सरस्वती अभिषेक

शार्दूलविक्रीडित छन्द-

भाषासर्वमयो ध्वनिर्जिनपतेर्दिव्यध्वनिर्गीयते।

आनन्त्यार्थसुभृत् मनोगततमो हंति क्षणात्प्राणिनः।।

दिव्यस्थानगतामसंख्यजनतामाल्हादयन् निःसृतः।

ते दिव्यध्वनयस्त्रिलोकसुखदाः कुर्वन्तु नो मंगलम् ।।१।।

(पुष्पांजलिं क्षिपेत् )

 

जलाभिषेक-

व्योमापगादितीर्थोद्भवेनातिस्वच्छवारिणा।

जिनेन्द्रमुखजां वाणीं सिञ्चे विश्वैकमातृकाम् ।।

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अरहं पवित्रतरजलेन सरस्वती देवीं अभिषेचयामि स्वाहा।। उदक.

 

इक्षुरसाभिषेक-

सद्यः पीलितपुण्ड्रेक्षुरसेन शर्वâरादिना।

जिनेन्द्रमुखजां वाणीं सिञ्चे विश्वैकमातृकाम् ।।

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐंअरहं इक्षुरसेन सरस्वती देवीं अभिषेचयामि स्वाहा। उदक..

 

घृताभिषेक-

कनत्काञ्चनवर्णेन सद्यःसंतप्तसर्पिषा।

जिनेन्द्रमुखजां वाणीं सिञ्चे विश्वैकमातृकाम् ।।

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐंअरहं सरस्वती देवीं अभिषेचयामि स्वाहा।। उदक......

 

दुग्धाभिषेक-

सद्गोक्षीरप्रवाहेन शुक्लध्यानाकरेण वा।

जिनेन्द्रमुखजां वाणीं सिञ्चे विश्वैकमातृकाम्।।

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अरहं दुग्धेन सरस्वती देवीं अभिषेचयामि स्वाहा। उदक.......

 

दध्नाभिषेक-

हिमपिण्डसमानेन दध्ना पुण्यफलेन वा।

जिनेन्द्रमुखजां वाणीं सिञ्चे विश्वैकमातृकाम् ।।

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐें अरहं दध्ना सरस्वती देवीं अभिषेचयामि स्वाहा। उदक.......

 

चतुष्कोण कलश जलाभिषेक

हेमोत्पन्नचतुः कुम्भैर्नानातीर्थाम्बुवारिभिः।

जिनेन्द्रमुखजां वाणीं सिञ्चे विश्वैकमातृकाम् ।।

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐें अरहं चतुष्कोणकलशेन सरस्वती देवीं अभिषेचयामि स्वाहा। उदक..

 

सुगन्धित जलाभिषेक-

दिव्यद्रव्यौघमिश्रेण सुगन्धेनाच्छवारिणा।

जिनेन्द्रमुखजां वाणीं सिञ्चे विश्वैकमातृकाम्।।

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अरहं वं मं हं सं तं पं वं वं मं मं हं हं सं सं तं तं पं पं द्रां द्रां द्रीं द्रीं द्रावय द्रावय झं झं झ्वीं क्ष्वीं हं सः सुगन्धित जलेन सरस्वतीदेवींअभिषेचयामि स्वाहा। उदक......

 

पूर्णार्घ-

इतिश्रीभारती जैनीं येऽभिषिच्य यजन्ति ते।

विज्ञाय द्वादशाङ्गानि वै स्युः केवलिनोऽचिरात् ।।

 ॐ ह्रीं सरस्वती देव्यै पूर्णार्घं निर्वपामीति स्वाहा।उदक.....जिनगृहे जिनवाचमहंयजे।

श्री सरस्वती विधान

 

(सरस्वती स्तोत्र)

 

बारह अंगंगिज्जा, दंसणतिलया चरित्तवत्थहरा। 

चोद्दसपुव्वाहरणा, ठावे दव्वाय सुयदेवी ।।१।।

 

आचारशिरसं सूत्र-कृतवक्त्रां सुकंठिकाम्। 

स्थानेन समवायांग-व्याख्याप्रज्ञप्तिदोर्लताम् ।।२।।

 

वाग्देवतां ज्ञातृकथो-पासकाध्ययनस्तनीम् । 

अंतकृद्दशसन्नाभि-मनुत्तरदशांगतः ।।३॥

 

सुनितंबां सुजघनां, प्रश्नव्याकरणश्रुतात् ।

विपाकसूत्रदृग्वाद-चरणां चरणांबराम् ।।४।।

 

सम्यक्त्वतिलकां पूर्व-चतुर्दशविभूषणाम्। 

तावत्प्रकीर्णकोदीर्ण-चारुपत्रांकुरश्रियम् ।।५।।

 

आप्तदृष्टप्रवाहौघ द्रव्यभावाधिदेवताम् । 

परब्रह्मपथादृप्तां, स्यादुक्तिं भुक्तिमुक्तिदाम् ।।६।।

 

निर्मूलमोहतिमिरक्षपणैकदक्षं, 

न्यक्षेण सर्वजगदुज्ज्वलनैकतानम् । 

सोषेस्व चिन्मयमहो जिनवाणि ! नूनं, 

प्राचीमतो जयसि देवि ! तदल्पसूतिम् ।।७।।

 

आभवादपि दुरासदमेव, 

श्रायसं सुखमनन्तमचिंत्यम् । 

जायतेऽद्य सुलभं खलु पुंसां, 

त्वत्प्रसादत् इहांब ! नमस्ते ।।८।।

 

चेतश्चमत्कारकरा जनानां, 

महोदयाश्चाभ्युदयाः समस्ताः । 

हस्ते कृताः शस्तजनैः प्रसादात्, 

तवैव लोकांब ! नमोस्तु तुभ्यम् ।।९।।

 

सकलयुवतिसृष्टेरंब ! चूडामणिस्त्वं, 

त्वमसि गुणसुपुष्टेर्धर्मसृष्टेश्च मूलम् । 

त्वमसि च जिनवाणि ! स्वेष्टमुक्त्यंगमुख्या, 

तदिह तव पदाब्जं, भूरिभक्त्या नमामः ।।१०।।

 

अथ सरस्वती पूजा प्रतिज्ञापनाय पुष्पांजलिं क्षिपेत् ।

 

सरस्वती स्तोत्र (हिन्दी)

 

शंभु छंद

 

श्रुतदेवी बारह अंगों से, निर्मित जिनवाणी मानी हैं। 

सम्यग्दर्शन है तिलक किया, चारित्र वस्त्र परिधानी हैं।। 

चौदह पूर्वी के आभरणों से, सुंदर सरस्वती माता। 

इस विध से द्वादशांग कल्पित, जिनवाणी सरस्वती माता ।।१।।

 

श्रुत 'आचारांग' कहा मस्तक, मुख 'सूत्रकृतांग' सरस्वति का। 

ग्रीवा है 'स्थानांग' कहा, श्री जिनवाणी श्रुतदेवी का ।। 

'समवाय अंग' 'व्याख्या प्रज्ञप्ती', माँ की उभय भुजाएं हैं। 

द्वय 'ज्ञातृकथांग" उपासकाध्ययनांग' स्तन कहलाये हैं।।२।।

 

नाभी है 'अंतकृद्दशांग' वर नितंब 'अनुत्तरदशांग' है। 

वर 'प्रश्नव्याकरण अंग' मात का, जघनभाग कहते श्रुत हैं।। 

पादद्वय 'विपाकसूत्रअंग' 'दृष्टिवादांग' कहें श्रुत में। 

'सम्यक्त्व' तिलक हैं अलंकार, चौदह पूरब मानें सच में।। ३ ।।

 

