रहा।

यह अतिशय अद्भुत चतुर्मुखी, सब जन-जन का मन मोह रहा।।

मैं वसुविध अघ्र्य बना करके, जिनगुण की नित अर्चना करूँ।

अतिशय गुणराशी प्राप्ति हेतु, श्रद्धा से नित वंदना करूँ।।६।।


ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा चतुर्मुखत्व घातिक्षयजातिशयजिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम: अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।



प्रभु सब विद्या के ईश्वर हैं, सब जनता के भी ईश्वर हैं।

सौ इंद्रों से वंदित गुरुवर, मुनिगण से वंद्य निरंतर हैं।।

मैं वसुविध अघ्र्य बना करके, जिनगुण की नित अर्चना करूँ।

अतिशय गुणराशी प्राप्ति हेतु, श्रद्धा से नित वंदना करूँ।।७।।

[14/10, 9:38 pm] Gurumaa: ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा सर्वविद्येश्वर घातिक्षयजातिशयजिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम: अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।



वर केवलज्ञान प्रगट होते, नहिं छाया पड़ती है तन की।

परमौदारिक शुभ देह कहा, दीप्ती से लाजें रविगण भी।।

मैं वसुविध अघ्र्य बना करके, जिनगुण की नित अर्चना करूँ।

अतिशय गुणराशी प्राप्ति हेतु, श्रद्धा से नित वंदना करूँ।।८।।


ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा अच्छायत्व घातिक्षयजातिशयजिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम: अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।



नेत्रों की पलवेंâ नहिं झपवेंâ, फिर भी वे अंतर्दृष्टि कहे।

मानों अनिमिष दृग हो करके, करुणा से सब जग देख रहे।।

मैं वसुविध अघ्र्य बना करके, जिनगुण की नित अर्चना करूँ।

अतिशय गुणराशी प्राप्ति हेतु, श्रद्धा से नित वंदना करूँ।।९।।


ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा अपक्ष्मस्पंदत्व घातिक्षयजातिशयजिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम: अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।



प्रभु के नख केश न बढ़ सकते, यह भी इक अतिशय तुम मानो।

बस पूर्ण ज्ञान के होते ही, त्रैकालिक वस्तु प्रगट जानो।।

मैं वसुविध अघ्र्य बना करके, जिनगुण की नित अर्चना करूँ।

अतिशय गुणराशी प्राप्ति हेतु, श्रद्धा से नित वंदना करूँ।।१०।।


ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा समाननखकेशत्व घातिक्षयजातिशय-जिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम: अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।



-पूर्णाघ्र्य (दोहा)-

जिन आतम गुण ज्ञान को, पूर्ण किया भगवान।

पूरण अघ्र्य चढ़ाय के, मैं पूजूँ धर ध्यान।।११।।


ॐ ह्रीं घातिक्षयजातिशयजिनगुणसंपद्भ्य: पूर्णाघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।



