*बड़ा समाधिमरण (सार्थ)*
*श्रीदत्त मुनि को पूर्व जन्म को,बैरी देव सु आके।*
*विक्रिय कर दुःख शीत तनो सो,सह्यो साधु मन लाके।।*
*यह उपसर्ग सह्यो धर थिरता, आराधन चितधारी।*
*तो तुमरे जिय कौन दुःख है, मृत्यु महोत्सव बारी।।३९।।*
_श्रीदत्त मुनिराज ने अपनी गृहस्थावस्था में एक तोते को मार मार दिया जो मरकर व्यन्तर देव हुआ। उस व्यन्तर देव ने पूर्व भव के बैर के वशीभूत होकर विक्रिया द्वारा मुनिराज को भयंकर शीत वेदना दी, किन्तु शांतचित्त धारी मुनिराज ने उस वेदना को सहर्ष सहन किया। मन की स्थिरता और आराधनाओं के आधार पर इतना महान् उपसर्ग सहन कर लिया गया तब आप चिन्तन करें कि आपको क्या इससे भी अधिक कोई कष्ट हो रहा है ?_
*श्रीदत्त मुनिराज की कथा -* _इलावर्धन नगरी के राजा का नाम जितशत्रु था। उनकी इला नाम की रानी थी, जिससे श्रीदत्त नामक पुत्र ने जन्म लिया। श्रीदत्त कुमार का विवाह अयोध्या के राजा अंशुमान की पुत्री अंशुमती से हुआ था। अंशुमती ने एक तोता पाल रखा था। चौपड़ आदि खेलते हुए जब राजा विजयी होता तब तो तोता एक रेखा खींचता और जब रानी जीतती थीं तब तोता चालाकी से दो रेखाएं खींच देता था। उसकी यह शरारत राजा ने दो - चार बार तो सहन करली, आखिर उसे गुस्सा आ गया और उसने तोते की गरदन मरोड़ दी। तोता मरकर व्यन्तर देव हुआ। श्रीदत्त राजा को एक दिन बादल की टुकड़ी को छिन्न भिन्न होते देखकर वैराग्य हो गया और उन्होंने संसार परिभ्रमण का अंत करने वाली जैनेश्वरी दीक्षा धारण कर ली। अनेक प्रकार के कठोर तपश्चरण करते हुए और अनेक देशों में विहार करते हुए श्रीदत्त मुनिराज इलावर्धन नगरी में आये और नगर के बाहर कायोत्सर्ग ध्यान से खड़े हो गए। ठण्ड कड़ाके की पड़ रही थी। उसी समय शुकचर व्यन्तर देव ने पूर्व बैर के कारण मुनिराज पर घोर उपसर्ग प्रारंभ कर दिया। वैसे ही ठंड का समय था और उस देव ने शरीर को छिन्न भिन्न कर देने वाली खुब ठंडी हवा चलाई, पानी बरसाया तथा खुब ओले गिराये, पर मुनिराज ने अपने धैर्य रुपी गर्भगृह में बैठकर तथा समता रुपी कपाट बंद करके संयमादि गुणरत्नों को उस जल के प्रवाह में नहीं बहने दिया, उसके फलस्वरूप वे उसी समय केवलज्ञान को प्राप्त करते हुए मोक्ष पधारे।_
_भो आत्मसुखार्थी ! देखो! जिस स्वात्मसिद्धि को सत्पुरुष चिरकाल तक घोर तपश्चरण से आत्मा को खेद प्राप्त कराकर प्राप्त कर पाते हैं,उसी आत्मसिद्धि को श्रीदत्त मुनिराज ने अल्प समय में ही आराधनाओं के प्रताप से प्राप्त कर लिया। इससे यह सिद्ध होता है कि क्षुधा, तृषा आदि की महावेदनाओं से पराधीनता, दीनता, अपमान,इष्टवियोग एवं अनिष्टसंयोगजन्य महाक्लेशों से और जन्म मरण आदि के भयंकर कष्टों से छुड़ाकर अविनाशी सुख में अवस्थित कराने वाला मात्र एक समाधि मरण ही है। यही परम उपकारी हैं। दुःखों की खान स्वरुप संसारावास में यही सच्चा शरण है, इसके बिना चारों गतियों में महात्रास है। यदि आप उस महात्रास से बचना चाहते हो तो विषय कषायों का शमन कर तथा शरीर से विरक्त होकर ग्रहण किये हुए समाधि मरण से निस्तरण का पूर्ण प्रयत्न करो,जिससे आपकी दुर्गति न हो और धर्म एवं संघ का अपयश न हो।_
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