'चौदहों प्रकीर्णक' श्रुत वस्त्रों में, बने बेल-बूटे सुंदर। 

ऐसी ये सरस्वती माता, जो द्वादशांगवाणी सुखकर।। 

संपूर्ण पदार्थों के ज्ञाता, तीर्थंकर की जो दिव्यध्वनी। 

सब द्रव्यों के पर्यायों की, 'श्रुतदेवी' अधिष्ठात्रि मानी।।४।।

 

जो परमब्रह्मपथ अवलोकन, इच्छुक हैं भव्यात्मा उनको। 

स्याद्वाद रहस्य बता करके, भुक्ती मुक्ती देती सबको ।। 

चिन्मयज्योती मोहांधकार, हरिणी हे जिनवाणी माता। 

रवि उदय पूर्वदिशी जेत्री, त्रिभुवन द्योतित करणी माता।।५।।

 

जो अनादि से दुर्लभ अचिन्त्य, आनन्त्य मोक्षसुख है जग में। 

हे सरस्वती मातः ! वह भी, तव प्रसाद से अतिसुलभ बने ।। 

आश्चर्यकारि स्वर्गादिक सब, ऐश्वर्य प्राप्त हों भक्तों को। 

मेरे सब वाञ्छित पूर्ण करो, हे मातः ! नमस्कार तुमको।।६।।

 

संपूर्ण स्त्री की सृष्टी में, चूड़ामणि हो हे सरस्वती ! 

तुम से ही दयाधर्म की औ, संपूर्ण गुणों की उत्पत्ती।। 

मुक्ती के लिए प्रमुख कारण, माँ सरस्वती ! मैं नमूँ तुम्हें। 

तव चरण कमल में शीश धरूँ, भक्तीपूर्वक नित नमूँ तुम्हें ।।७।।

अथ सरस्वती पूजा प्रतिज्ञापनाय मंडलस्योपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत् ।

   

श्री सरस्वती विधान

शंभु छंद 

तीर्थंकर के मुख से खिरती, अनअक्षर दिव्यध्वनी भाषा। 

बारह कोठों में सबके हित, परिणमती सर्वजगत् भाषा।। 

गणधर गुरु जिन ध्वनि को सुनकर, बारह अंगों में रचते हैं। 

हम दिव्यध्वनी का आह्वानन, करके भक्ती से यजते हैं।।१।।

 

ॐ ह्रीं तीर्थंकरमुखकमलविनिर्गतद्वादशांगमयीसरस्वतीमातः ! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।

ॐ ह्रीं तीर्थंकरमुखकमलविनिर्गतद्वादशांगमयीसरस्वतीमातः ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनं।

ॐ ह्रीं तीर्थंकरमुखकमलविनिर्गतद्वादशांगमयी सरस्वतीमातः ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।

 

अथ अष्टक-भुजंगप्रयात छंद 

मुनीचित्त सम नीर पावन लिया है। 

सरस्वति चरण तीन धारा दिया है।। 

जजूँ तीर्थकर दिव्यध्वनि को सदा मैं। 

करूँ चित्त पावन नहा ध्वनि नदी में।।१।।

ॐ ह्रीं तीर्थंकरमुखकमलविनिर्गतद्वादशांगमयी सरस्वतीदेव्यै जलं........ 

 

तपे स्वर्णरस सम घिसा गंध लाया। 

सरस्वति चरण चर्च कर सौख्य पाया।। 

जजूँ तीर्थकर दिव्यध्वनि को सदा मैं। 

करूँ चित्त पावन नहा ध्वनि नदी में ।। २।।

ॐ ह्रीं तीर्थंकरमुखकमलविनिर्गतद्वादशांगमयीसरस्वतीदेव्यै चंदनं........

 

धुले श्वेत अक्षत अखंडित लिये हैं। 

प्रभो कीर्ति को पुंज अर्पण किये हैं।।

जजूँ तीर्थकर दिव्यध्वनि को सदा मैं। 

करूँ चित्त पावन नहा ध्वनि नदी में ।। ३।।

ॐ ह्रीं तीर्थंकरमुखकमलविनिर्गतद्वादशांगमयीसरस्वतीदेव्यै अक्षतं......।

 

जुही मोगरा केतकी पुष्प लेके । 

चढ़ाऊँ प्रभू की ध्वनी को रुची से।। 

जजूँ तीर्थकर दिव्यध्वनि को सदा मैं।

करूँ चित्त पावन नहा ध्वनि नदी में ।।४।। 

ॐ ह्रीं तीर्थंकरमुखकमलविनिर्गतद्वादशांगमयीसरस्वतीदेव्यै पुष्पं......।

 

मलाई पुआ खीर पूरी बनाके। 

चढ़ाऊँ प्रभू कीर्ति को क्षुध विनाशे ।। 

जजूँ तीर्थकर दिव्यध्वनि को सदा मैं। 

करूँ चित्त पावन नहा ध्वनि नदी में ।। ५ ।।

ॐ ह्रीं तीर्थंकरमुखकमलविनिर्गतद्वादशांगमयीसरस्वतीदेव्यै नैवेद्यं.......।

 

जले दीप ज्योती दशों दिक् प्रकाशे।

जजें नाथ ध्वनि को स्वपर ज्ञान भासे ।। 

जजूँ तीर्थकर दिव्यध्वनि को सदा मैं।

करूँ चित्त पावन नहा ध्वनि नदी में ।। ६ ।। 

ॐ ह्रीं तीर्थंकरमुखकमलविनिर्गतद्वादशांगमयीसरस्वतीदेव्यै दीपं......।

 

अगनिपात्र में धूप खेऊं सुगंधी। 

सरस्वति कृपा से करूँ मोह बंदी ।। 

जजूँ तीर्थकर दिव्यध्वनि को सदा मैं।

करूँ चित्त पावन नहा ध्वनि नदी में।।७।।

ॐ ह्रीं तीर्थंकरमुखकमलविनिर्गतद्वादशांगमयीसरस्वतीदेव्यै धूपं........।

 

अनंनास अंगूर केला फलों को। 

चढ़ाऊँ महामोक्ष फल हेतु ध्वनि को ।।

जजू तीर्थकर दिव्यध्वनि को सदा मैं। 

करूँ चित्त पावन नहा ध्वनि नदी में।।८।। 

ॐ ह्रीं तीर्थंकरमुखकमलविनिर्गतद्वादशांगमयीसरस्वतीदेव्यै फलं.......।

 

जलादी लिये स्वर्ण पुष्यों सहित मैं। 

करूँ अर्घ अर्पण सरस्वति चरण में।। 

जजूँ तीर्थकर दिव्यध्वनि को सदा मैं। 

करूँ चित्त पावन नहा ध्वनि नदी में ।। ९।। 

ॐ ह्रीं तीर्थंकरमुखकमलविनिर्गतद्वादशांगमयीसरस्वतीदेव्यै अर्घ्यं.....।

 

दोहा -

 

गंगा नदि को नीर ले, शारद माँ पद कंज। 

त्रय धारा देते मिले, मुझे शांति सुखकंद ।।१०।।  शांतये शांतिधारा

 

श्वेत कमल नीले कमल, अति सुगंध कल्हार। 

पुष्पांजलि अर्पण करत, मिले सौख्य भंडार ।।११।। पुष्पांजलिः।

 

सरस्वती देवी के १०८ मंत्रों के १०८ अर्घ्य

 

