श्री अभिनन्दनाथ जिनपूजा
छन्द मदावलिप्त कपोल
अभिनन्दन आनन्दकन्द, सिद्धारथ नन्दन।
संवरपिता दिनन्द चन्द, जिहिं आवत वन्दन।।
नगर अजोध्या जनम इन्द्र, नागिन्द्र जु ध्यावै।
तिन्हें जजन के हेत थापि, हम मंगल गावैं।।
ओं ह्रीं श्रीअभिनन्दनाथ जनेन्द्र! अत्रावतार अवतर संवौषट् आह्नाननम्।
ओं ह्रीं श्रीअभिनन्दनाथ जनेन्द्र! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनम्।
ओं ह्रीं श्रीअभिनन्दनाथ जनेन्द्र! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट सन्निधकरणम्।
अष्टण्क
छन्द गीता, हरिगीता तथा रुपमाला
पदमद्रहगन गंग चंग, अभंग धार सुधार है।
कनक मणिनग जटित झारी, द्वारधार निकार है।।
कलुष ताप निकंद श्री अभिनन्दन अनुपमचन्द है।
पद वंद वृन्द जजे प्रभु, भव दंद फंद निकंद है।।
ओं ह्रीं श्री अभिनन्दननाथजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्यु विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
शीत चंदन कदलि नन्दन, सुजल संग घसायकै।
है सुगंध दशौं दिशा में, भ्रमैं मधुकर आयकैं।। कलुष ता.
ओं ह्रीं श्री अभिनन्दननाथजिनेन्द्राय भवताप विनाशनाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा।
हरि हिम शशि फेन मुक्ता, सरिस तन्दुल सेत हैं।
तास को ढिग पुंज धारौं, अखय पद के हेत हैं। कलुष ताप.
ओं ह्रीं श्री अभिनन्दननाथजिनेन्द्राय अक्षयपद प्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा।
समर सुभट निघटनकारन, सुमन सुमन समान हैं।
सुरभितैं जापे करै, झंकार मधुकर आन हैं।। कलुष ताप.
ओं ह्रीं श्री अभिनन्दननाथजिनेन्द्राय कामबाणविध्वंशनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
सरस ताजे नव्य गव्य मनोज्ञ चित्त हर लेयजी।
क्षुधा छेदन छिमा छिति पति के, चरन चरचेयजी।। कलुष ताप.
ओं ह्रीं श्री अभिनन्दननाथजिनेन्द्राय क्षुधाोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अति तमसु मर्दन किरनरवर, बोध भानु विकास है।
तुम चरन ढिग दीपक धरों, मोहि होहु स्वपर प्रकाश है।। कलुष ताप.
ओं ह्रीं श्री अभिनन्दननाथजिनेन्द्राय मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
भूर अगर कपूर चूर सुगंध, अगनि जराय है।
सब करमकाष्ठ सुकाष्ठ में मिस, धूप धूम उड़ाय है।। कलुष ताप.
ओं ह्रीं श्री अभिनन्दननाथजिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
आम निंबु सदा फलादिक, पक्व पावन आनजी।
मोक्षफल के हेतु पूजौं, जोरि कै जुगपानजी।। कलुष ताप.
ओं ह्रीं श्री अभिनन्दननाथजिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
अष्टद्रव्य संवारि सुन्दर, सुजस गाय रसाल ही।
नचत रचत जजों चरन जुग, नाय नाय सुभाल ही।।
कलुष ताप निकंद श्री अभिनन्द अनुपमचन्द है।
पद वंद वृन्द जजे प्रभु, भव दंद फंद निकंद है।।
ओं ह्रीं श्री अभिनन्दननाथजिनेन्द्राय अनघ्र्यपदप्राप्तये अघ्र्य निर्वपामीति स्वाहा।
पंचकल्याणक
(छन्द हरिपद)
शुकलछठ वैशाख विषै तजि, आये श्रीजिनदेव।
