[16/11, 14:23] +91 96547 93524: *कहानी बड़ी सुहानी*
(1) *कहानी*
*एक बार एक किसान परमात्मा से बड़ा नाराज हो गया। कभी बाढ़ आ जाये, कभी सूखा पड़ जाए, कभी धूप बहुत तेज हो जाए तो कभी ओले पड़ जाये। हर बार कुछ ना कुछ कारण से उसकी फसल थोड़ी ख़राब हो जाये। एक दिन बड़ा तंग आ कर उसने परमात्मा से कहा, देखिये प्रभु,आप परमात्मा हैं, लेकिन लगता है आपको खेती बाड़ी की ज्यादा जानकारी नहीं है, एक प्रार्थना है कि एक साल मुझे मौका दीजिये, जैसा मैं चाहू वैसा मौसम हो, फिर आप देखना मैं कैसे अन्न के भण्डार भर दूंगा। परमात्मा मुस्कुराये और कहा ठीक है, जैसा तुम कहोगे वैसा ही मौसम दूंगा, मैं दखल नहीं करूँगा।*
*किसान ने गेहूं की फ़सल बोई, जब धूप चाही, तब धूप मिली, जब पानी तब पानी। तेज धूप, ओले, बाढ़, आंधी तो उसने आने ही नहीं दी, समय के साथ फसल बढ़ी और किसान की ख़ुशी भी, क्योंकि ऐसी फसल तो आज तक नहीं हुई थी। किसान ने मन ही मन सोचा अब पता चलेगा परमात्मा को, की फ़सल कैसे करते हैं, बेकार ही इतने बरस हम किसानो को परेशान करते रहे।*
*फ़सल काटने का समय भी आया, किसान बड़े गर्व से फ़सल काटने गया, लेकिन जैसे ही फसल काटने लगा एकदम से छाती पर हाथ रख कर बैठ गया। गेहूं की एक भी बाली के अन्दर गेहूं नहीं था, सारी बालियाँ अन्दर से खाली थी, बड़ा दुखी होकर उसने परमात्मा से कहा, प्रभु ये क्या हुआ ?*
*तब परमात्मा बोले, ” ये तो होना ही था, तुमने पौधों को संघर्ष का ज़रा सा भी मौका नहीं दिया। ना तेज धूप में उनको तपने दिया, ना आंधी ओलों से जूझने दिया, उनको किसी प्रकार की चुनौती का अहसास जरा भी नहीं होने दिया, इसीलिए सब पौधे खोखले रह गए, जब आंधी आती है, तेज बारिश होती है ओले गिरते हैं तब पोधा अपने बल से ही खड़ा रहता है, वो अपना अस्तित्व बचाने का संघर्ष करता है और इस संघर्ष से जो बल पैदा होता है वोही उसे शक्ति देता है, उर्जा देता है, उसकी जीवटता को उभारता है। सोने को भी कुंदन बनने के लिए आग में तपने, हथौड़ी से पिटने, गलने जैसी चुनोतियो से गुजरना पड़ता है तभी उसकी स्वर्णिम आभा उभरती है, उसे अनमोल बनाती है।” उसी तरह जिंदगी में भी अगर संघर्ष ना हो, चुनौती ना हो तो आदमी खोखला ही रह जाता है, उसके अन्दर कोई गुण नहीं आ पाता। ये चुनोतियाँ ही हैं जो आदमी रूपी तलवार को धार देती हैं, उसे सशक्त और प्रखर बनाती हैं, अगर प्रतिभाशाली बनना है तो चुनोतियाँ तो स्वीकार करनी ही पड़ेंगी, अन्यथा हम खोखले ही रह जायेंगे। अगर जिंदगी में प्रखर बनना है, प्रतिभाशाली बनना है, तो संघर्ष और चुनौतियों का सामना तो करना ही पड़ेगा।*
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(2) *कहानी*
*"मा की ममता"*
*बाहर बारिश हो रही थी, और अन्दर क्लास चल रही थी.*
*तभी टीचर ने बच्चों से पूछा - अगर तुम सभी को 100-100 रुपया दिए जाए तो तुम सब क्या क्या खरीदोगे ?*
*किसी ने कहा - मैं वीडियो गेम खरीदुंगा..*
*किसी ने कहा - मैं क्रिकेट का बेट खरीदुंगा..*
*किसी ने कहा - मैं अपने लिए प्यारी सी गुड़िया खरीदुंगी..*
*तो, किसी ने कहा - मैं बहुत सी चॉकलेट्स खरीदुंगी..*
*एक बच्चा कुछ सोचने में डुबा हुआ था टीचर ने उससे पुछा - तुम क्या सोच रहे हो, तुम क्या खरीदोगे ?*
*बच्चा बोला -टीचर जी मेरी माँ को थोड़ा कम दिखाई देता है तो मैं अपनी माँ के लिए एक चश्मा खरीदूंगा !*
*टीचर ने पूछा - तुम्हारी माँ के लिए चश्मा तो तुम्हारे पापा भी खरीद सकते है तुम्हें अपने लिए कुछ नहीं खरीदना ?*
*बच्चे ने जो जवाब दिया उससे टीचर का भी गला भर आया !*
*बच्चे ने कहा --*
*मेरे पापा अब इस दुनिया में नहीं है*
*मेरी माँ लोगों के कपड़े सिलकर मुझे पढ़ाती है, और कम दिखाई देने की वजह से वो ठीक से कपड़े नहीं सिल पाती है इसीलिए मैं मेरी माँ को चश्मा देना चाहता हुँ, ताकि मैं अच्छे से पढ़ सकूँ बड़ा आदमी बन सकूँ, और माँ को सारे सुख दे सकूँ.!*
*टीचर -- बेटा तेरी सोच ही तेरी कमाई है ! ये 100 रूपये मेरे वादे के अनुसार और, ये 100 रूपये और उधार दे रहा हूँ। जब कभी कमाओ तो लौटा देना और, मेरी इच्छा है, तू इतना बड़ा आदमी बने कि तेरे सर पे हाथ फेरते वक्त मैं धन्य हो जाऊं !*
*20 वर्ष बाद..........*
*बाहर बारिश हो रही है, और अंदर क्लास चल रही है !*
*अचानक स्कूल के आगे जिला कलेक्टर की बत्ती वाली गाड़ी आकर रूकती है स्कूल स्टाफ चौकन्ना हो जाता हैं !*
*स्कूल में सन्नाटा छा जाता हैं !*
*मगर ये क्या ?*
*जिला कलेक्टर एक वृद्ध टीचर के पैरों में गिर जाते हैं, और कहते हैं -- सर मैं .... उधार के 100 रूपये लौटाने आया हूँ !*
*पूरा स्कूल स्टॉफ स्तब्ध !*
*वृद्ध टीचर झुके हुए नौजवान कलेक्टर को उठाकर भुजाओं में कस लेता है, और रो पड़ता हैं !*
*दोस्तों --*
*मशहूर होना, पर मगरूर मत बनना।*
*साधारण रहना, कमज़ोर मत बनना।*
*वक़्त बदलते देर नहीं लगती..*
*शहंशाह को फ़कीर, और फ़क़ीर को शहंशाह बनते,*
*देर नही लगती ....*
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(3) *कहानी*
*सम्यक दृष्टि*
एक राजा था, बहुत प्रभावशाली, बुद्धि और वैभव से संपन्न। आस-पास के राजा भी समय-समय पर उससे परामर्श लिया करते थे। एक दिन राजा अपनी शैया पर लेेटे-लेटे सोचने लगा, मैं कितना भाग्यशाली हूं। कितना विशाल है मेरा परिवार, कितना समृद्ध है मेरा अंत:पुर, कितनी मजबूत है मेरी सेना, कितना बड़ा है मेरा राजकोष। ओह! मेरे खजाने के सामने कुबेर के खजाने की क्या बिसात? मेरे राजनिवास की शोभा को देखकर अप्सराएं भी ईर्ष्या करती होंगी। मेरा हर वचन आदेश होता है। राजा कवि हृदय था और संस्कृृत का विद्वान था।
अपने भावों को उसने शब्दों में पिरोना शुरू किया। तीन चरण बन गए, चौथी लाइन पूरी नहीं हो रही थी। जब तक पूरा श्लोक नहीं बन जाता, तब तक कोई भी रचनाकार उसे बार-बार दोहराता है। राजा भी अपनी वे तीन लाइनें बार-बार गुनगुना रहा था -
*चेतोहरा: युवतय: स्वजनाऽनुकूला: सद्बान्धवा: प्रणयगर्भगिरश्च भृत्या: गर्जन्ति दन्तिनिवहास्विरलास्तुरंगा:* -
मेरी चित्ताकर्षक रानियां हैं, अनुकूल स्वजन वर्ग है, श्रेष्ठ कुटुंबी जन हैं। कर्मकार विनम्र और आज्ञापालक हैं, हाथी, घोड़ों के रूप में विशाल सेना है।
लेकिन बार-बार गुनगुनाने पर भी चौथा-चरण बन नहीं रहा था। संयोग की बात है कि उसी रात एक चोर राजमहल में चोरी करने के लिए आया था। मौका पाकर वह राजा के शयनकक्ष में घुस गया और पलंग के नीचे दुबक कर कर बैठ गया। चोर भी संस्कृत भाषा का विज्ञ और आशु कवि था। समस्यापूर्ति का उसे अभ्यास था। राजा द्वारा गुनगुनाए जाते श्लोक के तीन चरण चोर ने सुन लिए। राजा के दिमाग में चौथी लाइन नहीं बन रही है, यह भी वह जान गया लेकिन तीन लाइनें सुन कर उस चोर का कवि मन भी उसे पूरा करने के लिए मचलने लगा। वह भूल गया कि वह चोर है और राजा के कक्ष में चोरी करने घुसा है। अगली बार राजा ने जैसे ही वे तीन लाइनें पूरी कीं, चोर के मुंह से चौथी लाइन निकल पड़ी,
*सम्मीलने नयनयोर्नहि किंचिदस्ति॥*
राज्य, वैभव आदि सब तभी तक है, जब तक आंख खुली है। आंख बंद होने के बाद कुछ नहीं है। अत : किस पर गर्व कर रहे हो ?
चोर की इस एक पंक्ति ने राजा की आंखें खोल दीं। उसे सम्यक् दृष्टि मिल गई। वह चारों ओर विस्फारित नेत्रों से देखने लगा - ऐसी ज्ञान की बात किसने कही ? कैसे कही ?
उसने आवाज दी, पलंग के नीचे जो भी है, वह मेरे सामने उपस्थित हो। चोर सामने आ कर खड़ा हुआ। फिर हाथ जोड़ कर राजा से बोला,
हे राजन ! मैं आया तो चोरी करने था, पर आप के द्वारा पढ़ा जा रहा श्लोक सुनकर यह भूल गया कि मैं चोर हूं। मेरा काव्य प्रेम उमड़ पड़ा और मैं चौथे चरण की पूर्ति करने का दुस्साहस कर बैठा। हे राजन ! मैं अपराधी हूं। मुझे क्षमा कर दें। राजा ने कहा, तुम अपने जीवन में चाहे जो कुछ भी करते हो, इस क्षण तो तुम मेरे गुरु हो। तुमने मुझे जीवन के यथार्थ का परिचय कराया है। आंख बंद होने के बाद कुछ भी नहीं रहता - यह कह कर तुमने मेरा सत्य से साक्षात्कार करवा दिया। गुरु होने के कारण तुम मुझसे जो चाहो मांग सकते हो। चोर की समझ में कुछ नहीं आया लेकिन राजा ने आगे कहा -- आज मेरे ज्ञान की आंखें खुल गईं। इसलिए शुभस्य शीघ्रम् - इस सूक्त को आत्मसात करते हुए मैं शीघ्र ही संन्यास लेना चाहता हूं। राज्य अब तृण के समान प्रतीत हो रहा है। तुम यदि मेरा राज्य चाहो तो मैं उसे सहर्ष देने के लिए तैयार हूं।
चोर बोला, राजन ! आपको जैसे इस वाक्य से बोध पाठ मिला है, वैसे ही मेरा मन भी बदल गया है। मैं भी संन्यास स्वीकार करना चाहता हूं। राजा और चोर दोनों संन्यासी बन गए।
एक ही पंक्ति ने दोनों को स्पंदित कर दिया। यह है सम्यक द्रष्टि का परिणाम। जब तक राजा की दृष्टि सम्यक् नहीं थी, वह धन - वैभव, भोग - विलास को ही सब कुछ समझ रहा था। ज्यों ही आंखों से रंगीन चश्मा उतरा, दृष्टि सम्यक् बनी कि पदार्थ पदार्थ हो गया और आत्मा-आत्मा..!!
