श्री विमलनाथ जिनपूजा

(छन्द मदावलिप्त कपोल, मात्रा 23)

सहस्रार दिवि त्यागि, नगर कम्पिला जनम लिय।

कृतधर्मा नृप नंद, मातु जयसेन धर्म प्रिय।।

तीन लोक वर नन्द, विमल जिन विमलकर।

थापों चरन सरोज, जजन के हेत भाव धर।।

ओं ह्रीं श्रीविमलनाथजिनेन्द्र! अत्रावतर अवतर संवौषट् आह्नाननम्।

ओं ह्रीं श्रीविमलनाथजिनेन्द्र! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनम्।

ओं ह्रीं श्रीविमलनाथजिनेन्द्र! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधिकरणम्।

अष्टक

सोरठा

कंचन झारी धारि, पद्म-द्रह को नीर ले।

तृषा रोग निरवारि, विमल विमल गुन पूजिये।।

ओं ह्रीं श्री विमलनाथ जिनेन्द्राय जन्म-जरा-मृत्यु विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।

मलयागर करपूर, देव वल्लभा संग घसि।

हरि मिथ्यातम भूर, विमल विमल गुण जजत हों।।

ओं ह्रीं श्री विमलनाथ जिनेन्द्राय भवतापविनाशनाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा।

बासमती सुखदास, श्वेत निशापति को हंसे।

पूरै वांछित आस, विमल विमल गुन जजत हों।।

ओं ह्रीं श्री विमलनाथ जिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा।

पारिजात मंदार, सन्तानक सुर तरु जनित।

जजों सुमन भरि धार, विमल विमल गुन मदनहर।।

ओं ह्रीं श्री विमलनाथ जिनेन्द्राय कामबाणविनाशनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।

नव्य गव्य रस पूर, सुवरण थाल भरायकैं।

क्षुधा वेदनी चूर, जजों विमल पद विमल गुन।।

ओं ह्रीं श्री विमलनाथ जिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्य़ं निर्वपामीति स्वाहा।

माणिक दीपक अखण्ड, गो छाई वर गो दशों।

हरो मोहतम चण्ड, विमल विमल मति के धनी।।

ओं ह्रीं श्री विमलनाथ जिनेन्द्राय मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।

अगर तगर घनसार, देवदार करपूर वर।

खेवों वसु अरि जार, विमल विमलपद पù धूपं निर्वपामीति स्वाहा।

श्रीफल सेव अनार, मधुर रसीले पावने।

जजों विमल पद सार, विघ्न हरैं शिव फल करैं।।

ओं ह्रीं श्री विमलनाथ जिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।

आठों दरब संवार, मन सुखदायक पावने।

जजों अरघ भर थार, विमल विमल शिवतिय रमन।।

ओं ह्रीं श्री विमलनाथ जिनेन्द्राय अनघ्र्यपदप्राप्तये अघ्र्य निर्वपामीति स्वाहा।

पंचकल्याणक

(छन्द द्रुतविलम्बित तथा सुन्दरी वर्ण 12)

गरभ जेठ वदी दशमी भनों, परम पावन सो दिन शोभनों।

करत सेव सची जननी तणी, हम जजैं पù शिरोमणिी।।

ओं ह्रीं ज्येष्ठकृष्णादशम्यां गर्भमंगलमंडिताय श्रीविमलनाथ - जिनेन्द्राय अघ्र्य निर्वपामीति स्वाहा।

शुकल माघ तुरी तिथि जानिये, जनम मंगल ता दिन मानिये।

हरि तबै गिरिराज विषै जजे, हम समर्चत आनन्द को सजे।।

ओं ह्रीं माघशुक्लाचतुथ्र्यां जन्ममंगलमंडिताय श्रीविमलनाथ-जिनेन्द्राय अघ्र्य निर्वपामीति स्वाहा।

तप धरे सित माघ तुरी भली, निज सुधातम ध्यावत हैं रली।

हरि फनेश नरेश जजै तहां, हम जजैं नित आनन्द सों इहां।।

ओं ह्रीं श्री माघशुक्लाचतुथ्र्यां निःक्रमणमहोत्सवमंडिताय श्री विमलनाथजिनेन्द्राय अघ्र्य निर्वपामीति स्वाहा।

विमल माघ रसी हनि घातिया, विमल बोध लयो सब भासिया।

विमल अर्घ चढ़ाय जजों अबै, विमल आनन्द देहु हमें सबै।।

ओं ह्रीं माघशुक्लाषष्ठ्यां केवलज्ञानप्राप्ताय श्रीविमलनाथजिनेन्द्राय अघ्र्य निर्वपामीति स्वाहा।

भ्रमर साढ़ रसी अति पावनों, विमल सिद्ध भये भय भावनों।

गिरि समेद हरी तित पूजिया, हम जजैं इत हर्ष धरें हिया।।

ओं ह्रीं आषाढ़कृष्णाषष्ठ्यां मोक्षमंगलप्राप्ताय

श्रीविमलनाथजिनेन्द्राय अघ्र्य निर्वपामीति स्वाहा।

जाप मंत्र (पुष्प से 9, 27 या 108 बार निम्न दो मंत्रों में से किसी एक मंत्र का जाप करें)

1.        ओं ह्रीं सरस्वती, लक्ष्मी सर्वाण्हयक्ष, सनत्कुमारयक्ष, अष्टप्रातिहार्य, अष्टमंगलद्रव्य, पातालयक्ष, वैरोटीयक्षी, पंचदशतिथिदेवता, नवग्रहदेवता, पंचक्षेत्रपालादि सचित्ताचित्ताचित्तमिश्र परिकरसहिताय शतेन्द्र पूजिताय श्रीविमलनाथजिनेन्द्राय नमः मम ऋद्धिं वृद्धिं सौक्ष्यं कुरु कुरु स्वाहा।