सिद्धारथ माता के उर में, करै सची शुचि सेव।।
रतनवृष्टि आदिक वर मंगल, होत अनेक प्रकार।
ऐसे गुन निधि को मैं पूजौं, ध्यावौं बारम्बार।।
ओं ह्रीं वैशाखशुक्लाषष्ठीदिने गर्भमंगलमंडिताय श्रीअभिनन्दन-नाथजिनेन्द्राय अघ्र्य निर्वपामीति स्वाहा।
माघशुक्ल तिथि द्वादशी के दिन, तीन लोक हितकार।
अभिनन्दन आनन्दकन्द तुम, लीन्हों जग अवतार।।
एक महूरत नरकमांहि हूँ, पायो सब जिय चैन।
कनकवरन कपिचिन्ह धरनपद, जजौं तुमैं दिन रैन।।
ओं ह्रीं माघशुक्लाद्वादश्यां जन्ममंगलमंडिताय श्रीअभिनन्दननाथ जिनेन्द्रा अघ्र्य निर्वपामीति स्वाहा।
साढ़े छत्तिस लाख सुपूरब, राजभोग वर भोग।
कछु कारन लखि माघ शुक्ल द्वादशी को धर्यो जोग।।
षष्टम नेम समापति करि लिय, इन्द्रदत्त घर छीर।
जय थुनि पुष्प रतन गंधोदक, वृष्टि सुगन्ध समीर।।
ओं ह्रीं माघशुक्लाद्वादश्यां दीक्षाकल्याणप्राप्ताय श्रीअभिनन्दननाथ जिनेन्द्रा अघ्र्य निर्वपामीति स्वाहा।
पौष शुकल चैदशि को घाते, घाति करम दुखदाय।
उपजायो वरबोध जास को, केवल नाम कहाय।।
समवसरन लहि बोधि धरम कहि, भव्यजीव सुखकंद।
मौकों भवसागर तैं तारो, जय जय जय अभिनन्द।।
ओं ह्रीं पौषशुक्लाचतुर्दश्यां केवलज्ञानप्राप्ताय श्रीअभिनन्दननाथ जिनेन्द्रा अघ्र्य निर्वपामीति स्वाहा।
जोग निरोध अघाति घाति लाहि, गिर समेदतैं मोख।
मास सकल सुखराश कहे, बैसाख शुकल छठ चोख।।
चतुरनिकाय आय तित कीनो, भगति भाव उमगाय।
हम पूजैं इत अरघ लेय जिमि, विघन सघन मिट जाय।।
ओं ह्रीं वैशाखशुक्लाषष्ठीदिने मोक्षमंगलप्राप्ताय श्रीअभिनन्दननाथ जिनेन्द्रा अघ्र्य निर्वपामीति स्वाहा।
जाप मंत्र
पुष्प से 9, 27 या 108 बार निम्न दो मंत्रों में से किसी एक मंत्र का जाप करें।
1. ओं ह्रीं सरस्वती, लक्ष्मी, सर्वाण्यहयक्ष, सनत्कुमारयक्ष, अष्टप्रातिहार्य, अष्टमंगलद्रव्य, यक्षेश्वरयक्ष, वज्रश्रंृखलायक्षी, पंचदशितिथिदेवता, नवग्रहदेवता, पंचक्षेत्रपालादि सचित्ताचित्तमिश्र परिकरसहिताय शतेन्द्र पूजिताय श्रीअभिनन्दननाथजिनेन्द्राय नमः मम ऋद्धिं वृद्धिं सौख्यं कुरु कुरु स्वाहा।
2. ओं ह्रीं यक्षेश्वरयक्ष, वज्रश्रृंखलायक्षी आदि सचित्त अचित्त मिश्र परिकरसहिताय श्रीअभिनन्दनाथजिनेन्द्राय नमः मम ऋद्धिं वृद्धिं सौख्यं कुरु कुरु स्वाहा।
जयमाला
(दोहा)
तुंग सु तन धनु तीनसौ, औ पचास सुख धाम।
कनक वरन अवलोकि के, पुनि पुनि करूँ प्रणाम।।
छन्द लक्ष्मीधरा
सच्चिदानन्द सज्ज्ञन सद्ददर्शनी, सत्स्वरूपा लई सत्सुधा सर्जनी।
सर्व आनन्द कन्दा महादेवता, जास पादाब्ज सेवैं सबैं देवता।।
गर्भ औ जन्म निःकर्म कल्याण में, सत्व को शर्म पूरै सबै थान में।
वंश इक्ष्वाकु में आप ऐसे भये, ज्यों निशाशरद में इन्दु स्वच्छै ठये।।
लक्ष्मीवन्ती छनद
होत वैराग्य लोकांत सुर बोधियो,
फेरि शिवकासु चढ़ि गहन निज सोधियो।
घाति चैघातिया ज्ञान केवल भयो,
समवसरनादि धनदेव तब निरमयो।।
एक है इन्द्रनीली शिला रत्न की,
गोल साढ़े दशैं जोजने जत्न की।
च्यार दिश पैड़ि का बीस हजार है,
रत्न के चूर का कोट निरधार हैं।