*नित याद करो मन से शिव परमात्मा को*
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(4) *कहानी*
एक जंगल के निकट एक महात्मा रहते थे। वे बड़े अतिथि- भक्त थे। नित्यप्रति जो भी पथिक उनकी कुटिया के सामने से गुजरता था, उसे रोककर भोजन दिया करते थे और आदरपूर्वक उसकी सेवा किया करते थे।
एक दिन किसी पथिक की प्रतीक्षा करते-करते उन्हें शाम हो गई, पर कोई राही न निकला। उस दिन नियम टूट जाने की आशंका में, वे बड़े व्याकुल हो रहे थे कि उन्होंने देखा, एक सौ साल का बूढ़ा, थका-हारा चला आ रहा है। महात्मा जी ने उसे रोककर हाथ-पैर धुलाए और भोजन परोसा। बूढ़ा बिना भगवान का भोग लगाए और बिना धन्यवाद दिए, तत्काल भोजन पर जुट गया। यह सब देख महात्मा को आश्चर्य हुआ और बूड़े से इस बात की शंका की। बूढ़े ने कहा- "मैं न तो अग्नि को छोड़कर किसी ईश्वर को मानता हूँ, न किसी देवता को।"
महात्मा जी उसकतापूर्ण बात सुनकर बड़े क्रुद्ध हुए और उसके सामने से भोजन का थाल खींच लिया तथा बिना यह सोचे कि रात में वह इस जंगल में कहाँ जाएगा, कुटी से बाहर कर दिया। बूढ़ा अपनी लकड़ी टेकता हुआ एक ओर चला गया। रात में महात्मा जी को स्वप्न हुआ, भगवान कह रहे थे- "साधु उस बूढ़े के साथ किए तुम्हारे व्यवहार ने अतिथि सत्कार का सारा पुण्य क्षीण कर दिया।"
महात्मा ने कहा- "प्रभु! उसे तो मैंने इसलिए निकाला कि उसने आपका अपमान किया था।" प्रभु बोले- "ठीक है, वह मेरा नित्य अपमान करता है तो भी मैंने उसे सौ साल तक सहा, किंतु तुम एक दिन भी न सह सके।" भगवान अंतर्धान हो गए और महात्मा जी की भी आँखें खुल गई।
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(5) *कहानी*
*"हमसे आगे हम"*
टीचर ने सीटी बजाई और स्कूल के मैदान पर 50 छोटे छोटे बालक-बालिकाएँ दौड़ पड़े।
सबका एक लक्ष्य। मैदान के छोर पर पहुँचकर पुनः वापस लौट आना।
प्रथम तीन को पुरस्कार। इन तीन में से कम से कम एक स्थान प्राप्त करने की सारी भागदौड़।
सभी बच्चों के मम्मी-पापा भी उपस्थित थे तो, उत्साह जरा ज्यादा ही था।
मैदान के छोर पर पहुँचकर बच्चे जब वापसी के लिए दौड़े तो पालकों में " और तेज...और तेज... " का तेज स्वर उठा। प्रथम तीन बच्चों ने आनंद से अपने अपने माता पिता की ओर हाथ लहराए।
चौथे और पाँचवे अधिक परेशान थे, कुछ के तो माता पिता भी नाराज दिख रहे थे।
उनके भी बाद वाले बच्चे, ईनाम तो मिलना नहीं सोचकर, दौड़ना छोड़कर चलने भी लग गए थे।
शीघ्र ही दौड़ खत्म हुई और 5 नंबर पर आई वो छोटी सी बच्ची नाराज चेहरा लिए अपने पापा की ओर दौड़ गयी।
पापा ने आगे बढ़कर अपनी बेटी को गोद में उठा लिया और बोले : " वेल डन बच्चा, वेल डन....चलो चलकर कहीं, आइसक्रीम खाते हैं। कौनसी आइसक्रीम खाएगी हमारी बिटिया रानी ? "
" लेकिन पापा, मेरा नंबर कहाँ आया ? " बच्ची ने आश्चर्य से पूछा।
" आया है बेटा, पहला नंबर आया है तुम्हारा। "
" ऐंसे कैसे पापा, मेरा तो 5 वाँ नंबर आया ना ? " बच्ची बोली।
" अरे बेटा, तुम्हारे पीछे कितने बच्चे थे ? "
थोड़ा जोड़ घटाकर वो बोली : " 45 बच्चे। "
" इसका मतलब उन 45 बच्चों से आगे तुम पहली थीं, इसीलिए तुम्हें आइसक्रीम का ईनाम। "
" और मेरे आगे आए 4 बच्चे ? " परेशान सी बच्ची बोली।
" इस बार उनसे हमारा कॉम्पिटीशन नहीं था। "
" क्यों ? "
" क्योंकि उन्होंने अधिक तैयारी की हुई थी। अब हम भी फिर से बढ़िया प्रेक्टिस करेंगे। अगली बार तुम 48 में फर्स्ट आओगी और फिर उसके बाद 50 में प्रथम रहोगी। "
" ऐंसा हो सकता है पापा ? "
" हाँ बेटा, ऐंसा ही होता है। "
" तब तो अगली बार ही खूब तेज दौड़कर पहली आ जाउँगी। " बच्ची बड़े उत्साह से बोली।
" इतनी जल्दी क्यों बेटा ? पैरों को मजबूत होने दो, और हमें खुद से आगे निकलना है, दूसरों से नहीं। "
पापा का कहा बेटी को बहुत अच्छे से तो समझा नहीं लेकिन फिर भी वो बड़े विश्वास से बोली : " जैसा आप कहें, पापा। "
" अरे अब आइसक्रीम तो बताओ ? " पापा मुस्कुराते हुए बोले।
तब एक नए आनंद से भरी, 45 बच्चों में प्रथम के आत्मविश्वास से जगमग, पापा की गोद में शान से हँसती बेटी बोली : " मुझे बटरस्कॉच आइसक्रीम चाहिए। "
*क्या अपने बच्चो के रिजल्ट के समय हम सभी माता पिता का व्यवहार कुछ ऐसा ही नही होना चाहिए ....विचार जरूर करे और सभी माता पिता तक जरुर पहुचाये*।
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[17/11, 14:25] +91 96547 93524: *कहानी बड़ी सुहानी*
(1) *कहानी*
*खरगोश और कछुए की कहानी*
एक खरगोश बड़ा घमंडी था। वह जब-जब कछुए को धीरे-धीरे चलता देखता, तो उसकी हँसी उड़ाया करता पर एक दिन कछुए को गुस्सा आ गया। उसने खरगोश से कहा, "भाई, तुम्हें अपनी चाल पर बड़ा घमंड है। अगर ऐसी ही बात है तो एक दिन तुम मेरे साथ दौड़ की प्रतियोगिता क्यों नहीं कर लेते।"
खरगोश बड़े मजे से दौड़ प्रतियोगिता के लिए राजी हो गया। दोनों एक दिन जंगल में निश्चित स्थान पर पहुँचे। जंगल के सारे जानवर भी इसे देखने के लिए मौजूद थे। एक लोमड़ को निर्णायक बनाया गया। और जब उसने दौड़ने का इशारा किया तो खरगोश इतनी तेजी से दौड़ा कि कुछ ही देर में वह सबकी नजरों से ओझल हो गया। जबकि कछुआ धीरे-धीरे चलता हुआ आगे बढ़ रहा था।
कुछ ही देर में खरगोश तेजी से दौड़ता हुआ आधी से ज्यादा दूरी पार कर चुका था। फिर उसने सोचा, "अभी तो कछुआ बहुत दूर है। वह जब पास आएगा और सबके सामने उसे मात देकर मैं विजयी बनूँगा, तो बड़ा मजा आएगा।"
यह सोचकर वह एक पेड़ के नीचे बैठकर आराम करने लगा। थोड़ी ही देर में उसे नींद आ गई। खरगोश उठता, इससे पहले ही धीरे-धीरे चलता कछुआ जीत की रेखा को छू चुका था।
खरगोश बेचारा शर्म से पानी-पानी था। उस दिन के बाद उसने कभी कछुए को हँसी नहीं उड़ाई।
सीख
जो धीरे-धीरे लेकिन दृढ़ता से आगे बढ़ते हैं, अंत में वही विजयी होते हैं।
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(2) *कहानी*
*किसका घर/ माता पिता का या बेटे का*
"पापा नया घर बिल्कुल तैयार हो चुका है। सोच रहा हूं कि वहां दीपावली पर शिफ्ट कर लूं।" सिद्धार्थ ने अपने पापा गोविंद प्रसाद जी से कहा।
सिद्धार्थ गोविंद जी और सुधा का इकलौता बेटा है। सुधा वहीं पर बैठी मूकदर्शक बनी चुपचाप सुन रही है। पिछले कुछ दिनों से उसने किसी भी बात पर रियेक्ट करना छोड़ दिया था। नए घर की उमंग में सिद्धार्थ और उसकी पत्नी रिया दोनों बेहद खुश थे। सिद्धार्थ बहुत बड़ा अफसर है। रिया भी अमीर खानदान से ताल्लुक रखती है। गोविन्द जी ने अपने घर को बहुत चाव से बनवाया था। कोठी बाग बगीचा सब कुछ था। परन्तु जब सिद्धार्थ ने कहा कि उसने भी एक घर का सपना देखा है अपने घर का।
ये सुनकर गोविंद जी आश्चर्यचकित रह गए थे। "अपना घर तो ये किसका घर है??"
"नहीं पापा ये घर आपका है। मैं अपने घर को अपनी मेहनत से बनाना चाहता हूं।" फिर उसने उनसे कुछ पूछने की जरूरत नहीं समझी थी। सब कुछ रिया और उसकी मर्जी से होने लगा था। बीच-बीच में सिद्धार्थ उनसे सलाह ले लिया करता था। जबरन उन्हें दो तीन बार साइट पर भी ले गया था। मां को तो न कुछ पूछा न दिखाने की जरूरत महसूस की थी।
सुधा के अंदर तो जैसे सब कुछ टूट गया था।जिस बेटे को उसने जान से भी ज्यादा प्यार किया था उसने एक तरह से उसका तिरस्कार कर दिया था। तिरस्कार बोल कर ही नहीं चुप रह कर भी किया जा सकता है। सुधा महसूस कर सकती थी। रिया ने बहू के रूप में कभी उन्हें कोई तकलीफ नहीं दी थी। अमीर घर की बेटी होने के बावजूद उसका व्यवहार बेहद संस्कारी और संयमित था। पांच साल का गोलू और रिया घर की रौनक थे। सुधा ने कभी भी रिया के साथ बुरा बर्ताव नहीं किया था। गोलू में तो सुधा की जान बसती थी। पर सुधा बेटे के व्यवहार से बहुत आहत हो गई थी कभी कभी गोविंद जी से अकेले में बात करते हुए पूछती कि ये मुझे मेरे किन पापों का फल मिला??? एक ही बेटा वह भी घर छोड़ कर चला जाएगा। गोलू और रिया.....
