श्री शांतिनाथ जिनपूजा
(मत्तगयन्द छन्द-शब्दाडम्बर तथा जमकालंकार)
या भव कानन में चतुरानन, पाप पनापन घध्ेरि हमेरी।?
आतम जान न मान न ठानन, बान न होई दई सठ मेरी।।
ता मद भानन आपहि हो, यह छान न आन न आनने टेरी।
आन गही शरणागत को, अब श्रीपतजी पत राखहु मेरी।।
ओं ह्रीं श्रीशांतिनाथजिनेन्द्र! अत्रावतार अवतर संवौषट् आह्नाननम्।
ओं ह्रीं श्रीशांतिनाथजिनेन्द्र! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनम्।
ओं ह्रीं श्रीशांतिनाथजिनेन्द्र! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधिकरणम्।
अष्टक
(छन्द त्रिभंगी-अनुप्रायसक, मात्रा 32 जगनवर्जित)
हिमगिरिगत गंगा, धार अभंगा, प्रासुक संगा, भरि भंृगा।
जर जन्म मृतंगा, नाशि अघंगा, पूजि पदंगा, मृदुहिंगा।।
श्रीशांति जिनेशं, नुत चक्रेशं, वृष चक्रेशं चक्रेशं।
हनि अरि चक्रेशं, हे गुनधेशं, दया मृतेशं मक्रेशं।।
ओं ह्रीं श्रीशांतिनाथजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशयनाय जलं नि. स्वाहा।
वर बावन चंदन, कदली नंदन, घन आनंदन सहित घसों।
भवताप निकंदन, ऐरानंदन, वंदि अमंदन, चरन बसों।। श्री शांति.
ओं ह्रीं श्रीशांतिनाथजिनेन्द्राय भवतापविनाशनाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा।
हिमकर करि लज्जत, मलय सुसज्जत, अच्छत जज्जत भरि थारी।
दुख दारिद गज्जत, सद पद सज्जत, भव भय भज्जत अतिभारी।।
श्री शांति.
ओं ह्रीं श्रीशांतिनाथजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा।
मंदार सरोजं, कदली जोजं, पुंज भरोजं, मलय भरं।
भरि कंचन थारी, तुम ढिग धारी, मदन विदारी धीर धरं।। श्री शांति.
ओं ह्रीं श्रीशांतिनाथजिनेन्द्राय कामबाणविनाशनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
पकवान नवीने, पावन कीने, षटरस भीने सुखदाई।
मन मोदन हारे, क्षुधा विदारे, आगैं धारे, गुन गाई।। श्री शांति.
ओं ह्रीं श्रीशांतिनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तुम ज्ञान प्रकाशे, भ्रम तम नाशे, ज्ञेय विकाशे सुख रासे।
दीपक उजियारा, यातें धारा, मोह निवारा, निज भासे।। श्री शांति.
ओं ह्रीं श्रीशांतिनाथजिनेन्द्राय मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
चन्दन करपूरं, करि वर चूरं, पावक भूरं, माहि जुरं।
तसु धूम उड़ावैं, नाचत आवै, अलि गुंजावै, मधुर सुरं।। श्रीशांति.
ओं ह्रीं श्रीशांतिनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
बादाम खजूरं, दाड़िम पूरं, निंबुक भरूं, लै आयो।
तासौं पद जज्जों शिवफल सज्जों, निजरस रज्जों, उमगायो।। श्रीशांति.
ओं ह्रीं श्रीशांतिनाथजिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
वसु द्रव्य संवारी, तुम ढिग धारी, आनन्द कारी दुगप्यारी।
तुम हो भवतारी, करुना धारी, यातैं थारी शरनारी।। श्रीशांति.
