दयासिन्धु कुन्थु जिनराज, भवसिन्धु तिरने को जहाज ।

कामदेव… चक्री महाराज, दया करो हम पर भी आज ।

जय श्री कुन्युनाथ गुणखान, परम यशस्वी महिमावान ।

हस्तिनापुर नगरी के भूपति, शूरसेन कुरुवंशी अधिपति ।

महारानी थी श्रीमति उनकी, वर्षा होती थी रतनन की ।

प्रतिपदा बैसाख उजियारी, जन्मे तीर्थकर बलधारी ।

गहन भक्ति अपने उर धारे, हस्तिनापुर आए सुर सारे ।

इन्द्र प्रभु को गोद में लेकर, गए सुमेरु हर्षित होकर ।

न्हवन करें निर्मल जल लेकर, ताण्डव नृत्य करे भक्वि- भर 1

कुन्थुनाथ नाम शुभ देकर, इन्द्र करें स्तवन मनोहर ।

दिव्य-वस्त्र- भूषण पहनाए, वापिस हस्तिनापुर को आए ।

कम-क्रम से बढे बालेन्दु सम, यौवन शोभा धारे हितकार ।

धनु पैंतालीस उन्नत प्रभु- तन, उत्तम शोभा धारें अनुपम ।

आयु पिंचानवे वर्ष हजार, लक्षण ‘अज’ धारे हितकार ।

राज्याभिषेक हुआ विधिपूर्वक, शासन करें सुनीति पूर्वक ।

चक्ररत्तन शुभ प्राप्त हुआ जब, चक्रवर्ती कहलाए प्रभु तब ।

एक दिन गए प्रभु उपवन मेँ, शान्त मुनि इक देखे मग में ।

इंगिन किया तभी अंगुलिसे, “देखो मुनिको’ -कहा मंत्री से ।

मंत्री ने पूछा जब कारण, “किया मोक्षहित मुनिपद धारण’ ।

कारण करें और स्पष्ट, “मुनिपद से ही कर्म हों नष्ट’ ।

मंत्रो का तो हुआ बहाना, किया वस्तुतः निज कल्याणा ।

चिन विरक्त हुआ विषयों से, तत्व चिन्तन करते भावों से ।

निज सुत को सौंपा सब राज, गए सहेतुक वन जिनराज ।

पंचमुष्टि से कैशलौंचकर, धार लिया पद नगन दिगम्बर ।

तीन दिन बाद गए गजपुर को, धर्ममित्र पड़गाहें प्रभु को ।

मौन रहे सोलह वर्षों तक, सहे शीत-वर्षा और आतप ।

स्थिर हुए तिलक तरु- जल में, मगन हुए निज ध्यान अटल में ।

आतम ने बढ़ गई विशुद्धि, कैवलज्ञान की हो गई सिद्धि ।

सूर्यप्रभा सम सोहें आप्त, दिग्मण्डल शोभा हुई व्याप्त ।

समोशरण रचना सुखकार, ज्ञाननृपित बैठे नर- नार ।

विषय-भोग महा विषमय है, मन को कर देते तन्मय हैं ।

विष से मरते एक जनम में, भोग विषाक्त मरें भव- भव में ।

क्षण भंगुर मानब का जीवन, विद्युतवन विनसे अगले क्षण ।

सान्ध्य ललिमा के सदृश्य ही, यौवन हो जाता अदृश्य ही ।

जब तक आतम बुद्धि नही हो, तब तक दरश विशुद्धि नहीं हौं ।

पहले विजित करो पंचेन्द्रिय, आत्तमबल से बनो जितेन्द्रिय ।

भव्य भारती प्रभु की सुनकर, श्रावकजन आनन्दित को कर ।

श्रद्धा से व्रत धारण करते, शुभ भावों का अर्जन करते ।

शुभायु एक मास रही जब, शैल सम्मेद पे वास किया तब ।

धारा प्रतिमा रोग वहॉ पर, काटा क्रर्मबन्ध्र सब प्रभुवर ।

मोक्षकल्याणक करते सुरगण, कूट ज्ञानधर करते पूजन ।

चक्री… कामदेव… तीर्थंकर, कुंन्धुनाथ थे परम हितंकर ।

चालीसा जो पढे भाव से, स्वयंसिद्ध हों निज स्वभाव से ।

धर्म चक्र के लिए प्रभु ने, चक्र सुदर्शन तज डाला ।

इसी भावना ने अरुणा को, किया ज्ञान में मतवाला ।

जाप: – ॐ ह्रीं अर्हं श्री कुन्थनाथाय नमः