अर्हद्वक्त्राब्जसंभूतां, गणाधीशावतारितां ।

महर्षिधारितां स्तोष्ये, नाम्नामष्टशतेन गां ।।१॥

अथ मंडलस्योपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत् ।

 

१. ॐ ह्रीं श्री आदिब्रह्ममुखाम्भोज प्रभवायै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।

 

२. ॐ ह्रीं द्वादशांगिन्यै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।

 

३. ॐ ह्रीं सर्वभाषायै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।

 

४. ॐ ह्रीं वाण्यै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।

 

५. ॐ ह्रीं शारदायै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।

 

६. ॐ ह्रीं गिरे नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।

 

७. ॐ ह्रीं सरस्वत्यै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।

 

८. ॐ ह्रीं ब्राह्म्यै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।

 

९. ॐ ह्रीं वाग्देवतायै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।

 

१०. ॐ ह्रीं देव्यै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।

 

११. ॐ ह्रीं भारत्यै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।

 

१२. ॐ ह्रीं श्रीनिवासिन्यै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।

 

१३. ॐ ह्रीं आचारसूत्रकृतपादायै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।

 

१४. ॐ ह्रीं स्थानसमवायांगजंघायै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।

 

१५. ॐ ह्रीं व्याख्याप्रज्ञप्ति-ज्ञातृ-धर्मकथांग चारूरुभासुरायै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।

 

१६. ॐ ह्रीं उपासकांगसन्मध्यायै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।

 

१७. ॐ ह्रीं अंतकृद्दशांगनाभिकायै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।

 

१८. ॐ ह्रीं अनुत्तरोपपत्तिदशप्रश्नव्याकरणस्तन्यै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।

 

१९. ॐ ह्रीं विपाकसूत्रसद्वक्षसे नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।

 

२०. ॐ ह्रीं दृष्टिवादांगवंâधरायै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।

 

२१. ॐ ह्रीं परिकर्ममहासूत्रविपुलांसविराजितायै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।

 

२२. ॐ ह्रीं चन्द्रमार्तंडप्रज्ञप्तिभास्वद्बाहुसुबल्ल्यै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।

 

२३. ॐ ह्रीं जम्बूद्वीपसागरप्रज्ञप्तिसत्करायै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।

 

२४. ॐ ह्रीं व्याख्याप्रज्ञप्तिविभ्राजत्पंचशाखामनोहरायै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।

 

२५. ॐ ह्रीं पूर्वानुयोगवदनायै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।

 

२६. ॐ ह्रीं पूर्वाख्यचिबुकांचितायै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।

 

२७. ॐ ह्रीं उत्पादपूर्वसन्नासायै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।

 

२८. ॐ ह्रीं अग्रायणीयदंतायै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।

 

२९. ॐ ह्रीं वीर्यानुप्रवाद-अस्तिनास्तिप्रवादोष्ठायै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।

 

३०. ॐ ह्रीं ज्ञानप्रवादकपोलायै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।

 

३१. ॐ ह्रीं सत्यप्रवादरसनायै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।

 

३२. ॐ ह्रीं आत्मप्रवादमहाहनवे नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।

 

३३. ॐ ह्रीं कर्मप्रवादसत्तालवे नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।

 

३४. ॐ ह्रीं प्रत्याख्यानललाटायै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।

 

३५. ॐ ह्रीं विद्यानुवाद-कल्याणनामधेयसुलोचनायै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।

 

३६. ॐ ह्रीं प्राणावाय-क्रियाविशालपूर्वभ्रूधनुर्लतायै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।

 

३७. ॐ ह्रीं लोकबिन्दुमहासारचूलिकाश्रवणद्वयायै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।

 

३८. ॐ ह्रीं स्थलगाख्यलसच्छीर्षायै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।

 

३९. ॐ ह्रीं जलगाख्यमहाकचायै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।

 

४०. ॐ ह्रीं मायागतसुलावण्यायै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।

 

४१. ॐ ह्रीं रूपगाख्यसुरूपिण्यै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।

 

४२. ॐ ह्रीं आकाशगतसौंदर्यायै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।

 

४३. ॐ ह्रीं श्रीकलापिसुवाहनायै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।

 

४४. ॐ ह्रीं निश्चयव्यवहारदृङ्नूपुरायै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।

 

४५. ॐ ह्रीं बोधमेखलायै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।

 

४६. ॐ ह्रीं सम्यक् चारित्रशीलहारायै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।

 

४७. ॐ ह्रीं महोज्ज्वलायै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।

 

४८. ॐ ह्रीं नैगमामोघकेयूरायै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।

 

४९. ॐ ह्रीं संग्रहानघचोलकायै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।

 

५०. ॐ ह्रीं व्यवहारोद्घकटकायै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।

 

५१. ॐ ह्रीं ऋजुसूत्रसुकंकणायै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।

 

५२. ॐ ह्रीं शब्दोज्ज्वलमहापाशायै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।

 

५३. ॐ ह्रीं समभिरूढमहांकुशायै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।

 

५४. ॐ ह्रीं एवंभूतसन्मुद्रायै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।

 

 ५५. ॐ ह्रीं दशधर्ममहाम्बरायै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।

 

५६. ॐ ह्रीं जपमालाल-सद्हस्तायै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।

 

५७. ॐ ह्रीं पुस्तकांकितसत्करायै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।

 

५८. ॐ ह्रीं नयप्रमाणताटंकायै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।

 

५९. ॐ ह्रीं प्रमाणद्वयकर्णिकायै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।

 

६०. ॐ ह्रीं केवलज्ञानमुकुटायै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।

 

६१. ॐ ह्रीं शुक्लध्यानविशेषकायै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।

 

६२. ॐ ह्रीं स्यात्कारप्राणजीवन्त्यै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।

 

६३. ॐ ह्रीं चिदुपादेयभाषिण्यै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।

 

६४. ॐ ह्रीं अनेकांतात्मकानंदपद्मासननिवासिन्यै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।

 

६५. ॐ ह्रीं सप्तभंगीसितच्छत्रायै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।

 

६६. ॐ ह्रीं नयषट्कप्रदीपिकायै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।

 

६७. ॐ ह्रीं द्रव्यार्थिकनयानूनपर्यायार्थिकचामरायै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।

 

६८. ॐ ह्रीं कैवल्यकामिन्यै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।

 

६९. ॐ ह्रीं ज्योतिर्मय्यै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।

 

७०. ॐ ह्रीं वाङ्मयरूपिण्यै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।

 

७१. ॐ ह्रीं पूर्वापराविरुद्धायै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।

 

७२. ॐ ह्रीं गवे नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।

 

७३. ॐ ह्रीं श्रुत्यै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।

 

७४. ॐ ह्रीं देवाधिदेवतायै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।

 

७५. ॐ ह्रीं त्रिलोकमंगलायै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।

 

७६. ॐ ह्रीं भव्यशरण्यायै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।

 

७७. ॐ ह्रीं सर्ववंदितायै नमःअर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।

  

७८. ॐ ह्रीं बोधमूर्तये नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।

 

७९. ॐ ह्रीं शब्दमूर्तये नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।

   

८०. ॐ ह्रीं चिदानन्दैकरूपिण्यै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।

 

८१. ॐ ह्रीं शारदायै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।

 

८२. ॐ ह्रीं वरदायै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।

 

८३. ॐ ह्रीं नित्यायै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।

 

८४. ॐ ह्रीं भुक्तिमुक्तिफलप्रदायै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।

 

८५. ॐ ह्रीं वागीश्वर्यै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।

 

