तत्त्वार्थ सूत्र पूजा

स्थापना

राग ‘ जोगीरासा - पारसनाथ जिनेश्वर पूजूँ......

तत्त्वार्थ सूत्र है सारभूत यह सब ग्रन्थों का धामा,

उमास्वामी आचार्य लिखा है पूजूँ आठों यामा।

दश अध्याय इसी के गाये सुनना ध्यान लगाके,

आह्वानन स्थापन करके पूजो हर्ष बढ़ाके।।

ह्रीं श्री स्याद्वाद नय गर्भित तत्त्वार्थ सूत्र महाग्रन्थ अत्र अवतर-अवतर संवौषट् आह्वाननं।

ह्रीं श्री स्याद्वाद नय गर्भित तत्त्वार्थ सूत्र महाग्रन्थ अत्र तिष्ठ-तिष्ठ ठः-ठः स्थापनं।

ह्रीं श्री स्याद्वाद नय गर्भित तत्त्वार्थ सूत्र महाग्रन्थ अत्र मम सन्न्हिितो भव-भव वषअ् सन्निधिकरण्। 

पूजा-अष्टक

राग-  चौबीसो श्री जिनचंद

शुभ निर्मल प्रासुक नीर, कंचन भर झारी,

मम जन्म-जरा नश जाय, जो है दुःखकारी।

तत्त्वार्थ सूत्र महाग्रन्थ, पूजूँ हरषाके,

मैं पाऊँ शिवपुर पंथ, आतम चित लाके।।

ह्रीं श्री स्याद्वाद नय गर्भित तत्त्वार्थ सूत्र महाग्रन्थाय  जन्म-जरा-मृत्यु विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।

चन्दन की महके गंध, भव संताप हरे,

मैं पाऊँ निज आनन्द, सारे पाप हरे।

तत्त्वार्थ सूत्र महाग्रन्थ, पूजूँ हरषाके,

मैं पाऊँ शिवपुर पंथ, आतम चित लाके।।

ह्रीं श्री स्याद्वाद नय गर्भित तत्त्वार्थ सूत्र महाग्रन्थाय भव आताप विनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।

अक्षत का पुंज बना, अक्षय पद पाने,

मैं सन्मुख छोडूँ आज, शिव नगरी जाने।

तत्त्वार्थ सूत्र महाग्रन्थ, पूजूँ हरषाके,

मैं पाऊँ शिवपुर पंथ, आतम चित लाके।।

ह्रीं श्री स्याद्वाद नय गर्भित तत्त्वार्थ सूत्र महाग्रन्थाय अक्षय पद प्राप्ताय अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।

फूलों को चुनकर लाय, डलिया भर सारी,

मम रतिनाथ मिट जाय, आतम शुभकारी।

तत्त्वार्थ सूत्र महाग्रन्थ, पूजूँ हरषाके,

मैं पाऊँ शिवपुर पंथ, आतम चित लाके।।

ह्रीं श्री स्याद्वाद नय गर्भित तत्त्वार्थ सूत्र महाग्रन्थाय कामारि जय पद प्राप्ताय पुष्पं निर्वपामिति स्वाहा।

गोघृत का नेवज आज, लेकर मैं आया,

मम क्षुधारोग नश जाय, जो है दुःखदाया।

तत्त्वार्थ सूत्र महाग्रन्थ, पूजूँ हरषाके,

मैं पाऊँ शिवपुर पंथ, आतम चित लाके।।

ह्रीं श्री स्याद्वाद नय गर्भित तत्त्वार्थ सूत्र महाग्रन्थाय क्षुधारोग विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामिति स्वाहा।  

कर्पूर ज्योति उद्योत, आरती मैं करता,

नश जावे मम मोहांध, सन्मुख मैं धरता।

तत्त्वार्थ सूत्र महाग्रन्थ, पूजूँ हरषाके,

मैं पाऊँ शिवपुर पंथ, आतम चित लाके।।

ह्रीं श्री स्याद्वाद नय गर्भित तत्त्वार्थ सूत्र महाग्रन्थाय मोहान्धकार विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।

