आदिनाथ भरत-बाहुबली पूजा
दोहा
चतुयुग की आदि विषे, भये आदिनाथ भगवान।
नाभिराय मरू देवी से, उपजे त्रिभुवन भान।।
श्री भरतेश्वर बाहुबली, जग में तीर्थ महान।
वसु कर्मन को नाशकर, पहुँचे शिवपुर थान।।
जिनका आह्वानन करूँ, तिह तिष्ठ इत थान।
मम भव भ्रमण मिटाय के, करो मेरो कल्याण।।
नै्र ह्रीं श्री आदिनाथ भरतेश्वर बाहुबली जिनेन्द्राय अत्र अवतर अवतर संवौषट
आह्वानं।
नै्र ह्रीं श्री आदिनाथ भरतेश्वर बाहुबली जिनेन्द्राय अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनं।
नै्र ह्रीं श्री आदिनाथ भरतेश्वर बाहुबली जिनेन्द्राय अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधिकरणं।
राग-नन्दीश्वर पूजा
उत्तम गंगा जल लाय, मणिमय भर झारी,
प्रभु जामन मरण मिटाय, भेंट धरूँ थारी।
श्री आदि भरत जिनराज, बाबहुलिी ध्याऊँ,
प्रभु शाश्वत सुख के काज, बलि बलि मैं जाऊँ।।
नै्र ह्रीं श्री आदिनाथ भरतेश्वर बाहुबली जिनेन्द्राय जन्म-जरा-मृत्यु विनाशनाय
जलं निर्वपामीति स्वाहा।
मलयागिरि चन्दन लाय, केसर संग घिंसू,
प्रभु अति दुद्धर भवताप, याते बेग बचूं।
श्री आदि भरत जिनराज, बाहुबली ध्याऊँ
प्रभु शाश्वत सुख के काज, बलि बलि मैं जाऊँ।।
नै्र ह्रीं श्री आदिनाथ भरतेश्वर बाहुबली जिनेन्द्राय भवाताप विनाशनाय चंदनं
निर्वापामीति स्वाहा।
मोती सम अक्षत लेय, प्रभु गुण गावत हूँ,
अक्षय पद कारण हेत, पूजा रचावत हूँ।
श्री आदि भरत जिनराज, बाहुबली ध्याऊँ,
प्रभु शाश्वत सुख के काज, बलि बलि मैं जाऊँ।।
नै्र ह्रीं श्री आदिनाथ भरतेश्वर बाहुबली जिनेन्द्राय अक्षय पद प्राप्ताय अक्षतान्
निर्वपामीति स्वाहा।
सुर तरू के सुमन सुलाय, प्रभु ढिंग भेंट धरूँ,
मम कामबाण मिट जाय, याते भेंट करूँ।
श्री आदि भरत जिनराज, बाहुबली ध्याऊँ,
प्रभु शाश्वत सुख के काज, बलि बलि मैं जाऊँ।।
नै्र ह्रीं श्री आदिनाथ भरतेश्वर बाहुबली जिनेन्द्राय क्षुधा रोग विनाशनाय नैवेद्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
ले दीप रतनमय सार, दीपक जोवत हूँ,
जिन चरणन देत चढ़ाय, भ्रम तम खोवत हूँ।
श्री आदि भरत जिनराज, बाहुबली ध्याऊँ,
प्रभु शाश्वत सुख के काज, बलि बलि मैं जाऊँ।।
नै्र ह्रीं श्री आदिनाथ भरतेश्वर बाहुबली जिनेन्द्राय मोहान्धकार विनाशनाय
दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
ले धूप दशांगी सार, दश दिशि महकाऊँ,
मम कर्म अनादि साथ, ताते बच जाऊँ।
श्री आदि भरत जिनराज, बाहुबली ध्याऊँ,
प्रभु शाश्वत सुख के काज, बलि बलि मैं जाऊँ।।
नै्र ह्रीं श्री आदिनाथ भरतेश्वर बाहुबली जिनेन्द्राय अष्ट कर्म दहनाय धूपम्
निर्वपामीति स्वाहा।
ले फल अरु दाख बदाम, नैनन सुखकारी,
प्रभु मोक्ष महाफल काज, भेंट धरूँ थारी।
श्री आदि भरत जिनराज, बाहुबली ध्याऊँ,
प्रभु शाश्वत सुख के काज, बलि बलि मैं जाऊँ।।
नै्र ह्रीं श्री आदिनाथ भरतेश्वर बाहुबली जिनेन्द्राय मोक्षफल प्राप्ताय फलं
निर्वपामीति स्वाहा।
जल फल वसु दरब मिलाय, कंचन थार भरूँ,
प्रभु आठों करम नशाय, चरणन शीश धरूँ।
श्री आदि भरत जिनराज, बाहुबली ध्याऊँ,
प्रभु शाश्वत सुख के काज, बलि बलि मैं जाऊँ।।
नै्र ह्रीं श्री आदिनाथ भरतेश्वर बाहुबली जिनेन्द्राय अनर्घ पद प्राप्ताय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
दोहा
तीन लोक के नाथ हो, धारा तीन कराय।
तीनों जिनवर को नमूँ, तीन रतन मिल जाय।।
शान्तयै शान्ति धारा....
