इह विधि ठाड़ो होय के,
प्रथम पढ़े जो पाठ ।
धन्य जिनेश्वर देव तुम,
नाशे कर्म जु आठ॥ १ ॥
भावार्थ - इह विधि अर्थात् पूजन के लिए खड़े होने की जो विधि आगम में वर्णित है, उस विधि से विनय पूर्वक खड़े होकर जिनेन्द्र भगवान के प्रति विनय प्रकट करने के लिये सर्व प्रथम विनय पाठ पढ़ता हूँ । हे जिनेन्द्र भगवन् ! आप आठ कर्मों का नाश कर धन्य हो गये हैं।
अनन्त चतुष्टय के धनी,
तुम ही हो सिरताज ।
मुक्ति-वधू के कन्त तुम,
तीन भुवन के राज ॥ २ ॥
भावार्थ - हे भगवन् ! आप अनन्तसुख, अनन्तदर्शन, अनन्तज्ञान और अनन्त वीर्य रूप अनन्त चतुष्टय के स्वामी हैं। तीनों लोकों में सर्व श्रेष्ठ हैं, मोक्ष रूपी वधू के स्वामी (पति) एवं तीनों लोकों के राजा हैं।
तिहुँ जग की पीड़ा-हरन,
भव- दधि शोषण-हार ।
ज्ञायक हो तुम विश्व के,
शिव-सुख के करतार ॥ ३ ॥
भावार्थ - हे जिनेन्द्र भगवन् आप तीनों लोकों के जीवों के दुःखों को नष्ट करने वाले हैं, संसार रूपी समुद्र को सुखा देने वाले हैं, विश्व को जानने वाले और मोक्ष सुख के करने वाले हैं।
हरता अघ अँधियार के,
करता धर्म-प्रकाश ।
थिरता पद दातार हो,
धरता निज-गुण रास ॥४॥
भावार्थ - हे नाथ आप पापों के अंधकार को नाश करने वाले हैं, धर्म रूपी प्रकाश के करने वाले हैं, स्थिर - पद अर्थात् मोक्ष - पद (सिद्धपद) के देने
वाले और आप अपने ही आत्मा में व्याप्त अनंत गुणों की राशि के स्वामी हैं।
धर्मामृत उर जलधि सों
ज्ञान - भानु तुम रूप ।
तुमरे चरण-सरोज को,
नावत तिहुँजग भूप ॥५॥
भावार्थ- हे भगवन्! आपका हृदय धर्म रूपी अमृत से भरे बादलों के समान है, आपका स्वरूप ज्ञान के सूर्य के समान हैं, आपके चरण रूपी कमलों में तीनों लोकों के राजा नमन करते हैं ।
मैं वंदौं जिनदेव को,
कर अति निर्मल भाव ।
कर्म-बंध के छेदने,
और न कछू उपाव ॥६॥
भावार्थ- हे जिनेन्द्र भगवन्! मैं आपकी अत्यन्त निर्मल भावों से वन्दना करता हूँ क्योंकि कर्मों के बन्ध को नष्ट करने के लिए आप ही समर्थ हैं। आपकी पूजा वन्दना के अलावा कर्मबन्ध नष्ट करने का और कोई दूसरा उपाय नहीं है।
भवि-जन को भव - कूप तैं,
तुमही काढ़न-हार । -
दीन-दयाल अनाथ-पति,
आतम-गुण- भंडार ॥ ७ ॥
भावार्थ - हे जिनेन्द्र भगवन्! भव्य जीवों को भव रूपी कुए से निकालने में आप ही समर्थ हैं (या आप ही निकलने वाले हो) दीन-गरीबों पर दया करने वाले हैं, अनाथों के नाथ हैं, और आप अपने स्वाभाविक आत्म गुणों के भण्डार हैं।
चिदानंद निर्मल कियो,
धोय कर्म-रज- मैल | ।
सरल करी या जगत् में
भवि-जन को शिव-गैल ॥ ८ ॥
भावार्थ - हे भगवन्! आपने अशुद्ध आत्मा के साथ लगी कर्म रूपी धूल को धोकर निर्मल आत्म द्रव्य बनाकर, अनंतसुख प्राप्त कर, संसार में भव्य जीवों के लिए मोक्ष का मार्ग सरल व सुगम कर दिया है ।
तुम पद - पंकज पूज-तैं,
विघ्न- रोग टर जाय |
शत्रु मित्रता को धरैं,
विष निरविषता थाय ॥९॥
भावार्थ- हे जिनेन्द्र देव! आपके चरण-रूपी कमलों की पूजा से सभी विघ्न एवं सभी रोग नष्ट हो जाते हैं, शत्रु भी मित्रता धारण कर लेते हैं, और विष भी निर्विष हो जाता है।
