रत्नत्रय पूजा
(दोहा)
चहुँगति फणि-विष-हरन मणि,
दुःख पावक जलधार।
शिव-सुख सुधा सरोवरी,
सम्यक्-त्रयी निहार।।
ओं ह्रीं सम्यक्रत्नत्रयधर्म! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननम्।
ओं ह्रीं सम्यक्रत्नयधर्म! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनम्।
ओं ह्रीं सम्यक्रत्नत्रयधर्म! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधिकरणम्।
सोरठा
क्षीरोदधि उनहार, उज्ज्वल जल अति सोहनो।
जनम रोग निरवार, सम्यक् रत्नत्रय भजों।।
ओं ह्रीं सम्यक्रत्नत्रयाय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं नि. स्वाहा।
चन्दन केशर गार, परिमल महा सुगन्धमय।
जनम रोग निरवार, सम्यक् रत्नत्रय भजों।।
ओं ह्रीं सम्यक्रत्नत्रयाय भवतापविनाशनाय चंदनं नि. स्वाहा।
तंदुल अमल चितार, वासमती सुखदास के।
जनम रोग निरवार, सम्यक् रत्नत्रय भजों।।
ओं ह्रीं सम्यक्रत्नत्रयाय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् नि. स्वाहा।
महकैं फूल अपार, अलि गुंजै ज्यों धुति करैं।
जनम रोग निरवार, सम्यक् रत्नत्रय भजों।।
ओं ह्रीं सम्यक्रत्नत्रयाय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं नि. स्वाहा।
लाडू बहु विस्तार, चीकन मिष्ट सुगन्धयुत।
जनम रोग निरवार, सम्यक् रत्नत्रय भजों।।
ओं ह्रीं सम्यक्रत्नत्रयाय क्षुधारोग विनाशनाय नैवेद्यं नि. स्वाहा।
दीप रतनमय सार, जोत प्रकाशै जगत में।
जनम रोग निरवार, सम्यक् रत्नत्रय भजों।।
ओं ह्रीं सम्यक्रत्नत्रयाय मोहान्धकार विनाशनाय दीपं नि. स्वाहा।
धूप सुवास विथार, चन्दन अगर कपूर की।
जनम रोग निरवार, सम्यक् रत्नत्रय भजों।।
ओं ह्रीं सम्यक्रत्नत्रयाय अष्टकर्मविनाशनाय धूपं नि. स्वाहा।
फल शोभा अधिकार, लौंग छुहारे जायफल।
जनम रोग निरवार, सम्यक् रत्नत्रय भजों।
ओं ह्रीं सम्यक्रत्नत्रयाय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
आठ दरब निरधार, उत्तम सों उत्तम लियो।
जनम रोग निरवार, सम्यक् रत्नत्रय भजों।।
ओं ह्रीं सम्यक्रत्नत्रयाय अनघ्र्यपदप्राप्तये अघ्र्य नि. स्वाहा।
सम्यक् दर्शन ज्ञान व्रत, शिवमग तीनों मयी।
पार उतारन जान, ‘द्यानत’ पूजों व्रत सहित।।
ओं ह्रीं सम्यक्् रत्नत्रयाय पूर्णाघ्र्य निर्वपामीति स्वाहा।
.......................................................................................................................................................