माया मिथ्या निदान के, मिट जावें सब शूल।
चरणों में अर्पित करूँ, मनहारी बहु फूल।।
दिव्य पुष्पांजलि क्षिपेत्....
श्री आदिनाथ के पंच कल्याणक अर्घावली
दोहा
आषाढ़ कृष्ण द्वितीया कही, जो है अति सुखकार।
माता मरू देवी गर्भ में, आये ऋषभ कुमार।।
रत्न वृष्टि धनपति किया, हर्षित नाभिराज।
नगर अयोध्या धन्य है, शाश्वत तीरथ राज।।
नर्ै्र ह्रीं आषाढ़ कृष्णा द्वितीयां गर्भ कल्याणक प्राप्ताय श्री आदिनाथ जिनेन्द्राय
जल-फलादि अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
चैत्र वदी नौमी महा, पावन हुई स्वमेव।
श्री ह्री धृति देवी सभी, करे मात नित सेव।।
मेरू शिखर पर इन्द्र ने, न्हवन किया जिनराय।
तीन लोक हर्षित हुआ, जय जय कार कराय।।
नर्ै्र ह्रीं चैत्र कृष्णा नवम्यां गर्भ कल्याणक प्राप्ताय श्री आदिनाथ जिनेन्द्राय
जल-फलादि अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
नीलांजन का नृत्य लख, वैराग्य हुआ तत्काल।
लौकान्तिक देव स्तुति करें, होकर सभी निहाल।।
उत्तराषाढ़ नक्षत्र था, चैत्र वदी नौ जान।
दीक्षा ली प्रभु आपने, पाने पद निर्वाण।।
नर्ै्र ह्रीं चैत्र वदी नवम्यां दीक्षा कल्याणक प्राप्ताय श्री आदिनाथ जिनेन्द्राय
जल-फलादि अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
दानवीर ‘श्रेयांस‘ ने दिया, दान तुम नाथ।
अक्षय तृतीय धन्य है, महापर्व कहलात।।
एक सहस्र वर्ष तप किया, केवलज्ञान उपाय।
फाल्गुन वदी एकादशी, हम सब शीश नवाय।।
नर्ै्र ह्रीं फाल्गुन कृष्णा एकादशम्यां केवलज्ञान प्राप्ताय श्री आदिनाथ जिनेन्द्राय
जल-फलादि अर्घ्यंम् निर्वपामीति स्वाहा।
वृषभसेन गणधर बनें और चौरासी साथ।
समवशरण में राजतें, बारह सभा के साथ।।
तीजे युग में तीन कम, अरु आठ मास अवशेष।
पायी मुक्ति आपने, रहा न कुछ भी शेष।।
नर्ै्र ह्रीं माघ कृष्णा चतुर्दश्याम् मोक्ष कल्याणक प्राप्ताय श्री आदिनाथ जिनेन्द्राय
जल-फलादि अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
श्री भरत-जिनेन्द्र अर्घावली
दोहा
मात है नन्दा आपकी, ऋषभदेव पितु जान।
करी तपस्या आपने, नशने कर्म महान।।
सुरपति ने उडत्सव किया, मन वच काय लगाय।
पूजा वन्दन सब किया, तीन योग से आय।।
नर्ै्र ह्रीं श्री भरत जिनेन्द्राय तप कल्याणक प्राप्ताय जलादि अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
चार घातिया नाश कर चार चतुष्टय पाय।
किया आत्म उत्थान तुम, सुरपति शीश झुकाय।
गन्ध कुटी पावन बनी, भरत नाथ भगवान।
अष्ट द्रव्य से पूजता, पाने शिवपुर थान।।
नर्ै्र ह्रीं श्री भरत जिनेन्द्राय केवलज्ञान प्राप्ताय जलादि अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
शेष अघाति नाश तुम, सिद्धातम पद पाय।