ले दश धि की शुभ धूप, अग्नि में खेऊँ,

मिट जावे भव का कूप, निज से निज लेऊँ।

तत्त्वार्थ सूत्र महाग्रन्थ, पूजूँ हरषाके,

मैं पाऊँ शिवपुर पंथ, आतम चित लाके।।

ह्रीं श्री स्याद्वाद नय गर्भित तत्त्वार्थ सूत्र महाग्रन्थाय अष्टकर्म दहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहास।

सब ऋतु के फल भर थाल, तुमको मैं जजता,

मैं बसूँ लोक के भाल, विनती यह करता।

तत्त्वार्थ सूत्र महाग्रन्थ, पूजूँ हरषाके,

मैं पाऊँ शिवपुर पंथ, आतम चित लाके।।

ह्रीं श्री स्याद्वाद नय गर्भित तत्त्वार्थ सूत्र महाग्रन्थाय महा मोक्षफल प्राप्ताय फलं निर्वपामीति स्वाहा।

आठों ही द्रव्य मिलाय, कंचन थाल भरा,

मैं पूजूँ पूजा गाय, सब संताप हरा।

तत्त्वार्थ सूत्र महाग्रन्थ, पूजूँ हरषाके,

मैं पाऊँ शिवपुर पंथ, आतम चित लाके।।

ह्रीं श्री स्याद्वाद नय गर्भित तत्त्वार्थ सूत्र महाग्रन्थाय अनर्घ्य पद प्राप्ताय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।

दोहा

शीतल मिष्ट सुहावना, प्रासुक लाया नीर।

तीन धार में नित करूँ, हरो असाता पीर।।

शन्तये शांतिधारा....

गेंदा फूल गुलाब का, भर-भर लाया आज।

पुष्पांजलि मैं कर रहा, पाने शिवपुर राज।।

दिव्य पुष्पांजलि क्षिपेत् .....

प्रत्येक अर्घ्य

दोहा

नय निक्षेप प्रमाण का, विविध रूप बतलाय।

अधिगम को विस्तार कर, सारी विधि बताय।।

मोक्षमार्ग का तद् विषय, साधन तत्त्व महान।

ऐसे प्रथमाध्याय को, मोक्ष शास्त्र है जान।।

आठ द्रव्य का थाल भर, पूजूँ हर्ष बढ़ाय।

आठ कर्म का नाश हो, सिद्ध प्रभु पद पाय।।1।।

ह्रीं श्री तत्त्वार्थ सूत्र प्रथम अध्यायै अनर्घ्य पद प्राप्ताय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।

   

लक्षण भेदस्वतत्त्व अय, मार्गण का उपदेश।

इन्द्रिय स्वामी भेद है, योनी काया शेष।।

तीन वेद अरू अनर्पिता, आयु स्वामी रूप।

देशक दूजाध्याय का, गाया श्रेष्ठ स्वरूप।।

जल-गन्धादि द्रव्य से, पूजूँ सूत्र महान।

शिव पद का मम लाभ हो, करूँ निजातम भान।।2।।

ह्रीं श्री तत्त्वार्थ सूत्र द्वितीय अध्यायै अनर्घ्य पद प्राप्ताय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


अधो लोक अरू मध्य की, रचना करी प्रवीन।

पृथ्वी पर्वत अरू नदी, साथ सरोवर चीन।।

संख्या भारी सब कही, नर तिर्यंच विचार।

आयु सब्रकी जानिये, मन में श्रद्धाधार।।

थाल भराया प्रेम से, धारा भक्ति सरूप।

अर्घ्ज्ञ चढाऊद्द भक्ति से, पाऊँ निज पद रूप।।3।।

ह्रीं श्री तत्त्वार्थ सूत्र तृतीय अध्यायै अनर्घ्य पद प्राप्ताय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