ओं ह्रीं श्रीशांतिनाथजिनेन्द्राय अनघ्र्यपदप्राप्तये अघ्र्य निर्वपामीति स्वाहा।
पंचकल्याणक
(सुन्दरी तथा दु्रतविलम्बित छन्द)
असित सातय भादव जानिये, गरभ मंगल ता दिन मानिये।
सचि कियो जननी पद चर्चनं, हम करैं इत ये पद अर्चनं।।
ओं ह्रीं भाद्रपदकृष्णासप्तम्यां गर्भमंगलमंडिताय श्रीशांतिनाथ-जिनेन्द्राय अघ्र्य निर्वपामीति स्वाहा।
जनम जेठ चतुर्दशि श्याम है, सकल इन्द्र सु आगत धाम है।
गजपुरै गज साजि सबै तबै, गिरि जजै इत मैं जजि हो अबै।।
ओं ह्रीं ज्येष्ठकृष्णाचतुर्दश्यां जन्ममंगलमंडिताय श्रीशांतिनाथ-जिनेन्द्राय अघ्र्य निर्वपामीति स्वाहा।
भव शरीर सुभोग असार है, इमि विचार तबै तप धार हैं।
भ्रमर चैदशि जेठ सुहावनी, धरम हेत जजों गुन पावनी।।
ओं ह्रीं ज्येश्ठकृष्णाचतुर्दश्यां निःक्रमणमहोत्सवमंडिताय श्रीशांतिनाथजिनेन्द्राय अघ्र्य निर्वपामीति स्वाहा।
शुकल पौष दशैं सुख रास है, परम केवलज्ञान प्रकाश है।
भव समुद्र उधारन देव की, हम करैं नित मंगल सेव की।।
ओं ह्रीं पौषशुक्लादशम्यां केवलज्ञानमंगलमंडिताय श्रीशांतिनाथ-जिनेन्द्राय अघ्र्य निर्वपामीति स्वाहा।
असित चैदसि जेठ हनें अरि, गिरि समेदधकी शिव-तियवरी।
सकल इन्द्र जजैं तित आइकैं, हम जजैं इत मस्तक नाइकैं।।
ओं ह्रीं ज्येष्ठकृष्णाचतुर्दश्यां मोक्षमंगलमंडिताय श्रीशांतिनाथ-जिनेन्द्राय अघ्र्य निर्वपामीति स्वाहा।
जाप मंत्र (पुष्प से 9, 27 या 108 बार निम्न दो मंत्रों में से किसी एक मंत्र का जाप करें)
1. ओं ह्रीं सरस्वती, लक्ष्मी, सर्वाण्हयक्ष, सनत्कुमारयक्ष, अष्टप्रातिहार्य, अष्टमंगलद्रव्य, गरुड़यक्ष, महामानसीयक्षी, पंचदशतिथिदेवता, नवग्रहदेवता, पंचक्षेत्रपालादि सचित्ताचित्तमिश्र परिकरसहिताय शतेन्द्र पूजिताय श्रीशान्तिनाथजिनेन्द्राय नमः मम ऋद्धिं वृद्धिं सौख्यं कुरु कुरु स्वाहा।
2. ओं ह्रीं गरुड़यक्ष, महामानसीयक्षी आदि सचित्त अचित्त मिश्र परिकरसहिताय श्रीशान्तिनाथजिनेन्द्राय नमः मम ऋद्धिं वृद्धिं सौख्यं कुरु कुरु स्वाहा।
जयमाला
(छन्द रथोद्धता, चंद्रवत्स तथा चंद्रवत्र्म-वर्ण 11-लाटानुप्रास)
शांति शांति गुन मंडिते सदा, जाहि ध्यावते सुपंडिते सदा।
मैं तिन्हें भगति मंडिते सदा, पूजिहों कलुष हंडिते सदा।।
मोक्ष हेत तुम ही दयाल हो, हे जिनेश गुन रत्नमाल हो।
मैं अबै सुगुनदास ही धरों, ध्यावतें तुरित मुक्ति तिय वरों।।
(छन्द पद्धरी, 16 मात्रा)
जय शंातिनाथ चिद्रूपराज, भवसागर में अद्भुत जहाज।
तुम तजि सरवारथ सिद्ध थान, वरवारथ जुत गजपुर महान।।
तित जन्म लियो आनन्द धार, हरि तत छिन आयो राजद्वार।
इन्द्रानी जाय प्रसूत थान, तुमको कर में लै हरर्ष मान।।
हरि गोद देय सो मोद धार, सिर चमर अमर ढारत अपार।