ये कह कर उसके आंसू निकल आते थे। मैंने तो अपने सास ससुर की दिल से सेवा की कभी उनका दिल नहीं दुखाया अम्मा जी ने तो अंतिम समय मेरे सिर पर हाथ रख कर आशीर्वाद दिया था कि ईश्वर हमेशा तुझे खुशी देंगे। फिर पता नहीं हमारे परिवार को किसकी बद्दुआ लग गई।
धीरे धीरे दुःख मना कर उसने अपने दिल को समझा लिया था।
गोविन्द जी उसे समझाते कि तुम्हारा जब मन करे वहां चली जाना।बेटे की तरक्की पर दुःख नहीं मनाते खुश होते हैं। रिया और सिद्धार्थ एक एक चीजें चुन चुन कर ला रहे थे। गोविन्द जी को बेटे से दूर होने का दुःख था पर उन्होंने जाहिर नहीं किया। वो उसे महसूस कराते कि वो उसकी खुशी में खुश हैं।
आज धनतेरस है गृहप्रवेश की सारी तैयारियां हो चुकी थी। सिद्धार्थ और रिया नए घर की खुशी में बेहद उत्साहित थे। सिद्धार्थ सुबह सुबह नए कपड़े ले कर मां पापा के रूम में आया। पापा के लिए खूबसूरत सिल्क का कुर्ता बंद गले की जैकेट के साथ और मां के लिए बेहद सुंदर सिल्क की साड़ी मम्मी के पसंदीदा हरे लाल रंग की।
मां, पापा जल्दी से तैयार हो जाइए ग्यारह बजे का मूर्हत है। सुधा चुप थी। सोच रही थी कि बस तैयार हो जाओ। और चलो। अंदर जैसे कुछ खत्म सा हो गया न कोई उत्साह न कोई खुशी उसे जा कर सिर्फ खड़े होना है।
गोलू आ कर उसके गले से झूल गया दादी मां आप मेरे साथ चलोगी न आंखों में आंसू भर कर उसने गोलू को छाती से चिपका लिया। सुधा गाड़ी में पूरे रास्ते भर चुप थी। जिस दिन भूमि पूजन हुआ था उसके बाद आज वो घर देखने जा रही है। गाड़ी से उतरते ही सामने बेटे की कोठी को सिर उठा कर देखा तो दंग रह गई।
"बहुत खूबसूरत आधुनिक तरीके से डिजाइन किया गया था।"
"आओ मां !" बेटे ने मां का हाथ पकड़ लिया।
महीनों बाद उसने कुछ कहा । सुधा सोच रही थी कि आज नए घर की उमंग में अपनी मां से अबोला खत्म कर रहा है।
घर के मेन गेट पर नेमप्लेट देख कर सुधा स्तब्ध हो गई।
"सुधा गोविंद निवास"
उसका दिल बहुत तेज से धड़क उठा। बेटा मां के चेहरे के भाव पड़ने की कोशिश कर रहा था। अंदर रिया खड़ी मुस्कुराई।
आइए मां ! आपके नए घर में आपका स्वागत है। ये लीजिए आपकी अमानत रिया ने घर की चाभियां सुधा के हाथ में रख दी।
बेटे ने मां का हाथ चूम लिया। " मां अपने नए घर में भगवान के लिए भोग अपने हाथ से बनाओ पर प्रसाद मेरी पसंद का होगा।"
सुधा समझ ही नहीं पा रही थी। क्या बनाऊं??? सुधा की आंखों से आंसू टपक पड़े।
" हलवा बनाऊंगी" मेरे कान्हा जी की और तेरी पसंद का।
पहले अपना और पापा का रूम देख लो मां सुधा को लगभग खींचते हुए रुम में ले गया सुधा देख रही थी उस रूम में सब कुछ उसकी पसंद का है।
पापा के लिए रॉकिंग चेयर, उसके लिए सामने से खुलने वाली खिड़की सुबह-सुबह सूर्य की पहली किरण के दर्शन सूर्य भगवान को नमन करना ये उसका सपना था। जिसे वह कभी सिद्धार्थ से कहा करती थी। बाहर तुलसी जी का चौरा जैसा वो हमेशा चाहती थी।
अरे! ये तो उसका लगाया हुआ मनीप्लांट है। इसके लिए वह कितना परेशान हुई थी। माली ने उसे उखाड़ कर गुलदाउदी लगा दिया था तो उसने माली को कितना डांटा था।
तो मेरे बच्चे को सब कुछ याद था। उसका मन पुलकित हो उठा। कमरे की एक एक चीज को छू कर देख थी।
"मां आपने क्या सोचा था??? आपका राजा बेटा आपके बिना खुश रहेगा ???" रिया मुस्कुराती हुई कह उठी मां आपका बेटा तो मेरे गोलू से भी छोटा है।
"मां" सिद्धार्थ ने सुधा को बाहों में समेट लिया आपके संस्कार इतने कमजोर नहीं हैं। आपने क्या सोचा ???? कि आपका बेटा आपको और पापा को यूं ही अकेला छोड़ देगा। नहीं मां, वो घर मेरा है जो पापा ने मुझे दिया। और ये घर आप दोनों का है जो मैंने आपको दिया है।
गोविन्द जी आश्चर्यचकित थे।"पर बेटा परिवार तो दो हिस्सों में बंट जाएगा न।"
" कैसे बंटेगा पापा ??"
*"ये घर मेरे ऑफिस के पास है। इसलिए "वर्किंग डे" पर यहां रहेंगे और "वीकेंड" पर वहां।"*
*मैं दादी मां के पास ही सोऊंगा ऐसा कह कर गोलू दादी के आंचल में छिप गया। सुधा आंखों में खुशी के आंसू लिए "अम्मा जी का हाथ" अपने सिर पर महसूस कर रही थी।*
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(3) *कहानी*
🙏 *मां-बाप के निरादर के लिए बहु नहीं, बेटा होता है जिम्मेदार* 🙏
*एक वृद्ध माँ रात को 11:30 बजे रसोई में बर्तन साफ कर रही है, घर में दो बहुएँ हैं, जो बर्तनों की आवाज से परेशान होकर अपने पतियों को सास को उल्हाना देने को कहती हैं |*
*वो कहती हैं आप माँ को मना करो इतनी रात को बर्तन धोने के लिये हमारी नींद खराब होती है | साथ ही सुबह 4 बजे उठ कर फिर खट्टर पट्टर शुरू कर देती हैं सुबह 5 बजे पूजा |*
*आरती करके हमें सोने नहीं देती ना रात को ना ही सुबह | जाओ सोच क्या रहे हो, जाकर माँ को मना करो |*
*बड़ा बेटा खड़ा होता है और रसोई की तरफ जाता है | रास्ते में छोटे भाई के कमरे में से भी वो ही बातें सुनाई पड़ती हैं जो उसके कमरे में हो रही थी | वो छोटे भाई के कमरे को खटखटा देता है | छोटा भाई बाहर आता है |*
*दोनों भाई रसोई में जाते हैं, और माँ को बर्तन साफ करने में मदद करने लगते हैं, माँ मना करती है पर वो नहीं मानते, बर्तन साफ हो जाने के बाद दोनों भाई माँ को बड़े प्यार से उसके कमरे में ले जाते हैं, तो देखते हैं पिताजी भी जागे हुए हैं |*
*दोनो भाई माँ को बिस्तर पर बैठा कर कहते हैं, माँ सुबह जल्दी उठा देना, हमें भी पूजा करनी है, और सुबह पिताजी के साथ योगा भी करेंगे |*
*माँ बोली ठीक है बच्चो, दोनों बेटे सुबह जल्दी उठने लगे, रात को 9:30 पर ही बर्तन मांजने लगे, तो पत्नियां बोलीं माता जी करती तो हैं आप क्यों कर रहे हो बर्तन साफ ? तो बेटे बोले हम लोगों की शादी करने के पीछे एक कारण यह भी था कि माँ की सहायता हो जायेगी | पर तुम लोग ये कार्य नहीं कर रही हो कोई बात नहीं हम अपनी माँ की सहायता कर देते हैं |*
*हमारी तो माँ है इसमें क्या बुराई है, अगले तीन दिनों में घर में पूरा बदलाव आ गया | बहुएँ जल्दी बर्तन इसलिये साफ करने लगीं कि नहीं तो उनके पति बर्तन साफ करने लगेंगे | साथ ही सुबह वो भी पतियों के साथ ही उठने लगीं और पूजा आरती में शामिल होने लगीं |*
*कुछ दिनों में पूरे घर के वातावरण में पूरा बदलाव आ गया | बहुएँ सास ससुर को पूरा सम्मान देने लगीं |*
🙏 *कहानी का सार* 🙏
*माँ का सम्मान तब कम नहीं होता जब बहुऐं उनका सम्मान नहीं करतीं | माँ का सम्मान तब कम होता है जब बेटे माँ का सम्मान नहीं करते या माँ के कार्य में सहयोग ना करें ।*
*जन्म का रिश्ता है | माता पिता पहले आपके हैं |*
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(4) *कहानी*
*जीवन दर्शन...*
_*जो वाहन हमें वास्तविक लक्ष्य की यात्रा तक लेकर जाएगा, क्या हम उसका ख्याल रख रहे हैं ?*_
*हमारा वाहन!*
मैं किसी आफिस काम के लिए फ्लाइट से बैंगलोर से मुम्बई जा रहा था। यह विमान का इकोनॉमी क्लास था। जैसे ही मैं प्लेन में चढ़ा, मैंने अपना हैंड बैग ओवरहेड केबिन में रख दिया और अपनी सीट पर बैठ गया।
जब अपनी सीट बेल्ट लगा रहा था, तो मैंने एक सज्जन को देखा, जिनकी आयु शायद साठ-सत्तर साल के आस पास रही होगी। वह खिड़की की सीट पर मेरे बगल में ही बैठे थे।
अगले दिन मुंबई में मेरा एक प्रेजेंटेशन था। इसलिए मैंने अपने कागजात निकाले और अंतिम तैयारी में उनको पढ़ने लगा।
लगभग 15-20 मिनट के बाद, जब मैं अपना काम कर चुका था, मैंने दस्तावेजों को वापस बैग में सुरक्षित रूप से रख दिया और खिड़की से बाहर देखने लगा।
मैंने बड़ी लापरवाही भरी निगाह से अपने बगल में बैठे इस व्यक्ति के चेहरे की ओर देखा।
अचानक मेरे दिमाग में आया कि इस आदमी को मैंने पहले कहीं देखा है। मैं याद करने की कोशिश में बार-बार उन्हें देख रहा था।
वह वृद्ध थे और उनकी आँखों के नीचे और माथे पर झुर्रियाँ थीं। उनके चश्में साधारण फ्रेम वाले थे।
उनका सूट एक साधारण गहरे भूरे रंग का था, जो बहुत प्रभावशाली नहीं लग रहा था।
मैंने अपनी निगाहें उनके जूतों पर दौड़ाई। वे फॉर्मल जूतों की एक बहुत ही साधारण जोड़ी थी। वह अपने मेल का जवाब देने और अपने दस्तावेजों को देखने में व्यस्त लग रहे थे।
अचानक, उनको देखते हुए मेरे दिमाग में एक विचार कौंधा और मैंने बातचीत शुरू करते हुए पूछा, *"क्या आप श्री नारायण मूर्ति हैं?"*
उन्होंने मेरी ओर देखा, और मुस्कुराकर उत्तर दिया, *"हाँ, मैं हूँ।"*
मैं चौंक पड़ा और कुछ समय के लिए अवाक रह गया! मुझे समझ ही नहीं आ रहा था कि उनसे आगे बातचीत कैसे जारी रखी जाए?
मैंने उन्हें फिर से देखा, लेकिन इस बार सबसे बड़े भारतीय अरबपति होने की दृष्टि से:- नारायण मूर्ति!
उनके जूते, सूट, टाई और चश्मा- सब कुछ बहुत ही साधारण था। और मजेदार तथ्य यह था कि इस व्यक्ति की सम्पति 2.3 बिलियन डॉलर थी और उन्होंने इंफोसिस की सह-स्थापना की थी।
मेरी हमेशा से बहुत अमीर बनने की इच्छा थी ताकि मैं इस दुनिया की सारी विलासिता का उपभोग कर सकूँ और बिजनेस क्लास की यात्रा कर सकूँ। और मेरे बगल वाला यह आदमी, जो पूरी एयरलाइन खरीद सकता था, मेरे जैसे मध्यम वर्ग के लोगों के साथ इकोनॉमी क्लास में यात्रा कर रहा था।
मैं खुद को रोक नहीं पाया और पूछा, *"आप इकोनॉमी क्लास में यात्रा कर रहे हैं न कि बिजनेस क्लास में?"*
*"क्या बिजनेस क्लास के लोग जल्दी पहुँच जाते हैं?"* उन्होंने मुस्कुराते हुए जवाब दिया।
खैर, यह एक विचित्र प्रतिक्रिया थी और बहुत मायने भी रखती थी। और फिर, मैंने अपना परिचय दिया और बातचीत आगे बढ़ाई, “नमस्कार सर, मैं एक कॉर्पोरेट ट्रेनर हूँ और मैं पूरे भारत में कई बहुराष्ट्रीय कंपनियों के साथ काम करता हूँ।"
उन्होंने अपना फोन दूर रखा और बहुत ध्यान से मेरी बात सुनने लगे। उस दो घंटे की यात्रा के दौरान हमने कई सवालों का आदान-प्रदान किया। हर सवाल के साथ बातचीत गहरी होती जा रही थी। और फिर एक ऐसा क्षण आया, जिसने इस उड़ान के अनुभव को और भी यादगार बना दिया।
मैंने सवाल किया, *"श्रीमान, आप इस दुनिया में इतने सारे लोगों के आदर्श हैं। आप अपने जीवन में महान निर्णय लेने के लिए जाने जाते हैं। लेकिन, क्या आपको किसी बात का पछतावा है?"*
यह सुनते ही उनका चेहरा कुछ उदास सा हो गया। उन्होंने कुछ देर सोचा और उत्तर दिया,
*"कभी-कभी, मेरे घुटने में दर्द होता है। मुझे लगता है कि मुझे अपने शरीर का बेहतर ख्याल रखना चाहिए था। जब मैं जवान था, मैं काम में इतना व्यस्त था कि मुझे अपने शरीर का अपना ख्याल रखने का समय नहीं मिला और अब आज जब मुझे काम करना है, तो मैं नहीं कर सकता। मेरा शरीर इसकी अनुमति नहीं देता।"*
*"आप युवा, स्मार्ट और महत्वाकांक्षी हैं। मैंने जो गलती की है, उसे मत दोहराओ! अपने शरीर की उचित देखभाल करो और ठीक से आराम करो। यह एकमात्र शरीर ही है जो आपको ईश्वर की नेहमत के रूप में मिला है।"*
उस दिन मैंने दो चीज़ें सीखीं, एक जो उन्होंने मुझे बताई और दूसरी जो उन्होंने मुझे दिखाई।
_हम सभी भौतिक रूप से बेहतर करने की उम्मीद में अपना सारा जीवन व्यतीत कर देते हैं और इस आपाधापी में हमारा स्वास्थ्य उपेक्षित हो जाता है। हमारे शरीर की उपेक्षा करना मतलब हमारे शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य दोनों को नुकसान पहुचना।_
_जीवन में कोई भी विलासिता हमारी मदद नहीं करती है ,जब हमारा शरीर पीड़ित होता है। वास्तव में, जब शरीर सहयोग करना बंद कर देता है, तो सब कुछ अपने आप रुक जाता है।_
_यह एकमात्र शरीर ही है जो हमें इस जीवन यात्रा के वाहन के रूप में मिला है। बेहतर होगा कि हम इसे हल्के में न लें *बुद्ध ने कहा है, "हमारा शरीर अनमोल है। यह इश-यात्रा के लिए हमारा वाहन है। इसके साथ सावधानी से व्यवहार करें।"*_
यह वह दिन था, जब मुझे वह सबक मिला, जिसकी मुझे अपने जीवन में सबसे ज्यादा जरूरत थी।
नारायण मूर्ति बहुत महान और जमीन से जुड़े इंसान हैं! तभी तो वे निर्विवादित रूप से एक सफल इंसान हैं !!!