सम्यग्दर्शन पूजा
(दोहा)
सिद्ध अष्टगुण मय प्रगट, मुक्त जीव सोपान।
ज्ञान चरित जिहं बिन अफल, सम्यग्दर्श प्रधान।।
ओं ह्रीं अष्टांगसम्यग्दर्शनधर्म! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननम्।
ओं ह्रीं अष्टांगसम्यग्दर्शन! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनम्।
ओं ह्रीं अष्टांगसम्यग्दर्शन! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधिकरणम्।
सोरठा
नीर सुगंध अपार, तृषा हरै, मल छय करै।
सम्यग्दर्शन सार, आठ अंग पूजों सदा।।
ओं ह्रीं अष्टांगसम्यग्दर्शनाय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं नि. स्वाहा।
जल केशर धन सार, ताप हरै, शीतल करै।
सम्यग्दर्शन सार, आठ अंग पूजों सदा।।
ओं ह्रीं अष्टांगसम्यग्दर्शनाय भवतापविनाशनाय चन्दनं नि. स्वाहा।
अछत अनूप निहार, दारिद नाशै, सुख भरै।
सम्यग्दर्शन सार, आठ अंग पूजों सदा।।
ओं ह्रीं अष्टांगसम्यग्दर्शनाय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् नि. स्वाहा।
पुहुप सुवास उदार, खेद हरै, मन शुचि करै।
सम्यग्दर्शन सार, आठ अंग पूजों सदा।।
ओं ह्रीं अष्टांगसम्ग्यदर्शनाय कामबाणविध्वंशनाय पुष्पं नि. स्वाहा।
नेवज विविध प्रकार, क्षुधा हरै थिरता करै।
सम्यग्दर्शन सार, आठ अंग पूजों सदा।।
ओं ह्रीं अष्टांगसम्यग्दर्शनाय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं नि. स्वाहा।
दीप ज्योति तमहार, घटपट परकाशै महा।
सम्यग्दर्शन सार, आठ अंग पूजों सदा।।
ओं ह्रीं अष्टांगसम्यग्दर्शनाय मोहान्धकारविनोशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
धूप घ्राण सुखकार, रोग विघन जड़ता हरैं।
सम्यग्दर्शन सार, आठ अंग पूजों सदा।।
ओं ह्रीं अष्टांगसम्यग्दर्शनाय अष्टकर्मदहनाय धूपं नि. स्वहा।
श्रीफल आदि विधार, निहचै सुरशिव फल करै।
सम्यग्दर्शन सार, आठ अंग पूजों सदा।।
ओं ह्रीं अष्टांगसम्यग्दर्शनाय मोक्षफलप्राप्तये फलं नि. स्वाहा।
जल गन्धाक्षत चारु, दीप धूप फल फूल चरु।
सम्यग्दर्शन सार, आठ अंग पूजों सदा।।
ओं ह्रीं अष्टांगसम्यग्दर्शनाय अनघ्र्यपदप्राप्तये अघ्र्य नि. स्वाहा।
जयमाला
(दोहा)
आप आप निहचै लखै, तत्त्व प्रीति व्योवहार।
रहित दोष पच्चीस हैं, सहित अष्टगुण सार।।
चैपाई मिश्रित गीता छन्द
सम्यक् दरशन रत्न गहीजै,
जिनवच में संदेह न कीजै।
इह भव विभव चाह दुखदानी,
परभव भोग चहै मत प्रानी।।
प्रानी गिलान न करि अशुचि लखि,
धरम गुरु प्रभु परखिये।
पर दोष ढकिये धरम डिगते को,
सुथिर कर हरखिये।।
चउसंघ को वात्सल्य कीजे,
धरम की परभावना।
गुन आठसों गुन आठ लहिकै,
इहां फेर न आवना।।
ओं ह्रीं अष्टांग सहित पंचविंशति दोषरहिताय सम्यग्दर्शनाय पूर्णाघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
..........................................................................................................................................................................