2.        ओं ह्रीं पातालयक्ष, वैरोटीयक्षी आदि सचित्त अचित्त मिश्र परिकरसहिताय श्रीविमलनाथजिनेन्द्राय नमः मम ऋद्धिं वृद्धिं सौख्यं कुरु कुरु स्वाहा।

जयमाला

(दोहा छन्द, अति उपमालंकार)

गगन चहत उड़गन, छिति थिति के छहँ जेम।

तिमि गुन वरनन वरनन, माहि होय तब केम।।

साठ धनुष तन तुंग है, हेम वरन अभिराम।

वर बारह पद अंक लखि, पुनि पुनि करों प्रनाम।।

(छन्द त्रोटक, वर्ण 12)

जय केवल ब्रह्म अनन्त गुनी, तुम ध्यावत शेष महेश मुनी।

परमातम पूरन पाप हनी, चित चिंतत दायक इष्ट धनी।।

भव आतप ध्वंसन इन्दुकरं, वर सार रसायन शर्म भरं।

सब जन्म जराम ृत दाघ करं, शरनागत पालन नाथ वरं।।

नित संत तुम्हें इन नामनितैं, चित चिंतत हैं गुण माननितैं।

अमलं अचलं अटलं अतुलं, अरसं अछलं अथलं अकुलं।।

अजरं अमरं अहरं अडरं, अपरं अभरं अशरं अनरं।

अमलीन अछीन अरीन हने, अमतं अगतं अरतं अघने।।

अखुधा अतृषा अभयातम हो, अमदा अगदा अवदातम हो।

अविरुद्ध अक्रुद्ध अमान धुना, अतलं अशलं अनअंत गुना।।

अरसं सरसं अकलं सकलं, अवचं सचं अमलं सबलं।

इन आदि अनेक प्रकार सही, तुमको जिन संत जपैं नित ही।।

अब मैं तुमरी शरना पकरी, दुख दूर करो प्रभुजी हमरी।

हम कष्ट सहे भव कानन में, कुनिगोद तथा थल आनन में।।

तित जामन मर्न सहे जितने, कहि केम सकैं तुमसो तितने।

समुहूरत अन्तर मांहि धरे, छह त्रै त्रय छः छह काय खरे।।

छिति वन्हि वयारिक साधरनं, लघु थूल विभेदनि सों भरनं।

प्रत्येक वनस्पति ग्यार भये, छ हजार दुवादश भेद लये।।

सब द्वै त्रय भू षट छः सु भया, इक इन्द्रिय की परजाय लया।

जुग इन्द्रिय काय असी गहियो, तिय इन्द्रिय साठनिमें रहियो।।

चतुरिन्द्रिय चालिस देह धरा, पन इन्द्रिय के चवबीस वरा।

सब ये तन धार तहां सहियो, दुख घोर चितारित जात हियो।।

अब मो अरदास हिये धरिये, दुख दन्द सबै अब ही हरिये।

मन वांछित कारज सिद्ध करो, सुख सार सबै घर ऋद्धि भरो।।

घत्ता छन्द

जय विमल जिनेशा, नुतन केशा, नागेशा नर ईश सदा।

भव ताप अशेषा, हरन निशेषा, दाता चिंतित शर्म सदा।।

ओं ह्रीं श्रीविमलनाथजिनेन्द्राय पूर्णाघ्र्य निर्वपामीति स्वाहा।

दोहा

श्रीमत विमल जिनेश पद, जो पूजै मन लाय।

पूरै वांछित आश तसु, मैं पूजौ गुणगाय।।

।। इत्याशीर्वादः- शांतये त्रय शांतिधारा - परिपुष्पांजलिं क्षिपेत्।।

पातालयक्ष का अर्घ

विमलप्रभु के शासन रक्षक, पातालयक्ष आह्नानन है।

आओ तिष्ठो पास हमारे, करते यही निवेदन है।।

स्वीकारो स्वीकारो मेरा अर्घ देव तुम स्वीकारो।

जिनवर के मुझ श्रद्धानी को ले अपने संग में तारो।।

ओं आं क्रौं ह्रीं पातालयक्ष देवतेभ्यो जलादि अघ्र्य समर्पयामीति स्वाहा।

वैरोटी यक्षी का अर्घ

विमलप्रभु की शासन यक्षी वैरोटी आह्नानन है।

आओ तिष्ठो पास हमारे, करते यही निवेदन है।।

स्वीकारो स्वीकारो मेरा अर्घ देव तुम स्वीकारो।

जिनवर के मुझ श्रद्धानी को ले अपने संग में तारो।।

ओं आं क्रौं ह्रीं वैरोटीयक्षिदेव्यै जलादि अघ्र्य समर्पयामीति स्वाहा।

क्षेत्रपालजी का अर्घ

विमलप्रभु के क्षेत्रपालजी सुनो सुनो आह्नानन है।

आओ तिष्ठो पास हमारे, करते यही निवेदन है।।

स्वीकारो स्वीकारो मेरा अर्घ देव तुम स्वीकारो।

जिनवर के मुझ श्रद्धानी को ले अपने संग में तारो।।

ओं आं क्रौं ह्रीं अत्रस्थ विमलनाथ जिनस्य क्षेत्रपाल, भूमिपाल आदि सचित्त अचित्त मिश्र देवतेभ्यो जलादि अघ्र्य समर्पयामीति स्वाहा।