♾️ ️
*"इस संसार की तुलना हमारे शरीर से की जा सकती है। यदि कोई अंग रोगग्रस्त है, तो पूरा शरीर प्रभावित होता है।"*
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(5) *कहानी*
*जैनो का कड़वा सच*
*धरती का सबसे नाजुक, अमीर और इज्जतदार जैन*
जैन श्रावक बहुत ही नाजुक है
*मंदिर में प्रवेश करने से पहले पुरे पैर नही धोना चाहता क्योकि ठण्ड है सर्दी लग जाएगी, इसलिए वो मोज़े पहनकर ही मंदिर चला जाता है*
और यदि कोई कुछ कह दे तो कहते है जूते थोड़े ही पहने है
*जबकि पंजाबी भाई अमृतसर जैसे ठन्डे स्थान पर ,मुस्लिम भाई कश्मीर जैसे बर्फीले इलाको में भी कभी भी मोज़े पहनकर गुरुदुवारे और मस्जिद में नही जाते हैं और साथ ही भरी ठंड में भी पैर, हाथ और मुँह धोकर ही पूजा स्थानों में प्रवेश करते हैं*
और *कोमल नाजुक जैन को पैर हाथ धोने से और बिना मोज़े के मंदिर जाने से निमोनिया हो जाता है*
*कुछ लोगो के घर में सोले की चप्पल है यदि ये सब रोक नही गया तो आगे आने वाली पीढ़ी के लोग सोले की चप्पल मंदिर में पहनकर अभिषेक न कर दे*
जैन बहुत ही अमीर है तभी उसके घर में सब चीजे मिलेंगी लेकिन *हर घर में धोती दुपट्टा नही मिलेगा क्योकि भगवान के लिए पूजन वाले वस्त्र खरीदने का ठेका मंदिर कमेटी का है और उन्हें गन्दा करने का, उन्हें फाड़ने का, उन्हें लातो से खूंदने का, ठेका जैन श्रावक का है*
*जैन श्रावक अपनी पहनी हुई धोती दुपट्टा धोना नही चाहता उसके लिए उसने माली को रखा है क्योंकि जैन अमीर है ज्यादा गंदे होने पर वह वस्त्र धोबी दे देता है*
*जबकि गुरुदुवारे के बाहर अमीर से अमीर लोग भक्तो के जूते तक साफ कर देते हैं और यदि कोई बिना सर ढके अंदर जाये तो खुद अपना रुमाल सर ढकने के लिए दे देते हैं*
*सिक्ख भाई लंगर के खाने को खुद बनाते है, अनाज भी दान करते हैं, एक दूसरे के झूठे बर्तन भी साफ करते है, और गुरुदुवारे में झाड़ू पोछा भी खुद ही लगाते हैं*
लेकिन जैन भाई मंदिर का झाड़ू पोछा तो दूर अपने खुद के पहने वस्त्रो को भी नही धोता
*संत कहते है :- कि माली से धुलवाए कपड़े पूर्णतः अशुद्ध है*
क्योकि वह *गुटखा खाकर, बाथरूम आदि से आकर* आपके पूजन वाले वस्त्रो को छूता है और फिर धुलने के बाद *आप उन्ही से भगवान को छू लेते हो*
*जो पूजन वस्त्र एक बार माली या धोबी को दे दिए या उन्होंने उसे धो दिया वो दुवारा कभी भी पूजन में पहनने योग्य नही है*
*सिक्खअपने गुरु ग्रन्थ साहिब, मुस्लिम अपने कुरान, और ईसाई लोग अपने बाइबल पर कभी धूल भी नही आने देते*
लेकिन *जैन खुद भगवान की वाणी जिनवाणी से चावल तक नही निकाल सकता उल्टा शास्त्रो में जिनवाणी में चम्मच, बादाम और चावल पानी भर देता है साथ ही प्रतिमा जी को भी गीला तिरछा रख के भग लेता है क्योकि उसे घर पर बीवी बच्चो के लिए खाना बनाना पड़ता होगा*
*सिक्ख* और *मुस्लिम* लोग उनके *पूजा स्थल पर एक सेकंड के लिए भी अपना सर नही खोलते*
लेकिन *जैन 2 बार ही सर ढकता है पहला जब वह गंजा हो और दूसरा जब सर्दी तेज हो*
उसके अलावा *जैन को डर लगता है कि कही सर ढकने से उसके रेशमी सुन्दर बाल और hair style कही ख़राब न हो जाये*
हर *मुस्लिम के पास टोपी, सिक्ख के पास रुमाल जरूर मिलेगा और वो भी हर किसी का अलग अलग*
लेकिन *हर जैन के पास धोती दुपट्टा और सर ढकने वाली टोपी तक नही मिलती क्योकि जैन इसे फिजूल खर्च मानता है*
*चर्च, गुरुदुवारे, और मस्जिद में कोई भी पुजारी नही रखा जाता लोग खुद पूजा करते है*
लेकिन जैन बहुत busy है इसलिए वह *किराये पर पुजारी रखता है*
मुस्लिम भाई 5 time नमाज़ पढ़ते है
लेकिन जैन बहुत busy और कोमल है इसलिए वह एक समय की पूजा भी नही कर सकता
किसी भी मस्जिद और गुरुदुवारे में किसी का नाम नही लिखा होता लेकिन हर जैन मंदिर में लोग अपना नाम शिलापट्ट पर लिखवाते है
*कितने भी प्राचीन जैन मंदिरों में किसी का कोई नाम नही लिखा पता नही कहाँ से नई परम्परा आ गई*
अभिषेक का जल, पूजन की द्रव्य, पूजनकी थाली, पूजन के वस्त्र , वस्त्रो का धोना, मंदिर की साफ सफाई, जिनवाणी का रख रखाव सब किराये के लोग करते हैं तो हमने क्या किया केवल मंदिर के चावल मंदिर में पटक कर चले गए
*क्या यही है जैनो की भक्ति?*
🤔🤔
विचार करे हम कितनेआलसी हो गए हैं जबकि एक समय जैनो का नाम नियमपालन पूजा भक्ति साफ सफाई आदि के लिए जाना जाता था अब हम क्या कर रहे हैं आगे हम अपनी पीढ़ी को क्या सिखाएंगे वैसे भी हम कम है धर्म को कहाँ ले जायेंगे फैसला हम ही करना है🎤🦜
*कड़वा है लेकिन सच है*
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[17/11, 20:51] +91 81098 43198: 🛕🛕🛕🛕
*पुण्य के उदय में रावण और पाप के उदय में राम मुस्कुराते हैं*
🪷📚📚🪷
*यदि सचमुच ही तुम दुःख से डरते हो और तुम्हें दुःख अप्रिय है, तो फिर प्रकट या गुप्त भी रूप में पाप कर्म मत करो*
🏳️🌈🏳️🌈
*एक छेद भी जहाज को डुबा देता है और एक पाप भी पापी को नष्ट कर देता है*
*आराध्य सूत्र*
[18/11, 18:04] कमलेश सिंघई इंदौर: 📚आज के उत्तर📚 क्र ८३१
(१) भगवान पार्श्वनाथ के निर्वाण के कितने दिन बाद बालक महावीर का जन्म हुआ। *उत्तर*- १७८ वर्ष बाद
⏱️⏱️⏱️⏱️⏱️⏱️⏱️⏱️ (२) महावीर का जीव जब सिंह की पर्याय में था उपदेश देने वाले मुनिराजो के नाम क्या थे *उत्तर*- मुनि अमितकीर्ति और अमितप्रभ
⏰⏰⏰⏰⏰⏰⏰⏰ (३) तीर्थंकर महावीर के कितने नाम थे। *उत्तर*- पांच नाम थे
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(४) वीर नाम क्यों पड़ा
*उत्तर*- जन्माभिषेक के समय सोधरमेंद्र की शंका अवधिज्ञान से जानकार पैर के अंगूठे से सुमेरुपर्वत दवा दिया तब इंद्र से महान शक्तिशाली समझ कर वीर नाम रखा ⏰⏰⏰⏰⏰⏰⏰⏰
(५) महावीर नाम क्यों पड़ा
*उत्तर*- संगम देव ने जब क्रीड़ा करते समय भयानक सर्प का रूप धारण किया वृक्ष से लिपट गया तब वर्धमान ने उस सर्प के ऊपर बैठकर क्रीड़ा करने लगे तब उस देब ने अपने सही रूप में आकर प्रनाम कर महावीर नाम रखा
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(६) वर्धमान नाम क्यों पड़ा
*उत्तर*- राजा सिद्धार्थ ने जाना कि जब से पुत्र गर्भ में आया ही तव से नगर धनधान्य से परिपूर्ण हो गया हे तो उन्होंने जन्म होते ही पुत्र का नाम वर्धमान रखा
⏰⏰⏰⏰⏰⏰⏰⏰।
(७) अतिवीर नाम क्यों पड़ा
*उत्तर* ~ मदोन्मत्त हाथी उत्पात मचा रहा था वर्धमान ने उसकी सूड को पकड़कर शांत किया तब उनका नाम अतिवीर पड़ा
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(८) तीर्थंकर महावीर की केवलज्ञान कल्याणक तिथि क्या हे
*उत्तर*- वेशाख शुक्ला दशमी
⏰⏰⏰⏰⏰⏰⏰⏰
(९) तीर्थंकर महावीर की मोक्ष कल्याणक तिथि क्या हे
*उत्तर*- कार्तिक कृष्णा अमावस्या (दीपावली)
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*ब्र. सुनील भैया इंदौर* ☎️ 9425963722☎️
[18/11, 21:53] +91 81098 43198: 🪔🪔🪔🪔🪔
*आदमी को अपनी प्रसिद्धि के लिए अपनी विशुद्धि नहीं खोना चाहिए*
*प्रभु से पद की नहीं परमपद की प्रार्थना करो*।
📚 *आराध्य सूत्र*📚
*पूज्य मुनिश्री निर्दोष सागर जी निर्लोभ सागर जी निरुपम सागर जी*
[19/11, 14:48] +91 96547 93524: *कहानी बड़ी सुहानी*
(1) *कहानी*
*एक बार एक किसान परमात्मा से बड़ा नाराज हो गया। कभी बाढ़ आ जाये, कभी सूखा पड़ जाए, कभी धूप बहुत तेज हो जाए तो कभी ओले पड़ जाये। हर बार कुछ ना कुछ कारण से उसकी फसल थोड़ी ख़राब हो जाये। एक दिन बड़ा तंग आ कर उसने परमात्मा से कहा, देखिये प्रभु,आप परमात्मा हैं, लेकिन लगता है आपको खेती बाड़ी की ज्यादा जानकारी नहीं है, एक प्रार्थना है कि एक साल मुझे मौका दीजिये, जैसा मैं चाहू वैसा मौसम हो, फिर आप देखना मैं कैसे अन्न के भण्डार भर दूंगा। परमात्मा मुस्कुराये और कहा ठीक है, जैसा तुम कहोगे वैसा ही मौसम दूंगा, मैं दखल नहीं करूँगा।*
*किसान ने गेहूं की फ़सल बोई, जब धूप चाही, तब धूप मिली, जब पानी तब पानी। तेज धूप, ओले, बाढ़, आंधी तो उसने आने ही नहीं दी, समय के साथ फसल बढ़ी और किसान की ख़ुशी भी, क्योंकि ऐसी फसल तो आज तक नहीं हुई थी। किसान ने मन ही मन सोचा अब पता चलेगा परमात्मा को, की फ़सल कैसे करते हैं, बेकार ही इतने बरस हम किसानो को परेशान करते रहे।*