सुरगति विविध प्रकार से, इन्द्रादिक का भेद।

कल्पाकल्प निवेश का, पुण्य फला है भेद।।

किया विवेचन पूर्ण से, लेश्या आयु जान।

लिखा सभी को विशद से, जिनवर कहा प्रमाण।।

ऐसे हम उन सूत्र को, पूजे विविध प्रकार।

चारों गति का नाश हो, पावे शिव पद सार।।4।।

ह्रीं श्री तत्त्वार्थ सूत्र चतुर्थ अध्यायै अनर्घ्य पद प्राप्ताय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


काय सत्व पर्याय गुण, चार प्रकारी द्रव्य।

उनके लक्षण भेद सब, उपग्रह सारे नव्य।।

स्कन्ध हेतु है कहा, सम्यक ् श्रद्धा साथ।

विषय यथावत है महा, अर्हत् जिनवर नाथ।।

जल चंदन अक्षत लिया, पुष्प चारु मन हार।

दीप धूप फल अर्घ्य ले, पूजूँ जिन वच सार।।5।।

ह्रीं श्री तत्त्वार्थ सूत्र पंचम अध्यायै अनर्घ्य पद प्राप्ताय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।

योगास्रव के भद सब, कहे सभी विसर।

दो अधिकरण जानिये, आश्रव है कथसार।।

आश्रव के दो भेद हैं, शुभ और अशुभ बखान।

छठवें इस अध्याय में, जानो सब गुणवान।।

मन हर्षित करके सदा, गाऊँ मैं गुणगान।

अर्घ चढ़ाऊँ मैं सदा, पाने शिवपुर थान।।6।।

ह्रीं श्री तत्त्वार्थ सूत्र षष्ठम अध्यायै अनर्घ्य पद प्राप्ताय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


व्रत के लखण दो कहे, भेद भवना आठ।

साधु का कर्तव्य है, अणुव्रत का सब ठाठ।।

शील कहा विस्तार से, लक्षण पाप बताय।

मरण, दान, विधि सब कहे, पुण्य दिया दर्शाय।

भेलाकर सब द्रव्य को, भर-भर थाल चढ़ाय।

नाथ निरंजन पद मिले, यही भावना भाय।।7।।

ह्रीं श्री तत्त्वार्थ सूत्र सप्तम् अध्यायै अनर्घ्य पद प्राप्ताय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।\


बन्धक बन्ध्यरु बन्ध विधि, मूलोत्तर अन्वर्थ।

स्थिति अरु अनुभाग यह, प्रदेश कर्म अरु अर्थ।।

पुण्य पाप का भेद सब गाया आगम सार।

निज विवेक पालन करो, जिन हृदय उरधार।।

भाँति-भाँति का अर्घ ले, नैवेज विविध प्रकार।

पूजूँ मन-वच-काय से, होने भव दधि पार।।8।।

ह्रीं श्री तत्त्वार्थ सूत्र अष्टम अध्यायै अनर्घ्य पद प्राप्ताय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


तीन गुप्ति अरु समितियाँ, परिषह बाईस जान।

तेरह विधि चारित्र है, सबसे यही प्रधान।।

संवर लक्षण है कहा, हेतु भेद बखान।

निर्जर तत्त्व सुहावना, तपसी ध्यान महान।।

निर्ग्रन्थ दशा दरसावता, उसे चढ़ाऊँ अर्घ।

ऐसा पद मुझको मिले, हो जाऊँ अनर्घ्य।।9।।

ह्रीं श्री तत्त्वार्थ सूत्र नवम अध्यायै अनर्घ्य पद प्राप्ताय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