८६. ॐ ह्रीं विश्वरूपायै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।

 

८७. ॐ ह्रीं शब्दब्रह्मस्वरूपिण्यै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।

 

८८. ॐ ह्रीं शुभंकर्यै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।

 

८९. ॐ ह्रीं हितंकर्यै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।

 

९०. ॐ ह्रीं श्रीकर्यै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।

 

९१. ॐ ह्रीं शंकर्यै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।

 

९२. ॐ ह्रीं सत्यै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।

 

९३. ॐ ह्रीं सर्वपापक्षयंकर्यै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।

 

९४. ॐ ह्रीं शिवंकर्यै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।

 

९५. ॐ ह्रीं महेश्वर्यै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।

 

९६. ॐ ह्रीं विद्यायै नमः  अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।

 

९७. ॐ ह्रीं दिव्यध्वन्ये नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।

 

९८. ॐ ह्रीं मात्रे नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।

 

९९. ॐ ह्रीं विद्वदाल्हाददायिन्यै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।

 

१००. ॐ ह्रीं कलायै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।

 

१०१. ॐ ह्रीं भगवत्यै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।

 

१०२. ॐ ह्रीं दीप्तायै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।

 

१०३. ॐ ह्रीं सर्वशोकप्रणाशिन्यै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।

 

१०४. ॐ ह्रीं महर्षिधारिण्यै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।

 

१०५. ॐ ह्रीं पूतायै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।

 

१०६. ॐ ह्रीं गणाधीशावतारितायै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।

 

१०७. ॐ ह्रीं ब्रह्मलोकस्थिरावासायै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।

 

१०८. ॐ ह्रीं द्वादशाम्नाय देवतायै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।

 

पूर्णार्घ्य - शंभु छन्द

 

श्रुतज्ञान सकल यह द्वादशांग-मय जिनवर ध्वनि से प्रगट सांच।

इक सौ बारह करोड़ तेरासी, लाख अठावन सहस पांच ।।

इन द्वादशांग अरु अंगबाह्य को, नित प्रति वंदन करता हूँ।

भक्ती से अर्घ्य चढ़ा करके, श्रुतज्ञान ज्योति को धरता हूँ।। १०९।।

ॐ ह्रीं तीर्थंकरमुखकमलविनिर्गत द्वादशांगमयी सरस्वतीदेव्यै पूर्णार्थ्यां निर्वपामीति स्वाहा। 

 

जाप्य मंत्र - 

ॐ ह्रीं श्रीं वद वद वाग्वादिनि भगवति सरस्वति ह्रीं नमः। 

(सुगंधित पुष्प, लवंग या पीले चावल से १०८ बार मंत्र को जपें।)

 

जयमाला:-

शंभु छंद-

 

जय जय तीर्थंकर धर्म चक्रधर, जय प्रभु समवसरण स्वामी। 

जय जय त्रिभुवन त्रयकाल एक, क्षण में जानो अंतर्यामी ।। 

जय सब विद्या के ईश आप की, दिव्यध्वनी जो खिरती है। 

वह तालु-ओष्ठ-कंठादिक के, व्यापार रहित ही दिखती है।।१।। 

अठरह महाभाषा सातशतक, क्षुद्रक भाषामय दिव्य धुनी। 

उस अक्षर अनक्षरात्मक को, संज्ञी जीवों ने आन सुनी।। 

तीनों संध्या कालों में वह, त्रय त्रय मुहूर्त स्वयमेव खिरे। 

गणधर-चक्री अरु इंद्रों के, प्रश्नों वश अन्य समय भि खिरे ।।२।। 

भव्यों के कर्णों में अमृत, बरसाती शिव सुखदानी है। 

चैतन्य सुधारस की झरणी, दुखहरणी यह जिनवाणी है।। 

जन चार कोश तक इसे सुनें, निजनिज के सब कर्तव्य गुनें।

नित ही अनंत गुण श्रेणिरूप, परिणाम शुद्ध कर कर्म हनें।।३।। 

छह द्रव्य पांच हैं अस्तिकाय, अरु तत्त्व सात नवपदार्थ भी। 

इनको कहती ये दिव्यध्वनी, सबजन हितकर शिवमार्ग सभी।। 

आनन्त्य अर्थ के ज्ञान हेतु, जो बीज पदों का कथन करे। 

अतएव अर्थकर्ता जिनवर, उनकी ध्वनि मेघ समान खिरे ।।४।।

उन बीजपदों में लीन अर्थ, प्रतिपादक बारह अंगों को। 

गणधर गुरु गूंथे अतएव ग्रन्थ-कर्ता मानें वंदूं उनको ।। 

जिन श्रुत ही महातीर्थ उत्तम, उसके कर्ता तीर्थंकर हैं। 

ये सार्थक नाम धरें जग में, इससे तिरते भवसागर हैं।।५।।

जय जय प्रभुवाणी कल्याणी, गंगाजल से भी शीतल है। 

जय जय शमगर्भित अम्मृतमय, हिमकण से भी अति शीतल है।। 

चंदन अरु मोतीहार चंद्र-किरणों से भी शीतलदायी। 

स्याद्वादमयी प्रभु दिव्यध्वनी, मुनिगण को अतिशय सुखदायी ।। ६ ।। 

वस्तू में धर्म अनंत कहे, उन एक एक धर्मों को जो। 

यह सप्तभंगि अद्भुत कथनी, कहती है सात तरह से जो।। 

प्रत्येक वस्तु में विधि निषेध, दो धर्म प्रधान गौण मुख से। 

वे सात तरह से हों वर्णित, नहिं भेद अधिक अब हो सकते।।७।। 

प्रत्येक वस्तु है अस्तिरूप, अरु नास्तिरूप भी है वो ही। 

वो ही है उभयरूप समझो, फिर अवक्तव्य भी है वो ही।। 

वो अस्तिरूप अरु अवक्तव्य, फिर नास्ति अवक्तव्य भंग धरे। 

फिर अस्तिनास्ति अरु अवक्तव्य, ये सात भंग हैं खरे खरे । । ८ ।। 

इस सप्तभंगमय सिंधू में जो, नित अवगाहन करते हैं। 

वे मोह-राग-द्वेषादिरूप, सब कर्मकालिमा हरते हैं।। 

वे अनेकांतमय वाक्यसुधा, पीकर आतमरस चखते हैं।

फिर परमानंद परमज्ञानी, होकर शाश्वत सुख भजते हैं।।९।। 

मैं निज अस्तित्व लिये हूँ नित, मेरा पर में अस्तित्व नहीं। 

मैं चिच्चैतन्य स्वरूपी हूँ, पुद्गल से मुझ नास्तित्व सही।। 

इस विध निज को निज के द्वारा, निज में ही पाकर रम जाऊँ। 

निश्चयनय से सब भेद मिटा, सब कुछ व्यवहार हटा पाऊँ।।१०।। 

भगवन्! कब ऐसी शक्ति मिले, श्रुत दृग् से निज को अवलोकूँ। 

फिर स्वसंवेद्य निज आतम को, निज अनुभव द्वारा मैं खोजूँ।।

संकल्प विकल्प सभी तज के, बस निर्विकल्प मैं बन जाऊँ। 

फिर केवल 'ज्ञानमती' से ही, निज को अवलोकूं सुख पाऊँ।।११।।

 

दोहा - 

सब भाषामय दिव्यध्वनि, वाङ्मय गंगातीर्थ। 

इसमें अवगाहन करूँ, बन जाऊँ जग तीर्थ ।।१२।। 

ॐ ह्रीं तीर्थंकरमुखकमलविनिर्गतद्वादशांगमयीसरस्वतीदेव्यै जयमाला पूर्णार्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।