चक्री खग-धर इंद्रपद,
मिलै आप - तैं आप।
अनुक्रम- कर शिवपद लहैं,
नेम सकल हनि पाप ॥ १० ॥
भावार्थ- हे जिनेन्द्र ! आपकी पूजा से चक्रवर्ती, विद्याधर और इन्द्र का पद अपने आप प्राप्त हो जाता है। नियम से सभी पाप नष्ट हो जाते हैं और परम्परा से (क्रम-क्रम से) मोक्षपद भी प्राप्त हो जाता है ।
- तुम बिन मैं व्याकुल भयो,
जैसे जल-बिन मीन ।
जन्म-जरा मेरी हरो,
करो मोहि स्वाधीन ॥ ११ ॥
भावार्थ - हे जिनेन्द्र भगवन्! मैं आपके बिना अत्यन्त दुःखी हुआ हूँ, यह ठीक वैसे ही जैसे पानी के बिना मछली दुःखी होती है। मेरे जन्म, जरा और मृत्यु रूपी रोग को नाश कर मुझे आत्मिक सुख प्रदान कर स्वाधीन बनाने की कृपा करें।
पतित बहुत पावन किये,
गिनती कौन करेव ।
अंजनसे तारे प्रभू,
जय जय जय जिनदेव ॥ १२ ॥
भावार्थ - हे जिनेन्द्र भगवन्! आपने बहुत से पापियों को पवित्र किया है, जिनकी गिनती कोई नहीं कर सकता। अंजन चोर के समान अज्ञानी को भी आपने पार लगा दिया, हे जिनेन्द्र भगवन् ! आपकी जय हो, जय हो, जय हो ।
थकी नाव भव - दधि विषै,
तुम प्रभु पार करेव ।
खेवटिया तुम हो प्रभु,
जय जय जय जिनदेव ॥ १३ ॥
भावार्थ - हे जिनेन्द्र भगवन् ! संसार रूपी समुद्र में मेरी नाव भटकतेभटकते थक गई है, अब आप ही पार कीजिए क्योंकि आप ही उत्तम खेवटिया हैं । हे जिनेन्द्र भगवन! आपकी जय हो, जय हो, जय हो ।
राग-सहित जग में रुल्यो,
मिले सरागी देव ।
वीतराग भेट्यो अबै,
मेटो राग कुटेव ॥१४॥
भावार्थ- हे जिनेन्द्र भगवन् ! आज तक मैं संसार में राग-सहित होकर रोताविलखता फिर रहा हूँ। अभी तक मुझे सभी सरागी देव ही मिले, अब मुझे आप जैसे वीतरागी देव मिले हैं अर्थात् वीतरागी देव से भेंट हुई है। हे भगवन् ! आप मेरे भीतर पड़ी राग की बुरी हठ का समूल नाश कीजिए।
कित निगोद कित नारकी,
कित तिर्यंच अजान ।
आज धन्य मानुष भयो,
पायो जिनवर थान ॥ १५ ॥
भावार्थ- हे जिनेन्द्र भगवन् ! मैंने कितनी पर्याय निगोद की, कितनी पर्याय नारकी की कितनी पर्याय तिर्यंच की अज्ञानावस्था में व्यतीत की, आज यह मनुष्य पर्याय धन्य हो गई, क्योंकि मैंने जिनेन्द्र भगवान की शरण प्राप्तकर ली है।
तुम को पूजैं सुर-पति,
अहि- पति नर-पति देव ।
धन्य भाग्य मेरो भयो,
करन लग्यो तुम सेव ॥ १६ ॥
भावार्थ- हे जिनेन्द्र भगवन् ! आपकी पूजा इन्द्र, नागेन्द्र, चक्रवर्ती आदि करते हैं और उसी प्रकार आपकी सेवा पूजा करने से मेरा भाग्य भी धन्य हो गया है ।
अशरण के तुम शरण हो,
निराधार आधार ।
मैं डूबत भव- सिंधु में,
खेउ लगाओ पार ॥१७॥
भावार्थ- हे जिनेन्द्र देव ! आप अशरण को शरण देने वाले हैं। जिनके जीवन का कोई आधार नहीं है, उन्हें आधार देने वाले है । हे भगवन् ! मैं भव-रूपी समुद्र में डूब रहा हूँ। आप मेरी नाव खेकर (चलाकर) पार लगा दीजिए।
इन्द्रादिक गण-पति थके,
कर विनती भगवान् ।
अपनो विरद निहारि कैं,
कीजै आप- समान ॥१८ ॥