*फ़सल काटने का समय भी आया, किसान बड़े गर्व से फ़सल काटने गया, लेकिन जैसे ही फसल काटने लगा एकदम से छाती पर हाथ रख कर बैठ गया। गेहूं की एक भी बाली के अन्दर गेहूं नहीं था, सारी बालियाँ अन्दर से खाली थी, बड़ा दुखी होकर उसने परमात्मा से कहा, प्रभु ये क्या हुआ ?*
*तब परमात्मा बोले, ” ये तो होना ही था, तुमने पौधों को संघर्ष का ज़रा सा भी मौका नहीं दिया। ना तेज धूप में उनको तपने दिया, ना आंधी ओलों से जूझने दिया, उनको किसी प्रकार की चुनौती का अहसास जरा भी नहीं होने दिया, इसीलिए सब पौधे खोखले रह गए, जब आंधी आती है, तेज बारिश होती है ओले गिरते हैं तब पोधा अपने बल से ही खड़ा रहता है, वो अपना अस्तित्व बचाने का संघर्ष करता है और इस संघर्ष से जो बल पैदा होता है वोही उसे शक्ति देता है, उर्जा देता है, उसकी जीवटता को उभारता है। सोने को भी कुंदन बनने के लिए आग में तपने, हथौड़ी से पिटने, गलने जैसी चुनोतियो से गुजरना पड़ता है तभी उसकी स्वर्णिम आभा उभरती है, उसे अनमोल बनाती है।” उसी तरह जिंदगी में भी अगर संघर्ष ना हो, चुनौती ना हो तो आदमी खोखला ही रह जाता है, उसके अन्दर कोई गुण नहीं आ पाता। ये चुनोतियाँ ही हैं जो आदमी रूपी तलवार को धार देती हैं, उसे सशक्त और प्रखर बनाती हैं, अगर प्रतिभाशाली बनना है तो चुनोतियाँ तो स्वीकार करनी ही पड़ेंगी, अन्यथा हम खोखले ही रह जायेंगे। अगर जिंदगी में प्रखर बनना है, प्रतिभाशाली बनना है, तो संघर्ष और चुनौतियों का सामना तो करना ही पड़ेगा।*
****************************************
(2) *कहानी*
*"मा की ममता"*
*बाहर बारिश हो रही थी, और अन्दर क्लास चल रही थी.*
*तभी टीचर ने बच्चों से पूछा - अगर तुम सभी को 100-100 रुपया दिए जाए तो तुम सब क्या क्या खरीदोगे ?*
*किसी ने कहा - मैं वीडियो गेम खरीदुंगा..*
*किसी ने कहा - मैं क्रिकेट का बेट खरीदुंगा..*
*किसी ने कहा - मैं अपने लिए प्यारी सी गुड़िया खरीदुंगी..*
*तो, किसी ने कहा - मैं बहुत सी चॉकलेट्स खरीदुंगी..*
*एक बच्चा कुछ सोचने में डुबा हुआ था टीचर ने उससे पुछा - तुम क्या सोच रहे हो, तुम क्या खरीदोगे ?*
*बच्चा बोला -टीचर जी मेरी माँ को थोड़ा कम दिखाई देता है तो मैं अपनी माँ के लिए एक चश्मा खरीदूंगा !*
*टीचर ने पूछा - तुम्हारी माँ के लिए चश्मा तो तुम्हारे पापा भी खरीद सकते है तुम्हें अपने लिए कुछ नहीं खरीदना ?*
*बच्चे ने जो जवाब दिया उससे टीचर का भी गला भर आया !*
*बच्चे ने कहा --*
*मेरे पापा अब इस दुनिया में नहीं है*
*मेरी माँ लोगों के कपड़े सिलकर मुझे पढ़ाती है, और कम दिखाई देने की वजह से वो ठीक से कपड़े नहीं सिल पाती है इसीलिए मैं मेरी माँ को चश्मा देना चाहता हुँ, ताकि मैं अच्छे से पढ़ सकूँ बड़ा आदमी बन सकूँ, और माँ को सारे सुख दे सकूँ.!*
*टीचर -- बेटा तेरी सोच ही तेरी कमाई है ! ये 100 रूपये मेरे वादे के अनुसार और, ये 100 रूपये और उधार दे रहा हूँ। जब कभी कमाओ तो लौटा देना और, मेरी इच्छा है, तू इतना बड़ा आदमी बने कि तेरे सर पे हाथ फेरते वक्त मैं धन्य हो जाऊं !*
*20 वर्ष बाद..........*
*बाहर बारिश हो रही है, और अंदर क्लास चल रही है !*
*अचानक स्कूल के आगे जिला कलेक्टर की बत्ती वाली गाड़ी आकर रूकती है स्कूल स्टाफ चौकन्ना हो जाता हैं !*
*स्कूल में सन्नाटा छा जाता हैं !*
*मगर ये क्या ?*
*जिला कलेक्टर एक वृद्ध टीचर के पैरों में गिर जाते हैं, और कहते हैं -- सर मैं .... उधार के 100 रूपये लौटाने आया हूँ !*
*पूरा स्कूल स्टॉफ स्तब्ध !*
*वृद्ध टीचर झुके हुए नौजवान कलेक्टर को उठाकर भुजाओं में कस लेता है, और रो पड़ता हैं !*
*दोस्तों --*
*मशहूर होना, पर मगरूर मत बनना।*
*साधारण रहना, कमज़ोर मत बनना।*
*वक़्त बदलते देर नहीं लगती..*
*शहंशाह को फ़कीर, और फ़क़ीर को शहंशाह बनते,*
*देर नही लगती ....*
****************************************
(3) *कहानी*
*सम्यक दृष्टि*
एक राजा था, बहुत प्रभावशाली, बुद्धि और वैभव से संपन्न। आस-पास के राजा भी समय-समय पर उससे परामर्श लिया करते थे। एक दिन राजा अपनी शैया पर लेेटे-लेटे सोचने लगा, मैं कितना भाग्यशाली हूं। कितना विशाल है मेरा परिवार, कितना समृद्ध है मेरा अंत:पुर, कितनी मजबूत है मेरी सेना, कितना बड़ा है मेरा राजकोष। ओह! मेरे खजाने के सामने कुबेर के खजाने की क्या बिसात? मेरे राजनिवास की शोभा को देखकर अप्सराएं भी ईर्ष्या करती होंगी। मेरा हर वचन आदेश होता है। राजा कवि हृदय था और संस्कृृत का विद्वान था।
अपने भावों को उसने शब्दों में पिरोना शुरू किया। तीन चरण बन गए, चौथी लाइन पूरी नहीं हो रही थी। जब तक पूरा श्लोक नहीं बन जाता, तब तक कोई भी रचनाकार उसे बार-बार दोहराता है। राजा भी अपनी वे तीन लाइनें बार-बार गुनगुना रहा था -
*चेतोहरा: युवतय: स्वजनाऽनुकूला: सद्बान्धवा: प्रणयगर्भगिरश्च भृत्या: गर्जन्ति दन्तिनिवहास्विरलास्तुरंगा:* -
मेरी चित्ताकर्षक रानियां हैं, अनुकूल स्वजन वर्ग है, श्रेष्ठ कुटुंबी जन हैं। कर्मकार विनम्र और आज्ञापालक हैं, हाथी, घोड़ों के रूप में विशाल सेना है।
लेकिन बार-बार गुनगुनाने पर भी चौथा-चरण बन नहीं रहा था। संयोग की बात है कि उसी रात एक चोर राजमहल में चोरी करने के लिए आया था। मौका पाकर वह राजा के शयनकक्ष में घुस गया और पलंग के नीचे दुबक कर कर बैठ गया। चोर भी संस्कृत भाषा का विज्ञ और आशु कवि था। समस्यापूर्ति का उसे अभ्यास था। राजा द्वारा गुनगुनाए जाते श्लोक के तीन चरण चोर ने सुन लिए। राजा के दिमाग में चौथी लाइन नहीं बन रही है, यह भी वह जान गया लेकिन तीन लाइनें सुन कर उस चोर का कवि मन भी उसे पूरा करने के लिए मचलने लगा। वह भूल गया कि वह चोर है और राजा के कक्ष में चोरी करने घुसा है। अगली बार राजा ने जैसे ही वे तीन लाइनें पूरी कीं, चोर के मुंह से चौथी लाइन निकल पड़ी,
*सम्मीलने नयनयोर्नहि किंचिदस्ति॥*
राज्य, वैभव आदि सब तभी तक है, जब तक आंख खुली है। आंख बंद होने के बाद कुछ नहीं है। अत : किस पर गर्व कर रहे हो ?
चोर की इस एक पंक्ति ने राजा की आंखें खोल दीं। उसे सम्यक् दृष्टि मिल गई। वह चारों ओर विस्फारित नेत्रों से देखने लगा - ऐसी ज्ञान की बात किसने कही ? कैसे कही ?
उसने आवाज दी, पलंग के नीचे जो भी है, वह मेरे सामने उपस्थित हो। चोर सामने आ कर खड़ा हुआ। फिर हाथ जोड़ कर राजा से बोला,
हे राजन ! मैं आया तो चोरी करने था, पर आप के द्वारा पढ़ा जा रहा श्लोक सुनकर यह भूल गया कि मैं चोर हूं। मेरा काव्य प्रेम उमड़ पड़ा और मैं चौथे चरण की पूर्ति करने का दुस्साहस कर बैठा। हे राजन ! मैं अपराधी हूं। मुझे क्षमा कर दें। राजा ने कहा, तुम अपने जीवन में चाहे जो कुछ भी करते हो, इस क्षण तो तुम मेरे गुरु हो। तुमने मुझे जीवन के यथार्थ का परिचय कराया है। आंख बंद होने के बाद कुछ भी नहीं रहता - यह कह कर तुमने मेरा सत्य से साक्षात्कार करवा दिया। गुरु होने के कारण तुम मुझसे जो चाहो मांग सकते हो। चोर की समझ में कुछ नहीं आया लेकिन राजा ने आगे कहा -- आज मेरे ज्ञान की आंखें खुल गईं। इसलिए शुभस्य शीघ्रम् - इस सूक्त को आत्मसात करते हुए मैं शीघ्र ही संन्यास लेना चाहता हूं। राज्य अब तृण के समान प्रतीत हो रहा है। तुम यदि मेरा राज्य चाहो तो मैं उसे सहर्ष देने के लिए तैयार हूं।
चोर बोला, राजन ! आपको जैसे इस वाक्य से बोध पाठ मिला है, वैसे ही मेरा मन भी बदल गया है। मैं भी संन्यास स्वीकार करना चाहता हूं। राजा और चोर दोनों संन्यासी बन गए।
एक ही पंक्ति ने दोनों को स्पंदित कर दिया। यह है सम्यक द्रष्टि का परिणाम। जब तक राजा की दृष्टि सम्यक् नहीं थी, वह धन - वैभव, भोग - विलास को ही सब कुछ समझ रहा था। ज्यों ही आंखों से रंगीन चश्मा उतरा, दृष्टि सम्यक् बनी कि पदार्थ पदार्थ हो गया और आत्मा-आत्मा..!!