 

शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलिः। 

 

इदमष्टोत्तरशतं, भारत्याः प्रतिवासरं । 

यः प्रकीर्तयते भक्त्या, स वै वेदांतगो भवेत् ।।१।। 

कवित्वं गमकत्वंच, वादितां वाग्मितामपि । 

समाप्नुयादिदं स्तोत्र-मधीयानो निरंतरं ।। २ ।। 

आयुष्यं च यशस्यं च, स्तोत्रमेतदनुस्मरन्। 

श्रुतकेवलितां लब्ध्वा, सूरिर्ब्रह्म भजेत्परं। ।४।।

              इत्याशीर्वादः। पुष्पाञ्जलिः


सरस्वती (जिनवाणी) जी अर्घ

जलचन्दन अक्षत, फूल चरु, चत, दीप धूप अति फल लावै।

पूजा को ठानत, जो तुम जानत, सो नर द्यानत सुखपावै।।

तीर्थंकर की ध्वनि, गनधर ने सुनि, अंग रचे चुनि ज्ञानमई।

सो जिनवर वानी, शिवसुखदानी, त्रिभुवन मानी पूज्य भई।।

ऊँ ह्रीं श्री जिनमुखोद्भभवसरस्वतीदेव्यै अर्ध्यम निर्वपामीति स्वाहा ।।

 

अथ श्रुतपूजा

उपजातिछंदः- 

अपौरुषेयानखिलानदोषा-नशेषविद्भिर्विहितप्रकाशान्।  

प्रकाशितार्थान्प्रयजे प्रमाणं, प्रवेदयद्द्वादशदिव्यवेदान् ।। 1 ।।

 

ॐ हीं श्रीं क्लीं ऐं र्हं हसी हसं सरस्वति सर्वशास्त्रप्रकाशिनि वद वद वाग्वादिनि ! अत्र अवतर अवतर संवौषट् नमः सरस्वत्यै स्वाहा । 

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं र्हं हसी हसं सरस्वति सर्वशास्त्रप्रकाशिनि वद वद वाग्वादिनि ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ ठ नमः सरस्वत्यै स्वाहा । 

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं र्हं हसी हसं सरस्वति सर्वशास्त्रप्रकाशिनि! वद वद वाग्वादिनि ! मम सज्ज्ञानं कुरु कुरु नमः सरस्वत्यै स्वाहा ।

1. ॐ ह्रीं शब्दब्रह्मणे जलं निर्वपामीति स्वाहा । 

2. ॐ ह्रीं शब्दब्रह्मणे गंधं निर्वपामीति स्वाहा। 

3. ॐ ह्रीं शब्दब्रह्मणे अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा। 

4. ॐ ह्रीं शब्दब्रह्मणे पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।

5. ॐ ह्रीं शब्दब्रह्मणे चरुं निर्वपामीति स्वाहा।

6. ॐ ह्रीं शब्दब्रह्मणे दीपं निर्वपामीति स्वाहा।

7. ॐ ह्रीं शब्दब्रह्मणे धूपं निर्वपामीति स्वाहा । 

8. ॐ ह्रीं शब्दब्रह्मणे फलं निर्वपामीति स्वाहा। 

9. ॐ ह्रीं शब्दब्रह्मणे अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा । शांतिधारां। पुष्पांजलिं ।।


 

सरस्वती स्तोत्र ( संस्कृत )

 

चन्द्रार्क - कोटिघटितोज्ज्वल-दिव्य-मूर्ते!

श्रीचन्द्रिका-कलित-निर्मल-शुभ्रवस्त्रे!

कामार्थ-दायि-कलहंस-समाधिरूढे ।

वागीश्वरि ! प्रतिदिनं मम रक्ष देवि ! ।।१।।

 

देवा-सुरेन्द्र-नतमौलिमणि-प्ररोचि,

श्रीमंजरी-निविड-रंजित-पादपद्मे ! 

नीलालके ! प्रमदहस्ति-समानयाने! 

वागीश्वरि ! प्रतिदिनं मम रक्ष देवि ! ।।२।।

 

केयूरहार-मणिकुण्डल-मुद्रिकाद्यैः, 

सर्वाङ्गभूषण-नरेन्द्र-मुनीन्द्र-वंद्ये ! 

नानासुरत्न-वर-निर्मल-मौलियुक्ते !

वागीश्वरि ! प्रतिदिनं मम रक्ष देवि ! ।।३।।

 

मंजीरकोत्कनककंकणकिंकणीनां,

कांच्याश्च झंकृत-रवेण विराजमाने !

सद्धर्म-वारिनिधि-संतति-वर्धमाने !

वागीश्वरि ! प्रतिदिनं मम रक्ष देवि! ।। ४।।

 

कंकेलिपल्लव-विनिंदित-पाणियुग्मे ! 

पद्मासने दिवस-पद्मसमान-वक्त्रे ! 

जैनेन्द्र-वक्त्र-भवदिव्य-समस्त-भाषे ! 

वागीश्वरि ! प्रतिदिनं मम रक्ष देवि! ।। ५।।

 

अर्धेन्दुमण्डितजटाललितस्वरूपे  !

शास्त्र-प्रकाशिनि-समस्त-कलाधिनाथे!

चिन्मुद्रिका-जपसराभय-पुस्तकांके !

वागीश्वरि ! प्रतिदिनं मम रक्ष देवि!।।६।।

 

डिंडीरपिंड-हिमशंखसिता-भ्रहारे! 

पूर्णेन्दु-बिम्बरुचि-शोभित-दिव्यगात्रे!

चांचल्यमान-मृगशावललाट-नेत्रे !

वागीश्वरि ! प्रतिदिनं मम रक्ष देवि! ।।७।।

 

पूज्ये पवित्रकरणोन्नत-कामरूपे!

नित्यं फणीन्द्र-गरुडाधिप-किन्नरेन्द्रैः!

विद्याधरेन्द्र-सुरयक्ष-समस्त-वृन्दैः,

वागीश्वरि ! प्रतिदिनं मम रक्ष देवि !।।८।।

 

अनुष्टुप् छन्द

 

सरस्वत्याः प्रसादेन, काव्यं कुर्वन्ति मानवाः। 

तस्मान्निश्चल-भावेन , पूजनीया सरस्वती।।९।।

 

श्री सर्वज्ञ मुखोत्पन्ना, भारती बहुभाषिणी।

अज्ञानतिमिरं हन्ति, विद्या-बहुविकासिनी।।१०।।

 

सरस्वती मया दृष्टा, दिव्या कमललोचना।

हंसस्कन्ध-समारूढा, वीणा-पुस्तक-धारिणी।।११।। 

 

प्रथमं भारती नाम, द्वितीयं च सरस्वती।

तृतीयं शारदादेवी, चतुर्थं हंसगामिनी।।१२।।

 

पंचमं विदुषां माता, षष्ठं वागीश्वरी तथा।

कुमारी सप्तमं प्रोक्ता, अष्टमं ब्रह्मचारिणी।।१३।।

 

नवमं च जगन्माता, दशमं ब्राह्मिणी तथा।

एकादशं तु ब्रह्माणी, द्वादशं वरदा भवेत् ।।१४।।

 

वाणी त्रयोदशं नाम, भाषा चैव चतुर्दशं।

पंचदशं श्रुतदेवी च , षोडशं गौर्निगद्यते।।१५।।

 

एतानि श्रुतनामानि, प्रातरुत्थाय यः पठेत्।

तस्य संतुष्यति माता, शारदा वरदा भवेत् ।। १६।।

 

सरस्वती ! नमस्तुभ्यं, वरदे ! कामरूपिणि!