शांतये शांतिधारा।


दिव्य पुष्पांजलि:।


जयमाला


-दोहा-

मोहनीय द्वय आवरण, अंतराय को घात।

ज्ञान दर्श सुख वीर्य गुण, प्राप्त किया निर्बाध।।१।।


-स्रग्विणीछंद-

जै महासौख्य दातार भरतार हो।

जै महानंद करतार भव पार हो।।

पूरिये नाथ! मेरी मनोकामना।

हो सदा स्वात्मतत्वैक की भावना।।२।।


वान व्यंतर भवन वासि औ ज्योतिषी।

कल्पवासी सभी देव ध्याके सुखी।।

पूरिये नाथ! मेरी मनोकामना।

हो सदा स्वात्मतत्वैक की भावना।।३।।


इंद्र धरणेंद्र मनुजेंद्र वंदन करें।

योगि नायक सदा आप गुण उच्चरें।।

पूरिये नाथ! मेरी मनोकामना।

हो सदा स्वात्मतत्वैक की भावना।।४।।


मोह के वश्य हो नाथ मैं दुख सहा।

जो तिहुंलोक में भी भटकता रहा।।

पूरिये नाथ! मेरी मनोकामना।

हो सदा स्वात्मतत्वैक की भावना।।५।।


नर्वâ के दु:ख की क्या कहूँ मैें कथा।

नाथ! तुम केवली सर्व जानो व्यथा।।

पूरिये नाथ! मेरी मनोकामना।

हो सदा स्वात्मतत्वैक की भावना।।६।।


योनि तिर्यंच में काल बीता घना।

दु:ख ही दुख जहाँ सुक्ख का लेश ना।।

पूरिये नाथ! मेरी मनोकामना।

हो सदा स्वात्मतत्वैक की भावना।।७।।


मैं मनुष योनि में सौख्य को चाहता।

विंâतु सब ओर से क्लेश ही पावता।।

पूरिये नाथ! मेरी मनोकामना।

हो सदा स्वात्मतत्वैक की भावना।।८।।।


देवयोनी मिली फिर भी शांती नहीं।

मानसिक और मृत्यू की पीड़ा सही।।

पूरिये नाथ! मेरी मनोकामना।

हो सदा स्वात्मतत्वैक की भावना।।९।।


रत्न सम्यक् बिना मैं भिखारी रहा।

सौख्य की चाह से दु:ख पाता रहा।।

पूरिये नाथ! मेरी मनोकामना।

हो सदा स्वात्मतत्वैक की भावना।।१०।।


नाथ! तुम भक्ति से आज सम्यक् मिला।

कर कृपा दीजिए ज्ञान सूरज खिला।।

पूरिये नाथ! मेरी मनोकामना।

हो सदा स्वात्मतत्वैक की भावना।।११।।


मुक्ति जब तक न हो नाथ! मांगूँ यही।

आपके पाद की भक्ति छूटे नहीं।।

पूरिये नाथ! मेरी मनोकामना।

हो सदा स्वात्मतत्वैक की भावना।।१२।।

[14/10, 9:39 pm] Gurumaa: बोधि का लाभ हो ‘ज्ञानमति’ पूर्ण हो। सर्व संपति मिले सौख्य परिपूर्ण हो।।

पूरिये नाथ! मेरी मनोकामना। हो सदा स्वात्मतत्वैक की भावना।।१३।।


-घत्ता-

जय जय केवल रवि, अतिशय गुणछवि, तुम धुनि किरण प्रकाश करें।

प्रभु समवसरण में, जो तुम प्रणमें, निज सुख कर में शीघ्र धरें।।१४।।


ॐ ह्रीं घातिक्षयजातिशय जिनगुणसंपद्भ्यो जयमाला पूर्णाघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।



शांतये शांतिधारा।


दिव्य पुष्पांजलि:।


-गीता छंद-

जो भव्य श्रद्धा भक्ति से, जिनगुण सुसंपतिव्रत करें।

व्रत पूर्ण कर प्रद्योत हेतू, यज्ञ उत्सव विधि करें।।

वे विश्व में संपूर्ण सुखकर, इंद्र चक्रीपद धरें।

फिर ‘ज्ञानमति’ से पूर्ण गुणमय, तूर्ण शिव लक्ष्मी वरें।।१।।

[14/10, 9:42 pm] Gurumaa: श्री महावीर स्वामी विधान

जिनगुण सम्पत्ति विधान - अथ षष्ठ वलय पूजा

अथ स्थापना



-गीताछंद-

अतिशय अतुल चौदह सुदेवों, कृत जिनागम ख्यात हैं।

उन पूजते अतिशय अनूपम, पद मिले निर्बाध हैं।।

तीर्थंकरों के श्रेष्ठ गुण की, जो करें नित अर्चना।

वे कर्म शत्रू नाशकर, फिर से धरेंगे जन्म ना।।१।।


ॐ ह्रीं देवोपनीतातिशय जिनगुण समूह! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।



ॐ ह्रीं देवोपनीतातिशय जिनगुण समूह! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।

ॐ ह्रीं देवोपनीतातिशय जिनगुण समूह! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।


-अथाष्टवंâ


(पंचचामर छंद)-

भगीरथी१ पवित्र नीर स्वर्ण भृंग में भरूँ। पदारविंद२ नाथ के त्रिधार भक्ति से करूँ।।

सुरोपनीत चौदहों महातिशायि गुण जजूँ। न गर्भवास दु:ख में पुन: कदापि मैं पचूँ।।१।।


ॐ ह्रीं देवोपनीतातिशयजिनगुणसंपद्भ्य: जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।

सुगंध गंध चंदनादि स्वर्ण पात्र में भरूँ। समस्त दु:ख शांति हेतु चर्ण चर्चन करूँ।।

सुरोपनीत चौदहों महातिशायि गुण जजूँ। न गर्भवास दु:ख में पुन: कदापि मैं पचूँ।।२।।


ॐ ह्रीं देवोपनीतातिशयजिनगुणसंपद्भ्य: संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।