*नित याद करो मन से शिव परमात्मा को*
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(4) *कहानी*
एक जंगल के निकट एक महात्मा रहते थे। वे बड़े अतिथि- भक्त थे। नित्यप्रति जो भी पथिक उनकी कुटिया के सामने से गुजरता था, उसे रोककर भोजन दिया करते थे और आदरपूर्वक उसकी सेवा किया करते थे।
एक दिन किसी पथिक की प्रतीक्षा करते-करते उन्हें शाम हो गई, पर कोई राही न निकला। उस दिन नियम टूट जाने की आशंका में, वे बड़े व्याकुल हो रहे थे कि उन्होंने देखा, एक सौ साल का बूढ़ा, थका-हारा चला आ रहा है। महात्मा जी ने उसे रोककर हाथ-पैर धुलाए और भोजन परोसा। बूढ़ा बिना भगवान का भोग लगाए और बिना धन्यवाद दिए, तत्काल भोजन पर जुट गया। यह सब देख महात्मा को आश्चर्य हुआ और बूड़े से इस बात की शंका की। बूढ़े ने कहा- "मैं न तो अग्नि को छोड़कर किसी ईश्वर को मानता हूँ, न किसी देवता को।"
महात्मा जी उसकतापूर्ण बात सुनकर बड़े क्रुद्ध हुए और उसके सामने से भोजन का थाल खींच लिया तथा बिना यह सोचे कि रात में वह इस जंगल में कहाँ जाएगा, कुटी से बाहर कर दिया। बूढ़ा अपनी लकड़ी टेकता हुआ एक ओर चला गया। रात में महात्मा जी को स्वप्न हुआ, भगवान कह रहे थे- "साधु उस बूढ़े के साथ किए तुम्हारे व्यवहार ने अतिथि सत्कार का सारा पुण्य क्षीण कर दिया।"
महात्मा ने कहा- "प्रभु! उसे तो मैंने इसलिए निकाला कि उसने आपका अपमान किया था।" प्रभु बोले- "ठीक है, वह मेरा नित्य अपमान करता है तो भी मैंने उसे सौ साल तक सहा, किंतु तुम एक दिन भी न सह सके।" भगवान अंतर्धान हो गए और महात्मा जी की भी आँखें खुल गई।
********************************
(5) *कहानी*
*"हमसे आगे हम"*
टीचर ने सीटी बजाई और स्कूल के मैदान पर 50 छोटे छोटे बालक-बालिकाएँ दौड़ पड़े।
सबका एक लक्ष्य। मैदान के छोर पर पहुँचकर पुनः वापस लौट आना।
प्रथम तीन को पुरस्कार। इन तीन में से कम से कम एक स्थान प्राप्त करने की सारी भागदौड़।
सभी बच्चों के मम्मी-पापा भी उपस्थित थे तो, उत्साह जरा ज्यादा ही था।
मैदान के छोर पर पहुँचकर बच्चे जब वापसी के लिए दौड़े तो पालकों में " और तेज...और तेज... " का तेज स्वर उठा। प्रथम तीन बच्चों ने आनंद से अपने अपने माता पिता की ओर हाथ लहराए।
चौथे और पाँचवे अधिक परेशान थे, कुछ के तो माता पिता भी नाराज दिख रहे थे।
उनके भी बाद वाले बच्चे, ईनाम तो मिलना नहीं सोचकर, दौड़ना छोड़कर चलने भी लग गए थे।
शीघ्र ही दौड़ खत्म हुई और 5 नंबर पर आई वो छोटी सी बच्ची नाराज चेहरा लिए अपने पापा की ओर दौड़ गयी।
पापा ने आगे बढ़कर अपनी बेटी को गोद में उठा लिया और बोले : " वेल डन बच्चा, वेल डन....चलो चलकर कहीं, आइसक्रीम खाते हैं। कौनसी आइसक्रीम खाएगी हमारी बिटिया रानी ? "
" लेकिन पापा, मेरा नंबर कहाँ आया ? " बच्ची ने आश्चर्य से पूछा।
" आया है बेटा, पहला नंबर आया है तुम्हारा। "
" ऐंसे कैसे पापा, मेरा तो 5 वाँ नंबर आया ना ? " बच्ची बोली।
" अरे बेटा, तुम्हारे पीछे कितने बच्चे थे ? "
थोड़ा जोड़ घटाकर वो बोली : " 45 बच्चे। "
" इसका मतलब उन 45 बच्चों से आगे तुम पहली थीं, इसीलिए तुम्हें आइसक्रीम का ईनाम। "
" और मेरे आगे आए 4 बच्चे ? " परेशान सी बच्ची बोली।
" इस बार उनसे हमारा कॉम्पिटीशन नहीं था। "
" क्यों ? "
" क्योंकि उन्होंने अधिक तैयारी की हुई थी। अब हम भी फिर से बढ़िया प्रेक्टिस करेंगे। अगली बार तुम 48 में फर्स्ट आओगी और फिर उसके बाद 50 में प्रथम रहोगी। "
" ऐंसा हो सकता है पापा ? "
" हाँ बेटा, ऐंसा ही होता है। "
" तब तो अगली बार ही खूब तेज दौड़कर पहली आ जाउँगी। " बच्ची बड़े उत्साह से बोली।
" इतनी जल्दी क्यों बेटा ? पैरों को मजबूत होने दो, और हमें खुद से आगे निकलना है, दूसरों से नहीं। "
पापा का कहा बेटी को बहुत अच्छे से तो समझा नहीं लेकिन फिर भी वो बड़े विश्वास से बोली : " जैसा आप कहें, पापा। "
" अरे अब आइसक्रीम तो बताओ ? " पापा मुस्कुराते हुए बोले।
तब एक नए आनंद से भरी, 45 बच्चों में प्रथम के आत्मविश्वास से जगमग, पापा की गोद में शान से हँसती बेटी बोली : " मुझे बटरस्कॉच आइसक्रीम चाहिए। "
*क्या अपने बच्चो के रिजल्ट के समय हम सभी माता पिता का व्यवहार कुछ ऐसा ही नही होना चाहिए ....विचार जरूर करे और सभी माता पिता तक जरुर पहुचाये*।
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[19/11, 15:20] +91 96547 93524: *कहानी बड़ी सुहानी*
(1) *कहानी*
*एक बार एक किसान परमात्मा से बड़ा नाराज हो गया। कभी बाढ़ आ जाये, कभी सूखा पड़ जाए, कभी धूप बहुत तेज हो जाए तो कभी ओले पड़ जाये। हर बार कुछ ना कुछ कारण से उसकी फसल थोड़ी ख़राब हो जाये। एक दिन बड़ा तंग आ कर उसने परमात्मा से कहा, देखिये प्रभु,आप परमात्मा हैं, लेकिन लगता है आपको खेती बाड़ी की ज्यादा जानकारी नहीं है, एक प्रार्थना है कि एक साल मुझे मौका दीजिये, जैसा मैं चाहू वैसा मौसम हो, फिर आप देखना मैं कैसे अन्न के भण्डार भर दूंगा। परमात्मा मुस्कुराये और कहा ठीक है, जैसा तुम कहोगे वैसा ही मौसम दूंगा, मैं दखल नहीं करूँगा।*
*किसान ने गेहूं की फ़सल बोई, जब धूप चाही, तब धूप मिली, जब पानी तब पानी। तेज धूप, ओले, बाढ़, आंधी तो उसने आने ही नहीं दी, समय के साथ फसल बढ़ी और किसान की ख़ुशी भी, क्योंकि ऐसी फसल तो आज तक नहीं हुई थी। किसान ने मन ही मन सोचा अब पता चलेगा परमात्मा को, की फ़सल कैसे करते हैं, बेकार ही इतने बरस हम किसानो को परेशान करते रहे।*
*फ़सल काटने का समय भी आया, किसान बड़े गर्व से फ़सल काटने गया, लेकिन जैसे ही फसल काटने लगा एकदम से छाती पर हाथ रख कर बैठ गया। गेहूं की एक भी बाली के अन्दर गेहूं नहीं था, सारी बालियाँ अन्दर से खाली थी, बड़ा दुखी होकर उसने परमात्मा से कहा, प्रभु ये क्या हुआ ?*
*तब परमात्मा बोले, ” ये तो होना ही था, तुमने पौधों को संघर्ष का ज़रा सा भी मौका नहीं दिया। ना तेज धूप में उनको तपने दिया, ना आंधी ओलों से जूझने दिया, उनको किसी प्रकार की चुनौती का अहसास जरा भी नहीं होने दिया, इसीलिए सब पौधे खोखले रह गए, जब आंधी आती है, तेज बारिश होती है ओले गिरते हैं तब पोधा अपने बल से ही खड़ा रहता है, वो अपना अस्तित्व बचाने का संघर्ष करता है और इस संघर्ष से जो बल पैदा होता है वोही उसे शक्ति देता है, उर्जा देता है, उसकी जीवटता को उभारता है। सोने को भी कुंदन बनने के लिए आग में तपने, हथौड़ी से पिटने, गलने जैसी चुनोतियो से गुजरना पड़ता है तभी उसकी स्वर्णिम आभा उभरती है, उसे अनमोल बनाती है।” उसी तरह जिंदगी में भी अगर संघर्ष ना हो, चुनौती ना हो तो आदमी खोखला ही रह जाता है, उसके अन्दर कोई गुण नहीं आ पाता। ये चुनोतियाँ ही हैं जो आदमी रूपी तलवार को धार देती हैं, उसे सशक्त और प्रखर बनाती हैं, अगर प्रतिभाशाली बनना है तो चुनोतियाँ तो स्वीकार करनी ही पड़ेंगी, अन्यथा हम खोखले ही रह जायेंगे। अगर जिंदगी में प्रखर बनना है, प्रतिभाशाली बनना है, तो संघर्ष और चुनौतियों का सामना तो करना ही पड़ेगा।*
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(2) *कहानी*
*"मा की ममता"*
*बाहर बारिश हो रही थी, और अन्दर क्लास चल रही थी.*
*तभी टीचर ने बच्चों से पूछा - अगर तुम सभी को 100-100 रुपया दिए जाए तो तुम सब क्या क्या खरीदोगे ?*
*किसी ने कहा - मैं वीडियो गेम खरीदुंगा..*
*किसी ने कहा - मैं क्रिकेट का बेट खरीदुंगा..*
*किसी ने कहा - मैं अपने लिए प्यारी सी गुड़िया खरीदुंगी..*
*तो, किसी ने कहा - मैं बहुत सी चॉकलेट्स खरीदुंगी..*
*एक बच्चा कुछ सोचने में डुबा हुआ था टीचर ने उससे पुछा - तुम क्या सोच रहे हो, तुम क्या खरीदोगे ?*
*बच्चा बोला -टीचर जी मेरी माँ को थोड़ा कम दिखाई देता है तो मैं अपनी माँ के लिए एक चश्मा खरीदूंगा !*
*टीचर ने पूछा - तुम्हारी माँ के लिए चश्मा तो तुम्हारे पापा भी खरीद सकते है तुम्हें अपने लिए कुछ नहीं खरीदना ?*
*बच्चे ने जो जवाब दिया उससे टीचर का भी गला भर आया !*
*बच्चे ने कहा --*
*मेरे पापा अब इस दुनिया में नहीं है*
*मेरी माँ लोगों के कपड़े सिलकर मुझे पढ़ाती है, और कम दिखाई देने की वजह से वो ठीक से कपड़े नहीं सिल पाती है इसीलिए मैं मेरी माँ को चश्मा देना चाहता हुँ, ताकि मैं अच्छे से पढ़ सकूँ बड़ा आदमी बन सकूँ, और माँ को सारे सुख दे सकूँ.!*
*टीचर -- बेटा तेरी सोच ही तेरी कमाई है ! ये 100 रूपये मेरे वादे के अनुसार और, ये 100 रूपये और उधार दे रहा हूँ। जब कभी कमाओ तो लौटा देना और, मेरी इच्छा है, तू इतना बड़ा आदमी बने कि तेरे सर पे हाथ फेरते वक्त मैं धन्य हो जाऊं !*
*20 वर्ष बाद..........*
*बाहर बारिश हो रही है, और अंदर क्लास चल रही है !*
*अचानक स्कूल के आगे जिला कलेक्टर की बत्ती वाली गाड़ी आकर रूकती है स्कूल स्टाफ चौकन्ना हो जाता हैं !*
*स्कूल में सन्नाटा छा जाता हैं !*
*मगर ये क्या ?*
*जिला कलेक्टर एक वृद्ध टीचर के पैरों में गिर जाते हैं, और कहते हैं -- सर मैं .... उधार के 100 रूपये लौटाने आया हूँ !*
*पूरा स्कूल स्टॉफ स्तब्ध !*
*वृद्ध टीचर झुके हुए नौजवान कलेक्टर को उठाकर भुजाओं में कस लेता है, और रो पड़ता हैं !*
*दोस्तों --*
*मशहूर होना, पर मगरूर मत बनना।*
*साधारण रहना, कमज़ोर मत बनना।*
*वक़्त बदलते देर नहीं लगती..*
*शहंशाह को फ़कीर, और फ़क़ीर को शहंशाह बनते,*
*देर नही लगती ....*
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(3) *कहानी*
*सम्यक दृष्टि*
एक राजा था, बहुत प्रभावशाली, बुद्धि और वैभव से संपन्न। आस-पास के राजा भी समय-समय पर उससे परामर्श लिया करते थे। एक दिन राजा अपनी शैया पर लेेटे-लेटे सोचने लगा, मैं कितना भाग्यशाली हूं। कितना विशाल है मेरा परिवार, कितना समृद्ध है मेरा अंत:पुर, कितनी मजबूत है मेरी सेना, कितना बड़ा है मेरा राजकोष। ओह! मेरे खजाने के सामने कुबेर के खजाने की क्या बिसात? मेरे राजनिवास की शोभा को देखकर अप्सराएं भी ईर्ष्या करती होंगी। मेरा हर वचन आदेश होता है। राजा कवि हृदय था और संस्कृृत का विद्वान था।
अपने भावों को उसने शब्दों में पिरोना शुरू किया। तीन चरण बन गए, चौथी लाइन पूरी नहीं हो रही थी। जब तक पूरा श्लोक नहीं बन जाता, तब तक कोई भी रचनाकार उसे बार-बार दोहराता है। राजा भी अपनी वे तीन लाइनें बार-बार गुनगुना रहा था -
*चेतोहरा: युवतय: स्वजनाऽनुकूला: सद्बान्धवा: प्रणयगर्भगिरश्च भृत्या: गर्जन्ति दन्तिनिवहास्विरलास्तुरंगा:* -
मेरी चित्ताकर्षक रानियां हैं, अनुकूल स्वजन वर्ग है, श्रेष्ठ कुटुंबी जन हैं। कर्मकार विनम्र और आज्ञापालक हैं, हाथी, घोड़ों के रूप में विशाल सेना है।
लेकिन बार-बार गुनगुनाने पर भी चौथा-चरण बन नहीं रहा था। संयोग की बात है कि उसी रात एक चोर राजमहल में चोरी करने के लिए आया था। मौका पाकर वह राजा के शयनकक्ष में घुस गया और पलंग के नीचे दुबक कर कर बैठ गया। चोर भी संस्कृत भाषा का विज्ञ और आशु कवि था। समस्यापूर्ति का उसे अभ्यास था। राजा द्वारा गुनगुनाए जाते श्लोक के तीन चरण चोर ने सुन लिए। राजा के दिमाग में चौथी लाइन नहीं बन रही है, यह भी वह जान गया लेकिन तीन लाइनें सुन कर उस चोर का कवि मन भी उसे पूरा करने के लिए मचलने लगा। वह भूल गया कि वह चोर है और राजा के कक्ष में चोरी करने घुसा है। अगली बार राजा ने जैसे ही वे तीन लाइनें पूरी कीं, चोर के मुंह से चौथी लाइन निकल पड़ी,
*सम्मीलने नयनयोर्नहि किंचिदस्ति॥*
राज्य, वैभव आदि सब तभी तक है, जब तक आंख खुली है। आंख बंद होने के बाद कुछ नहीं है। अत : किस पर गर्व कर रहे हो ?