विद्यारंभं करिष्यामि, सिद्धिर्भवतु मे सदा।।१७।।

 

 ।। इति श्री सरस्वती स्तोत्रम् ।।

षट्खण्डागम पूजा

[षट्खण्डागम व्रत एवम श्रुतपञ्चमी व्रत में]

 

-स्थापना (शंभु छंद)-

जिनशासन का प्राचीन ग्रंथ, षट्खंडागम माना जाता।

प्रभु महावीर की दिव्यध्वनि से, है इसका सीधा नाता।।

जब द्वादशांग का ज्ञान धरा पर, विस्मृत होने वाला था।

तब पुष्पदंत अरु भूतबली ने, आगम यह रच डाला था।।१।।

 

-दोहा-

षट्खंडागम ग्रंथ की, पूजन करूँ महान।

मन में श्रुत को धार कर, पा जाऊँ श्रुतज्ञान।।२।।

 

ॐ ह्रीं श्रीषट्खंडागमसिद्धान्तग्रंथराज! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।

ॐ ह्रीं श्रीषट्खंडागमसिद्धान्तग्रंथराज! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।

ॐ ह्रीं श्रीषट्खंडागमसिद्धान्तग्रंथराज! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् ।

 

-अष्टक -

 

(तर्ज-मैं चंदन बनकर........)

 

हम पूजा करने आए, सैद्धान्तिक ग्रन्थों की।

हम थाल सजाकर लाए, हैं आठों द्रव्यों की।।टेक.।।

 

ज्ञानामृत पीने से, भव बाधा नशती है।

हम जल की झारी लाए, त्रयधारा करने को।।हम.।।१।।

ॐ ह्रीं श्रीषट्खंडागमसिद्धान्तग्रंथेभ्य: जन्मजरा-मृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।

 

हम पूजा करने आए, सैद्धान्तिक ग्रन्थों की।

हम थाल सजाकर लाए, हैं आठों द्रव्यों की।।टेक.।।

 

चन्दन की शीतलता तो, कुछ क्षण ही रहती है।

शाश्वत शीतलता हेतू, श्रुतपूजन कर लूँ मैं।।हम.।।२।।

ॐ ह्रीं श्रीषट्खंडागमसिद्धान्तग्रंथेभ्य: संसारताप-विनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।

 

हम पूजा करने आए, सैद्धान्तिक ग्रन्थों की।

हम थाल सजाकर लाए, हैं आठों द्रव्यों की।।टेक.।।

 

श्रुतवारिधि में रमने से, अक्षय पद मिलता है।

हम अक्षत लेकर आए, श्रुत पूजन करने को।।हम.।।३।।

ॐ ह्रीं श्रीषट्खंडागमसिद्धान्तग्रंथेभ्यो अक्षयपद-प्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।

 

हम पूजा करने आए, सैद्धान्तिक ग्रन्थों की।

हम थाल सजाकर लाए, हैं आठों द्रव्यों की।।टेक.।।

 

स्वाध्याय परमतप द्वारा, विषयाशा नशती है।

हम पुष्पों को ले आए, पुष्पांजलि करने को।।हम.।।४।।

ॐ ह्रीं श्रीषट्खंडागमसिद्धान्तग्रंथेभ्य: कामबाण-विध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।

 

हम पूजा करने आए, सैद्धान्तिक ग्रन्थों की।

हम थाल सजाकर लाए, हैं आठों द्रव्यों की।।टेक.।।

 

ज्ञानामृत का आस्वादन, ही सच्चा भोजन है।

नैवेद्य थाल ले आए, श्रुत अर्चन करने को।।हम.।।५।।

ॐ ह्रीं श्रीषट्खंडागमसिद्धान्तग्रंथेभ्य: क्षुधारोग-विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।

 

हम पूजा करने आए, सैद्धान्तिक ग्रन्थों की।

हम थाल सजाकर लाए, हैं आठों द्रव्यों की।।टेक.।।

 

सम्यग्दर्शन का दीपक, मन का मिथ्यात्व भगाता।

इक दीप जलाकर लाए, श्रुत अर्चन करने को।।हम.।।६।।

ॐ ह्रीं श्रीषट्खंडागमसिद्धान्तग्रंथेभ्य: मोहांधकार-विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।

 

हम पूजा करने आए, सैद्धांतिक ग्रन्थों की।

हम थाल सजाकर लाए, हैं आठों द्रव्यों की।।टेक.।।

 

कर्मों की धूप जलाऊँ, निज ध्यान की अग्नी में।

हम धूप सुगंधित लाए, श्रुत अर्चन करने को।।हम.।।७।।

ॐ ह्रीं श्रीषट्खंडागमसिद्धान्तग्रंथेभ्य: अष्टकर्म-दहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।

 

हम पूजा करने आए, सैद्धान्तिक ग्रन्थों की।

हम थाल सजाकर लाए, हैं आठों द्रव्यों की।।टेक.।।

 

फल के स्वादों में फँसकर, नहिं मुक्ति सुफल को पाया।

अब थाल फलों का लाए, श्रुत पूजन करने को।।हम.।।८।।

ॐ ह्रीं श्रीषट्खंडागमसिद्धान्तग्रंथेभ्य: मोक्षफल-प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।

 

हम पूजा करने आए, सैद्धान्तिक ग्रन्थों की।

हम थाल सजाकर लाए, हैं आठों द्रव्यों की।।टेक.।।

 

कोमल मृदु वस्त्रों द्वारा, निज तन को सदा ढका है।

अब वस्त्र बनाकर लाए, श्रुत पूजन करने को।।हम.।।९।।

ॐ ह्रीं श्रीषट्खंडागमसिद्धान्तग्रंथेभ्यो वस्त्रं निर्वपामीति स्वाहा।

 

हम पूजा करने आए, सैद्धान्तिक ग्रन्थों की।

हम थाल सजाकर लाए, हैं आठों द्रव्यों की।।टेक.।।

 

जिनवाणी के अध्ययन से, इक दिन अनर्घ्य पद मिलता।

‘‘चंदना’’ अघ्र्य ले आए, श्रुत पूजन करने को।।हम.।।१०।।

ॐ ह्रीं श्रीषट्खंडागमसिद्धान्तग्रंथेभ्य: अनर्घ्य पद-प्राप्तये अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।

 

-दोहा-

 

षट्खंडागम ग्रंथ के, सम्मुख कर जलधार।

ज्ञान और चारित्र से, करूँ भवाम्बुधि पार।।१०।।

 

शान्तये शांतिधारा।

 

विविध पुष्प की वाटिका, से पुष्पों को लाय।

पुष्पांजलि अर्पण करूँ, श्रुत समुद्र के मांहि।।११।।

 

दिव्य पुष्पांजलि:।

 

अथ प्रत्येक अर्घ्य

 

-शंभु छंद-

 

पहला है जीवस्थान खण्ड, छह पुस्तक की टीका इसमें।

दो सहस तीन सौ पिचहत्तर, सूत्रों का सार भरा इसमें।।

अनुयोग आठ नव चूलिकाओं में, सत्प्ररूपणा आदि कथन।

यह ज्ञान मुझे भी मिल जावे, इस हेतु करूँ श्रुत का अर्चन।।१।।

ॐ ह्रीं अष्टअनुयोगनवचूलिकासमन्वितजीवस्थान-नामप्रथमखण्डजिनागमाय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।