अखंड धौत श्वेत शालि३ स्वर्ण थाल में भरें। अखंड सौख्य पुंज हेतु, पुंज को यहाँ धरें।।

सुरोपनीत चौदहों महातिशायि गुण जजूँ। न गर्भवास दु:ख में पुन: कदापि मैं पचूँ।।३।।


ॐ ह्रीं देवोपनीतातिशयजिनगुणसंपद्भ्यअक्षयपदप्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।

गुलाब केवड़ा जुही सुगंधि पुष्प को लिये। रतीपतीजयी जिनेंद्र पाद में चढ़ा दिये।।

सुरोपनीत चौदहों महातिशायि गुण जजूँ। न गर्भवास दु:ख में पुन: कदापि मैं पचूँ।।४।।


ॐ ह्रीं देवोपनीतातिशयजिनगुणसंपद्भ्य: कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।

रसादियुक्त मिष्ट१ मोदकादि थाल में भरें। निजात्म२ सौख्यस्वाद हेतु आप अर्चना करें।।

सुरोपनीत चौदहों महातिशायि गुण जजूँ। न गर्भवास दु:ख में पुन: कदापि मैं पचूँ।।५।।


ॐ ह्रीं देवोपनीतातिशयजिनगुणसंपद्भ्य: क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।

कपूर ज्योति अंधकार नाश में प्रधान है। सुआरती उतारते उदोत३ ज्ञान भानु है।।

सुरोपनीत चौदहों महातिशायि गुण जजूँ। न गर्भवास दु:ख में पुन: कदापि मैं पचूँ।।६।।


ॐ ह्रीं देवोपनीतातिशयजिनगुणसंपद्भ्य: मोहांधकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।

दशांग धूप ले सुगंध अग्निपात्र में जरे। समस्त पाप शत्रु आप पूजते तुरत टरें।।

सुरोपनीत चौदहों महातिशायि गुण जजूँ। न गर्भवास दु:ख में पुन: कदापि मैं पचूँ।।७।।


ॐ ह्रीं देवोपनीतातिशयजिनगुणसंपद्भ्य: अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।

अनार संतरा बदाम द्राक्ष१ थाल में भरे। जिनेंद्र को चढ़ावते, निजात्म संपदा भरें।।

सुरोपनीत चौदहों महातिशायि गुण जजूँ। न गर्भवास दु:ख में पुन: कदापि मैं पचूँ।।८।।


ॐ ह्रीं देवोपनीतातिशयजिनगुणसंपद्भ्य: मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।

जलादि अष्ट द्रव्य में मिलाय रत्न अघ्र्य ले। चढ़ाय आपके समीप, तीन रत्न२ लूँ भले।।

सुरोपनीत चौदहों महातिशायि गुण जजूँ। न गर्भवास दु:ख में पुन: कदापि मैं पचूँ।।९।।


ॐ ह्रीं देवोपनीतातिशयजिनगुणसंपद्भ्य: अनघ्र्यपदप्राप्तये अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।



-दोहा-

सकल जगत में शांतिकर, शांतिधार सुखकार।

जिनपद में धारा करूँ, सकल संघ हितकार।।

शांतये शांतिधारा।

सुरतरु के सुरभित सुमन, सुमनस चित्त हरंत।

पुष्पांजलि अर्पण करत, मिटता दु:ख तुरंत।।

दिव्य पुष्पांजलि:।


अथ प्रत्येक अघ्र्य

नरेन्द्र छंद-

जिन अतिशय सर्वार्ध मागधी, भाषामय सुखकारी। सुनने वाले भव्य जनों के, भव भव दु:ख परिहारी।।

अघ्र्य चढ़ाऊँ भक्ति भाव से, जिनगुण गण मणि ध्याऊँ। अतिशय पुण्य बढ़ाके निजकी, रत्नत्रय निधि पाऊँ।।१।।


ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा सर्वार्धमागधीयभाषा देवोपनीतातिशय-जिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम: अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।



जात विरोधी सभी जीवगण, वैर भाव सब तजते। मैत्रीभाव धरें आपस में, बड़े प्रेम से रहते।।