सम्यग्ज्ञान पूजा
पंच भेद जाके प्रगट, ज्ञेय प्रकाशन भान।
मोह-तपन-हर-चन्द्रमा,सोई सम्यग्ज्ञान।।
ओं ह्रीं अष्टविधसम्यग्ज्ञान! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननम्।
ओं ह्रीं अष्टविधसम्य ग्ज्ञान! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनम्।
ओं ह्रीं अष्टविधसम्यग्ज्ञान! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधिकरणम्।
नीर सुगंध अपार, तृष्णा हरै मल क्षय करै।
सम्यग्ज्ञान विचार, आठ भेद पूजौं सदा।।
ओं ह्रीं अष्टविधसम्यग्ज्ञानाय जन्मजरामृत्युविनाशनायं जलं नि. स्वाहा।
जल केशर घनसार, ताप हरै शीतल करै।
सम्यग्ज्ञान विचार, आठ भेद पूजौं सदा।।
ओं ह्रीं अष्टविधसम्यग्ज्ञानाय भवताप विनाशनाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा।
अछत अनूप निहार, दारिद्र नाशै सुख करै।
सम्यग्ज्ञान विचार, आठ भेद पूजौं सदा।।
ओं ह्रीं अष्टविधसम्यग्ज्ञानाय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् नि. स्वाहा।
पहुप सुवास उदार, खेद हरै मन शुचि करै।
सम्यग्ज्ञान विचार, आठ भेद पूजौं सदा।।
ओं ह्रीं अष्टविधसम्यग्ज्ञानाय कामबाणविध्वंशनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
नेवज विविध प्रकार, क्षुधा हरै थिरता करै।
सम्यग्ज्ञान विचार, आठ भेद पूजौं सदा।।
ओं ह्रीं अष्टविधसम्यग्ज्ञानाय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
दीप ज्योति तमहार, घटपट परकाशै महा।
सम्यग्ज्ञान विचार, आठ भेद पूजौं सदा।।
ओं ह्रीं अष्टविधसम्यग्ज्ञानाय मोहान्धकारविनाशनाय दीपं नि. स्वाहा।
धूप घ्राण सुखकार, रोगविघन जड़ता हरै।
सम्यग्ज्ञान विचार, आठ भेद पूजौं सदा।।
ओं ह्रीं अष्टविधसम्यग्ज्ञानाय अष्टकर्म दहनाय धूपं नि. स्वाहा।
श्रीफल आदि विथार, निहचै सुर शिव फल करै।
सम्यग्ज्ञान विचार, आठ भेद पूजौं सदा।।
ओं ह्रीं अष्टविधसम्यग्ज्ञानाय मोक्षफल प्राप्तये फलं नि. स्वाहा।
जल गंधाक्षत चारु, दीप धूप फल फूल चरु।
सम्यग्ज्ञान विचार, आठ भेद पूजौं सदा।।
ओं ह्रीं अष्टविधसम्यग्ज्ञानाय अनघ्र्यपदप्राप्तये अघ्र्य नि. स्वाहा।
जयमाला
(दोहा)
आप आप जानै नियत, ग्रन्थ पटन व्योहार।
संशय विभ्रम मोह बिन, अष्ट अंग गुनकार।।
चैपाई मिश्रित गीता छन्प्द
सम्यग्ज्ञान रतन मन भाया,
आगम तीजा नैन बताया।
अच्छर अरथ शुद्ध पहिचानो,
अच्छर अरथ उभय संग जानो।।
जानो सुकाल पठन जिनागम,
नाम गुरु न छिपाइये।
तप रीति गहि बहु मान देकै,
विनय गुन चित लाइये।।
ए आठ भेद करम उछेदक ,
ज्ञान दर्पण देखना।
इस ज्ञानही सो भरत सीझा,
और सब पटपेखना।।
ओं ह्रीं अष्टविधसम्यग्ज्ञानाय पूर्णाघ्र्य निर्वपामीति स्वाहा
.......................................................................................................................................................................