 

पन्द्रह सौ चौरानवे सूत्र से, सहित ग्रंथ यह कहलाता।।

सप्तम पुस्तक में है निबद्ध, यह बंध का प्रकरण बतलाता।

इस श्रुत का अर्चन करूँ कर्म, ज्ञानावरणी तब नश जाता।।२।।

 

है तृतियबंधस्वामित्वविचय का, खण्ड आठवीं पुस्तक में।

त्रय शतक व चौबिस सूत्रों के, द्वारा सिद्धान्त कथन इसमें।।

जो मन वच तन की शुद्धि सहित, इस आगम का अध्ययन करें। 

वे कर्मबंध से छुट जाते, हम अर्घ्य चढ़ाकर नमन करें।।३।।

ॐ हीं कर्मबंधादिसिद्धान्तकथनसमन्वितबंध-स्वामित्वविचयनामतृतीयखण्डजिनागमाय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।

 

वेदनाखण्ड नामक चतुर्थ है, खण्ड चार पुस्तक निबद्ध।

नौ से बारह तक चारों में, पन्द्रह सौ चौदह सूत्र बद्ध।।

इन शास्त्रों की पूजन से मन का, कर्म असाता नश जाता।

गौतमगणधर विरचित मंगल-सूत्रों की है इसमें गाथा।।४।।

ॐ ह्रीं ऋद्ध्यादिवर्णनसमन्वितवेदनाखण्डनाम-चतुर्थखण्डजिनागमाय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।

 

षट्खण्डागम का पंचम है, वर्गणा खण्ड आचार्य ग्रथित।

हैं एक सहस तेईस सूत्र, तेरह से सोलह तक पुस्तक।।

धरसेनसूरि सम गिरि से गिरती, गंगा मानो प्रगट हुई।

श्री पुष्पदंत अरु भूतबली के, अन्तस्तल से उदित हुई।।५।।

ॐ ह्रीं गणितादिनानाविषयसमन्वितवर्गणाखण्ड-नामपंचमखण्डजिनागमाय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।

 

षट्खण्डागम के छठे खण्ड में, महाबंध का नाम सुना।

है महाधवल टीका उस पर, श्रीवीरसेनस्वामी ने रचा।।

इस तरह बना षट्खण्डागम, महावीर दिव्यध्वनि अंश कहा।

ये सूत्र ग्रंथ कहलाते हैं, इनकी पूजन से सौख्य महा।।६।।

ॐ ह्रीं महाधवल टीकासमन्वितमहाबंधनामषष्ठ-खण्डजिनागमाय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।

 

श्री पुष्पदंत अरु भूतबली, गुरु की कृति षट्खण्डागम है। 

नौ हजार सूत्रों से युत, इस युग का यह श्रुत अनुपम है।।

बानवे सहस्र श्लोकों प्रमाण, टीका भी इसकी लिखी गई।

श्रीवीरसेन स्वामी कृत धवला, टीका को मैं जजूँ यहीं।।७।।

ॐ ह्रीं धवलामहाधवलाटीकासमन्वित षट्खंडागम जिनागमाय पूर्णार्घं निर्वपामीति स्वाहा।

 

श्रीगुणधर भट्टारक विरचित है, कषायप्राभृत ग्रंथ कहा।

जयधवला टीका संयुत सोलह, पुस्तक में उपलब्ध यहाँ।।

है द्वादशांग का पूर्ण सार, इन सब ग्रंथों में भरा हुआ।

इनके अतिरिक्त न सार कोई, अर्चन का मन इसलिए हुआ।।८।।

ॐ ह्रीं जयधवला टीकासमन्वितकषायप्राभृत जिनागमाय पूर्णार्घं निर्वपामीति स्वाहा।

 

षट्खण्डागम के सूत्रों पर, गणिनी श्री ज्ञानमती जी ने।

संस्कृत टीका सिद्धान्तसुचिन्तामणि रचकर दी इस युग में।।

श्रीवीरसेन आचार्य सदृश यह, टीका भी निधि इस युग की।

चिन्तामणि सम फल दात्री उस, टीकायुत ग्रंथ को करूँ नती।।९।।

ॐ ह्रीं सिद्धान्तचिन्तामणिटीकासमन्वितषट्खण्डागम जिनागमाय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।

 

शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलि:।

 

जाप्य मंत्र-ॐ ह्रीं सिद्धान्तज्ञानप्राप्तये षट्खण्डागम जिनागमाय नम:।

 

जयमाला

 

-शेर छंद-

 

जैवन्त हो महावीर दिव्यध्वनि जगत में।

जैवन्त हो गौतम गणीश ज्ञान जगत में।।

जैवन्त हो उन रचित द्वादशांग जगत में।

जैवन्त हो उपलब्ध शास्त्र अंश जगत में।।१।।

 

गौतम ने अपना ज्ञान फिर लोहार्य को दिया।

लोहार्य स्वामी से वो जम्बूस्वामी ने लिया।।

क्रमबद्ध ये त्रय केवली निर्वाण को गये।

फिर पाँच मुनी चौदह पूर्व धारी हो गये।।२।।

 

नंतर विशाखाचार्य आदि ग्यारह मुनि हुए।

एकादशांग पूर्व दश के पूर्ण ज्ञानी थे।।

अरु शेष चार पूर्व का इक देश ज्ञान पा।

परिपाटी क्रम से उसको जगत में भी दिया था।।३।।

 

नक्षत्राचार्य आदि पाँच मुनियों ने क्रम से।

पाया था वही ज्ञान एक देश अंश में।।

नंतर सुभद्र आदि चार मुनियों ने पाया।

इक अंग ज्ञान देश अंश ज्ञान भी पाया।।४।।

 

यह ज्ञान पुनः क्रम से श्रीधरसेन को मिला।

अतएव वर्तमान में श्रुत का कमल खिला।।

इस श्रुत की कहानी सुन रोमांच होता है।

शिष्यों के समर्पण का परिज्ञान होता है।।५।।

 

निज आयु अल्प जान दो मुनियों को बुलाया।

निज ज्ञान उन्हें सौंप मन में हर्ष समाया।।

मुनिराज नरवाहन तथा सुबुद्धि ने सोचा।

गुरु ज्ञानवाटिका की मैं समृद्धि करूँगा।।६।।

 

तब संघ चतुर्विध ने श्रुत की अर्चना कर ली।

देवों ने भी आकर गुरु की वंदना कर ली।।

मुनिवर सुबुद्धि जी की दंतपंक्ति बनाई।

कह पुष्पदंत उनकी महापूजा रचाई।।७।।

 

गुजरात अंकलेश्वर में चौमासा रचाया।

फिर ज्ञान को लिपिबद्ध करना मन में था आया।

मुनिवर सुबुद्धि जी ने सत्प्ररूपणा रची।

मुनिराज नरवाहन के पास उसे भेज दी।।८।।

 

आगे उन्होंने द्रव्यप्रमाणानुगम आदी।

षट्खण्डों में छह सहस सूत्रों की भी रचना की।

फिर ज्येष्ठ शुक्ल पंचमी की तिथि आ गई।

आगम की रचना पूर्र्ण कर संतुष्टि छा गई।।९।।

 

मुनिराज नरवाहन को पूजा भूत सुरों ने।

बलिविधि के साथ भूतबली कहा उन्होंने।।

वे इस प्रकार पुष्पदंत भूतबलि बने।

षट्खंड जिनागम को जीत चक्रपति बने।।१०।।

 