नाथ निरंजन तुम बने, नमूँ नमूँ शिर नाय।।
सिद्ध शिला पर जाय कर, किया वास तुम नाथ।
चरणन शीश झुकाय कर, जोडूँ दोनों हाथ।।
नर्ै्र ह्रीं श्री भरत जिनेन्द्राय मोक्ष कल्याणक प्राप्ताय जलादि अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
श्री बाहुबली जिनेन्द्र अर्घ
बाहुबली बाहु-बली, कर्म बली तुम नाश।
केवलज्ञान उपाय कर, किया मोक्ष में वास।।
घोर तपस्या आपने, करी आत्महित हेत।
आत्म उपलब्धि पायकर, करी आत्मा श्वेत।।
नर्ै्र ह्रीं श्री बाहुबली जिनेन्द्राय केवलज्ञान प्राप्ताय जल-फलादि अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
आदिनाथ के पुत्र तुम, द्वितीय किया शिव वास।
आठ करम को नाश कर, तजी सभी तुम आस।।
तुमको बन्दे नित सभी, इन्द्र नरेन्द्र सुरेन्द्र।
चरणों में नित नित नमें, बालाचार्य योगीन्द्र।।
नर्ै्र ह्रीं श्री बाहुबली जिनेन्द्राय मोक्ष कल्याणक प्राप्ताय जलादि अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
जाप्य:- नर्ै्र ह्रीं श्री आदिनाथ भरत-बाहुबली जिनेन्द्राय नमः।
जयमाला
दोहा
तीन नाथ को मैं नमूँ, तीनों योग से नाथ।
तुम गुणमाला मैं करूँ, पाऊँ शिवपुर साथ।।
(राग-पद्धरी छन्द)
जय आदि जिनेश्वर जगत देव, करते सुरनर मुनि नित की सेव।
जय युग की आदि मंझार देव, तुम जनम लियो अतिशय स्वमेव।।1।।
जय चतुर्निकाय सुर करत सेव, सुरपति ने न्हवन किया सुमेर।
जय अवधपुरी नगरी, महान, शोभा अद्भुत सारे जहान।।2।।
जय नाभीराय मरू देवी मात, जिन चरणन में सब धरे माथ।
जय आयु चौरासी लाख पूर्व, लख तरयासी बीते अपूर्व।।3।।
जय नृत्य नीलांजना योगपाय, प्रभु मन वैराग अति उमड़ आय।
जय दरशायो शिवमग महान, संबोधे भवि सबही जहान।।4।।
जिनके सुत ज्येष्ठ भरत महान, चक्री पद पाय जीत्यो जहान।
गृह वास रहत नितही उदास, निज आतम में करते थे वास।।5।।
निर्लेप अंतर मुहुर्त्त मझार, चकायो केवल भानु भार।
जय शेष अघाती दीने घात, तत क्षण सुरनर खग नमत माथ।।6।।
श्री बाहुबली बल जग विख्यात, कारण युग भ्राता पाय साथ।
युद्ध तिन माही उन विजय पाय, तत्क्षण मन में वैराग थाय।।7।।
तपकर निज आतम को ही ध्याय, दुद्धर संयम में मन रमाय।
तुम केवलज्ञान पाया महान, तब सुरगण हरषे थे जहान।।8।।
प्रभु पहुँचे तीनों भव के तीर, आप ही थे ऐसे क्षत्री वीर।
प्रभु ‘योगी‘ करता विनय, आप अब नश दीजे भव का संताप।।10।।
धत्ता
श्री आदि जिनेशा, नमत सुरेशा, भरत बाहुबली गुण गाऊँ।
मैं पूजूँ ध्याऊँ विघन नशाऊँ, मनवांछित फल पाऊँ।।
नै्र।ं ह्रीं श्री आदिनाथ भरतेश्वर बाहुबली जिनेन्द्राय जल-फलादि जयमाला
पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
दोहा
तीन योग से नाथ जो, पूजा करे महान।
विघन सभी मिट जायेंगे, ‘योगी‘ निश्चय जान।।