भावार्थ - हे जिनेन्द्र भगवन् ! आपकी स्तुति, विनती करते-करते गणधर, और इन्द्र आदि भी थक गये हैं, तब मैं कैसे आपकी विनती कर सकता हूँ आप अपने यश को देखकर मुझे अपने समान बना लीजिए।
तुमरी नेक सु-दृष्टि तैं,
जग उतरत है पार |
हा हा डूबो जात हों,
नेक निहार निकार ॥१९॥
भावार्थ- हे नाथ! आपकी एक अच्छी दृष्टि से ही जीव संसार समुद्र पार हो जाता है। हाय, हाय मैं संसार समुद्र में डूब रहा हूँ, एक बार सुदृष्टि से निहार कर (देखकर) मुझे निकाल लीजिए।
जो मैं कह हूँ और सों,
तो न मिटै उर - भार ।
मेरी तो तो - सों, बनी,
तातैं करहुँ पुकार ॥ २० ॥
भावार्थ- हे भगवन्! यदि मैं अपने अन्तर्मन की वेदना किसी और से कहूँ तो वह वेदना मिटने वाली नहीं है, मेरी बिगड़ी तो आप ही बना सकते हैं अतः मैं आप से ही अपने दुःखों को मिटाने की पुकार कर रहा हूँ ।
वंदों पाँचों परम गुरु,
सुर- गुरु वंदत जास ।
विघन - हरन मंगल करन,
पूरन परम- प्रकाश ॥ २१ ॥
भावार्थ - गणधर भी जिनकी वंदना करते हैं उन पाँचों परमेष्ठी (पंच परमगुरु) की वंदना करता हूँ। आप पूर्ण उत्कृष्ठ आत्मज्योति (ज्ञान ज्योति) से प्रकाशित हैं, आप विघ्नों का नाश करने वाले, और मंगल के करने वाले हैं।
चौबीसों जिनपद नमों,
नमों शारदा - माय ।
शिवमग साधक साधु नमि,
रच्यो पाठ सुखदाय ॥ २२ ॥
भावार्थ- चौबीसों तीर्थंकरों को नमन करता हैं, जिनवाणी माता को नमन करता हूँ और मोक्षमार्ग की साधना करने वाले सर्व साधु को नमन कर सुख को देने वाले इस पाठ की रचना की है। -
मंगल मूर्ति परम पद,
पंच धरों नित ध्यान |
हरो अमंगल विश्व का,
मंगल-मय भगवान ॥ २३ ॥
भावार्थ - परमपद को धारण करने वाले पंच परमेष्ठी मंगल स्वरूप हैं ( मंगल की मूर्ति हैं) मैं इनका सदा ध्यान करता हूँ । हे मंगलमय भगवान् ! आप संसार के सभी अमंगलों का नाश कर दीजिए ।
मंगल जिनवर पद नमों,
मंगल अर्हत देव ।
मंगलकारी सिद्ध पद,
सो वन्दों स्वयमेव ॥ २४ ॥
भावार्थ - हे जिनेन्द्र भगवन् ! आपके मंगलकारी चरणों को नमन करता हूँ। अर्हन्त भगवान् मंगलकारी हैं, सिद्ध भगवान (सिद्धपद) मंगलकारी हैं अत: मैं इनकी अपने मंगल के लिए वन्दना करता हूँ ।
मंगल आचार्य मुनि,
मंगल गुरु उवझाय |
सर्व साधु मंगल करो,
वन्दों मन-वच-काय ॥ २५ ॥
भावार्थ-दिगम्बर आचार्य मंगल स्वरूप हैं, उपाध्याय गुरु मंगल स्वरूप है एवं सभी साधु मंगल के करने वाले हैं, मै इनकी मन-वचन-काय से वन्दना करता हूँ ।
मंगल सरस्वती मात का,
मंगल जिनवर धर्म ।
मंगल मय मंगल करो,
हरो असाता कर्म ॥ २६ ॥
भावार्थ- जिनवाणी माता मंगल स्वरूप हैं, जिनेन्द्र भगवान् के द्वारा कहा गया धर्म मंगलकारी है । हे मंगलमय जिनेन्द्र भगवन् ! मेरे असाता कर्म का क्षय करके मुझे मंगलमय कीजिए।
या विधि मंगल से सदा,
जग में मंगल होत ।
मंगल नाथूराम यह,
भव सागर दृढ़ पोत ॥२७॥
भावार्थ - इस प्रकार मंगल करने से संसार में मंगल होता है। श्री नाथूराम जी कवि कहते हैं कि यह मंगल पाठ विनय पाठ भव रूपी समुद्र को पार करने के लिए मजबूत नाव के समान है