चोर की इस एक पंक्ति ने राजा की आंखें खोल दीं। उसे सम्यक् दृष्टि मिल गई। वह चारों ओर विस्फारित नेत्रों से देखने लगा - ऐसी ज्ञान की बात किसने कही ? कैसे कही ?
उसने आवाज दी, पलंग के नीचे जो भी है, वह मेरे सामने उपस्थित हो। चोर सामने आ कर खड़ा हुआ। फिर हाथ जोड़ कर राजा से बोला,
हे राजन ! मैं आया तो चोरी करने था, पर आप के द्वारा पढ़ा जा रहा श्लोक सुनकर यह भूल गया कि मैं चोर हूं। मेरा काव्य प्रेम उमड़ पड़ा और मैं चौथे चरण की पूर्ति करने का दुस्साहस कर बैठा। हे राजन ! मैं अपराधी हूं। मुझे क्षमा कर दें। राजा ने कहा, तुम अपने जीवन में चाहे जो कुछ भी करते हो, इस क्षण तो तुम मेरे गुरु हो। तुमने मुझे जीवन के यथार्थ का परिचय कराया है। आंख बंद होने के बाद कुछ भी नहीं रहता - यह कह कर तुमने मेरा सत्य से साक्षात्कार करवा दिया। गुरु होने के कारण तुम मुझसे जो चाहो मांग सकते हो। चोर की समझ में कुछ नहीं आया लेकिन राजा ने आगे कहा -- आज मेरे ज्ञान की आंखें खुल गईं। इसलिए शुभस्य शीघ्रम् - इस सूक्त को आत्मसात करते हुए मैं शीघ्र ही संन्यास लेना चाहता हूं। राज्य अब तृण के समान प्रतीत हो रहा है। तुम यदि मेरा राज्य चाहो तो मैं उसे सहर्ष देने के लिए तैयार हूं।
चोर बोला, राजन ! आपको जैसे इस वाक्य से बोध पाठ मिला है, वैसे ही मेरा मन भी बदल गया है। मैं भी संन्यास स्वीकार करना चाहता हूं। राजा और चोर दोनों संन्यासी बन गए।
एक ही पंक्ति ने दोनों को स्पंदित कर दिया। यह है सम्यक द्रष्टि का परिणाम। जब तक राजा की दृष्टि सम्यक् नहीं थी, वह धन - वैभव, भोग - विलास को ही सब कुछ समझ रहा था। ज्यों ही आंखों से रंगीन चश्मा उतरा, दृष्टि सम्यक् बनी कि पदार्थ पदार्थ हो गया और आत्मा-आत्मा..!!
*नित याद करो मन से शिव परमात्मा को*
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(4) *कहानी*
एक जंगल के निकट एक महात्मा रहते थे। वे बड़े अतिथि- भक्त थे। नित्यप्रति जो भी पथिक उनकी कुटिया के सामने से गुजरता था, उसे रोककर भोजन दिया करते थे और आदरपूर्वक उसकी सेवा किया करते थे।
एक दिन किसी पथिक की प्रतीक्षा करते-करते उन्हें शाम हो गई, पर कोई राही न निकला। उस दिन नियम टूट जाने की आशंका में, वे बड़े व्याकुल हो रहे थे कि उन्होंने देखा, एक सौ साल का बूढ़ा, थका-हारा चला आ रहा है। महात्मा जी ने उसे रोककर हाथ-पैर धुलाए और भोजन परोसा। बूढ़ा बिना भगवान का भोग लगाए और बिना धन्यवाद दिए, तत्काल भोजन पर जुट गया। यह सब देख महात्मा को आश्चर्य हुआ और बूड़े से इस बात की शंका की। बूढ़े ने कहा- "मैं न तो अग्नि को छोड़कर किसी ईश्वर को मानता हूँ, न किसी देवता को।"
महात्मा जी उसकतापूर्ण बात सुनकर बड़े क्रुद्ध हुए और उसके सामने से भोजन का थाल खींच लिया तथा बिना यह सोचे कि रात में वह इस जंगल में कहाँ जाएगा, कुटी से बाहर कर दिया। बूढ़ा अपनी लकड़ी टेकता हुआ एक ओर चला गया। रात में महात्मा जी को स्वप्न हुआ, भगवान कह रहे थे- "साधु उस बूढ़े के साथ किए तुम्हारे व्यवहार ने अतिथि सत्कार का सारा पुण्य क्षीण कर दिया।"
महात्मा ने कहा- "प्रभु! उसे तो मैंने इसलिए निकाला कि उसने आपका अपमान किया था।" प्रभु बोले- "ठीक है, वह मेरा नित्य अपमान करता है तो भी मैंने उसे सौ साल तक सहा, किंतु तुम एक दिन भी न सह सके।" भगवान अंतर्धान हो गए और महात्मा जी की भी आँखें खुल गई।
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(5) *कहानी*
*"हमसे आगे हम"*
टीचर ने सीटी बजाई और स्कूल के मैदान पर 50 छोटे छोटे बालक-बालिकाएँ दौड़ पड़े।
सबका एक लक्ष्य। मैदान के छोर पर पहुँचकर पुनः वापस लौट आना।
प्रथम तीन को पुरस्कार। इन तीन में से कम से कम एक स्थान प्राप्त करने की सारी भागदौड़।
सभी बच्चों के मम्मी-पापा भी उपस्थित थे तो, उत्साह जरा ज्यादा ही था।
मैदान के छोर पर पहुँचकर बच्चे जब वापसी के लिए दौड़े तो पालकों में " और तेज...और तेज... " का तेज स्वर उठा। प्रथम तीन बच्चों ने आनंद से अपने अपने माता पिता की ओर हाथ लहराए।
चौथे और पाँचवे अधिक परेशान थे, कुछ के तो माता पिता भी नाराज दिख रहे थे।
उनके भी बाद वाले बच्चे, ईनाम तो मिलना नहीं सोचकर, दौड़ना छोड़कर चलने भी लग गए थे।
शीघ्र ही दौड़ खत्म हुई और 5 नंबर पर आई वो छोटी सी बच्ची नाराज चेहरा लिए अपने पापा की ओर दौड़ गयी।
पापा ने आगे बढ़कर अपनी बेटी को गोद में उठा लिया और बोले : " वेल डन बच्चा, वेल डन....चलो चलकर कहीं, आइसक्रीम खाते हैं। कौनसी आइसक्रीम खाएगी हमारी बिटिया रानी ? "
" लेकिन पापा, मेरा नंबर कहाँ आया ? " बच्ची ने आश्चर्य से पूछा।
" आया है बेटा, पहला नंबर आया है तुम्हारा। "
" ऐंसे कैसे पापा, मेरा तो 5 वाँ नंबर आया ना ? " बच्ची बोली।
" अरे बेटा, तुम्हारे पीछे कितने बच्चे थे ? "
थोड़ा जोड़ घटाकर वो बोली : " 45 बच्चे। "
" इसका मतलब उन 45 बच्चों से आगे तुम पहली थीं, इसीलिए तुम्हें आइसक्रीम का ईनाम। "
" और मेरे आगे आए 4 बच्चे ? " परेशान सी बच्ची बोली।
" इस बार उनसे हमारा कॉम्पिटीशन नहीं था। "
" क्यों ? "
" क्योंकि उन्होंने अधिक तैयारी की हुई थी। अब हम भी फिर से बढ़िया प्रेक्टिस करेंगे। अगली बार तुम 48 में फर्स्ट आओगी और फिर उसके बाद 50 में प्रथम रहोगी। "
" ऐंसा हो सकता है पापा ? "
" हाँ बेटा, ऐंसा ही होता है। "
" तब तो अगली बार ही खूब तेज दौड़कर पहली आ जाउँगी। " बच्ची बड़े उत्साह से बोली।
" इतनी जल्दी क्यों बेटा ? पैरों को मजबूत होने दो, और हमें खुद से आगे निकलना है, दूसरों से नहीं। "
पापा का कहा बेटी को बहुत अच्छे से तो समझा नहीं लेकिन फिर भी वो बड़े विश्वास से बोली : " जैसा आप कहें, पापा। "
" अरे अब आइसक्रीम तो बताओ ? " पापा मुस्कुराते हुए बोले।
तब एक नए आनंद से भरी, 45 बच्चों में प्रथम के आत्मविश्वास से जगमग, पापा की गोद में शान से हँसती बेटी बोली : " मुझे बटरस्कॉच आइसक्रीम चाहिए। "
*क्या अपने बच्चो के रिजल्ट के समय हम सभी माता पिता का व्यवहार कुछ ऐसा ही नही होना चाहिए ....विचार जरूर करे और सभी माता पिता तक जरुर पहुचाये*।
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[21/11, 13:41] +91 96547 93524: *कहानी बड़ी सुहानी*
(1) *कहानी*
*पुण्य का फल देखना चाहता हूं*
एक सेठ बस से उतरे, उनके पास कुछ सामान था।आस-पास नजर दौडाई, तो उन्हें एक मजदूर दिखाई दिया।
सेठ ने आवाज देकर उसे बुलाकर कहा- "अमुक स्थान तक इस सामान को ले जाने के कितने पैसे लोगे?'
'आपकी मर्जी, जो देना हो, दे देना, लेकिन मेरी शर्त है कि जब मैं सामान लेकर चलूँ, तो रास्ते में या तो मेरी सुनना या आप सुनाना ।
सेठ ने डाँट कर उसे भगा दिया और किसी अन्य मजदूर को देखने लगे, लेकिन आज वैसा ही हुआ जैसे राम वन गमन के समय गंगा के किनारे केवल केवट की ही नाव थी।
मजबूरी में सेठ ने उसी मजदूर को बुलाया । मजदूर दौड़कर आया और बोला - "मेरी शर्त आपको मंजूर है?"