अघ्र्य चढ़ाऊँ भक्ति भाव से, जिनगुण गण मणि ध्याऊँ। अतिशय पुण्य बढ़ाके निजकी, रत्नत्रय निधि पाऊँ।।२।।


ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा सर्वजनमैत्रीभाव देवोपनीतातिशय-जिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम: अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।



सब ऋतु के फल पूâल फलित हों, एक साथ मन मोहें। संख्यातों योजन तक ऐसा, अतिशय अद्भुत होवे।।

अघ्र्य चढ़ाऊँ भक्ति भाव से, जिनगुण गण मणि ध्याऊँ। अतिशय पुण्य बढ़ाके निजकी, रत्नत्रय निधि पाऊँ।।३।।


ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा सर्वर्तुफलादिशोभित तरुपरिणामदेवो-पनीतातिशयजिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम: अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।



दर्पण तल सम रत्नमयी हो, पृथ्वी अतिशयकारी। प्रभु के विहरण हेतु देवगण, रचना करते सारी।।

अघ्र्य चढ़ाऊँ भक्ति भाव से, जिनगुण गण मणि ध्याऊँ। अतिशय पुण्य बढ़ाके निजकी, रत्नत्रय निधि पाऊँ।।४।।


ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा आदर्शतलप्रतिमारत्नमयी महीदेवोपनीतातिशय-जिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम: अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।



वायुकुमार देव विक्रिय बल, शीतल पवन चलाते। प्रभु विहार अनुवूâल वायु से,जन-जन मन सुख पाते।।

अघ्र्य चढ़ाऊँ भक्ति भाव से, जिनगुण गण मणि ध्याऊँ। अतिशय पुण्य बढ़ाके निजकी, रत्नत्रय निधि पाऊँ।।५।।


ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा विहरणमनुगतवायुत्व देवोपनीतातिशय-जिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम: अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।



सब जन परमानंद प्राप्त कर, प्रभु के गुण गाते हैं। रोग शोक भय संकट दुख को, तुरत भूल जाते हैं।।

अघ्र्य चढ़ाऊँ भक्ति भाव से, जिनगुण गण मणि ध्याऊँ। अतिशय पुण्य बढ़ाके निजकी, रत्नत्रय निधि पाऊँ।।६।।


ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा सर्वजनपरमानंदत्व देवोपनीतातिशय-जिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम: अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।


वंâटक धूली आदि दूर कर, वायु सुखद बहती है। प्रभु विहार के समय दूर तक, भूमि स्वच्छ रहती है।।

अघ्र्य चढ़ाऊँ भक्ति भाव से, जिनगुण गण मणि ध्याऊँ। अतिशय पुण्य बढ़ाके निजकी, रत्नत्रय निधि पाऊँ।।७।।


ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा वायुकुमारोपशमित धूलिवंâटकादि देवोपनीता-तिशयजिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम: अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।



मेघकुमार करें नित रुचि से, गंधोदक की वृष्टी। सौधर्मेंद्र करें नित आज्ञा, प्रभुपद में अति भक्ती।।

अघ्र्य चढ़ाऊँ भक्ति भाव से, जिनगुण गण मणि ध्याऊँ। अतिशय पुण्य बढ़ाके निजकी, रत्नत्रय निधि पाऊँ।।८।।


ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा मेघकुमारकृत गंधोदकवृष्टि देवोपनीतातिशय-जिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम: अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।



श्रीविहार१ के समय प्रभू के, चरण कमल के तल में। स्वर्णकमल सौगंधित सुरगण, रचें उसी ही क्षण में।।

अघ्र्य चढ़ाऊँ भक्ति भाव से, जिनगुण गण मणि ध्याऊँ। अतिशय पुण्य बढ़ाके निजकी, रत्नत्रय निधि पाऊँ।।९।।


ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा पादन्यासे कृतपद्मरचना देवोपनीतातिशय-जिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम: अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।



शाली आदिक खेती बहुविध, फल के भार झुकी हैं। देवोंकृत यह अतिशय सुन्दर, सब जन पूर्ण सुखी हैं।।

अघ्र्य चढ़ाऊँ भक्ति भाव से, जिनगुण गण मणि ध्याऊँ। अतिशय पुण्य बढ़ाके निजकी, रत्नत्रय निधि पाऊँ।।१०।।


ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा फलभारनम्रशालि देवोपनीतातिशय-जिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम: अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।