मोक्ष तत्त्व लक्षण कहा, औपशामिक है भाव।

सह कारण गाओ सदा, सम्यक्त्वादि सुभाव।।

लोक अन्त अरू ऊर्ध्वगमन, सिद्ध स्वरूप विशाल।

दसवाँ यह अध्याय है, नाओ सब मिल भाल।।

अर्घ चढ़ाऊँ भाव से, आठों द्रव्य सम्हार।

निज का गुण निज में जगे, होवे मम उद्धार।।10।।

 ह्रीं श्री तत्त्वार्थ सूत्र दशम अध्यायै अनर्घ्य पद प्राप्ताय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


दोहा

उमास्वामी आचार्य ने, रचना करी महान।

ऐसे एन तत्त्वार्थ की गाऊँ मैं गुणमाल।।


जयमाला

रोग - चौपाई - हूँ स्वतंत्र निश्चल ......


सात तत्त्व का विवरण गाया, उमास्वामी ने ही फरमाया।

सम्यग्दर्शन को उपजावे, जन-जन का कल्याण करावे।।1।।


जीव तत्त्व का रूप बनाया, सात तत्त्व श्रद्धान कराया।

आपा पर का ज्ञान बतावे, जो भी इन सूत्रों को ध्यावे।।2।।


गुण पर्यय और द्रव्य बखाना, जो है अत्यन्तिक सुखखाना।

प्रथम चार में जीव गिनाया, पंचम अजीव सार है गाया।।3।।


षष्ठम आस्रव का तुम जानो, व्रत का लक्षण सप्तम मानो।

बन्ध तत्त्व अष्टम में सोहे, संवर निर्जर तत्त्व जु जो है।।4।।


मोक्ष तत्त्व है दशवाँ प्यारा, यूँ तत्त्वार्थ सूत्र है न्यारा।

ऊर्ध्व अधो अरू मध्य है लोका, चार गति में जीव है धोखा।।5।।


पंचेन्द्रिय समन वश में करिये, षट् जीवों से प्रीति करिये।

आयु गति अरु जाति बताई, इनको जाने शिवगति पाई।।6।।


द्वादश तप ओर संयम जानो, चारित्र तेरह विधि सरधानो।

आर्त रौद्र यह ध्यान हटाओ, धर्म ध्यान को निशदिन ध्याओ।।7।।


शुक्ल ध्यान से शिवपद पावे, सोलहकारण जो भी ध्यावे।

इनका चिंतन नित प्रति करिये, तब ही तीर्थंकर पद लहिये।।8।।


मोक्ष शास्त्र में सब बतलाया, जिसने जाना उसने पाया।

इसकी पूजा सब कर लीजे, पूजा कर पूण्यर्चाजन कीजे।।9।।


ज्ञान बढ़ावन में यह कारण, ज्ञान कहा है सबसे तारण।

‘योगी‘ ने यह पूजा गाई, करिये पूजा सब मिल भाई।।10।।

 ह्रीं श्री स्याद्वाद नय गर्भित तत्त्वार्थ सूत्र महाग्रन्थाय जयमाला जल-फलादि अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।

दोहा

सत्त्वार्थ सूत्र पूजा करो, सभी सदा मन लाय।

स्वातम सत्ता भी मिल,े कह ‘योगी‘ समझाय।।

इत्यादि आशीर्वाद ....

प्रशस्ति

आचार्यों की शृंखला, उसी शृंखला ईश

सन्मतिसागर सूरि है, मुनि जगत के ईश

उनका छठवा शिष्य हूँ, योगीन्द्रसागर नाम

दो हजार दो सन् कहा, सातम तिथि सुखधाम

पर्व पूर्यषण है महा, गुरुवर का सान्निध्य

नरवारी नगरी कही, राजस्थान भू नित्य।

इत्यलम्

सभी संग्रह आन्तरिक दरिद्रता के द्योतक होते है।

 भीतर की दर्रिदता का अनुभव ही बाहर के धन के

 तलाश में ले जाता है। सम्पत्ति सुरक्षा नहीं देती है।

 हालाकि हमे उे सुरक्षा के लिए ही खोजते है उल्टे

हमें ही उसकी सुरक्षा करनी पड़ती है।