सम्यक्चरित्र पूजा
विषय रोग औषधि महा, दव कषाय जलधार।
तीर्थंकर जाको धरे, सम्यक्चारित सार।।
ओं ह्रीं त्रयोदशविध सम्यक् चारित्र! अत्र अवतर अवतर संवौषट्।
ओं ह्रीं त्रयोदशविध सम्यक् चारित्र! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः।
ओं ह्रीं त्रयोदशविध सम्यक् चारित्र! अत्र मम सन्न्हिितो भव भव वषट्।
सोरठा
नीर सुगन्ध अपार, तृषा हरे मल छय करैं।
सम्यक् चारित्र सार, तेरह विध पूजों सदा।।
ओं ह्रीं त्रयोदशविध सम्यक् चारित्र! जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
जल केसर, घनसार, ताप हरै शीतल करै।
सम्यक्चारित सार, तेरह विध पूजों सदा।
ओं ह्रीं त्रयोदशविध सम्यक् चारित्र! भवताप विनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
अछत अनूप निहार, दारिद्र नासै सुख भरै।
सम्यक्चारित सार, तेरह विध पूजों सदा।।
ओं ह्रीं त्रयोदशविध सम्यक् चारित्र! अक्षयपद प्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा।
पुहुप सुवास उदार, खेद हरे मन शुचि करे।
सम्यक्चारित सार, तेरह विध पूजों सदा।।
ओं ह्रीं त्रयोदशविध सम्यक् चारित्र! कामबाण विध्वंशनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
नेवज विविध प्रकार, क्षुधा हरै भिरता करै।
सम्यक्चारित सार, तेरह विध पूजों सदा।।
ओं ह्रीं त्रयोदशविध सम्यक् चारित्र! क्षुधारोग विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
धूप घ्राण सुखकार, रोग विघन जड़ता हरैं।
सम्यक्चारित सार, तेरह विध पूजों सदा।।
ओं ह्रीं त्रयोदशविध सम्यक् चारित्र अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
श्रीफल आदि विधार, निश्चय-सुर शिवफल करै।
सम्यक्चारित सार, तेरह विध पूजों सदा।।
ओं ह्रीं त्रयोदशविध सम्यक् चारित्र मोक्षफलप्राप्तये फलं नि. स्वाहा।
जल गन्धाक्षत चारु, दीप धूप फल फूल चरु।
सम्यक्चारित सार, तेरह विध पूजों सदा।
ओं ह्रीं त्रयोदशविध सम्यक् चारित्र अनघ्र्यपदप्राप्तयेऽघ्र्य निर्वपामीति स्वाहा।
जयमाला
आप आप थिर नियत नय, तप संजम व्यौहार।
स्व पर दया दोनों लिये, तेरहविध दुखहार।।
चैपाई मिश्रित गीताछन्द
सम्यक्चारित रतन संभालो,
पांच पाप तजिकै व्रत पालो।
पंच समिति त्रय गुप्ति गहीजै,
नरभव सफल करहु तन छीजै।।
छीजै सदा तन को जतन यह,
एक संयम पालिये।
बहु रुल्यो नरक निगोद माहीं,
विषय कषायानि टालिये।।
शुभ करम जोग सुघाट आया,
पार हो दिन जात है
‘द्यानत’ धरम की नाव बैठो,
शिवपुरी कुशलात है।।
ओं ह्रीं त्रयोदशविध सम्यक् चारित्र महाघ्र्य निर्वपामीति स्वाहा।
समुच्चय जयमाला
सम्यग्दर्शन ज्ञान व्रत,
इस बिन मुकति न होय।
अंध पंगु अरु आलसी,
जुदै जलैं दव लोय।।
चैपाई
जापै ध्यान सुथिर बन आवै,
ताके करम बंध कट जावै।
तासों शिवतिय प्रीति बढ़ावै,
जो सम्यक् रत्नत्रय ध्यावै।।
ताको चहु गति के दुख नाहीं,
सो न परै भवसागर माहीं।
जनम-जरा मृत दोष मिटावै,
जो सम्यक् रत्नत्रय ध्यावै।।
सोई दश लच्छन को साधे,
सो सोलह कारण आराधै।
सो परमातम पद उपजावै,
जो सम्यक् रत्नत्रय ध्यावै।।
सोई शक्र चक्रिपद लेई,
तीन लोक के सुख विलसेई।
सो रागादिक भाव बहावै,
जो सम्यक् रत्नत्रय ध्यावै।।
सोई लोकालोक निहारै,
परमानन्द दशा विस्तारै।
आप तिरै औरन तिरवावै,
जो सम्यक् रत्नत्रय ध्यावै।।
ओं ह्रीं सम्यक् रत्नत्रयाय
महाघ्र्य निर्वपामीति स्वाहा।
दोहा
एक स्वरूप प्रकाश निज, वचन कह्यो नहिं जाय।
तीन भेद व्यौहार सब, ‘द्यानत’ को सुखदाय।।
इत्याीशर्वादः-
शांतये त्रय शांतिधारा - परिपुष्पांजलिं क्षिपेत्।
।। इति रत्नत्रय धर्म पूजा समाप्तम्।।