शरद्ऋतू के स्वच्छ गगनसम, निर्मल अभ्र१ सुहाता। उल्कापात धूम आदी से, रहित प्रभू यश गाता।।

अघ्र्य चढ़ाऊँ भक्ति भाव से, जिनगुण गण मणि ध्याऊँ। अतिशय पुण्य बढ़ाके निजकी, रत्नत्रय निधि पाऊँ।।११।।


ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा शरत्कालवन्निर्मलगगनत्व देवोपनीतातिशय-जिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम: अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।


सभी दिशायें निर्मल होतीं, शरद्२ मेघ सम दिखतीं। रोगादिक पीड़ाएँ जन को, वहाँ नहीं हो सकतीं।।

अघ्र्य चढ़ाऊँ भक्ति भाव से, जिनगुण गण मणि ध्याऊँ। अतिशय पुण्य बढ़ाके निजकी, रत्नत्रय निधि पाऊँ।।१२।।


ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा शरन्मेघवन्निर्मलदिग्भागत्व देवोपनीतातिशय-जिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम: अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।



चतुर्निकाय देवगण सत्वर, ३आवो आवो आवो। इंद्राज्ञा से देव बुलाते, आवो प्रभु गुण गावो।।

अघ्र्य चढ़ाऊँ भक्ति भाव से, जिनगुण गण मणि ध्याऊँ। अतिशय पुण्य बढ़ाके निजकी, रत्नत्रय निधि पाऊँ।।१३।।


ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा एतैतेति चतुर्निकायामरपरापराह्वान देवोपनीतातिशय-जिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम: अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।



यक्षेंद्रों के मस्तक ऊपर, धर्मचक्र चमके हैं। चार दिशा में दिव्य चक्र ये, किरणों से दमके हैं।।

अघ्र्य चढ़ाऊँ भक्ति भाव से, जिनगुण गण मणि ध्याऊँ। अतिशय पुण्य बढ़ाके निजकी, रत्नत्रय निधि पाऊँ।।१४।।


ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआउसा धर्मचक्रचतुष्टय देवोपनीतातिशय-जिनगुणसंपदे मुक्तिपदकारणस्वरूपायै नम: अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।



-पूर्णाघ्र्य-

देवों कृत ये चौदह अतिशय, पुण्य रत्न आकर४ हैं। इन गुण का स्मरण मात्र भी, जिनगुण रत्नाकर५ है।।

अघ्र्य चढ़ाऊँ भक्ति भाव से, जिनगुण गण मणि ध्याऊँ। अतिशय पुण्य बढ़ाके निजकी, रत्नत्रय निधि पाऊँ।।१५।।


ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: देवोपनीतातिशय जिनगुणसंपद्भ्य: पूर्णाघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।



शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।


जयमाला

-सोरठा-

तीन लोक के भव्य, तुम पद पंकज सेवते।

महापुण्य फलराशि, गाऊँ तुम जयमालिका।।१।।


-शंभु छंद-

जय जय त्रिभुवन के चूड़ामणि, जय जय तीर्थंकर गुण भर्ता। जय चिंतित दाता चिंतामणि, जय कल्पवृक्ष वांछित फलदा।।

जय समवसरण में कमलासन पर, चतुरंगुल से अधर रहें। वैभव अनंत को पाकर भी, प्रभु उससे नित्य अलिप्त रहें।।२।।


तुमने सोलह कारण भाके, तीर्थंकर वैभव पाया है। प्रभु पंचकल्याणक के स्वामी, इंद्रों ने तुम गुण गाया है।।

चौतीसों अतिशय सहित आप, वसु प्रातिहार्य के स्वामी हैं। आनन्त्य चतुष्टय से शोभित, सब जग के अंतर्यामी हैं।।३।।


प्रभु समवसरण में जन असंख्य, जिनदेव वंदना करते हैं। नर तिर्यक् सुरगण भी असंख्य, बारह कोठों में बसते हैं।।

यद्यपि वह क्षेत्र बहुत छोटा, फिर भी अवकाश सभी को है। जिनवर माहात्म्य से यह अतिशय, सब आपस में अस्पृष्ट१ रहें।।४।।


इन कोठों में मिथ्या दृष्टी, संदिग्ध विपर्यय नहिं होते। नहिं होंय असंज्ञी औ अभव्य, पाखंडी द्रोही नहिं होते।।