कोट चहुँ ओर चहुँ द्वार तोरन खंचे,
तास आगे चहूँ मानथंभा रचे।
मान मानी तजै जास ढिग जायकैं,
नम्रता धार सेवैं तुम्हैं आयकैं।।
छन्द लक्ष्मीधरा
बिंब सिंहासनों पै जहाँ सोहहीं, इन्द्र नागेन्द्र केते मनैं मोहहीं।
वापिका वारिसों यत्र सोहै भरी, जास में न्हात ही पाप जावै टरी।।
तास आगे भरि खातिका वारिसों, हंस सूआदि पंखी रमैं प्यारसों।
पुष्प की वाटिका बाग वच्छे जहां, फूल औ श्रीफर्ले सर्व ही है तहां।।
कोट सौवर्णका तास आगे खड़ा, चार दर्वाज चै ओर रत्नों जड़ा।
चार उद्यान चारों दिशा में गना, है धुजापंक्ति और नाट्यशाला बना।।
तासु आगैं त्रिति कोट रूपा मयी, तूप नौ जास चारों दिशा में ठयी।
धाम सिद्धान्त धारीन के हैं जहां, औ सभाभूमि है भव्य तिष्ठै तहां।।
तास आगैं रची गंधकूटी महा, तीन हैं कट्टिनी सार शोभा लहा।
एक पैं नौ निधैं ही धरी ख्यात हैं, भव्यप्रानी तहां लौं सबै जात हैं।।
दूसरी पीठपै चक्रधारी गमैं, तीसरे प्रातिहार्ये लसैं भाग में।
तास पै वेदिका चार थंभान की, है बनी सर्व कल्याण के खान की।।
तासु पैं अंतरीक्षं विराजै सही, तीन छत्रैं फिरें शीश रत्नै यही।।
वृक्ष शोकापहारी अशोकं लसै, दुन्दुभी नाद औ पुष्प खंते खसै।
देह की ज्योतिसों मंडलाकार है, सात भौ भव्य तामैं लखै सार है।।
दिव्य वानी खिरै सर्व शंका हरै, श्री गनाधीश झेलैं सुशक्ती धरै।
धर्मचक्रकी तुमही कर्मवक्री हने, सर्व शक्री नमैं मोद धारैं घने।।
भव्य को बोधि सम्मेदतैं शिव गये, तत्र इन्द्रादि पूजे सुभक्ती मये।
हे कृपा सिंधु मोपैं कृपा धारिये, घोर संसार से शीघ्र मो तारिये।।
ओं ह्रीं श्रीअभिनन्दननाथ जिनेन्द्रनाय पूर्णाघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जै जै अभिनन्दा आनन्द कन्दा, भवसमुद्र वर पोत इवा।
भ्रम तम शतखंडा, भानु प्रचंडा, तारि तारि जग रैन दिवा।।
।। इत्याशीर्वादः- शांतये त्रय शांतिधारा - परिपुष्पांजलिं क्षिपेत्।।
यक्षेश्वर का अर्घ
अभिनंदन के शासन रक्षक, यक्षेश्वर आह्नानन है।
आओ तिष्ठो पास हमारे, करते यही निवेदन है।।
स्वीकारो स्वीकारो मेरा अर्घ देव तुम स्वीकारो।
जिनवर के मुझ श्रद्धानी को ले अपने संग में तारो।।
ओं आं क्रौं ह्रीं यखेश्वर यक्ष देवतेभ्यो जलादि अघ्र्य समर्पयामीति स्वाहा।
वज्रश्रंृखला यक्षी का अर्घ
अभिनंदन शासन की देवी वज्रा को आह्नानन है।
आओ तिष्ठो पास हमारे, करते यही निवेदन है।।
स्वीकारो स्वीकारो मेरा अर्घ देव तुम स्वीकारो।
जिनवर के मुझ श्रद्धानी को ले अपने संग में तारो।।
ओं आं क्रौं ह्रीं वज्रश्रृंखला यक्षि देवतेभ्यो जलादि अघ्र्य समर्पयामीति स्वाहा।
क्षेत्रपालजी का अर्घ
अभिनंदन के क्षेत्रपालजी सुनो सुनो आह्नानन है।
आओ तिष्ठो पास हमारे, करते यही निवेदन है।।
स्वीकारो स्वीकारो मेरा अर्घ देव तुम स्वीकारो।
जिनवर के मुझ श्रद्धानी को ले अपने संग में तारो।।
ओं आं क्रौं ह्रीं अत्रस्थ अभिनंदानाथ जिनस्य क्षेत्रपाल, भूमिपाल आदि सचित्त अचित्त मिश्र देवतेभ्यो जलादि अघ्र्य समर्पयामीति स्वाहा।
।। इति।।