गिरिराज जाय तित शिला पांडु, तापै थाप्यौ अभिशेक मांड।।
तित पंचम उदधि तनों सु वार, सुर कर कर करि ल्याये उदार।
तब इन्द्र सहस कर करि आनन्द, तुम सिर धारा ढार्यो सुनन्द।।
अघ घघ घघ घघ धुनि होत घोर, भभ भभभभ धध धध कलश शोर।
दृम दृम दृम दृम बाजत मृदंग, झन नन नन नन नन नूपुरंग।।
तन नन नन नन नन तनन तान, घन नन नन घंटा करत ध्वान।
ताथेई थेइ थेइ थेइ थेई सुचाल, जुत नाचत नावत तुमहिं भाल।।
चट चट चट अटपट नटत नाट, झट झट झट हट नट शट विराट।
इमि नाचत रावत भगत रंग, सुर लेत जहां आनन्द संग।।
इत्यादि अतुल मंगल सुठाठ, तित बन्यो जहां सुरगिरि विराट।
पुनि करि नियोग पितु सदन आय, हरि सौप्यों तम तित वृद्धथाय।।
पुनि राजमांहि लहि चक्ररत्न, भोग्यो छखण्ड करि धरम जत्न।
पुनि तप धरि केवल रिद्धि पाय, भवि जीवन को शिवमग बताय।।
शिवपुर पहुँचे तुम हे जिनेश! गुनमंडित अतुल अनन्त भेष।
मैं ध्यावतु हों नित शीश न्याय, हमारी भवबाधा हरि जिनाय।।
सेवक अपनो निज जान जान, करुन करि भौ भय भान भान।
यह विघन मूल तरु खंड खंड, चित चिंतित आनन्द मंड मंड।।
घत्ता
श्रीशांति महंता, शिव तिय कंता, सुगुन अनंता, भगवन्त।
भव भ्रमर हनंता, सौख्य अनंता, दातारं तारन वन्ता।।
ओं ह्रीं श्री शान्तिनाथजिनेन्द्राय महाघ्र्य निर्वपामीति स्वाहा।
छन्द रूपक सवैया
शान्तिनाथ जिन के पद पंकज, जो भवि पूजैं मन वच काय।
जनम जनम के पातक ताके, ततछिन तजिकैं जाय पलाय।।
मनवांछित सुख पावे सो नर, बांचे भगति भाव अति लाय।
तातैं ‘वृन्दावन’ नित वन्दैं, जातैं शिवपुर राज कराय।।
।। इत्याशीर्वाद:- शांतये त्रय शांतिधारा - परिपुष्पांलिं क्षिपेत्।
गरुड़यक्ष का अर्घ
शंातिप्रभु के शासन रक्षक, श्री गरुड़ आह्नानन है।
आओ तिष्ठो पास हमारे, करते यही निवेदन है।।
स्वीकारों स्वीकारों मेरा अर्घ देव तुम स्वीकारो।
जिनवर के मुझ श्रद्धानी को ले अपने संग में तारो।।
ओं आं क्रौं ह्रीं गरुड़ध्वज देवतेभ्यो जलादि अघ्र्य समर्पयामीति स्वाहा।
महामानसी यक्षी का अर्घ
शांतिप्रभु की महामानसी यक्षी को आह्नानन है।
स्वीकारों स्वीकारों मेरा अर्घ देव तुम स्वीकारो।
जिनवर के मुझ श्रद्धानी को ले अपने संग में तारो।।
ओं आं क्रौं ह्रीं महामानसी अघ्र्य समर्पयामीति स्वाहा।
क्षेत्रपालजी का अर्घ
शांतिप्रभु के क्षेत्रपालजी सुनो सुनो आह्नानन है।
स्वीकारों स्वीकारों मेरा अर्घ देव तुम स्वीकारो।
स्वीकारों स्वीकारों मेरा अर्घ देव तुम स्वीकारो।
जिनवर के मुझ श्रद्धानी को ले अपने संग में तारो।।
ओं आं क्रौं ह्रीं अत्रस्थ पùप्रभु जिनस्य क्षेत्रपाल, भूमिपाल आदि सचित्त अचित्त मिश्र देवतेभ्यो जलादि अघ्र्य समर्पयामीति स्वाहा।
।। इति।