नहिं वहाँ कभी आतंक रोग, क्षुध तृष्णा कामादिक बाधा। नहिं जन्म मरण नहिं वैर कलह, नहिं शोक वियोग जनित बाधा।।५।।


सब सीढ़ी एक हाथ ऊँची, जो बीस हजार प्रमाण कहीं। बालक औ वृद्ध पंगु आदिक, अंतर्मुहूर्त१ में चढ़ें सही।।

अभिमानी मानस्तंभ देख, सब मान कषाय नशाते हैं। जिन दर्शन कर सम्यक्त्व निधी, पाकर निहाल हो जाते हैं।।६।।


प्रभु की कल्याणी वाणी सुन, निज भव त्रैकालिक जान रहे। अतिशय अनंतगुणश्रेणीमय, परिणाम विशुद्धी ठान रहे।।

सब असंख्यात गुग श्रेणि रूप, कर्मों का खंडन करते हैं। क्रम से वे बोधि समाधी पा, मुक्ती कन्या को वरते हैं।।७।।


निज गुण संपत्ती में प्रधान, त्रेसठ गुण मणि को लभते हैं। जिन आत्म सुधारस पीकर के, शाश्वत परमानंद चखते हैं।।

इस विध प्रभु तुम कीर्ती सुनकर, मैं चरण शरण में आया हूँ। अब जो कर्तव्य आपका हो, वह कीजे मैं अकुलाया हूँ।।८।।


प्रभु मेरी यही प्रार्थना है, मेरा सम्यक्त्व नहीं छूटे। जब तक नहिं मुक्ति मिले मुझको, नहिं तुमसे मम नाता टूटे।।

संयम का पूर्ण लाभ होवे, मरणांत२ समाधी हो मेरी। भव भव ‘सुज्ञानमती’ होवे, जब तक न मिटे भव की पेâरी।।१।।


-घत्ता-

जय जय जिन अतिशय, अनुपम निधिमय, जय जय त्रेसठ गुण पूरे।

जो पूजें ध्यावें, भक्ति बढ़ावें, जिनगुणसंपत्ति निज पूरे।।१०।।


ॐ ह्रीं देवोपनीतातिशय जिनगुणसंपद्भ्यो जयमाला पूर्णाघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।



शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।


-गीता छंद-

जो भव्य श्रद्धा भक्ति से, जिनगुण सुसंपति व्रत करें। व्रत पूर्ण कर प्रद्योत हेतू, यज्ञ उत्सव विधि करें।।

वे विश्व में संपूर्ण सुखकर, इंद्रचक्री पद धरें। फिर ‘ज्ञानमति’ से पूर्ण गुणमय, तूर्ण शिवलक्ष्मी वरें।। ।।

इत्याशीर्वाद: ।।

जिनगुण सम्पत्ति विधान प्रशस्ति:


सिद्धारथ नृप के तनुज, महावीर भगवान।

नमूँ नमूँ उनको सतत, जिनका तीर्थ प्रधान।।१।।


मूल संघ के अग्रणी, वुंâदवुंâद आचार्य।

गच्छ सरस्वति नाम औ, बलात्कार गण धार्य।।२।।


परंपरा में उन्हीं के, शांतिसागराचार्य।

उनके पट्टाधीश थे, वीरसागराचार्य।।३।।


श्रमणी दीक्षा के गुरू, श्रमण मान्य जग वंद्य।

जिनके पाद प्रसाद से, ज्ञानमती हुई धन्य।।४।।


जिन भक्ती से प्रेरिता, पूजा रची महान।

नाम इंद्रध्वज विश्व में, ख्यात अपूरब जान।।५।।


वीर अब्द पच्चीस सौ, तीन मास वैशाख।

तिथी पूर्णिमा शुभ दिवस, मंगलमय सित पाख।।६।।


हस्तिनागपुर क्षेत्र में, श्रद्धा भक्ति समेत।

जिनगुण की पूजा पुन:, रची स्वात्मगुण हेत।।७।।


श्री जिनगुण संपति महा, उद्यापन सुविधान।

ज्ञानमती मैं आर्यिका, पूरण की रुचि ठान।।८।।


जो जन जिन गुणसंपदा, व्रत करते रुचिधार।

उद्यापन कर अंत में, पूर्ण लहें व्रतसार।।९।।


यावत् जिनगुण विश्व में, उदित रहें सुखकार।

तावत् यह पूजा विधी, जयो जगत् हितकार।।१०