सेठ ने स्वार्थ के कारण हाँ कर दी।
सेठ का मकान लगभग 500मीटर की दूरी पर था । मजदूर सामान उठा कर सेठ के साथ चल दिया और बोला, सेठजी आप कुछ सुनाओगे या मैं सुनाऊँ। सेठ ने कह दिया कि तू ही सुना।
मजदूर ने खुश होकर कहा- 'जो कुछ मैं बोलू, उसे ध्यान से सुनना , यह कहते हुए मजदूर पूरे रास्ते बोलता गया । और दोनों मकान तक पहुँच गये।
मजदूर ने बरामदे में सामान रख दिया , सेठ ने जो पैसे दिये, ले लिये और सेठ से बोला! सेठजी मेरी बात आपने ध्यान से सुनी या नहीं ।
सेठ ने कहा, मैने तेरी बात नहीं सुनी, मुझे तो अपना काम निकालना था।
मजदूर बोला-" सेठजी! आपने जीवन की बहुत बड़ी गलती कर दी, कल ठीक सात बजे आपकी मौत होने वाली है"।
सेठ को गुस्सा आया और बोले: तेरी बकवास बहुत सुन ली, जा रहा है या तेरी पिटाई करूँ:
मजदूर बोला: मारो या छोड दो, कल शाम को आपकी मौत होनी है, अब भी मेरी बात ध्यान से सुन लो ।
अब सेठ थोड़ा गम्भीर हुआ और बोला: सभी को मरना है, अगर मेरी मौत कल शाम होनी है तो होगी , इसमें मैं क्या कर सकता हूं । मजदूर बोला: तभी तो कह रहा हूं कि अब भी मेरी बात ध्यान से सुन लो। सेठ बोला: सुना, ध्यान देकर सुनूंगा ।
मरने के बाद आप ऊपर जाओगे तो आपसे यह पूछा जायेगा कि "हे मनुष्य ! पहले पाप का हफल भोगेगा या पुण्य का "क्योंकि मनुष्य अपने जीवन में पाप-पुण्य दोनों ही करता है, तो आप कह देना कि पाप का फल भुगतने को तैयार हूं लेकिन पुण्य का फल आँखों से देखना चाहता हूं ।
इतना कहकर
मजदूर चला गया । दूसरे दिन ठीक सात बजे सेठ की मौत हो गयी। सेठ ऊपर पहुँचा तो यमराज ने मजदूर द्वारा बताया गया प्रश्न कर दिया कि 'पहले पाप का फल भोगना चाहता है कि पुण्य का' । सेठ ने कहा 'पाप का फल भुगतने को तैयार हूं लेकिन जो भी जीवन में मैंने पुण्य किया हो, उसका फल आंखों से देखना चाहता हूं।
यमराज बोले-" हमारे यहाँ ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है, यहाँ तो दोनों के फल भुगतवाए जाते हैं।"
सेठ ने कहा कि फिर मुझसे पूछा क्यों, और पूछा है तो उसे पूरा करो, धरती पर तो अन्याय होते देखा है, पर यहाँ पर भी अन्याय है।
यमराज ने सोचा, बात तो यह सही कह रहा है, इससे पूछकर बड़े बुरे फंसे, मेरे पास कोई ऐसी पावर ही नहीं है, जिससे इस जीव की इच्छा पूरी हो जाय, विवश होकर यमराज उस सेठ को ब्रह्मा जी के पास ले गये , और पूरी बात बता दी
ब्रह्मा जी ने अपनी पोथी निकालकर सारे पन्ने पलट डाले, लेकिन उनको कानून की कोई ऐसी धारा या उपधारा नहीं मिली, जिससे जीव की इच्छा पूरी हो सके।
ब्रह्मा भी विवश होकर यमराज और सेठ को साथ लेकर भगवान के पास पहुचे और समस्या बतायी । भगवान ने यमराज और ब्रह्मा से कहा: जाइये , अपना -अपना काम देखिये , दोनों चले गये।
भगवान ने सेठ से कहा- "अब बोलो, तुम क्या कहना चाहते हो?
सेठ बोला- "अजी साहब, मैं तो शुरू से एक ही बात कह रहा हूं कि पाप का फल भुगतने को तैयार हूं लेकिन पुण्य का फल आँखों से देखना चाहता हूं ।
भगवान बोले- "धन्य है वो सदगुरू(मजदूर) जो तेरे अंतिम समय में भी तेरा कल्याण कर गया , अरे मूर्ख ! उसके बताये उपाय के कारण तू मेरे सामने खडा है, अपनी आँखों से इससे और बड़ा पुण्य का फल क्या देखना चाहता है। मेरे दर्शन से तेरे सभी पाप भस्मीभूत हो गये।
इसीलिए बचपन से हमको सिखाया जाता है कि, गुरूजनों की बात ध्यान से सुननी चाहिए , पता नहीं कौन सी बात जीवन में कब काम आ जाए?
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(2) *कहानी*
*"हमसे आगे हम"*
टीचर ने सीटी बजाई और स्कूल के मैदान पर 50 छोटे छोटे बालक-बालिकाएँ दौड़ पड़े।
सबका एक लक्ष्य। मैदान के छोर पर पहुँचकर पुनः वापस लौट आना।
प्रथम तीन को पुरस्कार। इन तीन में से कम से कम एक स्थान प्राप्त करने की सारी भागदौड़।
सभी बच्चों के मम्मी-पापा भी उपस्थित थे तो, उत्साह जरा ज्यादा ही था।
मैदान के छोर पर पहुँचकर बच्चे जब वापसी के लिए दौड़े तो पालकों में " और तेज...और तेज... " का तेज स्वर उठा। प्रथम तीन बच्चों ने आनंद से अपने अपने माता पिता की ओर हाथ लहराए।
चौथे और पाँचवे अधिक परेशान थे, कुछ के तो माता पिता भी नाराज दिख रहे थे।
उनके भी बाद वाले बच्चे, ईनाम तो मिलना नहीं सोचकर, दौड़ना छोड़कर चलने भी लग गए थे।
शीघ्र ही दौड़ खत्म हुई और 5 नंबर पर आई वो छोटी सी बच्ची नाराज चेहरा लिए अपने पापा की ओर दौड़ गयी।
पापा ने आगे बढ़कर अपनी बेटी को गोद में उठा लिया और बोले : " वेल डन बच्चा, वेल डन....चलो चलकर कहीं, आइसक्रीम खाते हैं। कौनसी आइसक्रीम खाएगी हमारी बिटिया रानी ? "
" लेकिन पापा, मेरा नंबर कहाँ आया ? " बच्ची ने आश्चर्य से पूछा।
" आया है बेटा, पहला नंबर आया है तुम्हारा। "
" ऐंसे कैसे पापा, मेरा तो 5 वाँ नंबर आया ना ? " बच्ची बोली।
" अरे बेटा, तुम्हारे पीछे कितने बच्चे थे ? "
थोड़ा जोड़ घटाकर वो बोली : " 45 बच्चे। "
" इसका मतलब उन 45 बच्चों से आगे तुम पहली थीं, इसीलिए तुम्हें आइसक्रीम का ईनाम। "
" और मेरे आगे आए 4 बच्चे ? " परेशान सी बच्ची बोली।
" इस बार उनसे हमारा कॉम्पिटीशन नहीं था। "
" क्यों ? "
" क्योंकि उन्होंने अधिक तैयारी की हुई थी। अब हम भी फिर से बढ़िया प्रेक्टिस करेंगे। अगली बार तुम 48 में फर्स्ट आओगी और फिर उसके बाद 50 में प्रथम रहोगी। "
" ऐंसा हो सकता है पापा ? "
" हाँ बेटा, ऐंसा ही होता है। "
" तब तो अगली बार ही खूब तेज दौड़कर पहली आ जाउँगी। " बच्ची बड़े उत्साह से बोली।
" इतनी जल्दी क्यों बेटा ? पैरों को मजबूत होने दो, और हमें खुद से आगे निकलना है, दूसरों से नहीं। "
पापा का कहा बेटी को बहुत अच्छे से तो समझा नहीं लेकिन फिर भी वो बड़े विश्वास से बोली : " जैसा आप कहें, पापा। "
" अरे अब आइसक्रीम तो बताओ ? " पापा मुस्कुराते हुए बोले।
तब एक नए आनंद से भरी, 45 बच्चों में प्रथम के आत्मविश्वास से जगमग, पापा की गोद में शान से हँसती बेटी बोली : " मुझे बटरस्कॉच आइसक्रीम चाहिए। " क्या अपने बच्चो के रिजल्ट के समय हम सभी माता पिता का व्यवहार कुछ ऐसा ही नही होना चाहिए ....विचार जरूर करे और सभी माता पिता तक जरुर पहुचाये।
और जिंदगी की परीक्षा में ? अपनी उपलब्धियों से हम कभी संतुष्ट होते हैं ? विचार करें , इसी कहानी के परिपेक्ष्य में अपने जीवन को भी देखें।
थोड़ा ज्यादा या थोड़ा काम ! क्या वाकई बहुत फर्क पड़ता है इससे ? 🙏
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(3) *एक बार जरूर पढ़े*
🕉️ प्रकृति अपने नियम से कभी नहीं चूकती। अगर पौधे को आप पानी देते हैं तो वह स्वत: हरा भरा रहेगा और यदि आपने उसकी उपेक्षा शुरू की तो उसे मुरझाने में भी वक्त नहीं लगने वाला है।
🕉️जिन लोगों ने इस दुनिया को स्वर्ग कहा उनके लिए यही प्रकृति उनके अच्छे कार्यों से स्वर्ग वन गई और जिन लोगों ने गलत काम किये उनके लिए यही प्रकृति, यही दुनिया नरक बन गई।
🕉️यहाँ खुशबू उनके लिए स्वत: मिल जाती है जो लोग फूलों की खेती किया करते हैं और यहाँ मीठे फल उन्हें स्वत: मिल जाते हैं जो लोग पेड़ लगाने भर का परिश्रम कर पाते हैं।
🕉️अत: यहाँ चाहने मात्र से कुछ नहीं प्राप्त होता जो भी और जितना भी आपको प्राप्त होता है वह निश्चित ही आपके परिश्रम का और आपके सदकार्यों का पुरुस्कार होता है।
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(4) *चिंतन*
*कर्मों की फलती-फूलती खेती*
👉 मनुष्य जीवन एक खेत है, जिसमें कर्म बोए जाते हैं और उन्हीं के अच्छे बुरे फल काटे जाते हैं। *जो "अच्छे" कर्म करता है वह "अच्छे" फल पाता है "बुरे" कर्म करने वाला "बुराई" समेटता है ।* कहावत है-- *"आम बोएगा, वह आम खाएगा, बबूल बोएगा वह काँटे पाएगा ।* बबूल बोकर जिस तरह आम प्राप्त करना प्रकृति का सत्य नहीं, *उसी प्रकार "बुराई" के बीज बोकर "भलाई" पा लेने की कल्पना भी नहीं की जा सकती ।*
👉 मनुष्य जीवन में भी इस सत्य के अतिरिक्त और कुछ नहीं है । *"भलाई" का फल सुख, शांति और प्रगति के अतिरिक्त और कुछ नहीं हो सकता, वैसे ही "बुराई" का प्रतिफल बुराई न हो- ऐसा आज तक न कभी हुआ और न आगे होगा ।* इतिहास इसका साक्षी है ।
👉 कार्य कभी कारण रहित नहीं होते और उसी तरह कोई भी क्रिया परिणामरहित नहीं होती । *"स्थूल" और "सूक्ष्म" दोनों दृष्टि से सृष्टि का यह मौलिक नियम है कि "भाग्य" कभी अपने आप नहीं बनते वरन् वह "व्यक्ति के कर्मों की कलम से लिखे जाते हैं ।"* अच्छा या बुरा भाग्य सदैव अपने ही कर्म का फल होता है ।
👉व्यक्ति हो, समाज या राष्ट्र हो- वह बुराई से पनपा, यह एक भ्रम है । जीवन हर क्षण का लेखा-जोखा रखता है । *धोखे की सफलताएँ अंततः पतन और अपयश का ही कारण बनती हैं । अंत तक साथ देने वाली सफलता "भलाई" की है । उसी से मनुष्य का यह लोक और परलोक सुधरता है । "कर्मफल तो अकाट्य है ।"*
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(5) *कहानी*
*शक्ति का संचय भी अनिवार्य*
👉 *आपके जीवन में कोई "दु:ख" है, तो समझिए कि आपके साथ कोई "निर्बलता" अवश्य बँधी हुई है ।* शरीर की कमजोरी से रोग घेरते, मानसिक कमजोरी से चिंताएँ सताती हैं । *अपनी बौद्धिक क्षमताएँ दुर्बल पड़ी हों, तो यह निश्चित है कि आप पराधीनता के पाश में जकड़े होंगे ।* अपनी उन्नति के लिए किसी और की गाँठ टटोल रहे होंगे । *"सांस्कृतिक", "सामाजिक" और "राष्ट्रीय" दृष्टि से जो जातियाँ संगठित नहीं होती, उन्हें ही बाहरी आक्रमण सताते हैं ।* कैसी भी हो दुर्बलताएँ ही नारकीय यंत्रणाओं का कारण होती हैं । *इसीलिए "निर्बलता" पाप है ।* पापी व्यक्ति की तरह निर्बल को भी पृथ्वी पर सुख से जीने का अधिकार प्रकृति नहीं देती है ।
👉 *ऐश्वर्य की संसार में कोई कमी नहीं, संपदाएँ और विभूतियाँ पग-पग पर बिछी पड़ी हैं ।* सुखोपभोग के साधनों के लिए भटकना नहीं पड़ता । *शर्त इतनी ही है कि आपके पास उन्हें प्राप्त करने और उपभोग करने का बल और शक्ति भी है अथवा नहीं ।* यदि आप निर्बल हैं तो आपके पास की रही सही संपत्ति और विभूतियाँ भी छिनने ही वाली है । इसीलिए *"श्रुति"* कहती है *"बलमुपास्व"* अर्थात *"बल" की उपासना करो ।* शक्ति के अभाव में ही पाप पनपते हैं *इसलिए यदि आप शक्तिशाली नहीं हैं तो कितने ही ईश्वर भक्त क्यों न हों, पाप की वृद्धि के आप भी भागीदार हैं ।*
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