सिद्धांतचक्रवर्ती थे धरसेन जी सचमुच।

श्री पुष्पदंत भूतबली में भी थे ये गुण।।

पश्चात्वर्ति मुनि भी उनके अंशरूप हैं।

जिनको मिला सिद्धान्त ज्ञान साररूप है।।११।।

 

त्रयखण्ड पे परिकर्म टीका कुन्दकुन्द की।

थी पद्धति द्वितीय टीका शामकुण्ड की।।

श्रीतुम्बुलूर सूरि ने टीका की पंचिका।

स्वामी समन्तभद्र ने चौथी रची टीका।।१२।।

 

श्री बप्पदेव गुरु ने लिखी व्याख्याप्रज्ञप्ती।

धवलादि टीकाओं के कर्ता वीरसेन जी।।

इन छह में मात्र धवला उपलब्ध आज है।

पाँचों ही शेष टीका के नाम मात्र हैं।।१३।।

 

सदि बीसवीं में भी मिले सिद्धान्त ग्रंथ ये।

चारित्रचक्रवर्ति शांतिसिंधु कृपा से।।

इन सबको ताम्रपत्र पे उत्कीर्ण कराया।

विद्वानों से टीकाओं का अनुवाद कराया।।१४।।

 

संस्कृत तथा प्राकृत में मिश्र है धवल टीका।

अतएव मणिप्रवालन्याय युक्त है टीका।।

इसका ही ले आधार ज्ञानमती मात ने।

टीका रची सिद्धान्तचिन्तामणि नाम से।।१५।।

 

इन सबकी टीकाओं को बार-बार मैं नमूँ।

षट्खण्ड जिनागम में मूलग्रंथ को प्रणमूँ।।

मुझको भी इन्हें पढ़ने की शक्ति प्राप्त हो।

माता सरस्वती मुझे तव भक्ति प्राप्त हो।।१६।।

 

षट्खण्ड धरा जीत चक्रवर्ति ज्यों बनें।

षट्खंडजिनागम को भी त्यों ही जो पढ़ें।।

सिद्धान्तचक्रवर्ति वे हों ‘चन्दनामती’।

पूर्णाघ्र्य चढ़ाऊँ करूँ मैं वंदना-भक्ती।।१७।।

 

-दोहा-

 

षट्खण्डागम ग्रंथ को, वंदन बारम्बार।

अघ्र्य समर्पण कर लहूँ, जिनवाणी का सार।।१८।।

 

ॐ ह्रीं षट्खण्डागमसिद्धान्तग्रंथेभ्यो जयमाला पूर्णार्घं निर्वपामीति स्वाहा।

 

शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलि:।

 

-सोरठा-

 

जो पूजें चितलाय, षट्खंडागम शास्त्र को।

निज अज्ञान नशाय, वे पावें श्रुतसार को।।

 

।। इत्याशीर्वाद:, पुष्पांजलि:।।

श्रुतपंचमी पर्व का महत्त्व-

ज्येष्ठ शुक्ला पंचमी, जो कि सम्पूर्ण जैन समाज में ‘‘श्रुतपंचमी’’ पर्व के नाम से विख्यात है। इस दिन द्वादशांगमयी सरस्वती देवी की पूजा की जाती है। उस श्रुतपंचमी पर्व के महत्त्व को यहाँ दर्शाया जा रहा है— सौराष्ट देश में ऊर्जयंतगिरि की चंद्रगुफा में निवास करने वाले अष्टांगमहानिमित्तधारी श्री धरसेनाचार्य के मन में विचार आया कि ‘‘आगे अंगश्रुतज्ञान का विच्छेद हो जाएगा अतः जैसे भी हो उस अंगश्रुतज्ञान को सुरक्षित करने का प्रयास करना चाहिए। उसी समय उन्होंने ‘‘पंचवर्षीय साधु सम्मेलन’’ में पधारे दक्षिण देशवासी साधुओं के पास एक पत्र भेजा। उस पत्र को पढ़कर उन आचार्यों ने दो योग्य मुनि उस आन्ध्रप्रदेश से सौराष्ट्र देश में भेजे। इन दोनों मुनियों के पहुँचने से पहले ही आचार्यप्रवर श्री धरसेनजी को पिछली रात्रि में स्वप्न हुआ कि ‘‘दो शुभ्र वृषभ(बैल) मेरी तीन प्रदक्षिणा देकर मेरे चरणों में नमन कर रहे हैं।’’

यद्यपि उस स्वप्न का फल वे योग्य शिष्यों का मिलना समझ चुके थे फिर भी उन दोनों के आने पर उनकी परीक्षा के लिए गुरुदेव ने उन दोनों को एक-एक विद्या देकर भगवान नेमिनाथ की सिद्धभूमि में बैठकर विद्या सिद्ध करने का आदेश दिया। गुरु की आज्ञा से वे दोनों विद्या सिद्ध करने हेतु मंत्र जाप करने लगे। जब विद्या सिद्ध हो गई तो उनके सामने दो देवियाँ प्रगट हुर्इं, उनमें से एक देवी एक आँख वाली थी और दूसरी के दाँत बड़े-बड़े थे। उन दोनों मुनियों ने समझ लिया कि हमारे मंत्रों में कहीं न कहीं दोष है। चिन्तन करके मंत्र के व्याकरणशास्त्र से दोनों ने मंत्र शुद्ध किए। एक मुनि के मंत्र में एक अक्षर कम था और दूसरे मुनि के मंत्र में एक अक्षर अधिक था। शुद्ध मंत्र जपने पर सुन्दर वेशभूषा में दो देवियाँ अपने सुन्दर रूप में प्रगट हुईं और बोलीं—हे देव ! आज्ञा दीजिए! क्या करना है ? दोनों मुनि बोले—हमें आपसे कोई कार्य नहीं है, केवल गुरु की आज्ञा से हमने ये मंत्र जपे हैं। ऐसा सुनकर देवियाँ वापस चली गईं ।

दोनों मुनियों ने जाकर गुरुवर श्री धरसेनाचार्य को सारा वृत्तान्त सुनाया। आचार्यश्री ने प्रसन्न होकर शुभ मुहूर्त में दोनों को श्रुतविद्या का अध्ययन कराना प्रारम्भ किया। इन्होंने विनयपूर्वक गुरु से विद्या प्राप्त की पुनः गुरू ने जानकर इन दोनों का विहार करा दिया। दोनों मुनियों ने ‘‘अंकलेश्वर’’ ग्राम में जाकर चातुर्मास स्थापित किया। तदनंतर बड़े मुनि श्री पुष्पदंताचार्य अपने भांजे जिनपालित को साथ लेकर उसे मुनि बनाकर बनवास नामक देश को चले गए और भूतबलि आचार्य तमिलदेश को चले गए। श्रीपुष्पदंताचार्य ने जिनपालित मुनि को सत्प्ररूपणा के १७७ सूत्रों को लिखकर पढ़ाया और उसे देकर भूतबलि आचार्य के पास भेज दिया। इन्होंने भी अपने सहपाठी गुरुभाई पुष्पदंताचार्य के अभिप्राय को जानकर और उनकी आयु अल्प जानकर ‘‘द्रव्यप्रमाणानुगम’’ को आदि लेकर षट्खण्डागम ग्रन्थ की रचना पूर्ण की और ज्येष्ठ शुक्ला पंचमी के दिन इस ग्रन्थ की चर्तुविध संघ ने पूजा की तभी से श्रुतपंचमी पर्व चला आ रहा है। ये दोनों आचार्य षट्खण्डागम ग्रन्थ के कर्ता माने गए हैं।